दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता। मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव।।
दैवी संपदा मुक्ति के लिए और आसुरी संपदा बाँधने के लिए मानी गई है। इसलिए हे अर्जुन! तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुआ है।
—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १६, श्लोक ५
प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। श्रीकृष्ण का क्या तात्पर्य है? हम इसे आज के युग में कैसे समझें? सब संतों इत्यादि को कैसे समझें? अनुकंपा करें बताने की।
आचार्य प्रशांत: आदमी अर्जित तो करेगा ही, क्योंकि आदमी कर्म तो करेगा ही। तुम कर्म करो और कर्म का फल ना मिले तुम्हें, ऐसा तो हो नहीं सकता। हर कर्म अपने साथ कुछ फल तो लेकर आएगा-ही-आएगा; कारण-कार्य की बात है, भाई।
हर काम का कुछ नतीजा तो निकलेगा ही न? और आदमी के लिए काम करना बहुत ज़रूरी है क्योंकि आदमी बेचैन है। तो इधर-उधर चलेगा, हाथ-पाँव हिलाएगा, दिमाग चलाएगा, कुछ खोज करेगा, कुछ खोदेगा, कहीं चढ़ेगा। कुछ-न-कुछ तो आदमी करता ही है।
हर जीव दिन भर कुछ-न-कुछ कर ही रहा है। कर रहा है न? जब कर रहा है तो करने के फलस्वरूप वो कर्मफल भी अर्जित कर रहा है। उसी कर्मफल को श्रीकृष्ण यहाँ पर ‘सम्पदा’ नाम से संबोधित कर रहे हैं। वो कह रहे हैं, 'सम्पदा'। हर आदमी के पास सम्पदा है। हर आदमी के पास सम्पदा क्यों है? क्योंकि हर आदमी ने कर्म करे हुए हैं। कर्म करे हैं तो सम्पदा मिली है।
वो कह रहे हैं, “लेकिन सम्पदा दो तरह की होती है, क्योंकि कर्म दो तरह के होते है, क्योंकि कर्ता दो तरह के होते हैं।” कह रहे हैं, “एक सम्पदा वो होती है जो तुम्हें बाँध देती है, वो आसुरी सम्पदा है, और एक सम्पदा वो होती है जो तुम्हें आज़ादी दे देती है, वो दैवी सम्पदा है।”
ये दोनों ही तरह की संपदाएँ हम सबके पास हैं, प्रश्न ये उठता है, ज़्यादा कौन सी है?
अधिकाँश लोगों के पास, जैसा कि स्पष्ट है, आसुरी सम्पदा ही ज़्यादा है। आसुरी सम्पदा वो जो तुम्हारे काम आने की जगह तुम्हारी गर्दन पर चढ़कर बैठ जाए। पहले कर्म करा था, अब भुगत। पहले कर्म करा था न? अब भुगत।
है चीज़ तुम्हारी पर वो चीज़ ऐसी है कि तुम्हारे काम नहीं आ रही, बल्कि तुम्हारा खून चूस रही है। खूब रख-रखाव माँगती है। और मोह हो गया है तुम्हें उससे तो उसे त्याग भी नहीं सकते। वो तुम्हारे जीवन में, तुम्हारी जेब में, तुम्हारे घर में मौजूद भी है, हटेगी भी नहीं और मौजूद रहकर तुम्हें जीने भी नहीं देगी; ये आसुरी सम्पदा है।
हमारी अधिकाँश सम्पदा आसुरी ही है इसीलिए सब धर्मों ने त्याग पर ज़ोर दिया है। तो त्याग का मतलब समझ गए क्या? जब निन्यानवे प्रतिशत हमारी सम्पदा आसुरी है तो त्याग दो न उसको। क्यों ऐसी चीज़ पकड़कर बैठे हुए हो जो ख़त्म कर रही है तुम्हें, खाए जा रही है? इसलिए त्याग की बात की गई है। दैवी सम्पदा को त्यागने की बात नहीं करी गई है।
लोगों को लगता है कि धर्म का मतलब है सब कमाया हुआ छोड़-छाड़ दो। सब कमाया हुआ नहीं छोड़ देना है, कमाए हुए का वो हिस्सा छोड़ देना है जिसको अगर तुम रखोगे तो बर्बाद हो जाओगे। उसको छोड़ दो, त्याग दो। वो दुश्मन है तुम्हारा, दुश्मन को और क्या करोगे? छाती से चिपटाए रखोगे, या छोड़ दोगे? इसलिए कहा है, “सम्पदा को त्यागो।”
और सम्पदा सिर्फ़ भौतिक नहीं होती कि रुपया-पैसा, हम रुपया-पैसा तो फिर भी एक बार को छोड़ दें, हमारी जो मूल सम्पदा है, वो मानसिक है। हमारी मूल सम्पदा है अहम् भाव, हमारी पहचान, हमारी मान्यताएँ। वो हमारी मूल संपदा हैं। रुपया-पैसा भी है सम्पदा, पर वो पीछे की सम्पदा है। पहली सम्पदा है वो जो हम खोपड़े में लेकर चलते हैं, वो आसुरी सम्पदा है अधिकांशतः। छोड़ना होता है।
दैवी सम्पदा क्या है? जितने भी गुण तुम्हें मुक्ति की ओर ले जाते हैं, वो सब दैवी संपदा हैं। निष्कामता दैवी सम्पदा है, आर्जव दैवी सम्पदा है, क्षमा दैवी सम्पदा है, निर्दोषता, निष्कपटता दैवी सम्पदा है, निर्वैर दैवी सम्पदा है, अपरिग्रहता दैवी सम्पदा है, शान्तिप्रियता दैवी सम्पदा है। ये तुमको आज़ादी देंगी संपदाएँ।
कबीर साहब बोले, “कबीरा सो धन संचिए, जो आगे को होय।”
वो दैवी सम्पदा की बात कर रहे हैं। वो तुम्हें आगे को ले जाएँगी। और ज़्यादातर लोगों की कमाई कैसी होती है? जो उन्हें डुबो देती है, कि जैसे कोई नदी पार करना चाह रहा हो और उसकी छाती पर बंधा हुआ हो उसके ही पुराने कर्मफलों का संदूक। पुराने कर्म हैं, उनके सबके फल उसकी छाती से बंधे हुए हैं। और पार करनी है उसको नदी, भवसागर, और डूब गया वो अपने ही कर्मों के फलों के बोझ तले। अधिकाँश हमारे कर्मफल ऐसे होते हैं।
राहत की बात ये है कि कर्मफल का त्याग संभव है। कैसे? वो कर्ता ना रहकर जो भोगने में उत्सुक था। आप कर्मफल अपने पास क्यों रखते हो? भोगने के लिए। चूँकि आप भोगने में उत्सुक हो, इसीलिए कर्म का फल आपके पास आ जाता है। आपने मँगाया था, भाई। आप बहुत ठसक के साथ कहते हो, "मैंने कर्म किया था, मुझे उसका फल देना ज़रा। मैंने मेहनत से कर्म किया था, मुझे उसका फल चाहिए।" क्या करते हो उस फल का? भोगते हो। भोगने की उत्सुकता है, इसीलिए फल आ जाता है तुम्हारे पास।
जिस क्षण तुम्हारी भोगने में रुचि खत्म हो जाती है, तुम्हारे पास फल आता ही नहीं। लो, कर्मफल से मुक्त हो गए।
इसका मतलब ये नहीं है कि घटिया कर्म करो और जब उसकी सज़ा आए तो कह दो, "हमारी भोगने में रुचि नहीं है। तो हम मुक्त हो गए सज़ा से।" ना! वो जो कह रहा है कि "मेरी अब भोगने में रुचि नहीं है", उसे सज़ा और मज़ा, फिर दोनों से विमुख होना पड़ेगा। अगर अभी मज़ा लेने में रुचि है तो फिर सज़ा लेने में भी आपको रुचि रखनी पड़ेगी।
कर्मफल हम अधिकांशतः इसीलिए मँगाते हैं न कि हमें लगता है कि उसमें से मज़ा मिलेगा। पर जब आता है तो पता चलता है, ये मज़ा नहीं, सज़ा है। जब सज़ा दिखाई पड़ती है तब तो हम कहेंगे ही कि "नहीं-नहीं, हमें नहीं चाहिए। हमारी भोगने में रुचि नहीं है।" नहीं, भैया! जब तक तुम्हें सब कर्मफल सज़ा जैसे न लगने लग जाएँ, तब तक तुम्हें सज़ा भुगतनी पड़ेगी।
तो फिर दैवी सम्पदा कौन सी हुई?
वो गुण जो तुममें विवेक उत्पन्न करता है और तुम्हें दिखाता है कि ये जो हमारा खेल है पूरा, कि "ये कर दूँ तो ये मिल जाएगा। यहाँ पर चाल चल दूँ, बाज़ी मार लूँ तो आगे ऐसा मज़ा आ जाएगा।" ये सब जब अर्थहीन लगने लगे, मूर्खता लगने लगे, तो समझना कि दैवी गुण की सम्पदा विकसित हुई भीतर।
दैवी गुण वो है जो आसुरी गुणों की व्यर्थता को दिखा दे।
प्र२: आचार्य जी, मैं बचपन से अपने माता-पिता के साथ अपने समाज के संतों के पास जाता रहा हूँ। वहाँ जो ज्ञान मुझे प्राप्त हुआ, वो ज्ञान आपकी वीडियो देखने के बाद मुझे झूठा लग रहा है। लेकिन मेरे मन में साथ-ही-साथ आत्मग्लानि भी आ रही है। मुझे लगता है, कहीं मैं संतों की निन्दा तो नहीं कर रहा। क्योंकि कहा जाता है कि संतों की निन्दा करना पाप है। इसी कारण मेरी ज़िन्दगी में आत्मग्लानि आ रही है। कृपया मार्गदर्शन करें।
आचार्य: निन्दा का अर्थ होता है अपने को बचाने के लिए दूसरे को झूठा ठहराना। दूसरे को झूठा ठहराना इसलिए नहीं कि वो झूठा है, बल्कि इसलिए क्योंकि वो तुम्हारे विपरीत है। दूसरे को बुरा कहना इसलिए नहीं कि वो बुरा है, बल्कि इसलिए क्योंकि वो तुम्हारे ख़िलाफ़ है। इसको कहते हैं निन्दा। तो निन्दा का जो केंद्र होता है, निन्दा का जो स्रोत होता है, वो होता है आत्मरक्षा। अपने-आपको बचाना है इसलिए जो भी दिखाई दिया जो अपने जैसा नहीं है, उसको तत्काल कह दिया, झूठा है, या बुरा है या कुछ और। ये निन्दा है।
संतों की निन्दा महापाप कही गई है क्योंकि संत के पास तुम ख़ुद को बचाने जाते ही नहीं, तुम तो वहाँ जाते ही इसलिए हो क्योंकि तुम बदलना चाहते हो। तुम अपने होने से, अपनी हस्ती से दुखी हो, इसलिए तुम गए हो संत के पास। तुम संत के पास अपनी हस्ती से दुखी होकर गए हो क्योंकि तुम्हें पता है कि संत तुम्हारे जैसा बिलकुल नहीं है। संत तुम्हारे ही जैसा होता तो उसके पास क्यों जाते? ठीक?
तुम जैसे हो, संत उससे बिलकुल भी अलग है। तभी तो उसके पास गए हो कि उससे कुछ लाभ हो पाएगा। अब अगर तुम निन्दा पर उतारू हो गए तो तुम सबसे पहले तो यही देखोगे कि “अरे, ये मेरे जैसा नहीं है तो यही बुरा है, क्योंकि मैं ठीक हूँ न।”
निंदा हमेशा किस वक्तव्य से शुरू करती है? "मैं तो सही हूँ। मैं चूँकि सही हूँ, इसीलिए जो कोई भी मेरे ख़िलाफ़ है, वो ग़लत है।" अब संत तो कतई आपके जैसा नहीं होगा। तो निंदक के लिए तो संत सदा निन्दा का विषय होगा-ही-होगा, क्योंकि वो आपके जैसा बिलकुल भी नहीं होगा। अब करिए उसकी घोर निंदा। जितनी आप उसकी निदा करेंगे, उतना आपको सज़ा ये मिलेगी कि आप वैसे ही रह जाएँगे जैसे आप हैं, क्योंकि निन्दा क्या कह रही है? “मैं ठीक हूँ।”
तो ठीक हो तो ठीक रहो। जब तुम ख़ुद ही आमादा हो यही प्रमाणित करने पर कि तुम ठीक हो, तो ‘तथास्तु’। जैसे हो, अब बिलकुल वैसे ही रहो। और इससे बड़ी सज़ा हो नहीं सकती कि जैसे हो, वैसे ही रहो। तुम ख़ुद ही अपने होने से परेशान हो बहुत ज़्यादा, तुम ऊबे हुए हो अपने-आप से।
इससे बड़ी सज़ा क्या मिलेगी कि कोई तुमसे कह दे कि अब बिलकुल वैसे ही रहोगे जैसे तुम हो? इसलिए संत की निन्दा को महापाप कहा गया है। सज़ा मिलती है। सज़ा क्या है? तुम जैसे हो, वैसे ही रह जाते हो।
एक दूसरी चीज़ होती है – समझना। और समझने के लिए जानना होता है, देखना होता है। उस देखने को कहते हैं आलोचन। लोचन माने आँखें। आलोचना बिलकुल दूसरी चीज़ है, निंदा से उसका कोई संबंध नहीं है। आलोचना का मतलब है कि 'मैं समझना चाहता हूँ, इसलिए सवाल-जवाब कर रहा हूँ। मुझे दिखाई ही नहीं पड़ रहा कि आप क्या कह रहे हैं, इसलिए मैं थोड़ा आपसे उलझूँगा। उलझूँगा तभी तो आप मुझे बता पाएँगे कि आपकी बात वास्तव के क्या है।' ये आलोचना है।
निंदा शुरू करती है यह कहकर कि “मैं सही हूँ।” आलोचना शुरू करती है यह कहकर कि “मैं देखना चाहता हूँ।” इन दोनों में बहुत अंतर है, ये बात समझ में आ रही है? निंदा कहती है, “मैंने देख लिया और मुझे पता है कि मैं सही हूँ।” आलोचना कहती है, “देखना है, भाई। मैं जो कुछ भी कह रहा हूँ, वो देखने की, दर्शन की कोशिश है मेरी।”
आलोचना करिए, आलोचना बहुत ज़रूरी है। बिना आलोचना के कुछ समझ ही नहीं पाएँगे। निंदा मूर्खता है। निंदा ऐसी है जैसे ऑपरेशन के टेबल (मेज़) पर कोई मरीज़ लेटा हुआ है, चिकित्सक उसका पेट अब खोलने ही जा रहा है थोड़ी देर में, और वो लेट करके सर्जन (शल्य चिकित्सक) को गाली दिए जा रहा है, कह रहा है, “इससे बड़ा बेवकूफ़ कोई है? अरे, इसकी डिग्री फ़र्ज़ी है। इससे अच्छा इलाज तो मैं कर दूँ।” ये मूर्खता है कि नहीं?
तुम्हें वो इतना ही फ़र्ज़ी लग रहा है तो उससे पेट क्यों खुलवा रहे हो अपना? भगो, कहीं और जाओ। पर तुम भलीभाँति जानते हो कि और कहीं तुम्हारा बसर होगा नहीं, तो यहाँ आए हो। आए भी वहीं हो, पेट भी वही खोल रहा है तुम्हारा, और गरिया भी उसी को रहे हो। निंदा मूर्खता है। कहीं तुम्हारे गरियाने से उस सर्जन के हाथ थोड़े ही काँप गए या अनेस्थेशिया उसने तुम्हें थोड़ा ज़्यादा ही दे दिया कि बीच में जग गया तो फिर गरियाएगा। तो तुम्हारा क्या होगा?
निंदा अपना ही खेल ख़राब करती है और आलोचना एक ईमानदार कोशिश है जानने और समझने की। आलोचना बेशक करिए।