बंधन चाहने से बंधन मिलता है और मुक्ति चाहने से भी बंधन ही मिलता है || आचार्य प्रशांत (2016)

Acharya Prashant

27 min
172 reads
बंधन चाहने से बंधन मिलता है और मुक्ति चाहने से भी बंधन ही मिलता है || आचार्य प्रशांत (2016)

वक्ता: प्रश्न है कि अपनी मज़बूरी को हम कभी स्वीकारना क्यों नहीं चाहते? अपना छोटा होना बर्दाश्त क्यों नहीं होता?

पहले तो कहते हो कि मज़बूरी है फिर कहते हो कि उसे स्वीकारना क्यों नहीं चाहते। पहले तो कहते हो कि छोटे हो फिर कहते हो कि छोटा होना बर्दाश्त क्यों नहीं होता। बर्दाश्त न कर रहे होते, तो छोटा होने का भाव कहाँ से आता? मज़बूरी को पाला नहीं होता, स्वीकारा नहीं होता तो ‘मज़बूरी है’ ऐसा कैसे कह पाते?

मज़बूरी न अनिवार्य है, न स्वभाव है। क्षुद्रता न अनिवार्य है, न स्वभाव है। ये तो तुम्हारे बुलाए आती हैं, तुम्हारी इच्छा के रहते रहती हैं। अब तुम कहो कि तुम मज़बूरीवश मजबूर हो, तो ये तुम्हारा भ्रम नहीं है; ये धोखाधड़ी है। तुम कहो कि तुम परिस्थितिवश, दुर्घटनावश असहाय हो, छोटे हो, तो इसमें न तुम्हारी ग्लानि है, न विवशता, इसमें सीधे-सीधे धूर्तता है बस। क्यों झूठ बोलते हो?

जो है नहीं, उसको लादे फिरते हो फिर कहते हो “बड़ा बोझ है, बड़ी यातना है।” जिसको लिए फिरने का न कोई औचित्य है, न कर्तव्य, न धर्म उसको अंगीकार करे हो, उसको लपेटे लपेटे-लपेटे, समेटे-समेटे फिरते हो। किसने विवशता दी है तुम्हें? किसी ने भी नहीं, तुम्हारी अपनी श्रद्धाहीनता है। कह सकते हो कि डरते हो, पर डर और कहाँ से आता है? बीच का बना रहना चाहते हो, न इस छोर को हाँ बोलते हो, न उस छोर को हाँ बोलते हो। ये छोर सत्य का है, वो छोर माया का। उस छोर को तुम कभी पूरी तरह हाँ बोल नहीं सकते क्योंकि हाँ बोल भी दोगे तो वो हाँ झूठी होगी, निभा नहीं पाओगे हाँ को। कौन है जो अपने स्वभाव के विपरीत हाँ बोल कर के उस हाँ पर कायम रह पाए?

कह भी दोगे कि मूर्ख हो, तो मूर्खता ओढ़ थोड़ी सकते हो। कह भी दोगे कि असंवेदनशील हो, तो भी ह्रदय के स्पंदन को शांत थोड़ी कर सकते हो। कह भी दोगे कि प्रेम से कोई वास्ता नहीं, तो भी प्रेम तरंगायित तो कर क्या लोगे? मृत्यु को हाँ बोलकर भी जीवन से पिंड कैसे छुड़ा लोगे? जीवित तो हो, सौ बार मृत्यु को हाँ बोलो जीवन की कोपलें तो फूट रही हैं। तो उस पार को हाँ बोलने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। ऐसा नहीं कि हाँ तुमने बोला नहीं, तुमने तो सौ बार उधर हाँ बोला है, जितनी बार हाँ बोला है, उतनी बार पाया है कि तुम्हारी हाँ की कोई हैसियत नहीं। तुम्हारा बस चलता, तो तुमने कब का उधर से समझौता कर लिया, तुम्हारा बस चलता तो तुमने सत्य को कब की पीठ दिखा दी होती। तुम्हारा बस चलता तो तुम कब के अँधेरे में समा गए होते। तुमने अपनी तरफ़ से तो कोई कसर छोड़ी नहीं। रोज़ उधर ही जाकर हाँ बोलते हो, अपने आप को बेच आते हो, लेकिन फिर भी कुछ है तुम्हारे भीतर, जो तुम्हें उधर का होने नहीं देता।

उधर के तुम हो नहीं सकते, इधर का होने में तुम्हें डर लगता है। बीच में लटके हुए हो, एक टांग उस तरफ़, एक टांग इस तरफ़। उधर के हो नहीं सकते, वो तुम्हारे स्वभाव के अनुकूल नहीं, कितना भी चाह लो वहाँ निभा नहीं पाओगे। जिससे तुम्हें प्रेम नहीं, उसके घर कितने दिन रह पाओगे? उधर का हो नहीं सकते और इधर आने में तुम्हारा मन कांपता है, तो हालत क्या होगी तुम्हारी? एक टांग उस तरफ़, एक टांग इस तरफ। फ़टा मन फ़टा जीवन, फ़टा तन फ़टी पतलून। किधर के तो हो जाओ।

मैं तुम्हें पहला हक उधर का होने का देता हूँ, जाओ जितनी जान लगा सकते हो लगाओ, पहले वहीं के हो लो, आज़ाद किया जाओ। वो तुम्हारा देश हैं, तो वहीं बसो जाओ। कितनी बार तो तुम को छोड़ा है, सत्य कभी किसी को पकड़ता है क्या? वो तो परम मुक्ति है, वो तो छोड़े ही रहता है, कहता है “जा, जहाँ जाना है जाओ।” अब तुम जा भी नहीं पाते। ‘जैसे उड़ जहाज को पंछी फिर जहाज पर आवे,‘ छोड़ तो दिया है, पूर्ण स्वतंत्रता है जाते क्यों नहीं? क्यों नहीं मुक्ति को भुला देते? पूरी तरह से बंधन आसक्त हो जाओ, हो जाओ पूर्णत: जड़, क्यों नहीं अचेतन हो जाते? क्यों? जाओ, कर लो पूरी कोशिश भागने की, उधर निभाने की, वहीं का हो जाने की, तुम वो भी तो नहीं करते न। तुम अपनेआप को ये बहाना शेष रखना चाहते हो कि “अभी हमने उधर बसने की पूरी कोशिश नहीं की, अभी हमने वो देश पूरा देखा नहीं, क्या पता उस देश में हमें कोई ठिकाना मिल ही जाए। इसीलिए मैं तो सब को यही सलाह देता हूँ। मैं कहता हूँ: जाओ उस देश में जितने ठिकाने खोजने हैं, खोज लो, और जब आश्वस्त हो जाना कि वहाँ तुम्हारा कुछ नहीं, तब यहाँ पूरी तरह आ पाओगे। तुम अपनेआप को वो आश्वस्ति भी होने कहाँ देते हो, तुम उधर पूरा जाते नहीं हो।

तुम्हें अच्छे से पता है उधर पूरा गए, तो उधर से निराश होना पड़ेगा, उधर पूरा गए तो वहाँ के तथ्य सामने आ जाएंगे, उधर पूरा गए तो वहाँ के भ्रम, वहाँ का रूखापन, वहाँ की हैवानियत प्रकट हो जाएगी। पूरा जाते भी नहीं, चले ही जाओ, कर दो घोषित मजबूर हूँ, कर दो घोषित कि, “छोटा क्या, क्षुद्र अति क्षुद्र हूँ, हूँ ही नहीं, अनस्तित्व है, हस्ती ही नहीं है मेरी।“ चले जाओ, इतना ही क्यों बोलते हो छोटे हो, कह दो, ‘’हूँ ही नहीं,’’ जाओ। वो भी कर नहीं पोअगे, अच्छा बहाना बना रखा है, बढ़िया व्यापार चलाते हो “न उधर के रहेंगे, न इधर के रहेंगे।‘’ पर झूठ बोल रहे हो, उधर के तुम हो ही नहीं सकते, तुम सिर्फ़ ये कह रहे हो कि इधर के नहीं होंगे। उधर है ही क्या? भ्रम का क्या अर्थ?

जो न हो , उसे भ्रम कहते हैं।

तो वो जो दूसरा है, जिसे तुम विकल्प की तरह प्रयोग कर रहे हो, वैसा कोई विकल्प है ही नहीं, वो तो भ्रम है। जो भ्रम है, वो तो है ही नहीं। तो तुम किसका आसरा लिए बैठे हो? किस देश में बसने के ख्वाब ले रहे हो, उस देश में, जो है ही नहीं; जो मिथ्या है, जो प्रपंच है, जो स्वप्न मात्र है? मिथ्या न होता, तो फिर — दोहरा रहा हूँ — तुमने उसको कब का हाँ बोल दिया होता। तुम कब के वहाँ के वासी हो गए होते। झूठ को हाँ बोलने की बड़ी उत्कट अभिलाषा है तुम्हारी। बोल पाते नहीं क्योंकि उधर कुछ है नहीं, तो किसको बोलोगे? तो ले देकर एक ही बात बचती है कि सत्य को हाँ नहीं बोलनी है। किसी भी तरीके से सच्चाई से दूर भागना है, कोई बहाना बनाना है कि क्यों प्रस्तुत नहीं हैं, कोई बहाना बनाना है कि क्यों अवसर चूकते जाते हैं। कुछ तो झूठ बोलना है अपनेआप से, कुछ तो धोखाधड़ी करनी है। ‘’बेवफ़ाई के लिए भी कुछ मकसद तो चाहिए, नहीं तो जायज़ कैसे ठहराएंगे?’’

एक ही कारण है तुम्हारे पास वो कारण है ‘डर’, इधर जो नहीं आ पाते हो, एक ही कारण है उसका ‘डर’। और वहाँ तुम वास्तव में झूठ नहीं बोल रहे, सही बात तो ये है कि डर तुम्हें लगता है और बहुत डर लगता है। इतना डर लगता है तुम्हें कि तुम्हारी रूह काँप जाती है, टांग कांपना तो छोटी बात है, रूह काँप जाती है इतना डरते हो, भयाक्रांत हो, भयभीत नहीं, भय दमित हो। और डरते ही रहोगे, कहते हो निकट इसलिए नहीं आ पाते क्योंकि डर लगता है, डर लगता ही इसीलिए क्योंकि निकट नहीं हो। अब कौन समझाए तुम्हें ये बात तर्क से आगे की है? कहते हो दूर दूर इसलिए बैठे हो क्योंकि निकट आने में डर लगता है, जितना दूर रहोगे, निकट आने में उतना डर लगेगा, समझाएं कैसे?

सवाल बना लो, पहेलियाँ बुझा लो, गुत्थियाँ बढ़ा लो, किसको बेवकूफ़ बना रहे हो? तुम जो हो, तुम्हारा तो एक जीवन है और प्रतिक्षण एक क्षण कम हो रहा है। ये सब चतुराई ले कर कहाँ जाओगे? ये सारी सावधानियाँ लेकर कहाँ जाओगे? धूल ने बहुतों को अपने में मिला लिया, अच्छे अच्छे राख हो गए। नदियों ने बहुतों को सागर तक पहुंचाया है, तुम्हारा क्या कोई अलग अंजाम होना है? शरीर की कम से कम इतनी हस्ती तो है कि कम से कम जलता है, खाख होता है, तुम्हारी चतुराई का तो उतना भी वजूद नहीं। तुम मरो, तो उसको जलाना भी नहीं पड़ता, थी ही नहीं, भ्रम थी। तुम्हारे पाओं के अंगूठे तक को जलाना पड़ता है, इतनी हस्ती तो है उसकी। तुम्हारी चतुराई का तो एक ग्राम वजन भी नहीं है, तुम गए, वो गयी। तुम्हारी सावधानियों का, तुम्हारे सारे गणित का मोल क्या है? पर तुम्हारी नज़र में वही सब कुछ है, लिए बैठे रहो। किसी का नुकसान नहीं हो रहा, किसी का हित नहीं हो रहा, अपनी होशियारी में तुम ही बेवकूफ़ बन रहे हो, बने रहो।

जीवन तुम्हें मिला नहीं, मृत्यु तुम्हें याद नहीं रहती, तुम हो कहाँ के? जीना तुम जानते नहीं; मौत को भुलाए रहते हो, तुम्हें याद क्या है? जीते हो नहीं और ये दिखाई नहीं देता कि मौत सामने खड़ी है, तुम्हें दिखता क्या है? न जीते हो, न मरते हो, अधर में लटकते हो। वही, एक टांग उस तरफ़, एक टांग इस तरफ़, फ़टा तन फ़टा मन, फ़टा जीवन और फ़टी पतलून। फिर कह रहा हूँ: जो तुम्हें आज तक भरोसा नहीं आया, तो आज मेरी बात सुन के नहीं आ जाएगा, तुम उधर ही चले जाओ, जाते क्यों नहीं? तुम जाओगे नहीं क्योंकि तुम बहुत होशियार हो, तुम्हें अच्छे से मालूम है कि उधर कुछ है ही नहीं जाने के लिए। गए तो फिर स्वीकार करना पड़ेगा कि उधर तो हताशा है, गए तो फिर स्वीकार करना पड़ेगा कि उधर का कोई विकल्प ही नहीं है। गए तो फिर तुम्हारी धौंस जाती रहेगी, अभी तो तुम्हारे पास अकड़ है, अभी तो तुम्हारे पास धौंस है कि “चले जाएंगे। देखो उस देश में भी हमारे लिए जगह हो सकती है, चले जाएंगे। परेशान न करना, पापा के यहाँ चली जाउंगी!” पापा का कोई घर ही नहीं है, ये पोल अगर खुल गई, तो अकड़ कैसे दिखाओगी? कोई पापा नहीं है उधर तुम्हारा, जो है सो इधर है; इधर तुम्हें डर लगता है। डरे रहो।

जो तुम्हारे सुन्दरतम सपने हैं, वो साकार हो भी गए, ईमानदारी से बताओ, संतुष्ट हो जाओगे? और ऐसा तो नहीं है कि कभी तुम्हारा कोई स्वप्न साकार हुआ नहीं है, कभी कबार तो तुम्हारी चाहतें पूरी भी हुई हैं। उनसे खिल गए तुम? उनसे भर गए तुम? उधर माने क्या? उधर माने स्वप्न, उधर माने चाहतों का, भविष्य का, हसरतों का संसार, उधर माने कल्पना। इन कल्पनाओं ने तुम्हें कोई पूर्ति दी है आज तक? दी है? नहीं दी है, तो अब कैसे दे देंगी? जो आज तक नहीं हुआ, क्यों उम्मीद कर रहे हो कि तुम्हारी ज़िन्दगी के चंद बचे हुए सालों में हो जाएगा? अमरता का ठेका लिखवा के आए हो?

एक राह होती है सिर्फ़ और वो सच्ची राह होती है, उसके अलावा बाकी सब कुछ भटकाव है, जहाँ मात्र दुःख है, प्रवंचना है। तुम न जानते होते, उस सच्ची राह को, तो तुम्हें दिखता, सुझाता; जानते सब हो, डरते हो। सत्य से डरते हो, और डर का सत्य के अलावा कोई इलाज़ नहीं। अब तुम्हें क्या इलाज़ दूँ? बोलो? जिससे तुम्हारी दूरी है, दूरी का उसके अलावा कोई समाधान नहीं अब तुम्हें क्या इलाज़ दूँ?

श्रोता: मैंने एक बार कहीं सुना था कि — शायर का नाम याद नहीं है — ‘सुना है मंजिल करीब आ गई है, मुझे फिर गुमा दो‘ तो जो लोग ऐसा सोचते हैं कि इस राह में चल रहे हैं, मतलब कि जिन लोगों को नाम लेने का स्वाद है, वो सब भी चतुराई है या वो पा चुके हैं?

वक्ता: कोई राह है ही नहीं न। राह तो बहाना ही है, मंजिल से दूर रहने का, राह का मतलब ही यही है कि मंजिल नहीं। राह का अर्थ ही यही है कि मंजिल दूर। राह की हर बात और क्या है? एक आंतरिक साजिश है अपनेआप को ये सिद्ध करने कि, ‘’अभी दूरी है। दूरी भी है, और हमारी नेक नीयति भी है, हम राह पर हैं। इरादे पाक हैं हमारे।’’ देखो, ये मत कहना कि, ‘हम चाहते नहीं सत्य को, राह पर हैं।‘ राह बड़ी खतरनाक बात होती है, तुम्हें गुमान रहने देती है कि तुम चल रहे हो, कि तुम्हारे इरादे साफ़ हैं, कि तुम्हें सत्य की अभीप्सा है और साथ ही साथ तुम्हें सत्य तक पहुँचने भी नहीं देती क्योंकि हो तो तुम राह पर ही न और राह का अर्थ ही यही है कि मंज़िल नहीं।

तो ये सारी बातें कि, “अभी तो हम जा रहे हैं, अभी तो चले हैं, कि अभी तो पहुँचने वाले हैं, कि अभी तो प्रगति कर रहे हैं, कि अभी दूरी कम हो रही है” कुछ नहीं है, ढकोसला है। और ढकोसला किसके प्रति? किसको मूर्ख बनाओगे? सत्य को? जब भी तुमने मूर्ख बनाया है, तो किसको बनाया है? तुम्हारे कर्मों का फल, कोई सत्य भुगतता है? मन की करनी, मन की भरनी।

श्रोता: तो उस हिसाब से तो अगर सत्य दिख रहा, तो भी एक दूरी ही है।

वक्ता: बिल्कुल दूरी है, दिखना-विखना क्या होता है?

श्रोता: सत्य ही है।

वक्ता: या तो है…

श्रोता: या तो नहीं है।

वक्ता: नहीं तो छल। इधर-उधर की जितनी बातें करोगे, अपनेआप को ही निपटा रहे हो। ‘मने मनुष्याणाम बंध मोक्षो कार्यणम’ तुम हो किस गुमान में कि तुम किसी और को छलते हो? तुम ये सब जो चतुराइयां बताते हो, ये किसको? तुम्हें क्या लग रहा है इस पूरी दुनिया को बड़ी फ़िक्र है तुम्हारी? तुम्हारे जैसे रोज़ आते हैं, रोज़ जाते हैं। कौन याद रखने वाला है? अभी यहाँ से अचानक लुप्त हो जाओ, तुम्हें क्या लग रहा है भूचाल आ जाएगा? किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा तुम्हारे अलावा, तुम जो कुछ कर रहे हो उससे मात्र तुम्हें फ़र्क पड़ रहा है। तुम ये सब जो होशियारीयाँ कर रहे हो, इससे सिर्फ़ अपना जीवन नरक कर रहे हो और किसी का नहीं। इतने लोगों से मिला हूँ, कोई ऐसा नहीं पाया जो स्वयं अपने दुःख का कारण न हो। और ऐसा भी कोई नहीं पाया, जो अपनी मुक्ति का कारण स्वयं हो।

श्रोता: दूसरी बात नहीं समझ आई?

वक्ता: तुम मुक्ति की तलाश नहीं कर सकते। तुम इतना ही कर सकते हो कि दुःख से आसक्ति छोड़ दो। मुक्ति की तलाश तो दुःख की तलाश बन जाती है। अमृतबिंदु उपनिषद कहता है, ‘मनुष्य अपने बंधन और मोक्ष दोनों का कारण स्वयं है,’ तो बंधन और मोक्ष को एक ही आयाम पर नहीं लेना चाहिए। बंधन का कारण वो ऐसे है कि वो मनुष्य है। बंधन का कारण वो ऐसे है कि बंधन कायम रखना चाहता है। पर जैसे वो बंधन कायम रखना चाहता है, ठीक वैसे ही अगर वो मोक्ष चाहने लग जाए, तो उसे मोक्ष नहीं मिल जाएगा।

बंधन चाहने से बंधन मिल जाता है , मोक्ष चाहने से मोक्ष नहीं मिलता।

फिर कहता हूँ बंधन चाहोगे बंधन मिल जाएगा, मोक्ष चाहोगे तो भी बंधन ही मिलेगा।

श्रोता: चाह है इसका मतलब ही है कि मोक्ष नहीं है।

वक्ता: बढ़िया। इस सूत्र को गलत समझ लिया जाता है, समझ ये लिया जाता है कि मुक्ति चाहोगे, मुक्ति मिलेगी और बंधन चाहोगे बंधन मिलेगा, नहीं ऐसी बात नहीं है। बंधन चाहोगे, तो अनिवार्यता बंधन मिलेगा, पर मुक्ति चाहोगे तो भी बंधन मिलेगा। अबंधन मिलता है, न बंधन चाहने से, न मुक्ति चाहने से।

जिसने मुक्ति और बंधन दोनों को चाहना छोड़ दिया , सो हुआ मुक्त।

वास्तव में बंधन चाहता कौन है? आप तो सदा मुक्ति ही चाहते हैं पर मुक्ति चाहते-चाहते पाते हैं कि बेड़ियों में जकड़े हुए हैं। क्या यही हमारी कहानी नहीं है? सतही तौर पर अपनी ओर से, अपनी नियत से तो हम जो कुछ भी करते हैं, मुक्ति की दिशा में ही करते हैं। और मुक्ति की दिशा में चलते-चलते पहुँच कहाँ जाते हैं? एक विशाल कारावास में, फिर अचम्भा होता है कि “जिन्होंने राह बताई थी, उन्होंने तो कहाँ था कि इससे मुक्ति के देश पहुँचोगे, ये कहाँ पहुँच गए, यहाँ तो जकड़न ही जकड़न है।“ ऐसे ही होगा। जिस भी राह चलोगे, बंधन की ओर ही जाओगे। सत्य चलने में नहीं, ठहरने में है। चल-चल के कहीं नहीं पहुँचने वाले, हालांकि शायरों ने, कवियों ने, गुरुओं ने चलने को बड़ा महिमा मंडित किया है, चलने की शान में बड़े कसीदे कहे हैं।

श्रोता: साधनों का भी बहुत महिमा मंडन हुआ है।

वक्ता: चलने को बड़ा गौरव दिया गया है। चलते रहो, कुछ करो और मैं तुमसे कह रहा हूँ जब भी चलोगे तुम्हारी राह तुम्हारी चाल तुम्हें गर्त में ही ले जाएगी। चल तो रहे ही हो, चलने में कोई कसर छोड़ी है क्या? ज़रा ठहर के भी तो देखो। और इस ठहरने मे बड़ी गति है, इस ठहरने की कल्पना मत करना, कल्पना करोगे तो तुम्हें लगेगा कि इस ठहरने का मतलब हुआ निष्क्रिय हो जाना, इस ठहरने का मतलब हुआ मुर्दा हो जाना। न, ये ठहरना कोई और बात है। इस ठहरने में नृत्य है, इस ठहरने में बड़ी उर्जा है। इस ठहराव के बाद फिर गति होती है, उस गति की बात अलग है। दुःख का निवारण बड़ी हास्यास्पद बात है। माया को काटना बड़ी व्यर्थ कोशिश है। दुःख तुम्हारे चाहे बिना तुम्हारे साथ है नहीं और फिर तुम कहते हो कि उसका निवारण करो, तो फिर तो निवारण दुःख का नहीं तुम्हारा ही करना पड़ेगा।

श्रोता: कोई मिल जाए तो करवा लें।

श्रोता: तो इसका कारण क्या है? मतलब क्या?

वक्ता: डर और कुछ भी नहीं।

श्रोता: किसका डर?

वक्ता: अपने न होने का। मैं जैसा हूँ, जैसा जीवन चल रहा है, जैसा अपनेआप को जाना है, जिसको संसार कहता हूँ, जिन ढर्रों से आसक्ति हो गयी है वो मिट जाएंगे, यही डर है बहुत छोटा सा।

श्रोता: बार बार चोट खा रहे हैं लेकिन वो डर इतना भरा हुआ है कि ये सब चीज़ें उसे आत्मसाध कर ले रही हैं, उससे नहीं मिलना चाह रही हैं।

वक्ता: क्योंकि जो प्राथमिक इच्छा है, वो तो बने रहने की है न। आप जो कुछ भी चाहते वो किसलिए चाहते हो? अपने लिए, मतलब प्रथमतया तो स्वयं बने रहना चाहते हो न? मन कहता है कि सब कुछ मिल गया लेकिन तुम ही न रहे तो क्या मिला? और तुम क्या हो? तुम उन्हीं ढर्रों का, आदतों का, संस्कारों का एक पिंड भर तो हो। एक उपद्रवी संकलन, एक किताब जिसमें एक पन्ना इंजीनियरिंग का, एक गणित का, एक मछली मारने का, एक खाना बनाने का, एक आध्यात्म का ऐसा संकलन हैं हम। कहीं से कुछ आया है, कहीं से कुछ आया है और इकट्ठा हो गया है, और ये जो इक्कठा हो गया है इसे हम कहते हैं कि ‘हम’ हैं। कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा।

मैल में होता है ऐसा कि कहीं से कुछ आया, कहीं से कुछ आया पर दर परत, वो इकट्ठा होती गई, होती गई या जैसे दांतों में मल फंसा होता है, कुछ खाया वो फंसा, फिर कभी कुछ खाया, वो फंसा उसके ऊपर पर दर परत चढ़ती गई। और सालों-सालों ऐसा होता रहे, तो वो आपके दांतों का हिस्सा बन जाता है, भदा हिस्सा पर हिस्सा। ऐसे हम हैं, कुछ कहीं से सुना, कुछ कहीं से पाया, और वो सब इक्कठा हो गया और जो इक्कठा हुआ उसमें आपस में कोई लय नहीं, कोई संतुलन नहीं, कोई संधि नहीं। ‘क’ के ऊपर ‘ब’ चढ़ा हुआ है और ‘ब’ के ऊपर ‘छ, त्र, ज्ञ’ और क्यों चढ़े हैं, कोई जानता नहीं। विरोधाभास पर विरोधाभास; पर सब इकट्ठा हो गया है और ‘मैं’ बन गया है। ये जो ‘मैं’ हैं, ये इतना बेढंगा, बेमेल है, इतना कुरूप है कि इसे अच्छे से पता है कि सत्य इसे मिटा देगा। इसे अपनी विवशता, अपनी कुरूपता का पूरा एहसास है; इसी कारण डरता है, बस इसी कारण डरता है। इसे पता है कि मिट जाएगा, इसे अच्छे से पता है कि मिटना इसकी नियति है। अब यदि सदबुद्धि हो, तो आप ये भी कह सकते हो कि, “मिटना जिसकी नियति ही हो?”

श्रोता: उसे बचा के क्या करें…

वक्ता: उसे मिट ही जाने दो न। बचा के कब तक रख लोगे? क्या कहते हैं? बकरे की…

श्रोता: अम्मा कब तक खैर मनाएगी।

वक्ता: अम्मा कब तक खैर मनाएगी। जिसकी नियति है, नष्ट हो जाना उसके नष्ट होने का इंतज़ार क्यों कर रहे हो? उसे फ़ना होने दो। पर संभाले बैठे हो, जैसे कोई मुँह का मुहासा, अब मुहासे से मोह हो गया है, तो उसको संभाल रहे हो। कब तक संभालोगे? मिटना उसकी नियति है जाने भी दो, कब का पक चुक है। इतना ही हम देख लें कि जीवन हमारा अनेक तरह की विषमताओं से भरा हुआ है। विशम समझते हैं?

श्रोता: डिफरेंट।

वक्ता: ओड्नेस। जहाँ कोई संयोजन न हो, जहाँ कोई तारतम्य न हो, जहाँ कोई लयबद्धता न हो। जहाँ उबड-खाबड़ हो, सब कुछ उसे विषमता कहते हैं। और विषमता से नहीं भरा है हमारा जीवन? सब कुछ एक मधुर प्रवाह में है क्या? कदम-कदम पर तो ठोकर खाते हैं, जीवन में अगर हमारे पाँच लोग हैं, तो वो पाँच आपस में भिड़े हुए हैं और फिर हमसे भी भिड़े हुए हैं। माँ प्रेमिका को नहीं सुहाती, बॉस बाप को नहीं सुहाता, ये और क्या चल रहा है? यदि इंटीग्रिटी होती, यदि एकत्व होता जीवन में, तो तुम्हारे जीवन में जो कुछ मौजूद है, वो परस्पर विरोधी कैसे होता?

गुलाब का एक पौधा होता है, उसमें कांटे भी होते हैं और फूल भी होते हैं पर क्या कांटे फूल को छेद रहे होते हैं? कांटे और फूल एक पारस्परिक सौहार्द में होते हैं, अगल-बगल होंगे, लेकिन मुठभेड़ नहीं होगी उनमें। और हमारा जीवन कैसा है? हमारे जीवन में जो कुछ है, वो आपस में ही लड़ा हुआ है। और बाहरी व्यक्तियों की बात नहीं है मन को ही देख लो। एक विचार उठता है, दूसरा उसके विरोध में खड़ा हो जाता है; एक राह चलते हो, चार कदम भी नहीं जा पाए पाँच अन्य राहें फूटती हैं। कभी एक मना हो पाते हो? कभी एकाग्र हो पाते हो? ये वही है। पहले ऐसा होता था रेडियो में कि आपने एक चैनल लगाया है, वहाँ दो तीन बजने लग जाते थे।

श्रोता: ट्यूनिंग वाला|

वक्ता: ट्यूनिंग ठीक से नहीं होती थी। अब नहीं होता अब तो…

श्रोता: अब वैसे हम हैं।

वक्ता: अब वैसे हम हैं। एक साथ चार-पाँच चैनल बज रहे होते हैं, अब उसमें से भौंदा स्वर निकलता है, संगीत की जगह तरकश ध्वनियाँ। जगत का स्वभाव है सौन्दर्य, जगत का स्वभाव है संगीतमय प्रवाह। आप उससे यदि विलग हो, तो आपको स्वयं ही पता है कि आपको मिटना पड़ेगा और इसीलिए डरे-डरे हो, बस इतनी सी बात है। जो सच्चा होता है, उसे मिटने से क्या डर? वो डरता इसलिए नहीं है क्योंकि जानता है कि सच्चाई मिटेगी ही नहीं झोंक दो, जहाँ झोंकना हो। और जहाँ झूठ है, वो डरेगा ही डरेगा क्योंकि झूठ का अर्थ ही यही है कि तुम्हें हक़ ही नहीं है होने का। हम ऐसे ही हैं जिन्हें हक ही नहीं है होने का। रिश्ते हमारे ऐसे हैं, जिन्हें होना नहीं चाहिए था, आजीविका हमारी ऐसी है, जो होनी नहीं चाहिए, ख़यालात हमारे ऐसे हैं जो होने नहीं चाहिए तो डरोगे नहीं तो क्या करोगे? जब सही होते हो, तो उसका एक बड़ा प्रमाणिक लक्षण होता है: तुम डरते नहीं। और वास्तव में उसके अतिरिक्त और कोई लक्ष्ण है नहीं, आनंद वगैरह सब पीछे की बातें हैं। भय से मुक्ति से बड़ा आनंद कुछ होता नहीं। मुझसे पूछोगे तो मैं कह दूँगा कि आनंद की परिभाषा ही यही रख दो, ‘जहाँ भय नहीं, वहाँ मन की जो शांत निश्त्ब्द स्थिति है, उसे आनंद कहते हैं।‘ आनंद कोई विशेष स्थिति है ही नहीं मन की,

भय का अभाव आनंद है।

श्रोता: प्रेम भी वही है।

वक्ता: वही है, सब कुछ वही है। वास्तव में उपनिषद् के ऋषियों ने सर्वप्रथम ही स्पष्ट कर दिया था कि ये जो पूरी आध्यात्मिकता है, ये जो कुछ भी वो कह रहे हैं, उसका प्रयोजन बस यही है कि त्रय ताप से आपको मुक्ति दिलाई जा सके। तीन प्रकार का ताप है: जलन है, कष्ट है और, ‘’मैं तीनों को देखता हूँ तो उसमें मुझे भय ही दिखाई देता है।‘’ तो समष्ट आध्यात्मिकता का प्रयोजन बस एक है कि आप डरें न, डरने के अलावा हमारा और कोई नरक नहीं है और डरने के अलावा हमारा और कोई पाप नहीं। साफ़-साफ़ समझ लीजिएगा कि डर के समर्थन में आपने जितनी भी कल्पनाएँ रचि हैं, वो सब झूठी हैं। डर के समर्थन में आपके पास बड़ी भयानक कल्पनाएँ हैं, आप कहते हो “कि यदि डरेंगे नहीं, तो इस-इस प्रकार से हमारा अनिष्ठ हो जाएगा” सब झूठा है। झूठा इसलिए नहीं है कि वो अनिष्ठ तुम्हारा होगा नहीं, वो अनिष्ठ हो सकता है, हो भी जाए। झूठा इसलिए है क्योंकि तुमने वो मान रखा है कि तुम वो अनिष्ठ झेल नहीं पाओगे, और ये झूठ है। तुम्हारी सामर्थ्य इतनी ज़्यादा है कि तुम हर प्रकार का नुकसान, हर अनिष्ठ, हर अनर्थ झेल जाओगे। कितना बुरा क्या हो जाएगा? तुम्हें ये हक़ किसने दिया है कि तुम कहो कि, “कुछ इतना बुरा हो सकता है कि मुझे तोड़ दे?” हो सकता है बुरा हो, पर इतना बुरा कुछ होता ही नहीं है कि तुम्हें तोड़ दे। “टूट जाऊँगा, बिखर जाऊँगा, कहीं का नहीं रहूँगा” ये सब मिथ्यारम्भण है, सुद्देश्य कल्पना हैं ये, बड़ी उदेश्य पूर्ण कल्पना है ये, इस कल्पना का उदेश्य ही यह है कि इतनी भयानक तस्वीर खींचो कि वो तुम्हें ही डरा दे। इतनी डरावनी कहानी गड़ो कि तुम ही खौफज़दा हो जाओ “अरे! बार रे ऐसा हो जाएगा”। हर डर के पीछे कहानी तो होती ही है, वो कहानी तुम ही ने तो सुनाई है स्वयं को। डर यही है न कि भविष्य में कुछ बुरा होगा, हर डर का वास्ता भविष्य से होता है।

श्रोता: और दूसरे के सन्दर्भ में हो तो?

वक्ता: मतलब वो घटना अभी घटी नहीं, तुम्हारे साथ तो नहीं घटी, कहीं और तुमने देखी हो, तो देखी हो। तुम उससे गुजरे नहीं, तुम्हें कैसे पता कि उससे गुजरोगे तो टूट जाओगे, तुम्हें कैसे पता?

श्रोता: जैसे अभी आपने कहा कि दुःख का निवारण नहीं है, दुःख खुद का कल्पित किया हुआ है, तो भय का निवारण भी वही बात हो गयी?

वक्ता: भय हमने गढ़ा है और गढ़ के पूरी ताकत से पकड़ा है। भय को पकड के हम, हम रह पाते हैं। भय बड़ा सम्भल है, भय आधार है हमारा और फिर हम कहते हैं, “भय से मुक्ति चाहिए?” अच्छा!

श्रोता: उसको लक्ष्य बना कर के और उसी से दूर जाते हैं..

वक्ता: भय वो ज़मीन है, जिस पर बैठे हो, उससे मुक्ति चाहिए तुम्हें? तुम बचोगे?

श्रोता: मैं को बनाने के लिए जो चीज़ को पकड़ रखे हैं, वो सारी चीजें चीजें।

वक्ता: और पकड़ने का अर्थ है भय। मैं अपने होने के लिए कुछ न कुछ पकड़ता ज़रूर है और जिस चीज़ से जितना आसक्त होता है, उसको उतनी ज़ोर से पकड़ता है और ज़ोर से पकड़ने का अर्थ ही भय है। छिंग जाएगा – भय। हम भय हैं। इसीलिए अब तो यही तरीका ठीक है, इधर के अफ़साने तो तुम्हें बहुत सुनाए, वो तुम्हें रुचते ही नहीं, तुम आते ही नहीं। अब मैं कहता हूँ उधर जाओ, तुम बड़ी उम्मीद से आते हो कि यहाँ सत्य की चर्चा होगी, मैं कहता हूँ “कुछ नहीं, तुम तो उधर जाओ।” सत्य की चर्चा तो बहुत हो चुकी, क्या है जो तुमसे कहूँ, क्या है जो नहीं कह दिया? तुम्हें जिस देश का बड़ा आसरा है, जाओ हो आओ वहाँ। जिस हसरत में मरे जा रहे हो, ज़रा पूरी कर लो फिर देखो। क्या पता तुम्हारे लिए अस्तित्व अपवाद खड़ा कर दे? क्या पता तुम्हें वहीं अमृत मिल जाए? जाओ। जाओगे नहीं क्योंकि अच्छे से पता है जब भी गए हो, लतियाए गए हो। लौट-लौट आना इधर ही है, दरवाज़ा अंततः सत्य का ही, उधर से ठुकराए भी जाते हो, दुरदुराए भी जाते हो, आते यहीं हो लेकिन फिर भी लिप्सा ऐसी कि लार टपकाते भागते हो। इसीलिए बोलते हैं न श्रद्धाहीन चित, एक बेवफ़ा मन, निभा नहीं सकता, किसी का हो नहीं सकता, इधर से उधर भटकेगा, अपने घर नहीं आएगा दस और दरवाजों में दस्तक देता फिरेगा। अपने घर बस मत आना बस मत आना, दस जगह खटखटाना और वहाँ पाते क्या हो? तुम जानते हो क्या पाते हो, आँखों में लिखा है क्या पाते हो। फिर भी विचित्र बात है अपने घर नहीं आते हो। और जब बुलाया जाए ज़ोर दे के तो कहते हो “नहीं अभी दस जगह प्रयोग किया था, अभी दस घर और बाकी हैं। अभी ज़रा वहाँ भी तो आज़मा के देख लें।” जाओ आज़माओ। क्या पता कुछ नया मिल जाए?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories