बदनीयती और बेहोशी साथ-साथ चलती हैं || श्रीमद्भगवद्गीता पर (2020)

Acharya Prashant

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बदनीयती और बेहोशी साथ-साथ चलती हैं || श्रीमद्भगवद्गीता पर (2020)

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्। यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।

हे अर्जुन! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर।

—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ९, श्लोक २७

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, श्लोक २७ में भगवान कृष्ण कहते हैं कि, "कर्म, खाना, हवन, दान, सब मेरे को अर्पण कर।" यहाँ पर अर्पण करने का अर्थ क्या है?

आचार्य प्रशांत: "अपने जगत का सारा कारोबार मुझे लक्ष्य बनाकर कर।" दुनिया में इन्हीं चीज़ों का कारोबार होता है न – खाना-पीना, धन-दौलत। इन्हीं चीज़ों का तो कह रहे हैं। जगत में हो तो कारोबार तो करोगे ही। "ये सब कारोबार यह याद रखते हुए कर कि तुझे ज़रूरत सिर्फ़ मेरी है।"

जगत में जब तक हो, कोई कुछ कारोबार करेगा, कोई कुछ करेगा। पर जो भी कारोबार कर रहे हो, उसमें यह पूछते चला कीजिए कि, "जो भी मैं कर रहा हूँ, इसका संबंध कृष्ण से है या नहीं है? अगर है, तो और करूँगा और नहीं है, तो बिलकुल नहीं करूँगा।" कृष्ण माने सत्य। "यदि सच्चाई की तरफ़ बढ़ रहा हूँ मैं यह सब करके तो और करूँ, और नहीं बढ़ रहा तो काहे समय ख़राब कर रहा हूँ?"

प्र२: आपने अभी बताया कि एक साधक के लिए सबसे ज़रूरी होती है नीयत। तो नीयत पर कैसे काम करें?

आचार्य: परखना होता है। नीयत के साथ नीयत की रक्षा के लिए जो चीज़ जुड़ी होती है, उसका नाम है बेहोशी। तुम्हें साफ़ पता ही चल जाए कि तुम बदनीयत हो, तो तुम अपने-आपको भी बर्दाश्त नहीं करोगे।

बदनीयती छुपी इसलिए रह जाती है क्योंकि बदनीयती के साथ मदहोशी भी रहती है। अगर बदनीयती ही हो और मदहोशी ना हो, तो तुम्हारा होश ही तुम्हारी बदनीयती को उजागर कर देगा, उसकी पोल खोल देगा। अपनी मर्ज़ी से कोई बदनीयत रहना थोड़े ही चाहता है। एक बार तुम्हें दिख गया कि तुम बदनीयत हो तो तुम तुरंत चौंककर उठ बैठोगे, कहोगे, “अरे! मैं इतनी बदनीयत से काम कर रहा था।”

आदमी सिर्फ़ ग़लत दिशा नहीं जा रहा होता, वह ग़लत दिशा बेहोशी में जा रहा होता है।

दो बातें हैं – पहली बात तो यह कि दिशा ग़लत है, ग़लत दिशा में जा रहा है, भ्रमित है और दूसरी बात बेहोश है, तो ग़लत दिशा पलट भी नहीं सकता। जिस दिशा जा रहा है, उसी दिशा जाता रहेगा।

नीयत को परखते चलो, बार-बार पूछो, “मैं चाह क्या रहा हूँ यह सब करके?” यह बहुत-बहुत निर्मम प्रश्न है, झुंझला जाओगे।

ज़्यादातर काम हम अपने जीवन में इसीलिए कर पाते हैं क्योंकि हम कभी यह देखते नहीं कि वह काम हम क्यों कर रहे हैं।

तुम किसी से उलझ रहे हो, किसी से मीठी बात कर रहे हो, किसी से कड़वी बात कर रहे हो। अगर उसी पल तुमने रुककर कहा, “यह जो मैं कर रहा हूँ, यह मैं कर क्यों रहा हूँ? क्योंकि शातिर तो मैं हूँ ही; बिना नीयत के, बिना मतलब के, बिना स्वार्थ के, बिना उद्देश्य के तो मैं कुछ करता नहीं। तो मैं जो भी कुछ कर रहा हूँ, उसमें कुछ-न-कुछ मेरी मंशा, मंसूबा तो छुपा हुआ है। वह मंसूबा है क्या?” यह जैसे ही पूछोगे, परेशान हो जाओगे, क्योंकि मंसूबा अधिकांशतः तुम अपना काला ही पाओगे।

तो हमने तरीका निकाला है, क्या? हम पूछेंगे ही नहीं कि क्या चल रहा है। हम पूछेंगे ही नहीं कि हम यह कर क्या रहे हैं। “*एक्जेक्टली व्हाट?*” यह हम पूछेंगे ही नहीं।

समस्त अध्यात्म जिज्ञासा से शुरू होता है न। जिज्ञासा ही नहीं तो फिर क्या? जिज्ञासा का ही दूसरा नाम कष्ट है। तो कभी मैं कहता हूँ अध्यात्म शुरू होता है दुःख से और कभी कहूँगा अध्यात्म शुरू होता है जिज्ञासा से। वेदना भी कह लो चाहे उसे, और चाहे जिज्ञासा कह लो, चाहे दुःख कह लो। इसलिए वेदना का संबंध वेद से है। वेद माने जानना और वेदना माने दुःख बर्दाश्त करना।

तो जिज्ञासा ही दुःख है। इसका अर्थ यह नहीं कि तुम जिज्ञासा ही ख़त्म कर दो। “जिज्ञासा ही तो दुःख है तो जिज्ञासा काहे को रखें?” जिज्ञासा दुःख की अभिव्यक्ति है। अभिव्यक्ति होगी दुःख की तभी तो दुःख मिटेगा।

जिज्ञासा हम रखते ही नहीं। कभी पूछते ही नहीं कि चल क्या रहा है। हम ऐसे व्यवहार करते हैं कि जैसे हमें तो सब कुछ पता ही है। " या, या, ऑब्वियसली...ऑब्वियस्ली (बिलकुल-बिलकुल)।" यह जो शब्द है न ‘ऑब्वियसली’ , इससे ज़्यादा मूढ़तापूर्ण शब्द और ख़तरनाक शब्द पूरे व्याकरण में नहीं है। " ऑब्वियसली ," जैसे कि तुम्हें दिख ही रहा हो सब कुछ। या फिर " आई नो, आई नो (मुझे पता है, मुझे पता है)।" पता कुछ नहीं है और बता रहे हैं, " आई नो "।

पता किया करो, थमा करो, अपने कर्मों पर नज़र डाला करो। अपने दिन को ग़ौर से देखा करो, "यह दिन भर जो कर रहा हूँ, इसको बोला, इसको यह करा, इससे यह बात कही, इन सबमें मेरा इरादा क्या है?" पूछा करो, “बच्चू, चाहते क्या हो?” क्योंकि बिना चाहे तो तुम कुछ करोगे नहीं, इतने निःस्वार्थ तो तुम हो नहीं। कुछ-न-कुछ हासिल तो तुम करना ही चाहते हो। काहे पर तुम्हारी नज़र है? चाह क्या रहे हो? फिर नीयत खुलेगी।

प्र३: आचार्य जी, आपके सत्संग को सुनने के बाद यह तो समझ में आ गया कि प्रकृति का सिर्फ़ एक ही मकसद है – शरीर को आगे बढ़ाना। यानी हर प्रगति के पीछे अंततः एक ही मकसद है – मानव प्रजाति को आगे बढ़ाना। तो अब मैं कैसे दोबारा जीवन में अपने काम के प्रति प्रेरित और उत्साहित रहूँ? मुझे छात्रों को शिक्षित करना बहुत अच्छा लगता है।

आचार्य: यही तो शिक्षित करना है न उनको कि शरीर तुम्हारा एक ही काम करना चाहता है – अपनी सुरक्षा। कि शरीर तुम्हारा एक ही काम करना चाहता है – बचो और बढ़ो। बढ़ो माने तरक्की, प्रगति नहीं, बढ़ो मतलब तादाद बढ़ाओ।

आप डॉक्टर हैं, पढ़े-लिखे हैं, अभी आप मेडिकल के छात्रों को पढ़ाते भी हैं। आपके लिए तो बहुत अच्छा मौका है। आपके छात्र शरीर का अध्ययन करते हैं। उनको बताइए कि शरीर क्या है।

उनको बताइए कि शरीर एक ऐसी मशीन है जो अपने मंसूबे रखती है। मशीन भी है और मंसूबे भी रखती है। मशीन है इसीलिए उसमें अक्ल तो नहीं है, बोध तो नहीं है, लेकिन फिर भी मकसद है। और जहाँ बोध ना हो और मकसद हो, वहाँ मामला बहुत ख़तरनाक हो जाता है, जैसा कि हर आदमी का है—बोध नहीं है पर मकसद सबके पास है। किसी से भी पूछो कि, "क्या कर रहे हो?" तो उसके पास कोई-न-कोई लक्ष्य ज़रूर होगा। लक्ष्य तो है, बोध नहीं है। यह तो मिसाइल जैसी बात हो गई। मिसाइल के पास भी क्या होता है? लक्ष्य होता है, बोध नहीं होता।

आप कह रहे हैं कि, "अब जब समझ में ही आ गया है कि शरीर तो जंगली है, अपने सीमित मकसद के लिए काम करता है, तो अपने काम में प्रेरणा कहाँ से लाऊँ? उत्साह कहाँ से लाऊँ?" आपका काम क्या है? पहले जानिए तो आपका काम शरीर के काम से अलग है। और अगर आपका काम शरीर के काम से अलग है, तो शरीर के काम की निम्नता को जानकर आप क्यों निराश हो रहे हैं?

(सभी श्रोताओं से) प्रश्नकर्ता के प्रश्न के भाव को समझिए। वह कह रहे हैं कि, "आचार्य जी, आपने तो समझा दिया कि यह शरीर तो बड़ी बिलकुल ही नामाकूल चीज़ है, यह तो लगा रहता है बस बचने-बढ़ने में। तो आचार्य जी, आपकी बात सुनकर तो मेरा सारा उत्साह ही ख़त्म हो गया। अब मैं कैसे वापस अपने जीवन में प्रेरणा लाऊँ?"

भाई, जब आज तुम्हें अपने शरीर की असलियत पता चल गई तो तुम्हारा उत्साह क्यों ख़त्म हो गया? चोर की चोरी पकड़ी गई है न, आपकी थोड़े ही न पकड़ी गई है। आप क्यों चोर से तादात्म्य रखते हो? शरीर क्या है, यह उद्घाटित कर दिया गया है न? यह थोड़े ही कह दिया गया है कि आप नीचे हो। बता दिया गया है कि शरीर तो नीचाइयों में ही रमण करता है या यह कह दिया गया है कि आप नीचे हो? बताओ।

अगर मैं कहूँ कि शरीर नीचा है और आपको लगे कि आप नीचे हो, तो इसका अर्थ क्या है? आप अपने-आपको शरीर मानते हो। आप क्यों परेशान हो रहे हो, भाई? शरीर की पोल खोली गई है, आपकी थोड़ी ही न। तो जैसे ही शरीर का भांडा फूटा, आप अलग हो जाइए शरीर से। कहिए, “जा, तेरी चोरी पकड़ी गई है। मैं चोर थोड़े ही हूँ।” चोर के साथ घूमोगे तो तुम भी थाने में नज़र आओगे। दिन-रात अगर चोर की संगति करोगे तो जब चोर पकड़ा जाएगा, तुम भी धरे जाओगे कि, "चल बेटा! तू भी इसके साथ घूमता है, तुझमें भी गड़बड़ी है।"

आप अलग हो गए जब शरीर से तो अब आपको दिखेगा न कि आपका असली काम क्या है। आप वह काम करिए। आप अपना काम करिए और आपके पास करने के लिए बहुत कुछ है। क्या है आपके पास करने के लिए? जो अभी आप कर रहे हैं, आप जान रहे हैं। आपका काम है बोध में जीना और घिरे हैं आप अज्ञान में, तो मिल गया आपको करने के लिए काम कि नहीं मिल गया? कहिए। आपका काम है प्रेम में जीना और आप अहंकार में घिरे हैं, तो करने के लिए काम मिल गया कि नहीं मिल गया?

जब लगे कि अपने ऊपर बहुत काम कर लिया, मिल गई आज़ादी, तो यह इतनी बड़ी दुनिया है, इतने सारे लोग हैं, जन-कल्याण में उद्यत हो जाइए। ख़ुद के लिए जो पाया है, वह दूसरों में भी बाँटिए। आपके लिए तो और भी आसान है, आप तो हैं ही शिक्षक। अपने छात्रों को भी यह बातें बताइए। उन्हें भी एक ज़िंदगी जीनी है न? क्यों चाहते हैं कि वो बेचारे फँसे-फँसे जीयें? यह कुछ मूलभूत बातें स्पष्ट हो जाएँ तो इंसान का जीवन बिलकुल बदल जाता है। यह स्पष्टता दीजिए।

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