प्रश्नकर्ता: आचार्य जी नमस्ते। मेरा क्वेश्चन सर इनकम इनइक्वैलिटी को लेके है और इसका उदाहरण हमें आईटी कंपनीज में देखने को मिलता है कि जो सीईओस हैं उनकी सैलरी वन फिफ्टी परसेंट (१५०%) बढ़ी है और जो नीचे के लेडर के लोग हैं उनका फोर परसेंट (४%)......
आचार्य प्रशांत: सीईओस का क्या कह रहे हैं आप?
प्रश्नकर्ता: सीईओस की जो सैलरी है वो वन फिफ्टी परसेंट (१५०%) का ग्रोथ हुआ है उनमें और जो नीचे के लेडर के जो फ्रेशर्स हैं उनमें फोर परसेंट (४%) का इजाफा है। सिर्फ सैलरीज में।
आचार्य प्रशांत: ये आप पिछले चार-पांच साल का डाटा बोल रहे हैं?
प्रश्नकर्ता: जी जी।
प्रश्नकर्ता: सर इसके कांटरी हम देखते हैं कि जो टैक्सेशन में जो रकस है। आजकल देखने को मिल रहा है जिससे कि जनता मतलब काफी रुक्ष में है कि इसमें मतलब इनडायरेक्ट टैक्सेशन ज्यादा है क्योंकि कंजमशन जिसकी इनकम कम है वो तो वो भी कंज्यूम ही करेगा बट वो टैक्सेशन का बर्डन उस पे भी उतना ही है जितना कि हायर सैलरी वाले लोगों पे है। तो इस पे आपका जानना चाहेंगे।
आचार्य प्रशांत: बात आपकी कंपनी या सीईओ भर की नहीं है। सीईओ की सैलरी बढ़ रही है और दूसरे एमप्लाइज़ की सैलरी नहीं बढ़ रही है। यह एक ग्लोबल ट्रेंड है। जिसका संबंध इस वक्त दुनिया में जो भी बड़ी घटनाएं चल रही हैं उन सबसे है। चाहे वो क्लाइमेट चेंज हो चाहे वो वॉर्स हो चाहे वो जो इकोनॉमिक कंफ्लेक्स हैं। अगर पूरी दुनिया को लें तो जो शीर्ष एक प्रतिशत लोग हैं वह लगभग चालीस प्रतिशत धन दौलत के मालिक हैं। वेल्थ सिर्फ जो शीर्ष एक प्रतिशत लोग हैं, वह दुनिया की चालीस प्रतिशत दौलत को कमांड करते हैं। और जो नीचे के पचास प्रतिशत हैं आखिरी अंतिम बॉटम पचास प्रतिशत, उनके पास दुनिया की दो प्रतिशत वेल्थ।
टॉप वन परसेंट के पास लगभग फोर्टी परसेंट और जो बॉटम फिफ्टी परसेंट है उसके पास लगभग टू परसेंट। और इनके बीच में जो आती है मिडिल क्लास उसमें भी जो टॉप टेन परसेंट है, वही है जो थोड़ी समृद्ध है। आपने टॉप वन परसेंट हटा दिया आपने बॉटम फिफ्टी परसेंट हटा दिया।
तो ये जो फोर्टी नाइन बचा— उनंचास (४९), इसमें भी जो शीर्ष नौ है, मतलब टॉप टेन परसेंट— उसके पास ही कुछ वेल्थ है। बाकियों के पास कुछ नहीं है। यह पूरी दुनिया में है। और यह उन देशों में ज्यादा है जहां गरीबी ज्यादा है। विचित्र बात है।
जहां गरीबी ज्यादा है वहां इनकम, इनइक्वैलिटी, डिस्पैरिटी वहां ज्यादा है। अमीर देशों में इनइक्वैलिटी है लेकिन अमीर देशों से कहीं ज्यादा इनइक्वैलिटी गरीब देशों में है। अब ये हमने बात अभी वेल्थ की करी। वेल्थ तो कई बार हिस्टोरिकल रीज़ंस से भी कहीं कंसंट्रेटेड हो सकती है। है ना? कि किसी को पीछे से मिल गई या किसी को जो एक्सप्लइट्स ऑफ कोलोनिज्म होते हैं वो मिल गए। तो इसलिए वेल्थ मौजूद है हिस्टोरिकल इनहेरिटेड वेल्थ वो उसको संतुलित करती है उस असमानता को काटती है फिर इनकम।
आप कहते हो मेरे पास पहले नहीं था पैसा। मेरे पास इन्हहेरिटेंस की उत्तराधिकार की संपत्ति नहीं थी। कोई बात नहीं अब मेरी आय है आमदनी है। पर जब आप वेल्थ से हटकर के इनकम के आंकड़े देखते हो तो वहां भी कोई बहुत फर्क नहीं है। जैसे हम कह रहे थे कि टॉप वन परसेंट के पास लगभग फोर्टी परसेंट वेल्थ है माने संपत्ति। उसी तरह से ये जो टॉप वन परसेंट है इनके पास जो टोटल इनकम होती है ग्लोबल, उसका ट्वेंटी फाइव परसेंट है।
मतलब यह पहले से भी दौलतमंद हैं और इनकम भी इन्हीं को ज्यादा हो रही है। ऐसेट्स भी इन्हीं के पास हैं और इनकम भी इनको ही हो रही है। अब इतना है कि जब वेल्थ की बात आती है तो जो बॉटम फिफ्टी परसेंट है तो वेल्थ उसके पास हमने कहा टू परसेंट ही है। लेकिन जब इनकम की बात आती है तो उसके बाद आठ प्रतिशत है। इसमें कोई सांत्वना की बात नहीं है। ये बहुत मामूली अंतर है।
जो बॉटमफिफ्टी परसेंट है, जो आखिरी पचास प्रतिशत लोग हैं दुनिया के उनके पास जो अब आमदनी भी हो रही है जो आय भी हो रही है मासिक, उसका कुल आठ प्रतिशत आता है और ये हमने ग्लोबल पर कहा। फिर हमने कहा अब इसको आप अगर एक-एक देश लेकर के देखोगे तो आप पाओगे कि ये जो असंतुलन है, ये विषमता है यह गरीब देशों में ज्यादा पाई जाती है।
उदाहरण के लिए यूरोप और अमेरिका से ज्यादा यह असंतुलन भारत में है। भारत की ही बात कर रहे थे। ये जो ये डाटा कोट करना चाह रहे थे वो पेंडेमिक के समय का और उसके बाद का डाटा है। जब कोविड आया था, वो समय ऐसा था जब सीईओ पेय थी वो बहुत तेजी से बढ़ गई थी और साथ ही साथ आम आदमी के लिए बेरोज़गारी तेजी से बढ़ गई थी। और उसी चीज का जो एक्सटेंशन है वह आज तक चल रहा है।
तो ये कह रहे हैं कि पिछले पांच साल में जो एवरेज सीईओ सैलरी है भारत में वो बढ़ी है लगभग एक सौ साठ प्रतिशत और जो आम एंप्लई है पर्टिकुलरली जो फ्रेशर है उसकी बढ़ी है चार प्रतिशत। जो एकदम एंट्री लेवल पर आरंभिक स्तर पर है उसकी कितनी बढ़ रही है? चार और जो सीईओ है उसकी बढ़ रही है एक सौ साठ । तो ये ट्रेंड हमें हर जगह देखने को मिलता है। आप ग्लोबल एग्रीगेट लेवल तो वहां भी यही है। इनकम में लोगे तो उसमें भी है। वेल्थे तो उसमें भी है। और अगर ऑर्गेनाइजेशंस को लोगे तो वहां भी आपको यही ट्रेंड देखने को मिल रहा है।
हर जगह अगर यही ट्रेंड देखने को मिल रहा है तो इसका मतलब क्या है? इसका संबंध अर्थव्यवस्था से नहीं है। इसका संबंध इंसान से है। कोई भी देश इसलिए नहीं होता कि वो दूसरे देशों में समृद्धि लाए और कोई भी एंटरप्रेन्योर या स्टेक होल्डर इसलिए नहीं होता कि वो सब अपनी दौलत बांटे। ये सारे काम शुरू ही करे जाते हैं अपनी कामनाएं पूरी करने के लिए और कामनाओं का कोई अंतिम बिंदु तो होता नहीं।
तो आप जितना भी कमा रहे हो वो सबसे पहले आप अपने पास रखना चाहोगे। दूसरों तक कोशिश करोगे कि कम से कम पहुंचे। तो ये होता है कंसंट्रेशन ऑफ वेल्थ। अपने पास रखना। और दूसरा आप अपने पास कितना रखना चाहते हो इसकी कोई अंतिम सीमा नहीं है। तो ये जो फिर इनइक्वैलिटी है ये लगातार बढ़ती ही जानी है। बढ़ती ही जानी है। वो हम पूरी दुनिया में होता हुआ देख रहे हैं। इसमें कोई ताज्जुब नहीं होना चाहिए। ये एथिक्स का मुद्दा नहीं होना चाहिए।
मेरा देश थोड़ी है कि दूसरी जगहों पर अपना पैसा बांटता फिरे। डेब्ट वेवर्स हमें तो अपने स्वार्थ देखने हैं। यही बात एक व्यक्ति भी बोलता है और एक कंपनी भी बोलती है। कंपनी इसलिए होती है कि वो सामाजिक कुछ काम करती रहें। ये बेसिक्स होते हैं वन जीरो वन (१०१)। कंपनी किस लिए होती है? टू मैक्सिमाइज शेयर होल्डर प्रॉफिट। राष्ट्र इसलिए थोड़ी होता है कि बगल के राष्ट्रों का भला करेगा। राष्ट्र होता है अपने आप को हमारे लोग हैं उनका देखना है। हमारे लोगों में भी जो सामर्थ्यवान हैं उनकी ताकत और बढ़ानी है। तो कंपनी अगर अपने प्रॉफिट मैक्सिमाइज कर रही है उसके शेयर होल्डर्स और अमीर होते जा रहे हैं और जो उसके एंप्लाइज हैं वो कहीं नहीं पड़े हुए हैं।
तो इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं होनी चाहिए। ना शोर मचाना चाहिए कि अनैतिक है अनएथिकल है। आप क्या सोच के गए थे कि वहां पर भंडारा लगा हुआ है? वहां कोई निस्स्वार्थ, निष्काम भाव से काम करने के लिए आया है। वो बाजार में उतरा ही है अपनी कामनाएं पूरी करने के लिए। भारत में जो एवरेज सीईओ रिन्यूमरेशन है सीईओ की तनख्वाह और जो एवरेज एंप्लई रिमुनरेशन है माने आम आदमी की सैलरी, उसमें तीन सौ और एक का अनुपात है। तीन सौ और एक का और कुछ जगहों पर तो यह अनुपात हज़ार और एक तक भी पहुंच जाता है।
जैसे मैक डॉनल्ड्स जहां पर सीईओ की जो सैलरी है और उसी कंपनी के एवरेज एम्प्लाइज की जो सैलरी है उसमें हज़ार और एक का अनुपात होता है। यह कोई अंधेर नहीं हो गया। यह कोई अपवाद नहीं हो गया। यही वो उद्देश्य है जिसके लिए कोई कंपनी बनाई जाती है। आप चौंक क्यों रहे हो? जो भी कोई आपको नौकरी देता है इसलिए थोड़ी देता है कि आप अमीर हो जाओ। आपका भला हो जाए। बोलते कुछ भी रहेंगे एमंप्लई वेलफेयर, कॉर्पोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी बहुत सारी बातें बोली जाती हैं पर जिसने भी कंपनी बनाई है उसने जन कल्याण के लिए थोड़ी बनाई है।
उसने अपनी जेबें भरने के लिए बनाई है तो इस तरह के सवाल जब भी आते हैं कि अरे पैण्डेमिक के बावजूद सीईओस तो और अमीर होते जा रहे हैं और जो ओनर्स हैं उनकी तो आप बात भी नहीं कर रहे हो। सीईओ बेचारे के तो बस सैलरी मिलती है। वेल्थी थोड़ी होता है सीईओ। इनकम उसकी अच्छी होती है। वेल्थी तो शेयर होल्डर्स होते हैं। जब आप वो वेल्थ देखोगे तो आपको क्या बोलूं मैं? हम भारत के जीडीपी की बात करते हैं ना। कितना है हमारा? अभी चार ट्रिलियन भी नहीं हुआ है। दुनिया के बस पचास सबसे अमीर लोग ले लो। उनकी वेल्थ भारत के कुल जीडीपी से ज्यादा है। यह क्या हो गया?
दुनिया के सिर्फ सबसे दो अमीर लोग ले लो। उनकी वेल्थ स्पेन और ऑस्ट्रेलिया की जीडीपी से ज्यादा है। हालांकि वेल्थ अलग चीज होती है। जीडीपी अलग चीज होता है। जीडीपी इनकम होता है एक साल की और वेल्थ में टोटल ऐसेट्स आ जाते हैं। दोनों अलग-अलग है। लेकिन फिर भी आपको इससे एक अंदाज़ा तो मिलेगा। और इसमें ये मत कहिए कि अरे ऐसा नहीं करना चाहिए। यू नो द रिच मस्ट हैव अ बिग हार्ट। उन्होंने बिग हार्ट के लिए नहीं बिग पॉकेट के लिए काम शुरू करा है।
तुम कौन होते हो उनको नीति पढ़ाने वाले? आप जब तक उन्हीं की व्यवस्था में शामिल हो, सहभागी हो तो आप उन्हीं की शर्तों पर खेलोगे ना। आप ये थोड़ी कर सकते हो कि आप खेल वो खेल रहे हो जो उनके नियमों से, उनकी शर्तों से चलता हो। और फिर जीत हार आपको अपने हिसाब से चाहिए। जीत हार भी उन्हीं के हिसाब से होगी और उनका हिसाब यह है कि हमेशा वही जीतेंगे। अमीर और अमीर होता रहेगा। गरीब और गरीब होता रहेगा।
ये व्यवस्था बनाई ही इसीलिए गई है। ये इस व्यवस्था में कोई झोल नहीं आ गया। ये इस व्यवस्था में कोई गड़बड़ नहीं हो गई है। ये इस व्यवस्था में कोई तकनीकी खराबी नहीं आ गई है कि अरे देखो इनकम डिस्पैरिटी वेल्थ डिस्पैरिटी बढ़ रही है। ना ना, यह व्यवस्था है ही इसीलिए। पागल वो है जो इस व्यवस्था में शरीक हैं और उनसे ज़्यादा वह हैं जो इस व्यवस्था में है शामिल और उसके बाद भी उम्मीद यह करते हैं कि अमीर तो सहृदयता दिखा के आएगा और कहेगा देखो मैं सब कुछ दान कर देना चाहता हूं।
मैंने ये सब कुछ तुम्हारे लिए ही तो कमाया था। यह कंपनी मेरी थोड़ी है। यह तो एक नेशनल ऐसेट है। मैं तो राष्ट्रवादी हूं। ये सब कुछ राष्ट्र के लिए कर रहा हूं। आप ऐसा सोचते क्यों हो? आपने इतनी पढ़ ली गीता। आप अहंकार को इतना जान गए। आप जान गए कि कोई भी इंसान आत्मज्ञान के अभाव में भीतर से होता कैसा है? उसके बाद आपको ताज्जुब क्यों हो जाता है कि सीईओ सैलरी बढ़ा रहा है। मेरी सैलरी नहीं बढ़ रही। क्यों बढ़े भाई आपकी सैलरी? बिल्कुल नहीं बढ़नी चाहिए। क्यों बढ़ाए कोई? आप अपनी काम वाली बाई की सैलरी बढ़ा देते हो। आप बढ़ा देते हो?
आप मेथी, गोभी, पालक तुरई भी खरीदने जाते हो तो आप वहां भी चाहते हो कि सबसे सस्ता माल मिल जाए और सबसे ऊंची गुणवत्ता का और अगर एकदम मुफ्त मिल जाए आप पूछोगे भी नहीं कि कोई मुफ्त आपको दे क्यों रहा है? मिल रहा होगा तो ले लोगे ना। आप भी ऐसे ही हो। हर इंसान जन्म से ऐसा ही होता है। अज्ञान में पैदा होता है, कामना को पूजता है तो वही काम अगर वैश्विक तल पर हो रहा है या व्यक्तिगत तल पर हो रहा है तो उसमें आश्चर्य कैसा? पैसे को लेके जानते हो कितनी गुंडागर्दी चलती है दुनिया में?
जितने ब्रिटेन वुड्स इंस्टीच्युशंस हैं और बाकी भी जो और नए बैंक्स बने हैं। चीन ने भी अपना बैंक बना लिया अंतरराष्ट्रीय; आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक तो सब पहले से थे ही। इसी तरह डब्ल्यूटीओ, अंतरराष्ट्रीय इन सब में जो वोटिंग राइट्स होती हैं वो किसके प्रपोशनल होती हैं? आपकी जीडीपी के। माने जो अमीर होगा वो तय करेगा कि वर्ल्ड बैंक की अब नीतियां कैसी होंगी। और वह तय करते हैं इस हिसाब से कि उनको और अमीर होने का मौका मिले। उदाहरण बताता हूं।
तो जब द्वितीय विश्व युद्ध खत्म हुआ और यह सब बर्बाद हो चुके थे। जापान भी, यूरोप भी अमेरिका का ही बहुत अच्छा हाल तो था नहीं। विश्व युद्ध से ठीक पहले उनके यहां डिप्रेशन हुआ था। तो एक जबरदस्त पॉलिसी शुरू की गई प्रोडक्शन की और उस प्रोडक्शन के लिए जो कैपिटलिस्ट्स थे उनको फ्री हैंड दिया गया कि तुम बताओ, तुमको क्या चाहिए? जो तुमको चाहिए उसके हिसाब से सरकार काम करेगी।
उदाहरण के लिए ऑटोमोबाइल सेक्टर प्रोस्पर कर सके इसके लिए देश भर में हम सड़कें बना देंगे। सरकार इतनी सड़कें बनाएगी, इतनी सड़कें बनाएगी कि लोगों के लिए गाड़ियां खरीदना और ज्यादा आकर्षक हो जाए। जगह-जगह पर हम फ्यूल पंप खड़े कर देंगे। यह सब बताओ आपको क्या चाहिए? क्योंकि माना गया कि ये जो डिप्रेशन आया था वो आया ही था कि आउटपुट में कमी थी। इकोनॉमिक आउटपुट ही बहुत कम था। अब इकोनॉमिक आउटपुट कौन करता है? जो इंडस्ट्रियलिस्ट होता है वो करता है।
तो अब इंडस्ट्रियलिस्ट अपना करने लग गए अपना काम। पर सेवेंटीज तक आते-आते यूरोप में, अमेरिका में फिर थोड़ा बहुत जापान में भी सैचुरेशन आ गया। सैचुरेशन क्या आ गया कि जो मार्केट्स हैं वो सैचुरेट हो रही हैं। लोग चुकि अब धीरे-धीरे उतने गरीब नहीं रह रहे हैं तो लेबर अब महंगा होता जा रहा है। इसके अलावा कुछ एनवायरमेंटल रेगुलेशंस सामने आ रही हैं। लेबर लॉस अड़चन दे रहे हैं। तो ये सब होने लग गया।
तो सबसे पहले तो सत्तर और सत्तर के ही दशक में अस्सी के दशक में नियो लिबरलिज्म आ रहा। अमेरिका में भी, यूरोप में भी यहां पर मारग्रेट थैचर का रहा। उधर रोनाल्ड रीगन का रहा। इसमें इन्होंने सबसे पहले अपने यहां पर जितने बैरियर्स थे अमीरों को और अमीर करने के विरुद्ध वो सारे बैरियर्स हटाए। तो चलो उससे काम चल गया लगभग एक दशक तक और। फिर पता चला कि अब उससे भी काम नहीं चल रहा है। तो साफ दिखाई दिया कि अब हमारे यहां लेबर इतना एक्सपेंसिव हो गया है कि हमें लेबर चाहिए होगा गरीब देशों का। वहां सस्ता मिल जाता है।
साफ दिख गया कि हमारी जो मार्केट्स हैं वो सैचुरेट हो रही हैं। खूब सारी आबादी कहां है? गरीब देशों में है। तो सस्ते प्रोडक्ट्स की बहुत बड़ी मार्केट गरीब देशों में मिलेगी। पर गरीब देशों ने प्रोटेक्टिव टेरिफ वगैरह लगा रखी थी। जैसे भारत ने लगा रखी थी। हमारी प्रोटेक्शनिस्ट पॉलिसीज होती थी नाइनटी वन से पहले। तो इन आईएम एमएफ और वर्ल्ड बैंक का इस्तेमाल करके ना जाने कितने विकासशील देशों की इकोनॉमिक पॉलिसीज बदलवाई गई। तो उसको बोला गया स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट। क्यों बदलवाई गई? ताकि अमीर और अमीर हो सके। गरीब और गरीब हो सके।
हम अंग्रेजों की बात करते हैं। अंग्रेजों ने भारत को लूट लिया। जब अंग्रेज भारत छोड़ के गए तो एक अंग्रेज और एक भारतीय की आमदनी में क्या अनुपात था? दस और एक का। जब अंग्रेज भारत छोड़ के गए तो आम अंग्रेज एक आम हिंदुस्तानी से दस गुना ज्यादा कमाता था। और आज वो क्या अनुपात है? आज वो बीस का है। यह इस व्यवस्था का लक्षित परिणाम है। यह व्यवस्था की असफलता या अराजकता से नहीं हुआ है। यह इस व्यवस्था का उद्देश्य ही है।
क्यों है इस व्यवस्था का उद्देश्य? क्योंकि यह व्यवस्था किससे आ रही है। हमसे आ रही है। हमसे जो व्यवस्था आएगी वह हमारी कामनाओं की पूर्ति के लिए ही तो आएगी ना। हमारी व्यवस्था कहती है मैं काम शुरू करूंगा उससे मैं अपने लिए इतना अर्जित कर लूंगा। और जब मैं इतना अर्जित कर लूंगा तो उसमें से थोड़ा बहुत मैं टैक्स में दे दूंगा जिससे सरकार कुछ वेलफेयर के काम कर देगी और उसके अलावा मैंने अर्जित कर लिया है।
तो एक ट्रिकल डाउन इफेक्ट होता है। उससे और लोगों तक भी कुछ मिल जाएगा क्योंकि मैं बहुत अर्जित करूंगा तो मैं एंप्लॉयमेंट भी दूंगा लोगों को। पर आप एंप्लॉयमेंट इसी हिसाब से तो दोगे ना कि आप किसी को एक रुपया दे रहे हो तो उससे दस रुपया वापस मिलता हो। तो माने आप जितना एंप्लॉयमेंट देते जाओगे उतना क्या होता जाएगा? आप एक आदमी को एंप्लॉयमेंट दे रहे थे तो उसको आप एक रुपया देते थे। उससे लेते कितना था? दस रुपया।
अब आप कह रहे हो कि मुझे देखो मैं कितना महान आदमी हूं। मैं दस लोगों को एंप्लॉयमेंट देता हूं। दस लोगों को एंप्लॉयमेंट देते हो तो इसका मतलब यह है कि उनसे अब पहले आप दस ही रुपया ले पाते थे। अब सौ रूपया भी तो ले रहे हो। तो आप जितना एंप्लॉयमेंट दे रहे हो उतना ज्यादा ये सिद्ध होता जा रहा है कि आप उनकी अपेक्षा और ज्यादा अमीर होते जा रहे हो। ये समझ में आ रही है बात?
ये बात एक देश और दूसरे देश के रिश्तों में लागू होती है। यह बात एंप्लयर और एंप्लई के रिश्ते में लागू होती है। और यह बात एक ही देश के भीतर की आबादी पर भी लागू होती है। अमेरिका के भीतर आपको क्या लगता है? गरीब नहीं है। इस वक्त अमेरिका में लगभग जो जो होमलेस लोग हैं लगभग एक मिलियन होने जा रहे हैं। उनके पास घर नहीं है। जैसे हमारे यहां आपने देखा ना फुटपाथ वगैरह पड़े रहते हैं। वैसे वो वहां पड़े रहते हैं। जो आधिकारिक आंकड़ा है वही कह रहा है 8 लाख। तो हमारे यहां ऐसे पड़े रहते हैं कि उनके पास खाने को भी नहीं होता। वहां पे इतना रहता है कि चलो बिना खाए नहीं मरेगा। तो वह भी ऐसे ही कुछ टेंटवेंट प्लास्टिक पन्नी डाल के अपना पड़े हुए हैं।
और अगर उसको एक समस्या की तरह कहा जाए तो उसको समस्या को सुलझाने के लिए जो आएगा व्यक्ति वो उसको निश्चित रूप से सिर्फ इस तरह से सुलझाएगा कि समस्या को सुलझा करके दो सौ लोगों तक अगर दस दस डॉलर पहुंच रहे हैं माने दो सौ लोगों तक कितने पहुंचे? दो हज़ार डॉलर। तो उसकी अपनी जेब में कम से कम दो लाख डॉलर आने चाहिए। यह समाधान देने के लिए दिखाई यह देगा कि उसने दो सौ लोगों का भला कर दिया। देखो कितना अच्छा आदमी है। दो सौ लोगों का भला कर दिया। उन तक दस डॉलर पहुंच गए। बड़ी तारीफ होगी। हो सकता है कोई पुरस्कार भी मिल जाए।
उसमें आपको यह नहीं दिखाई देगा कि वो दूसरों तक पहुंचाएगा ही तभी जब पहले दस गुना अपनी जेब में डालेगा। अन्यथा वो काम नहीं करेगा। इसी को तो कहते हैं ना सकाम कर्म कि मैं कुछ करूंगा ही तभी जब उससे मुझे बहुत कुछ मिल रहा होगा। बस अन्यथा मैं करूंगा ही नहीं। तो जिस दुनिया में अध्यात्म नहीं होगा, वेदांत नहीं होगा, गीता नहीं होगी, उस दुनिया में अगर आप ग्रोइंग इनकम इनइक्वैलिटी देख रहे हैं तो अचंभा कैसा?
भारत में एक अजीब चीज हो रही है। लग्जरी प्रोडक्ट्स का मार्केट भारत में जबरदस्त तरीके से बढ़ता जा रहा है। आप मुंबई जाएं वहां पर Jio की कोई मॉल है उसमें एक भी देसी आपको ब्रांड मिलेगा ही नहीं। उसमें सिर्फ और सिर्फ इंटरनेशनल ब्रांड्स हैं। उसमें देसी ब्रांड्स को जैसे मनाही है। पाबंदी है कि तुम आ ही नहीं सकते। शायद पॉलिसी होगी मालूम नहीं। पचासों बाहर के ब्रांड टॉप ब्रांड्स और मॉल चल रही है माल बिक रहा है। ढाई लाख की एक शर्ट, पांच लाख की एक ड्रेस, पंद्रह लाख का एक बैग चल रहा है।
और जो एफएमसीजी प्रोडक्ट्स बेचने वाली कंपनियां हैं, जो मध्यम वर्ग को बेचती हैं, वो परेशान है कि उनकी मार्केट श्रिंक कर रही है। ये क्या हो रहा है? जो माल मध्यम वर्ग खरीदा करता है या निम्न मध्यम वर्ग उसकी मार्केट ग्रो ही नहीं कर पा रही क्योंकि मध्यम वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग के हाथ में पैसा ना आ रहा है ना बढ़ रहा है बल्कि वो शायद और गरीब हो रहे हैं और लग्जरी प्रोडक्ट्स की मार्केट बढ़ती जा रही है। बढ़ती ही जा रही है। दिल्ली वालों को जैसे जब अपना जलवा दिखाना होता है तो यहां फॉर्च्यूनर चलती है ज्यादा। आप बॉम्बे चले जाइए। तो वहां पर जर्मन मेकर्स हैं, मर्सिडीज, बीएमडब्ल्यू इनका चलता है। वो लाइन से ऐसे ही जा रही हैं। जैसे आल्टो के पीछे आई टेन लगी हो। वैसे वहां मर्सिडीज के पीछे ये लगी है। फिर वो लगी है। बीच में एक रोल्स रॉयस भी लगी होगी। अपना लाल बत्ती पर खड़ी हुई है चालीस।
और उसी बंबई में दुनिया का सबसे बड़ा स्लम भी है। यह हो रहा है। दुनिया के सबसे ज्यादा जो, एशिया के, दुनिया के तो अभी नहीं; एशिया के किसी एक शहर में सबसे ज्यादा जो बिलेनियर्स हैं वह मुंबई में है। यह कंसंट्रेशन ऑफ वेल्थ है। सारी ताकत और सारा पैसा कुछ हाथों में केंद्रित होता जा रहा है। और इसको नीति और सत्ता भी सहयोग देते हैं। बताओ क्यों देते हैं? अब समझाता हूं क्यों देते हैं? कंसंट्रेशन ऑफ वेल्थ हम सत्ता का, ताकत का, केंद्रीकरण; यह नेता भी बहुत पसंद क्यों करते हैं? समझाता हूं।
आप इतने सारे लोग हैं यहां पर। ठीक है? मान लीजिए लोग बैठे हैं। आप सबके पास एक एक रुपया है। और आपका वो सबका एक एक रुपया निकल करके मेरे पास आ जाए और एक हज़ार हो जाए। हम अब यहां पर एक है यह पॉलिटिशियन राजनेता। इसका लालच यह है किसी तरीके से इसको 500 मिल जाए और पॉलिटिक्स करने क्यों उतरा था? पॉलिटिक्स करने क्यों उतरता है कोई? उसे ही पैसा कमाना है। कोई कुछ भी करने क्यों उतरता है? अपनी कामना पूरी करने के लिए और तो कोई बात होती नहीं है। तो अब ये पॉलिटिशियन है। इसको 500 चाहिए। इसके लिए ज्यादा आसान क्या है?
आप हज़ार लोग हैं। सबके पास एक एक रुपए आए। आपसे पांच सौ रुपए निकलवाए। माने पांच सौ लोगों से अलग-अलग बात करें। उनके साथ समय लगाए, उनके साथ सर फोड़े या वो चुपचाप मुझसे साठगाठ कर ले कि भाई मैं ऐसा माहौल तैयार करता हूं कि इनका हज़ार रुपया तेरे पास आ जाएगा फिर पांच सौ रुपए तू मुझे दे देना। बोलो ज्यादा आसान क्या है उसके लिए? तो वो जो पॉलिटिशियन उसका काम होता है, ऐसा माहौल तैयार करना कि जितने लोग बैठे हैं इनका सबका एक एक रुपया मेरी जेब में आ जाए। और क्योंकि इसने माहौल तैयार किया तो इसलिए मैं पांच सौ इसको दे दूंगा। पांच सौ इसको मिल गए। पांच सौ मुझको मिल गए। आप सबका चला गया पैसा। यह चलता है। समझ में आ रही है बात?
मैं इसका क्या समाधान बताऊं? आप इसके बहुत समाधान बता सकते हैं। पर सारे समाधानों को लागू कौन करने वाला है? इंसान खुद। क्यों इंसान लागू करेगा? क्यों करेगा? वो तो अपना स्वार्थ देखेगा ना। तो कोई समाधान तभी हो सकता है जब पहले इंसान बदले। इंसान नहीं बदलेगा तो कोई समाधान लागू नहीं होगा। इनकम डिस्पैरिटी पूरी दुनिया में बहुत तेजी से बढ़ रही है। जितनी दुनिया में कभी नहीं थी उतनी हो चुकी है। आम आदमी खुश हो जाता है थोड़ा सा झुनझुना पा के मुझे दस रुपए की मिल गई। वो यह नहीं देखता कि तुझे तो दस रुपए की हक मिली है। इसके लिए तूने सामने वाले को हजार कमा के दिया है। तब उसने तुझे दस की दी है।
पर तुझे इस दस रुपए में सुरक्षा है। तुझे लगता है बंधी बंधाई तनख्वाह मिल रही है। तू बाहर नहीं निकलना चाहता। तू जिंदगी को चुनौती नहीं देना चाहता। तो इसके एवज में तू अपना शोषण कराने को तैयार है। हां मुझे चूसते रहो, मुझे लूटते रहो पर मुझे बंधी तनख्वाह देते रहो और ऐसे एक नहीं ऐसे लाखों हैं और उन लाखों का जो श्रम है वो एक की जेब में जाता है। कुछ आ रही है बात समझ में?
आपको बुरा लगेगा कोई आकर के आपको थप्पड़ मार के लूट ले। कोई बंदूक दिखा के लूट ले। पर अगर कोई आपको सैलरी देकर लूट ले तो बुरा नहीं लगता ना। ये है डेमोक्रेटिक कैपिटलिज्म जहां आपको सैलरी दे दे के लूटा जाता है। अब एक आंकड़ा बोल रहा हूं आपको दो।
दो परसेंट दो ट्रिलियन दो बिलियन। इस दो का जादू समझिएगा।
अगर सिर्फ दो परसेंट वेल्थ टैक्स हो तो उससे दो ट्रिलियन डॉलर इकट्ठा हो जाएंगे दुनिया में और उससे दुनिया की आठ बिलियन आबादी में से दो बिलियन आबादी गरीबी से बाहर निकाल ली जाएगी। आठ बिलियन तो सारे अब गरीब है भी नहीं। दुनिया की गरीबी की आधी से ज़्यादा समस्या दूर हो जाए अगर सिर्फ दो परसेंट वेल्थ टैक्स हो। पर यह जो यहां बैठा हुआ है यह दो परसेंट भी वेल्थ टैक्स नहीं लगाएगा मेरे ऊपर। क्यों लगाएगा?
हज़ार अगर मुझे मिलता है तो पांच सौ इसके पास जाता है। उसी पांच सौ का इस्तेमाल करके यह आपको बेवकूफ बनाता है ताकि आप चुनाव में इसको वोट दो। आपसे हज़ार लिया। पांच सौ मेरी जेब में आया। पांच सौ इसको दिया। उसमें से सौ रुपए इसने तरीके से मीडिया को कंट्रोल करने में लगाया। आपको बेवकूफ बनाया। आप बेवकूफ बन गए। आपने इसको वोट दिया। पांच सौ मेरी जेब में आया। पांच सौ इसको मिला। सिर्फ सौ रुपए इसने खर्च किया। काहे पे सौ रुपए खर्च किया? मीडिया को कंट्रोल करने पर।
मीडिया को कंट्रोल करके आपको टीवी में सोशल मीडिया में यह वो दिखाया। आप पागल बन गए। आपने वोट दे दिया चार सौ रुपए उसकी जेब में गए, पांच सौ मेरी जेब में आए। पावर भी उसको मिल गया। अभी वो आपको और बेवकूफ बनाएगा और आपका पैसा ऐसे सर्कुलेट करता रहेगा। सारा खेल जो है है तो पैसे का ही बाबू भैया। आप क्या सोच रहे हो और किसी चीज का कोई खेल है? किसी चीज का कोई खेल नहीं है। ना इसमें भावनाएं हैं, ना इसमें कहीं से कोई राष्ट्रवाद है, ना इसमें धर्म का कोई मुद्दा है, ना कोई और बात है।
जो भी व्यक्ति जो कुछ भी कर रहा है। वो इसीलिए कर रहा है। ताज्जुब मुझे तब होता है जब आपको ताज्जुब होता है। उसने ऐसा करा छी छी। उसने मोरल साइंस नहीं पढ़ी है क्या? बिल्कुल इंसान इंसान में फर्क होता है। एक हो सकता है बुद्धू, एक हो सकता है बुद्ध। चेतना के स्तरों में अंतर होता है। पर इतना अंतर होता है क्या कि एक आदमी के पास इतनी दौलत हो जो जल्दी ही एक ट्रिलियन होने जा रही हो। एक ट्रिलियन रुपया नहीं, डॉलर। क्या है ऐसा उस आदमी में कि उसके पास एक ट्रिलियन डॉलर होने चाहिए। भाई क्या है? इतना तो अभी हाल तक भारत का जीडीपी था।
दुनिया का जो सबसे अमीर आदमी है वह जल्दी ही एक ट्रिलियन डॉलर हिट करने वाला है। आप बताओ ऐसा क्या है उसमें? कुछ है? किसी भी इंसान में इतना कुछ हो सकता है कि एक भूखा मर रहा है बिल्कुल। आज भी स्टार्वेशन डेथ्स होती हैं। एक आदमी खाने को नहीं पा रहा है और एक आदमी एक ट्रिलियन डॉलर लेकर बैठा है। ये किस दृष्टि से न्याय है बताओ? किस दृष्टि से न्याय है? है पर ये न्याय चलेगा क्योंकि आप कभी भी जाकर के उससे ये जो नेता है इससे जवाब नहीं मांगोगे कि तू क्यों नहीं वेल्थ टैक्स लगा सकता?
वेल्थ टैक्स भी छोड़ो, वेल्थ पर ही अपर लिमिट क्यों नहीं हो सकती है? एक आदमी के पास इससे ज्यादा वेल्थ नहीं हो सकती। बात खत्म। क्या करोगे इतनी वेल्थ का? क्या करोगे? किसी भी कंपनी में जो टॉप एंप्लई है, वो सीईओ हो या कोई भी हो। और जो एवरेज एंप्लई सैलरी है उसमें इतने से ज्यादा रेश्यो नहीं हो सकता। वो रेशियो ठीक है आप अपने हिसाब से देख लो कितना रखना है।
दस बीस पचास का रख लो पर दो सौ, पांच सौ का थोड़ी रखोगे। हम मानते हैं इंसान और इंसान में अंतर होता है पर इतना भी अंतर नहीं होता हम मानते हैं कि एक आदमी शायद ये योग्यता रखता है कि उसके पास ज्यादा पैसे हो और दूसरा शायद इसी काबिल है कि उसके पास कम पैसे हो। ठीक है? पर कोई तो सीमा होगी ना अनुपात पर। या जो काबिल है वो इतना बड़ा देवता है कि उसके पास दूसरे से एक करोड़ गुना हो ज्यादा। ऐसा कौन सा देवत्व है भाई उसमें?
और यह जितने भी बिलिनियर्स हैं तो यह सब पब्लिक फिगर्स ही हैं। इनका देवत्व तो सारा दिखाई तो देता ही है। कोई इनमें से बोल रहा है कि क्लाइमेट चेंज इज नॉट अ प्रॉब्लम। कोई बोल रहा है कि डीपॉपुलेशन एकदम ठीक नहीं है। पॉपुलेशन बढ़ाते चलो। यह सब वही है। और इस किस्म के लोगों के पास अकूत दौलत है।
मैं पूछ रहा हूं यह इंसाफ कैसे है? और आपके जमीर को यह बर्दाश्त कैसे है कि इनके पास जब दौलत हो जाती है तो आप इनको पूजना शुरू कर देते हो। आप पूछते ही इनको इसी मारे हो कि इनके पास दौलत है। यह बात शर्म की होनी चाहिए। उसकी जगह यह हमारे देवता बने बैठे हैं। और कुछ नहीं कर सकते तो कम से कम इनको इज्जत देना तो बंद करिए। और वो बहुत अच्छी और बड़ी शुरुआत होगी।
जहां-जहां आप उठा सकते हैं सवाल उठाना तो शुरू करिए। अपनी कंपनी के किसी बोर्ड मेंबर की देखें बहुत बड़ी गाड़ी है। पंद्रह करोड़ वाली खरीदी है तो उससे इंप्रेस होने की जगह बोलिए यह चोरी की है। यह गाड़ी मेरे पैसे की है। सलाम मत ठोकने लग जाइए। गाड़ी पूछनी मत शुरू कर दीजिए उसकी। सलाम साहब वो आपके पैसे की गाड़ी है। वो चोरी की गाड़ी है और समाधान तो एक ही है कि इंसान जाने कि उसकी कामनाएं कितनी भी पूरी कर लो इंसान नहीं पूरा होता। अब कैसे सिखाऊं निष्कामता। आप चाह रहे हो कि अर्थव्यवस्था में बदलाव आ जाए। मैं कह रहा हूं, ‘अंतः व्यवस्था इंटरनल सिस्टम इसमें बदलाव लाए बिना इकोनॉमिक सिस्टम नहीं बदल सकता।’ वरना इतने देशों ने इतने अलग-अलग तरह की आर्थिक व्यवस्थाएं चला कर देख ली। कुछ हुआ? हम भीतर से बदलेंगे, बेहतर होंगे तो ही कुछ भी बेहतर हो पाएगा।
हर चीज के ड्राइवर हम हैं ना। हम भीतर से बिल्कुल गंदे हैं और अंधेरा पाले हुए हैं। और फिर हम चाहे कि बाहर किसी भी किस्म की वर्च्यू आ जाए तो वो कैसे होगा? मैं कहा करता हूं कि पूरी जो क्लाइमेट क्राइसिस है इसके लिए भी कंसंट्रेशन ऑफ वेल्थ ही जिम्मेदार है। आम आदमी थोड़ी कार्बन एमिशंस कर रहा है। कार्बन एमिशन भी वही कर रहे हैं जिनके पास नाजायज दौलत इकट्ठा हो गई है। हां, भुगतने वाला आम आदमी है। और आम आदमी को भुगतना चाहिए। क्योंकि जो अत्याचार सहता है उसका ज्यादा बड़ा गुनाह होता है अत्याचार करने वाले से भी। तो तुझे सजा मिलनी चाहिए आम आदमी। तूने सहा क्यों?
आप यहां बैठे हो ना? मालूम है भारत का जो पर कैपिटा एमिशन है वो अभी भी जो ग्लोबल एवरेज है उससे नीचे है। नब्बे गीगाटन का तो अलाउंस है और मिडिल क्लास के पास तो एक्चुअली अलाउंस है बहुत सारा। हम तो बस झूठमूठ ही रगड़े जाएंगे। दुनिया के जिन देशों पे सबसे ज्यादा क्लाइमेट इंपैक्ट होने वाला है उनमें भारत है सबसे आगे। जबकि जो औसत भारतीय है उसका पर कैपिटा एमिशन बहुत कम है। कहां से होगा?
एमिशन करने के लिए पैसा चाहिए ना। पहली बात तो यहां लोगों के पास गाड़ियां होती नहीं है और होती भी है तो हमारी गाड़ियां होती है आल्टो बराबर और वहां चलता है हमर, पांच लीटर के इंजन वाला। जितना हमारी कारों का इंजन होता है उतना वहां पर बाइक का इंजन होता है। कंसंट्रेशन ऑफ वेल्थ ही इस ग्रह को वहां ले आया है जहां मैं यह भी नहीं कह सकता सब बर्बाद होंगे क्योंकि वो तो शायद मार्स पे निकल लेंगे।
हां आप जरूर मारे जाओगे। पैसा जहां ज्यादा हुआ ना वहां वो सिर्फ उपद्रव की दिशा में भागता है। फिर सोचो ना दो लोग और उनकी नेटवर्थ स्पेन के जीडीपी से ज्यादा। ये दो लोग करेंगे क्या इस पैसे का? कुछ नहीं खुराफात करेंगे, उत्पाद करेंगे, वही कर रहे हैं वही क्लाइमेट चेंज है। ये अमीरों की पैदा की हुई बीमारी है क्लाइमेट चेंज। पूरा जो क्लाइमेट डिनालिज्म है, दुनिया भर में बहुत सारे मीडिया चैनल्स हैं जो लेके आते हैं नहीं।
नहीं क्लाइमेट चेंज तो है नहीं होक्स है। उसकी फंडिंग कौन कर रहा है? ऑयल कंपनीज। ऑयल कंपनी माने क्या? कंपनी में चेतना होती है नहीं ऑयल कंपनी माने क्या? उनके ओनर्स वो पैसा दे रहे हैं कि दुनिया में किसी को पता नहीं लगने देना कि क्लाइमेट चेंज हो रहा है। वो इस बात का मीडिया को खूब पैसा खिला रहे हैं। पैसा खिला रहे हैं क्योंकि नाजायज और फालतू पैसा है। और वो पैसा आपकी जेब से गया है उनके पास और आपकी जेब से क्यों गया है?
क्योंकि आपको भी कोई आत्मज्ञान नहीं। वो आपको विज्ञापन दिखाते हैं। आप उनका माल खरीद लेते हो। आपके ही पैसे से उनकी जेब भर रही है और आपके ही पैसे से पृथ्वी तबाह हो रही है। वो खुद थोड़ी प्रोडक्टिव पावर्स हैं। वो क्या पैदा करते हो? कुछ नहीं करते। पैदा आप करते हो। जेब उनकी भरती है। आपकी मेहनत का पैसा इस पृथ्वी को बर्बाद करने के काम आया है। और वहां आपको जरा भी झिझक नहीं होती है।
हां इतना तो करना चाहिए। इसका इतना दे दो, इतना दे दो, इतना दे दो। मूवी देखने गए हो तो चार सौ का पॉपकॉर्न है तो क्या हो गया? तुमने कभी सोचा वो चार सौ रुपए किसके पास जा रहा है? और उसका वो क्या करने वाला है? सोचना। हो सकता है आपके लिए चार सौ बड़ी बात ना हो पर उस पॉपकॉर्न की लागत तो शायद दस रुपए भी नहीं है। तो ये चार सौ रुपए गया कहां? यह चार सौ रुपए गया है पृथ्वी को तबाह करने की दिशा में। वो निकल लेंगे। उन पे कोई असर नहीं पड़ेगा।
श्रीकृष्ण गीता के निर्गुण श्रीकृष्ण कोई व्यक्ति तो है नहीं। मैं कहूं कि उनको इज्जत दो। गीता को इज्जत देने का, श्रीकृष्ण को इज्जत देने का अर्थ ही होता है कि अभी जिनको इज्जत देते हो उनको बेइज्जत करना सीखो। और आपके सर हैं जो उठने से इंकार करते हैं । जिसको देखो मजबूरी का रोना। अभी भी देख रहा हूं। तो मैं जितना ज्यादा हुंकार भरता हूं उतना मैं देखता हूं और डर जाते हैं। क्या पता मंच से कूद के उठा ही ले हमें। बच के रहो। और दूसरे के पीठ के पीछे मुंह छुपा रहा है।
आप जिनको अपना आदर्श मानते हो, आपकी नजर में जो सम्माननीय लोग हैं, यह अच्छे लोग नहीं हैं। आप बहुत धोखे में हो। और यह धोखा आपने खुद दिया है अपने आपको। जिसको इज्जत देनी चाहिए थी, उसको दी नहीं। जिसकी संगति करनी चाहिए थी, उसकी करते नहीं। तो नतीजा फिर यही कि जहां बुलंद आवाज में ललकारना चाहिए वहां जबान ऐठ जाती है।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी जो न्यूज़ आती है मीडिया में कि इन कैपिटलिस्ट ने अपनी पचास परसेंट वेल्थ डोनेट कर दी, उन्होंने अपनी पूरी जमा पूंजी में से पचहत्तर परसेंट ट्रस्ट को दे दिया और वह समाज के कार्यों में लगा रहे हैं। वो सब क्या करते हैं?
आचार्य प्रशांत: वो न्यूज़ कहां से आती है?
प्रश्नकर्ता: न्यूज़ चैनल से।
आचार्य प्रशांत: वेद छपते हैं वेद, जिसमें नित्य सनातन अकाट्य सत्य होता है। अपौरुषेय सीधे आसमानों से उतरा हुआ विशुद्ध। क्या बोले हैं क्या है? मुझे न्यूज़ आती है। न्यूज़ आती है माने क्या? दुनिया भर की मीडिया पर कुल पांच लोगों का तो कब्जा है। वो पांच लोग तय करते हैं आपके मन तक क्या पहुंचेगा। वेदांत का मूल प्रश्न होता है। बाय हुम? उसके पीछे कौन है? कर्म देख रहे हो। कर्ता कौन है? कर्म तो देख लिया न्यूज आई। वो न्यूज़ चलाई किसने? वो न्यूज़ चलाई किसने?
नहीं न्यूज़ आती है। आकाशवाणी हुई है। बहुत सारे काम होते हैं जो सिर्फ आपको सुनाने के लिए होते हैं। एक चीज होती है कॉर्पोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी। जिसमें सब बड़ी कंपनियां अपना इतना पैसा देती हैं कि हां लो हम एनजीओस को दे रहे हैं। वो शुरू में दो चार साल हमारे यहां के भी एक आध दो लोग गए। फिर वहां पता ये चला कि वो जिस एनजीओ को जाता है वो अक्सर सेठ जी की पत्नी का होता है। सेठ जी का पैसा सेठ जी कभी अपनी जेब से बाहर जाने देंगे? वो यहां से सीएसआर के नाम पे निकालते हैं और इस पॉकेट में डाल लेते हैं। इस पॉकेट से निकलता है और इस पॉकेट में वापस आ जाता है।
आप कहोगे देखा इतना सारा सीएसआर कर दिया। गजब की दानी कंपनी है गजब की।
प्रश्नकर्ता: आई थिंक इस इन विषयों पर आपने पहले भी काफी बोला है। इससे पहले आपका जो वीडियो था टोपी वाली लड़की और नंगा साधु के पीछे चुनाव नेताओं को भी आपने इस पे बोला था। तो मेरे ख्याल से जो फंडामेंटल उन दोनों वीडियोस में जो था एजुकेशन पे बेसिकली पॉइंट आउट करता है।
क्योंकि जैसे अभी आ रहा है कि पूंजीवादी लोग जो है न्यूज़ निकलवा देते हैं तो अल्टीमेटली जो लोगों को समझ आना है बेसिकली वो ज्ञान से बेसिकली उनके पास एजुकेशन होगी तभी वो लोग क्वेश्चन कर पाएंगे नेताओं को या जो भी मतलब यह मुद्दे तो घूम फिर के रूट कॉज कम्स टू एजुकेशन।
आचार्य प्रशांत: एजुकेशन तो इनके पास भी है। क्या पीजी यूजी क्या?
प्रश्नकर्ता: पीजी
आचार्य प्रशांत: पीजी। अब बताइए, अब क्या करें? सब खत्म। गजब हो गया। एजुकेशन तो आपके पास भी है देखिए फिर भी आपने ऐसी बात की।
प्रश्नकर्ता: (हँसते है।) जी जी।
आचार्य प्रशांत: आत्मज्ञान अलग चीज होता है ना एजुकेशन से। आत्मज्ञान अलग चीज होता है। जब आत्मज्ञान नहीं होता तो कितना भी पढ़ रखा हो, सोशलॉजी साइंस कुछ भी। जब काम भरा हो आंख में सच नजर नहीं आता है। सामने वाला आकर लुभा जाता है। सामने वाला आके बुद्धू बना जाता है। वो समस्या आत्मज्ञान की है। मात्र शिक्षा की नहीं। बिल्कुल शिक्षा जरूरी है। फॉर्मल एजुकेशन बिल्कुल जरूरी है। अविद्या बिल्कुल जरूरी है। पर जो हम मूर्ख बनते हैं वो इसलिए नहीं बनते कि हमने साइंस, आर्ट्स, कॉमर्स नहीं पढ़ा हुआ है। वह इसलिए है क्योंकि हमने गीता ठीक से नहीं पढ़ी है। तो हमें पता भी नहीं लगता कि यह जो हो रहा है यह क्या हो रहा है।
आत्मज्ञानी के साथ एक मस्त बात यह होती है कि आप उसे बेवकूफ नहीं बना सकते। क्योंकि वो आपको बेवकूफ नहीं बनाना चाहता। ना बेवकूफ बनाऊंगा ना बनूंगा। आप कितनी भी कोशिश कर लो आप उसके साथ चाल खेलोगे, ‘ही विल सी थ्रू।’ क्योंकि वह अपने मन को जानता है इसलिए आपके मन को भी जानता है। आप उसके साथ चालाकियां नहीं कर सकते। पर क्योंकि हम आत्मज्ञानी नहीं है तो इसलिए दुनिया हमारे साथ चालाकियां कर जाती है।
और हम सोचते हैं कि नहीं नहीं। अभी तो चालाकियों के साल चल रहे हैं जब बुड्ढे हो जाएंगे। अभी हम चालाकियां कर लेते हैं। जब बुड्ढे हो जाएंगे तब सीधे हो जाएंगे तब गीता पढ़ेंगे। तुम चालाकियां कर नहीं रहे। तुम बेवकूफ बनाए जा रहे हो। तुम चालों के शिकार हो रहे हो। चालों के शिकार तुम ना हो जाओ। दुनिया की, प्रकृति की, शरीर की, इनकी चालों में ना फंस जाओ। इसके लिए ही तो आत्मज्ञान होता है ना। गीता होती है।
बिना गीता के आप पीएचडी करके बैठे होंगे। कोई फर्क नहीं पड़ता। आप डबल पीएचडी कर लीजिए। कोई फर्क नहीं पड़ता। दुनिया आपको बेवकूफ बनाएगी ही बनाएगी।