अध्यात्म के खिलाफ़ दोस्तों की नाराज़गी || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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अध्यात्म के खिलाफ़ दोस्तों की नाराज़गी || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अब मैंने आध्यात्मिक शास्त्रों का अध्ययन करना शुरू कर दिया है। जो मेरे सहपाठी हैं, वो मुझसे परेशान हो चुके हैं। वो हर कोशिश कर रहे हैं मुझे रोकने की कि तू अपने जो विषय हैं वो क्यों नहीं पढ़ता?

आचार्य प्रशांत: क्या पढ़ रहे हो अभी?

प्र: आयुर्वेद।

आचार्य: तो जब तुम बोध-साहित्य पढ़ते हो तो अपने दोस्तों के कमरे वगैरह में जाकर पढ़ते हो क्या?

प्र: एक ही कमरा है, तीनों साथ रहते हैं।

आचार्य: तो जब तुम पढ़ते हो तो ज़ोर-ज़ोर से बोलकर पाठ करते हो क्या? तो वो क्या करते हैं? वो आ-आकर देखते हैं कि तुम क्या पढ़ रहे हो?

प्र: हाँ, वो कोशिश करते हैं देखने की कि ये कर क्या रहा है। अब जैसे शान्त रहता हूँ तो वो कहते हैं कि कोई कमरे में चोरी कर जाए तो तेरे को तो पता ही नहीं लगेगा, तू खोया रहता है, थोड़ा ध्यान रखा कर इधर-उधर।

आचार्य: जो कर रहे हो, करते रहो। दो महीने बाद पाओगे कि जो तुम पढ़ रहे हो, चोरी-छुपे वो भी वही पढ़ रहे हैं। यूँही नहीं उनका ध्यान इतना ज़्यादा जा रहा है तुम्हारी किताब या ग्रन्थ पर। ये वही पुरानी अदा है कि दिल तो आ रहा है लेकिन ज़ाहिर भी नहीं कर सकते। तो ये वो उल्टे तरीक़े से अपना प्रेम व्यक्त कर रहे हैं। जो बार-बार कहते हैं न, ‘तू यह क्यों पढ़ता रहता है, क्यों पढ़ता रहता है?’ वो वास्तव में चाहते हैं कि तुम उन्हें बताओ कि जो तुम पढ़ रहे हो वो क्या है।

जब तुम बताओगे तो वो कहेंगे, अरे! इसमें तो कोई ख़ास बात नहीं, इतने में तो हम प्रभावित हुए ही नहीं। और अगर तुम हमें प्रभावित करना चाहते हो, ’इम्प्रैस’ , तो और बताओ और बताओ। फिर तुम और बताओगे, वो और सुनेंगे। फिर कहेंगे, ‘अरे नहीं! ये तो कुछ है ही नहीं, ये तो कॉमन सेंस (साधारण बुद्धिमत्ता) है। इसमें ऐसा क्या ख़ास लिखा है कि इसी में डूबे रहते हो? और कुछ ख़ास हो तो बताओ।’ बोला उन्होंने कुछ ऐसा?

प्र: ऐसा मुझे भी लगता है, जैसे एक-डेढ़ महीने से पढ़ रहा हूँ मैं, तो पहले तो वो चिढ़ गये थे। अब वो मुझे पसन्द भी करने लग गये हैं। अब वो चिढ़ नहीं होती इतनी उन्हें। वो क्रान्ति भी आ रही है जीवन में।

आचार्य: क्रान्ति-व्रान्ति तो ठीक है, दूर की बात है। लेकिन इस बात को सब समझ लीजिएगा, हम उल्टे आशिक़ हैं। किसी चीज़ को ख़याल में रखना हो तो एक तरीक़ा ये होता है कि उसे ख़याल में रखकर बोलो, चीज़ कितनी बढ़िया है। और ख़याल में ही रखने का उल्टा तरीक़ा ये होता है कि ख़याल में रखो और बोलो चीज़ कितनी बेकार है। दोनों ही दशाओं में आपने चीज़ को ख़याल में तो रख ही लिया न। तो करना हमें स्मरण ही है। ये एक तरह का सुमिरन ही है, पर यह उल्टा सुमिरन है।

ये वैसा ही सुमिरन है जैसे रावण ने कहा कि मुझे तो राम एक ही तरीक़े से मिल सकते हैं। एक तरीक़ा होता है सीधा तरीक़ा, किसका? विभीषण का या हनुमान का, कि राम चाहिए तो सरलता के साथ, बिलकुल सिधाई के साथ जा करके उनके सामने खड़े हो गये कि हमें आप पसन्द हैं। और उल्टा तरीक़ा होता है रावण का, कि राम चाहिए तो पहले शूर्पणखा भेजेंगे, फिर सीता उठा लाएँगे, फिर जितने राक्षस हैं उन सबको मरवाएँगे पहले।

तुम काम देखो न उसका! वो कह रहा है, हम सीधे-सीधे पहुँच जाते तो ये सब कैसे मरते! तो पहले इन सबको मरवाएँगे। एक बेचारा सोया पड़ा था, वो उठने को नहीं तैयार था, उसको ढोल बजा बजाकर कि उठ कुम्भकर्ण, उसको ढोल बजा-बजाकर मरवाया। और फिर अन्त में जब सब साफ़ हो गये तो ख़ुद खड़े हो गये कि अब हमें भी आप परमगति दीजिए। अपने सब भाई-बन्धुओं को तो हमने पहुँचा दिया, हम आख़िरी हैं कतार में, अब हमें भी पहुँचाइए।

तो हमारा रावण वाला तरीक़ा है। चाहिए हमें राम ही, पर बिलकुल उल्टे तरीक़े से। ये बात वो न समझते हों, तुम तो समझते ही हो न! ठीक है? तो आइन्दा से जब भी कोई मिले जो बोध-साहित्य की, धर्मग्रन्थों की हँसी उड़ाता हो या उनके बारे में अपशब्द बोलता हो तो समझ जाना कि इसे प्रेम तो है राम से, बस तरीक़ा ये रावण वाला अपना रहा है। इनसे बल्कि थोड़े ज़्यादा गड़बड़ वो लोग होते हैं जो बोध-ग्रन्थों के प्रति न सम्मान दिखाते हैं न अपमान, बल्कि उपेक्षा दिखाते हैं। वो लोग ज़्यादा गड़बड़ होते हैं।

सबसे भला तो वो है जिसे सीधे-सीधे प्रेम ही हो जाए। दूसरे स्थान पर वो है जिसे नफ़रत हो जाए। वो सीधे बोले कि अध्यात्म हाय-हाय। ‘कौन बात कर रहा अध्यात्म की? हमें बताओ, अभी गोली मारेंगे।’ ये भी बहुत गिरा हुआ नहीं है। ये दूसरे स्थान पर है, सेकंड क्लास (द्वितीय श्रेणी) है।

सबसे गड़बड़ लोग वो होते हैं जो कहते हैं हमें कोई मतलब नहीं है। जो अनादर भी नहीं रखते, उपेक्षा रखते हैं, इंडिफ़रेंस। ये लोग ज़्यादा गड़बड़ हैं। हालाँकि ये भी एक अन्य, एक तीसरे तरीक़े से अध्यात्म की ओर बढ़ते हैं। इनका तीसरा तरीक़ा क्या होता है? इनका तीसरा तरीक़ा होता है संसार। ये पूजा तो करते हैं, किसकी? संसार की। अरे! तुम संसार की ही पूजा करते हो भले, पर पूजा तो कर ही रहे हो न! और पूजा अगर तुम कर रहे हो तो पूजा करते-करते एक दिन उस तक भी पहुँच जाओगे जो वास्तव में पूजनीय है। लेकिन ये जो तीसरी कोटि वाले होते हैं, इनका रास्ता सबसे लम्बा होता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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