आत्म-अवलोकन की ताकत कैसे बढ़ाई जाए? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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आत्म-अवलोकन की ताकत कैसे बढ़ाई जाए? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अवलोकन की ताक़त कैसे बढ़ायी जाए? जैसे कभी-कभी शान्ति का क्षण होता है तो तब थोड़ा अवलोकन रहता भी है, अपने को देखने की क्षमता रहती है। भय, काम, क्रोध, और जब मोह रहता है, इस समय पर बहुत मुश्किल होता है अपनेआप को झाँकना। अगर स्मरण आ भी जाता है कि अवलोकन, अपनेआप को देखें एक बार, अब ये क्रोध आ रहा है। नहीं, पहले प्राथमिकता अहंकार या हम स्वयं क्रोध को ही देते हैं, भय को ही देते हैं। बाक़ी उस समय ये तो याद रह जाता है कि अवलोकन से फ़ायदा है, बहुत कुछ है, लेकिन वो चीज़ नहीं रह पाती, प्राथमिकता पहले इन्हीं चीज़ों में जाती है। तो ताक़त अवलोकन के लिए कैसे बढ़ायी जाए?

आचार्य प्रशांत: अवलोकन की ताक़त बढ़ती है अवलोकित तथ्य पर जीकर के। वो पूछ रहे हैं कि जो देख रहे हैं उसको और साफ़-साफ़ देखने की ताक़त कैसे बढ़ाएँ। अपने बारे में कुछ बातें नज़र भी आ जाती हैं, तो जो नज़र आया है वो कुछ ही देर में या तो भूल जाता है या फिर जानते-बूझते भी उसके ज्ञान के विपरीत काम कर जाते हैं।

तो पूछ रहे हैं कि आँखों-देखी मक्खी कैसे न निगलें — ये है प्रश्न — कि अवलोकन तो कर लिया कि पानी में पड़ी है मक्खी, लेकिन उसके बाद विचित्र घटना घट रही है कि देख भी लिया कि पानी में मक्खी पड़ी है तो भी पी गये। तो ऐसा कैसे करें कि कम-से-कम जब जान जाएँ कि कहाँ क्या है, तो फिर उस जानकारी, उस ज्ञान के अनुसार जीवन बिताएँ। लो मिल गया उत्तर — जितनी बार तुम जानते-बूझते मक्खी निगलोगे, उतनी बार तुम अपने लिए और मुश्किल कर दोगे अगली बार मक्खी की मौजूदगी को पकड़ पाना।

अवलोकन सामर्थ्य तभी पाता है जब अवलोकन के अनुसार जीवन चले। जो जाना उस पर जिये नहीं, तो जानना भी क्षीण पड़ जाता है। यही वजह है कि एक-से-एक जानकार, एक-से-एक ज्ञानी बड़ा बेरस जीवन जीते नज़र आते हैं, क्योंकि जानने से क्या होगा! पहली बात — जानने से क्या होगा अगर जो जाना वैसा जीने की नीयत ही नहीं है? और दूसरी बात — जब जियोगे नहीं जाने अनुसार, तो अगली बार जानना भी मुश्किल हो जाएगा, क्षीण पड़ता जाएगा।

देख लेना ही काफ़ी थोड़े होता है, उसके बाद अपनेआप को कर्म में भी तो झोंकना पड़ता है! और अगर उचित कर्म नहीं करना, तो फिर तो बेहतर यही था कि तुम्हें मक्खी दिखाई ही न देती। जो संयोगवश, या भूलवश मक्खी देख ही नहीं पाया और निगल गया, उसको अपेक्षतया कम हानि होगी, पर जो देख-देखकर गटक रहा है, वो तो वर्तमान भी चौपट कर रहा है और भविष्य भी।

यही वजह है कि अध्यात्म ख़तरनाक भी है। जिन बेचारों को कुछ पता ही नहीं, अगर वो उल्टा-पुल्टा जीवन जियें, तमाम तरह के भ्रमों और विकारों में लिपटे रहें, तो उनको एक बार क्षमा मिल सकती है। पर जिन्होंने सब जान लिया, और जानने के बाद भी वो बदले नहीं, सुधरे नहीं, उनको कैसी माफ़ी! जानना जानकारी भर नहीं, बड़ी ज़िम्मेदारी है। वो ज़िम्मेदारी उस पर नहीं है जो अभी सो रहा है और बेहोश है, पर जो जानता जा रहा है वो अब उत्तरदायी होता जा रहा है।

तुम्हें तो पता था, फिर भी तुम बहके रहे। इस धरती की अदालतें भी बच्चों को, पागलों को और नशेड़ियों को थोड़ी रियायत दे देती हैं। बच्चे से अपराध हो जाए, उसको बड़ी सज़ा नहीं देती अदालत भी। पागल से अपराध हो जाए, और किसी से अर्द्ध-जागृति में, बेहोशी में, गहरे नशे में अपराध हो जाए, तो उसको भी थोड़ी रियायत मिल जाती है, थोड़ी क्षमा मिल जाती है। लेकिन जो जानते-बूझते अपराध करे, जो मन बनाकर, तय करके, आयोजन करके अपराध करें, उसको तो इस ज़मीन की अदालत भी माफ़ी नहीं देती, ऊपर की अदालत में क्या माफ़ी मिलेगी!

तो यहाँ जितने लोग बैठे हुए हैं, वो यहाँ बैठकर अपना माफ़ी पाने का अधिकार खोते जा रहे हैं। जब तक तुम बाहर खड़े थे, तुम्हारे पास एक अधिकार था कि तुम कुछ ग़लती करोगे तो क्षमा माँग सकते हो, कि हम तो अबोध हैं, हम कुछ जानते ही नहीं। और क्षमा शायद तुम्हें मिल भी जाती, पूरी नहीं तो कम-से-कम आंशिक। पर अब यहाँ बैठ लिये, तो अपना नुक़सान ही कर लिया न? अब कोई माफ़ी नहीं मिलने वाली। अब तो गड़बड़ करोगे तो वो पूछेगा कि बेटा तुम तो सब सुन-पढ़ आये थे, सब जान आये थे, आधी-आधी रात बैठकर सत्संग सुनते हो, उसके बाद भी ये करम हैं तुम्हारे?

तब मालिक को क्या जवाब दोगे? क्या जवाब दोगे, प्रदीप? ६–८ शिविर भी कर लिये, दनादन वॉट्सऐप पर रिफ़्लेक्शन भी लिख दिए, सब कर दिया, और उसके बाद भी? अब तो सब जान गये। जहाँ तक जानकारी की बात है सब जान गये; जहाँ तक ज़िन्दगी की बात है, ज़िन्दगी में कितना है वो तुम जानो।

इसीलिए बहुत लोग कहते हैं, ‘बच्चा ही बना रहना ठीक है, माफ़ी मिल जाती है कम-से-कम। कौन जाकर के ग्रन्थ पढ़े और सच पता करे!‘ सच पता करके तो तुमको जो माफ़ी मिली होती है, उस माफ़ी का त्याग कर देते हो, अपने वेवर (छूट) को फ़ोर्फ़ीट (खो बैठना) कर देते हो। तो हम जाएँगे ही नहीं, ताकि कोई बाद में हमसे अगर कहे कि अरे ये क्या कर रहे हो, ज़रा विवेक का प्रयोग करो, तो हम कहें — विवेक, वो क्या होता है? हमें तो विवेक पता ही नहीं। तो हमें हर तरह की मूर्खता करने की छूट है।

ग्रन्थ पढ़ लिये, गुरु को सुन लिया, तो पता चल जाएगा कि विवेक माने क्या; फिर वो छूट जाती रहेगी। फिर तो कोई भी पकड़ लेगा और सवाल करेगा कि विवेक तो तुम जानते हो, तो ये घटिया हरकत क्यों कर रहे हो। फिर फँस जाएँगे, तो इससे अच्छा जाएँ ही नहीं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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