प्रश्नकर्ता: मेरे व्यक्तित्व के दो भाग हैं और मैं उन दोनों के बीच में ही डोलती रहती हूँ। पहला भाग मुझे जीवन के प्रति उत्सुक रखता है और दूसरा भाग मुझे आलसी बनाता है। पहला भाग योजनाएँ बनाता है आगे की, और दूसरा वाला आगे की सोचता ही नहीं। आचार्य जी, मेरे इन दो हिस्सों के बीच बहुत संघर्ष है और उस संघर्ष से, द्वन्द से, मुझे तनाव होता है। क्या करूँ?
आचार्य प्रशांत: मेलों में चरखी झूला हुआ करता था। अभी भी जो बड़े मनोरंजन पार्क होते हैं, अम्यूज़मेंट पार्क्स वग़ैरह, उनमें होता होगा। उस झूले में एक बड़ा चक्का होता है, उसपर बैठ जाते हैं लोग और वो ऐसे गोल-गोल घूमता है। देखा ही होगा! नीचे से ऊपर ले जाता है, ऊपर से नीचे ले जाता है और बड़ी गति से करता है। लोगों को उसमें निश्चित रूप से मज़ा तो मिलता ही है, कुछ उत्तेजना तो आती ही है। चीखें मार रहे होते हैं लोग। पैसा देकर के, खतरा उठा करके भी जाते हैं, उस झूले पर बैठते हैं और एक बार नहीं, बार-बार बैठते हैं।
उस झूले का नाम है हमारी ज़िन्दगी, और वही झूला आपके इस सवाल में मुझे झूलता नज़र आ रहा है। जाना है हमें आकाश की ओर। मतलब ऊपर को बढ़ना है, उठना है। और झूला भी आपको कुछ देर तक तो ऊपर की ओर ले ही जाता है। और जब तक झूला आपको ऊपर की ओर ले जा रहा है, आपका एक पक्ष, आपका एक हिस्सा,बड़ा सन्तोष मानेगा। वो कहेगा, ‘देखो, जीवन में तरक्की हो रही है, ऊपर उठ रहे हैं, ऊर्ध्वगमन हो रहा है। यही तो चाहिए था! संसारियों ने भी और आध्यात्मिकों ने भी जो बात कही है कि उठो! बढ़ो! वही बात हमारे साथ हो रही है। हम कितने खुशनसीब हैं!
क्या हो रहा है अभी आपके साथ? आप झूले पर बैठे हो और झूला आपको नीचे से ऊपर की ओर ले जा रहा है। चक्का विशाल है। जो चक्का, जो पहिया आप बच्चों के खेल में और मेलों में, पार्कों में देखते हैं, उसमें नीचे से ऊपर पहुँचने में कुछ सेकंड का वक्त लगता है। ज़िन्दगी का पहिया थोड़ा ज़्यादा बड़ा है। उसमें नीचे से ऊपर जाने में वक्त लग जाता है। हफ़्ते लग जाते हैं, महीने लग जाते हैं, कई बार साल भी लग जाते हैं। और इस दरमियान हम इस ही खुशफ़हमी में रहते हैं कि देखो, हमारे साथ कितना अच्छा हो रहा है। हम ऊपर उठ रहे हैं! हम ऊपर उठ रहे हैं!
यही तो हमको ऋषियों और सन्तों ने भी कहा है और यही तो हमको संसारीयों ने भी सिखाया है कि ऊपर उठो। और देखो, हम ऊपर उठ रहे हैं न! ज़िन्दगी में सब कुछ तरक्की करता जान पड़ता है। रिश्ते बन रहे होते हैं, पैसा आ रहा होता है, ज्ञान बढ़ रहा होता है, प्रतिष्ठा बढ़ रही होती है, ताकत बढ़ रही होती है। वो सब कुछ जो जीवन में, मूल्यवान, पाने लायक आप कह सकते हैं, वो आपको उस दरमियान, उस अवधि में मिल रहा होता है। झूला अभी आपको ऊपर की ओर ले जा रहा है, आपको लग रहा है, आप ऊपर की ओर जा रहे हैं।
आप भूल ही गये हैं कि आप ऊपर की ओर नहीं जा रहे हैं, आप तो झूले के गुलाम हैं। आप बन्धक हैं!
और फिर एक पल ऐसा आता है जब आपकी नीचे की यात्रा शुरू हो जाती है। ये आपके व्यक्तित्व का वो दूसरा पक्ष आ गया जिसकी आपने अपने सवाल में चर्चा करी है। अब आप नीचे को आने लग गये। ये क्या हो गया! आप कहते हैं, ‘अरे, ‘बुरे दिन आ गये, बुरा वक्त आ गया।’ नहीं, बुरा वक्त नहीं आ गया, वो वही वक्त है जो आपका अभी तक चल रहा था। आप जिस झूले के भरोसे हो, सहारे हो, जिस झूले के बन्धक और गुलाम हो आप; वही अभी तक आपको ऊपर ले गया था। वही अब आपको नीचे लेकर के आ रहा है। ये ज़िन्दगी का झूला है, ये द्वैत का झूला है, ये द्वन्द का झूला है।
जो बच्चे, जो बालक बुद्धि वाले वयस्क इस झूले पर सवार हों, वो कृपा करके कतई ये न सोचें कि उनकी तरक्की उनकी अपनी है। वो आपकी, नहीं तरक्की है! वो तो ज़िन्दगी का झूला आपको ऊपर ले गया। प्रकृति के द्वैत पर सवार थे आप, कुछ देर तक उसने आपका ऊर्ध्वगमन करा दिया। आपने उसमें क्या करा? लहर पर सवार थे, लहर चढ़ी, आप चढ़े! थोड़ी देर में लहर उतरेगी, आप उतरेंगे।
और फिर जब झूला आपको नीचे लाने लग जाता है, तो फिर आप हाथ-पाँव चलाते हो। आपको लगता है आपसे कोई गलती हो गयी। आप कहते हो, ‘अरे, वो सुख भरे दिन कहाँ बीत गये? ये क्या हो गया?’ और आप पूरी कोशिश करते हो झूले के भीतर, अपनी गद्दी पर, अपनी सीट पर बैठे-बैठे, ऊपर बढ़ने की। कैसे बढ़ लोगे?
आप जिस चीज़ पर सवार हो, वो चीज़ ही आपको नीचे लेकर के आ रही है। और आप परेशान रहोगे, बहुत दुखी रहोगे। झूला जितना नीचे आपको लाता जाएगा, दुख आपका उतना गहराता जाएगा। और जब दुख आपका बहुत गहरा चुका होगा तभी आप पाओगे कि आपकी गति की दिशा बदल गयी। आप अधिक-से-अधिक जितना नीचे आ सकते थे, आ गये ज़िन्दगी आपको दोबारा ऊपर ले जाने लगी है। इस ही को कालचक्र कहते हैं, यही जीवन-मरण का चक्र है, यही जीवनचक्र है।
जब ज़िन्दगी आपको दोबारा ऊपर ले आने लगेगी तो मालूम है आप क्या बोलोगे? आप कहोगे, ‘वो दुख के दिनों में मैंने मेहनत बहुत करी थी न! जब मैं नीचे आने लग गया तो फिर मैंने अपनी गलतियों से सबक लिया और सबक ले-लेकर के मैंने अपनेआप में बड़ा सुधार किया। मैंने बुरे दिनों का भी फायदा उठा लिया, मैं इतना होशियार हूँ। मैंने बुरे दिनों को भी अपनी उन्नति के लिये इस्तेमाल कर लिया। देखो मैं कितना प्रतिभावान हूँ! और फिर कहोगे, ‘देखो, बुरे दिनों में मैंने जो मेहनत करी, जो अभ्यास और सुधार करा, उस ही के कारण मेरे बुरे दिन अब टल गए हैं। और अब मैं दोबारा आरोह करने लगा हूँ, ऊपर को उठने लगा हूँI’
न आपके कुछ करने से हुआ है, न कुछ आपके न करने से हुआ है। आप नीचे आ रहे थे, इसलिए नहीं आ रहे थे कि आपने उस वक्त पर कोई भूल कर दी थी। अब आप ऊपर जा रहे हो, आप ऊपर इसलिए नहीं जा रहे हो क्योंकि आपने इस वक्त पर कोई बहुत अच्छा काम कर दिया है। आप तो गुलाम हो संसार के! द्वैत के गुलाम हो! दिन और रात के गुलाम हो! सर्दी और गर्मी के गुलाम हो! मन के दो हिस्सों के गुलाम हो! वो ही कभी ऊपर ले आते हैं, कभी नीचे ले आते हैं।
कल्पना करिए उस छोकरे की, जो बैठा तो हुआ है इस चरखी झूले में, और बैठे-बैठे कोशिश कर रहा है और ऊपर जाने की। जैसे कोई ट्रेन के भीतर दौड़ लगाये कि जल्दी पहुँच जाऊँगा, जैसे कोई हवाई जहाज़ की छत को अपने दोनों हाथों से उठाए कि मैं इसे और ऊपर पहुँचा दूँ आकाश में। जैसे कोई कुत्ता अपनी ही दुम का पीछा करे, जैसे कोई उछलने के लिए अपने ही हाथों से अपने पाँवों को झुककर के ऊपर की ओर खींचे; ये उतनी ही मूर्खतापूर्ण बात है। हम सब ऐसे ही जीते हैं।
समझ ही गये होंगे आप कि ये जो दो फाड़ हैं, जीवन के और मन के, इनमें से हमारे लिये ज़्यादा घातक कौनसा है। इनमें से हमारे लिए ज़्यादा घातक है, वो हिस्सा जो आरोह करता है। वो फाड़, वो पक्ष जिसमें हमें ये अनुमान हो जाता है, ये भ्रम, ये गलतफ़हमी हो जाती है कि हम तो ऊपर की ओर जा रहे हैं। जीवन में जब आपको लगता है कि आपके साथ सब अच्छा है, आप ऊपर की ओर जा रहे हैं तो पहली चीज़ ये होती है कि आप अन्तर्दृष्टि का त्याग कर देते हैं। आप अपनी ओर देखना छोड़ देते हैं।
आप कहते हैं, ‘अपनी ओर देखने की ज़रूरत क्या है? देखो, मैं ऊपर को जा तो रहा हूँ। अपनी ओर देखने की आवश्यकता क्या है? मेरे साथ सब अच्छा हो तो रहा है।’ जब आप अपनी ओर नहीं देखते तो फिर आप ये भी नहीं देखते कि आपका आधार क्या है? आप भूल ही जाते हैं कि आपका आधार सच्चा नहीं है। आपका आधार तो झूले की सीट है, आप उस पर बैठे हुए हो। जो अपनी ओर देखता है, उसे दिख भी जाता है अपना आधार। जो अपनी ओर अब देख ही नहीं रहा है क्योंकि वो प्रसन्न है कि ज़िन्दगी अच्छी तो चल रही है। उसे क्या दिखायी देगा अपने बारे में कुछ भी। बात समझ में आ रही है?
मुक्ति का अर्थ ये नहीं है कि आप और बड़े झूले पर बैठ जाएँ क्योंकि जितने बड़े झूले पर बैठोगे, उतना ही ज़्यादा नीचे भी आओगे भाई। ऊपर उठने का एक तरीका ये भी तो हुआ न कि पहले मैं छोटे चक्के पर बैठा था, पहले मैं छोटे पहिए पर बैठा था तो वो मुझे अधिक-से-अधिक ले आता था चालीस फीट की ऊँचाई तक। उसका व्यास ही इतना था। कुल चालीस फीट की ऊँचाई तक मुझे वो ले आता था। और मुझे पसन्द नहीं आ रहा कि मैं चालीस फीट पर जाकर अटक क्यों जाता हूँ?
मेरी महत्वाकांक्षा मुझसे कहती है, ‘आपको और ऊपर उठना चाहिए।’ यहाँ तक कि सन्तजन, ऋषि-मुनि भी यही कहते हैं कि जीवन में तो ऊर्ध्वगमन होना ही चाहिए, सब कहते हैं! और चालीस फीट पर आकर रुक जाता हूं। तो फिर हम तरीका ये निकालते हैं कि उसी मेले में या उसी पार्क में हमें एक और बड़ा झूला दिख रहा होता है। तो हम जाकर उस पर बैठ जाते हैं। उसका पहिया हमको ले आता हैअस्सी फीट ऊपर, हम बड़े प्रसन्न हैं। हम कहते हैं, ‘तरक्की करी! तरक्की करी!’ अरे, तरक्की नहीं कर ली!
मुक्ति का मतलब है, सबसे पहले तो इस झूले से मुक्ति पाओ। आपने जिन दो पक्षों के बीच में द्वन्द की बात करी है अपने प्रश्न में, वो दो पक्ष अलग-अलग हैं कहाँ? पहिया ऊपर जाता है पहिया नीचे आता है। आप कह रही हैं कभी-कभी आप भविष्य की ओर देखती हैं और बहुत प्रेरित हो जाती हैं। भीतर बड़ी ऊर्जा, बड़ा काम उठता है। कुछ कर लें! कुछ पा लें! और फिर कभी कह रही हैं कि बिलकुल योजना हीन हो जाती हैं निढाल, उदास हो जाती हैं। तब कुछ करने को नहीं रहता, आलसी सा लगता है। ये दोनों एक ही तो बात है, अलग-अलग कहाँ है? और ये दोनों टिके इसलिए हुए हैं क्योंकि ऊपर जाना अच्छा लगता है।
मैंने हमेशा कहा है कि मुक्ति के रास्ते में बाधा, सुख नहीं है, दुख है। है तो सुख-दुख तात्विक दृष्टि से दोनों ही मिथ्या, लेकिन सुख-दुख के द्वैत में भी, उस द्वैत के इन दो सिरों में भी, अगर कोई ज़्यादा घातक है तो वो दुख नहीं, सुख है। दुख कम-से-कम जगाता है, दर्द होता है आपको उठ जाना पड़ता है, दर्द होता है आपको तलाश करनी पड़ती है। दर्द आपको मजबूर कर देता है कि आप देखें, खोजबीन करें, क्या हो गया! क्या गलती करी जो तकलीफ़ पायी।
सुख तो प्रमाद में डाल देता है। सुख सुला देता है, सुख नशा है। सुख में ऐसा लगता है जैसे हम बिलकुल सही हैं, जैसे हम बस पहुँच ही गये हैं मंज़िल पर। हम भूल ही जाते हैं कि यही झूला जो ऊपर ले आ रहा है, यही नीचे लाएगा। ऊपर जाने में ही नीचे आने की शुरुआत हो चुकी है। ये कैसा ऊर्ध्वगमन है जिसमें पतन छुपा हुआ है? ऊर्ध्वगति में अगर अधोगति भी छुपी हुई हो तो उसको लेकर के प्रसन्न या सन्तुष्ट होना होगा क्या? कहो!
पर सुख बड़े भ्रम में डाल देता है। इतना ही नहीं एक बात और अब बताता हूँ, ‘एक हो सकता है कोई सीधा, सरल, सादा, सच्चा साधक। वो खड़ा है झूले के ही बगल में।’ और वो कह रहा है, ‘देखो, ऊपर तो जाना है, आसमानों में घर है मेरा। लेकिन झूले का सहारा लेकर थोड़े ही जाना है। क्योंकि हमें तो यहाँ ज़मीन पर खड़े-खड़े भी झूले की सीमा यहीं से दिखायी दे रही है। यह सीमित झूला क्या मुझे असीम से मिलवाएगा? तो असीम से अगर मुझे मिलना है तो उसका तरीका ये झूला तो नहीं हो सकता। वो आदमी ज़रा सीधा है। हमारी तरह सरल-असरल, चतुरहोशियार नहीं है वो। वो बड़े सरल सवाल पूछता है, वो बड़े सपाट जवाब चाहता है। और वो कामना का मारा हुआ नहीं है।
आदमीऔरतें, सब झूले पर बैठे हैं। चरखी चल रही है, वो उत्तेजना में चीखें मार रहे हैं, हँस रहे हैं, एक दूसरे से लिपट रहे हैं। डर में भी बड़ा रोमांच होता है न! वो थोड़ा सा दूर खड़ा होकर तमाशा देख रहा है। ये सारा तमाशा उसे बाध्य नहीं कर पा रहा कि वो भी जाए और टिकट खरीदे और झूले पर चढ़ बैठे। हालाँकि उसके पास भी झूले वाले के दलाल आ रहे हैं, उसे ललचा रहे हैं, उससे कह रहे हैं,’आ-जा! आ-जा! आ-जा! सस्ता है!
पर नहीं! वो कह रहा है, ‘नहीं! पर मुझे जाना है, वहाँ तक तो ये पहुँचाएगा नहीं। वहाँ नहीं पहुँचाएगा! कह रहे हैं, ‘पागल! मज़ा तो आएगा। पहुँचाएगा कि नहीं पहुँचाएगा, मज़ा तो आएगा।’ वो कह रहा है, ‘मज़ा तो ऐसा हमें कुछ चाहिए नहीं, हमें लत ही नहीं लगी है इस तरह के मज़े लेने की। तो वो भी कहते हैं, ‘छोड़ फिर! जब तू गाँठ खोलने को, पैसा खर्च करने को तैयार ही नहीं, तो हम दूसरा मुर्गा तलाशते हैं।’ वो इसको छोड़ देते हैं।
वो कहता है, ‘कोई और तरीका चाहिए, कुछ और!’ ये जिन भी तरीकों के पास जाता है, पाता है, सारे तरीके अन्ततः जुड़े किससे हुए हैं? ज़मीन से। झूला भी बन्धा किससे हुआ है? ज़मीन से। झूला भी गढ़ा तो ज़मीन में हुआ है न? वो जाता है, वो कोई और तरीका तलाशने। वहाँ पता चलता है कि वो तरीका भी आधारभूत रूप से ज़मीन में ही गढ़ा हुआ है।
ये आदमी फिर अपना सीधा सरल बच्चों जैसा सवाल पूछता है और कहता है, ‘जो चीज़ जमीन में ही गढ़ी हुई है, जो चीज़ खुद अभी उठकर आसमान तक नहीं पहुँच पायी, वो चीज़ मुझे कैसे आकाश से मिला देगी? जो खुद अभी यही फँसा हुआ है, वो मुझे कैसे ऊपर पहुँचा देगा?
तो वो और तलाशता है! और तलाशता है! लेकिन जितने भी उसको तरीके मिलते हैं, विधियाँ मिलती हैं, वो पाता है, हर विधि आश्रित है, उस ही पर, जिससे मुक्ति दिलवाने का वो वादा करती है। वो हँस पड़ता है। बोलता है, ‘ये सब झूले उस ही ज़मीन में गढ़े हुए हैं, जिससे मुक्ति दिलवाने का ये वादा कर रहे हैं। ‘भग झूठों! तुम लोग तो हमें बुद्धू बना रहे हो। तुम नहीं दिलवा पाओगे, कोई विधियाँ सफल नहीं होने वाली।’
तो उसको समझ में नहीं आता। वो कहता है, ‘अगर कोई विधि सफल नहीं होगी, तो क्या करूँ? आकाश बुलाता है! जाऊँ नहीं क्या?’ कहता है, ‘फिर एक ही तरीका है मुझे ये देखना होगा कि क्या है जो मुझे ज़मीन पर अभी रोके हुए है, बाँधे हुए है? ज़मीन से मैं कोई सहारा तलाशूँ, वो बाद की बात है। ईमानदारी का तकाज़ा तो ये है कि पहले देखूँ कि मैं ज़मीन पर फँसा ही क्यों हुआ हूँ?’
ये हम दूसरे आदमी की बात कर रहे हैं। कहता है, ‘मेरे लिए बड़ा सस्ता तरीका होगा कि मैं कहुँ कि मुझे लम्बी सीढ़ी लाकर दो, जो आकाश तक जाती हो। पर वो सीढ़ी भी अपने एक सिरे पर कहाँ आश्रित है? ज़मीन पर ही तो आश्रित है। ये सीढ़ी आकाश तक नहीं ले जा पाएगी। कोई झूला, कोई चीज़ नहीं आकाश तक ले जा सकती। क्या करें? तो कहता है फिर, किसी और का, किसी बाहरी का सहारा माँगने से बेहतर है कि मैं थोड़ा अन्दर देखूँ की ये मेरी हालत हो कैसे गयी? मैं सर्वप्रथम फँस कैसे गया?’
तो वो अपने भीतर देखता है, वो कहता है, ‘ओहोहो! फँस गया हूँ मैं! इसमें गलती धरती की नहीं, पृथ्वी की नहीं, गुरुत्वाकर्षण की नहीं है। मेरी देह की है, मेरे वज़न की है, इसने बाँध रखा है। किसी और ने मुझे थोड़े ही ज़मीन से बाँध रखा है, मेरे ही वज़न ने मुझे ज़मीन से बाँध रखा है। मेरे ही वज़न ने मुझे ज़मीन से बाँध रखा है! पृथ्वी की साज़िश नहीं है कि मैं पृथ्वी पर फँसा रहूँ और बन्धा रहूँ। पृथ्वी का मतलब समझ रहे हैं न आप? वो सब कुछ जो पार्थिव हैं, वो सब कुछ जो प्राकृतिक है, वो सब कुछ जो भौतिक है, वो सब कुछ जो दैहिक है, उसके प्रतीक के रूप में पृथ्वी शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ।
वो कहता है, ‘पृथ्वी से बन्धा हुआ हूँ, अपने ही वज़न के कारण। बड़ा वज़न इकट्ठा कर लिया मैंने। और जब मैं वज़न की बात कर रहा हूँ, तो यहाँ भी आप समझ रहे होंगे संकेत किधर को है?वो सब कुछ जो तुमने पृथ्वी से लेकर ही इकट्ठा कर लिया है और अपना नाम दे दिया है। चाहे वो तुम्हारे शरीर की चर्बी हो और चाहे तुम्हारे मन की धारणाएँ। कहता है, ‘इन्होंने ही रोक रखा है। मुझे झुला पाना नहीं है, मुझे अपना मोटापा त्यागना है। ये जितना वज़न है मेरा, यही रोकता है।’ कहता है, ‘क्या करें? किससे पूछें? किसका सहारा लें?’
उसे फिर समझ में आता है। वो कहता है, ’पूछूँगा तो उस ही से। पूछूँगा जब वो सामने पड़ेगा। और जो मेरे सामने पड़ रहा है, ज़मीन का ही होगा। तो पूछने में भी कुछ बात बनने नहीं वाली।
तो वो अपने ही दम पर उड़ने की कोशिश शुरू कर देता है। वो जान लगाता है, ऊपर को जाने की! ऊपर को जाने की! वो देखता है कि वो जितना उछल रहा है अपने ही दम पर, उतना ही उसका वज़न कम होता जा रहा है। जैसे कि आकाश की ओर उछलना, वज़न के विरुद्ध, एक विद्रोहात्मक कार्यवाही हो। जैसे कि जो आकाश की ओर हाथ बढ़ा रहा है, वो अपने वज़न के विरुद्ध विद्रोह कर रहा है।
वो शुरू में उछलता है। बेचारा कितना उछलेगा! एकाद फीट-दो फीट उछलता है, इससे ज़्यादा नहीं! वो उछलता जाता है! उछलता जाता है! वो पाता है कि वो आकाश के प्रति उछलकर, आकाश की ओर जाकर, अपने प्रेम की जितनी ज़्यादा अभिव्यक्ति कर रहा है, उतना ज़्यादा उसका वज़न कम होता जा रहा है। उतनी ज़्यादा उसकी सामर्थ्य बढ़ती जा रही है और ज़्यादा ऊपर जाने की। और ये सब कुछ वो अपने दम पर कर रहा है, किसी झूले पर आश्रित होकर नहीं। बात समझ में आ रही है?
अब इस आदमी को झूले पर बैठे लोग भी देख रहे हैं। वो जा रहे हैं बड़ी त्वरित गति से ऊपर को, अहाहा! झूले में लगी है मोटर। तो झूला बिलकुल द्रुतगति से घूम रहा है और वो तेज़ी से ऊपर को उठ रहे हैं। और वहाँ वो दूर देख रहे हैं कि एक आदमी है जो किसी झूले-वूले का सहारा नहीं ले रहा है। वो अपने ही दम पर बस ऊपर उठने की कोशिश कर रहा है, बिना किसी सहारे के। उसके पास अगर सहारा है भी तो प्रेम का। उसको अगर किसी चीज़ से प्रेरणा मिल भी रही है तो उसकी अपनी छठपटाहट से।
वो कहता है, ‘यहाँ फँसे नहीं रहना है, ऊपर जाना है, जहाँ प्रेम है।’ उसके पास कोई विधि नहीं! उसके पास ज़्यादा ज्ञान नहीं! उसके पास कोई तयशुदा फार्मूला (सूत्र) नहीं! उसके पास बस निष्कपट प्यार है। कह रहा है, ‘चाहिए! वो चाहिए!’ उसको देख-देखकर झूले वाले हँसे जा रहे हैं। कह रहे हैं, ‘देखो पगले को! हम इतनी जल्दी ऊपर चढ़े आये और ये अभी उछले ही जा रहा है। और कुल उछलता है दो फीट। हमको देखो, हम चालीस फीट ऊपर आ गये।’
और उनकी बात सही है। वो अपने दम पर कोशिश कर रहा है, वो जितनी देर में दो फीट उठता है, ये चालीस फीट उठ जाते हैं। फिर वो दो फीट उठने में उसको बड़ी साधना लगती है, ये चालीस फीट मोटर पर बैठकर आ जाते हैं। ये खूब हँस रहे हैं उस पर, कह रहे हैं, ‘ये देखो!’
ये हँस-हँसकर अपना ही नुकसान कर रहे हैं। क्योंकि इनको लग रहा है कि इनकी प्रगति हो रही है। इनको लग रहा है, इनकी सांसारिक-आध्यात्मिक, हर तरह की प्रगति हो रही है। इतना ही नहीं, जो सच्चा साधक है, ये उसका मखौल बना रहे हैं। और वो जो दूसरा है, वो अपनी कोशिश जारी रखता है। जारी रखता है! जारी रखता है! बात अगर शारीरिक वज़न की होती तो हम कहते कि भाई कोई कितना भी उछल ले, एक दिन वो पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण को चीरकर आकाश में थोड़े ही विलीन हो जाएगा। बात सही है बिलकुल।
लेकिन अध्यात्म शरीर के वज़न से उतना नहीं ताल्लुक रखता, हम प्रतीकों में बात कर रहे हैं। जहाँ तक मानसिक वज़न की बात है, वो शून्य किया जा सकता है। और ये जो व्यक्ति है, जो बार-बार आकाश की ओर बाहें फैलाता है, जितनी उसमें सामर्थ्य है उससे ज़्यादा ही थोड़ा दम लगाकर के छलाँग मारता है। ये पाता है इस प्रेम के इज़हार ने ही, अपनी सीमित शक्ति के प्रहार ने ही, आसमान के कपाट खोल दिये हैं उसके लिये। वो उठते-उठते एक दिन उड़ जाता है।
झूले वाले उतनी देर में नीचे आये और अहा करके उस ही मिट्टी में फ़ना भी हो गए, जिस मिट्टी में झूला भी खुद गढ़ा हुआ है। ये आदमी उठ जाएगा! शर्त बस यही है, झूठे सहारे मत माँगना! शर्त बस यही है, तुमने जो सहारे पहले ही पकड़ रखे हैं झूठ के, उनको त्यागना। झूठे सहारे बड़े आकर्षक होते हैं। और लाभ भी पहुँचातेहैं, कुछ समय तक, कुछ सीमा तक।
जिनको सीमित ही चाहिए लाभ, उनके लिए ये झूले-वूले बिलकुल बढ़िया हैं। संसार में भी बहुत झूले हैं, अध्यात्म के नाम पर भी बहुत झूले हैं, झूल लो! और अगर झूले नहीं झूलने तो वही करो जो उस बालक मना साधक ने करा। उसने बाहर देखना छोड़ा, उसने खुद को देखा।उसने अपने वज़न को देखा, मानसिक वज़नको देखा। उसने कहा, ‘क्या है जो सर्वप्रथम मुझे दबाये हुए है, बाँधे हुए है?’
उसने अन्तर्गमन करा। जीवन को देखो अपने! कहाँ फँसे हुए हो? जब तक नहीं देखते जीवन को, तब तक यही चलता रहेगा, कभी दाएँ कभी बाएँ, कभी ऊपर कभी नीचे, धूप-छाँव! हम पैदा तो होते हैं बन्धनों में, लेकिन सौभाग्य हमारा ये है कि हमको ये शक्ति उपलब्ध होती है कि हम उन बन्धनों को देख पाएँ, पहचान पाएँ और सत्य प्रेरणा है अगर, तो फिर उन बन्धनों को काट भी पाएँ। इसके अलावा अध्यात्म का कोई तरीका नहीं है।
बाकी सब जो करते हो तुम, मनोरंजन है। और आध्यात्मिक मनोरंजन, साधारण मनोरंजन से ज़्यादा खतरनाक है, क्योंकि साधारण मनोरंजन में एक ईमानदारी होती है। तुमको पता होता है कि तुम सिर्फ मनोरंजन ही तो कर रहे हो। तुम्हें पता है कि एक फिल्म देखने गये हो, सर्कस देखने गए हो, मैच देखने गए हो, मनोरंजन की खातिर; कितनी इमानदारी है।
आध्यात्मिक मनोरंजन में पहली बात तो तुम अपना मनोरंजन कर रहे हो। और दूसरी बात, तुम्हें ये गर्व भी बहुत है, अहंकार भी बहुत है कि तुम कोई आध्यात्मिक काम कर रहे हो। जबकि तुम सिर्फ़ अपना मन बहला रहे हो, तुम मज़े ले रहे हो। आध्यात्मिक सहारों से ज़्यादा घातक कुछ नहीं होता। उन लोगों को तो फिर भी मुक्ति मिल जाती है, जो संसार में उलझे हुए थे। उनको नहीं मुक्ति मिलती, जो झूठे अध्यात्म में ही उलझ गये। झूठा अधात्म ही उलझाता है। अध्यात्म तो वरना सुलझाने का नाम है।
इस ही तरीके से उनको तो माफी मिल जाती है जो मनोरंजन के सौदागर होते हैं, साधारण मनोरंजन के। पर उनकी कोई माफी नहीं है जो अध्यात्म के नाम पर मनोरंजन बेचते हैं। खरीद मत लेना और अगर दुख में हो, द्वन्द में हो, तो इसका मतलब अतीत में तुम मनोरंजन के ग्राहक रहे हो। अब वो खरीदारी बन्द करो। झूले का टिकट लत बन गई है तुम्हारी। बन्द करो! कमा-कमाकर के झूले वालों की चाँदी कर रहे हो।
बहुत सारी आध्यात्मिकता तो ऐसी होती है कि जैसे कोई आदमी हो, जो मोटी-मोटी रस्सियों से जकड़ा हुआ हो। वो अपनी रस्सियों पर गेरुए रंग से लिखे, ओम, और कहे कि देखो, यही तो मेरी साधना है।
अध्यात्म युद्ध है। अध्यात्म में कटार चलती है, वार चलते हैं। जो अपने प्रति संघर्ष के लिये राज़ी नहीं है, उसे अपने भीतर संघर्ष झेलना पड़ेगा। देख लो कौनसा संघर्ष चाहिए तुमको। संघर्ष से किसी तरह की रिहाई तो नहीं मिलने की। संघर्षहीन जीवन जैसा कुछ नहीं होता। या तो अपने खिलाफ संघर्ष कर लो, नहीं तो अपने भीतर संघर्ष चलता रहेगा।
या तो जीवन के समस्त द्वैतों के खिलाफ संघर्ष कर लो, नहीं तो द्वैत की चक्की में तुम पिसते रहोगे। संघर्ष तो करना-ही-करना है, पीड़ा तो झेलनी-ही-झेलनी है। या तो रिहाई की पीड़ा झेल लो, नहीं तो कैद की झेलोगे। अफ़सोस की बात ये है कि ज़्यादातर लोगों को कैद की पीड़ा ज़्यादा पसन्द होती है। आदत!