शराब पीने में क्या गलत है?

Acharya Prashant

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शराब पीने में क्या गलत है?
अगर पीने से तुमको समाधि मिलती होती तो मैं बिल्कुल नहीं मना करता पीने से। तो समस्या पीने में नहीं है। बात ये है कि जब पी रहे हो तो समाधि से और दूर होते जा रहे हो। जब पी रहे हो तो जो तुम्हें वास्तव में चाहिए उससे और दूर होते जा रहे हो। पीने में ये बुराई है। कोई आकर के अगर सिद्ध कर दे कि पीने से उसे परमात्मा मिलता है तो मैं कहूँगा, ‘तू अब पानी भी मत पी, सिर्फ़ शराब पी।’ कसौटी शराब नहीं है, कसौटी परमात्मा हैं। पर उसका तो तुम नाम ही नहीं ले रहे। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, शराब पीने में क्या गलत है?

आचार्य प्रशांत: पीना तो गलत है भी नहीं, तो उसमें क्या तुम कारण निकाल लोगे कि गलत क्यों है। जो गलत है वो तुम्हें पता नहीं, इसलिए तुम गलती को इधर-उधर ढूँढ रहे हो। ट्रेन खड़ी है प्लेटफ़ॉर्म पर और तुम जाकर बैठ गए हो कैंटीन में। और तुम पी रहे हो। और तुम पीने में मगन हो, और ट्रेन छूट गई, तो अब क्या फ़र्क पड़ता है कि शराब पी रहे थे कि चाय पी रहे थे? गलती पीने में थोड़े ही थी, गलती तो ये भूल जाने में थी कि क्या करना था और क्या करने में लिप्त हो गए।

जिस समय तुमको दौड़कर ट्रेन पर चढ़ जाना चाहिए था, उस समय तुम मसरूफ़ थे पीने में। अब कुछ पियो। पानी पियो, ट्रेन तो तब भी छूट गई न! अभी भी तुम बात ये कर रहे हो कि गलती ये कर दी कि शराब पी ली। ट्रेन का अभी भी तुम्हें होश नहीं है। पिए हुए हो। ट्रेन छूटी उसका कुछ होश है? उसका तो पता ही नहीं, ‘ट्रेन थी क्या? मैं कौन हूँ? कहा है प्लेटफ़ॉर्म? कैसी ट्रेन?’

और नशे का एक पक्का लक्षण ये है कि बोतल ही नज़र आती है बस। तो अभी भी बात किसकी कर रहे हो? बोतल की ही कर रहे हो। और जिसको बोतल-ही-बोतल नज़र आती हो, जो बोतल की ही बात कर रहा हो, उसको तो अभी भी चढ़ी ही हुई है। मुझे कोई दिक्कत नहीं है उस शराब से जो तुम जिस्म में उड़ेलते हो। कहीं ज़्यादा बड़ी समस्या है वो शराब जो लगातार होश पर चढ़ी रहती है।

आपको अगर पता ही हो कि आपके समय की क्या उपयोगिता है? आप कौन हो? आपके जन्म का क्या उद्देश्य है? तो क्या आप अपने समय को नशे में गुज़ारना चाहोगे? नशे में तो हम यूँही हैं। अध्यात्म इसलिए है कि नशा कुछ उतरे और होश आ जाए। और तुम नशे को और बढ़ा रहे हो शराब पी-पीकर के! तुम्हें होश के प्रति कुछ प्रेम है? नहीं होश की तो बात ही नहीं कर रहे हैं। अभी भी दिक्कत यही है कि मैंने पी क्यों ली दोस्तों के साथ। ले-देकर बात बोतल की ही करनी है, क्यों?

अगर पीने से तुमको समाधि मिलती होती तो मैं बिल्कुल नहीं मना करता पीने से। तो समस्या पीने में नहीं है। बात ये है कि जब पी रहे हो तो समाधि से और दूर होते जा रहे हो। जब पी रहे हो तो जो तुम्हें वास्तव में चाहिए उससे और दूर होते जा रहे हो। पीने में ये बुराई है।

कोई आकर के अगर सिद्ध कर दे कि पीने से उसे परमात्मा मिलता है तो मैं कहूँगा, ‘तू अब पानी भी मत पी, सिर्फ़ शराब पी।’ कसौटी शराब नहीं है, कसौटी परमात्मा हैं। पर उसका तो तुम नाम ही नहीं ले रहे। ये तो तुम बता ही नहीं रहे कि ट्रेन मिली कि छूटी। कुछ पता है तुम कौन हो, कहाँ जाना है?

ये सब इशारे होते हैं कि दिमाग खाली बहुत है, समय है और जेब में पैसा भी है। इसलिए पीने पिलाने निकल गए और तमाम तरीके के कई शगल पाल लिए। मेरे देखे तुम्हारा पूरा तंत्र, तुम्हारी पूरी हस्ती इसलिए है कि उसको आग में झोंक दो। कुछ भी बचाकर मत रखो। न समय बचाकर रखो, न बुद्धि बचाकर रखो, न बल बचाकर रखो, न अपना कोई संसाधन बचाकर रखो। सब झोंक दो। फिर तुमको मोहलत कहाँ से मिलेगी, अवकाश कहाँ से मिलेगा दारूबाज़ी, सुट्टाबाज़ी करने का?

ये जो तुम चोरी से अपने लिए व्यक्तिगत समय चुरा लेते हो न, इसी व्यक्तिगत समय में सारी खुराफ़ात होती है। सारा उपद्रव पर्सनल टाईम (व्यक्तिगत समय) का है। उसी में तो पीते हो न? अभी यहाँ बैठे हो तो इसको तो बोलोगे, ‘ये तो अभी सार्वजनिक है मामला।’ अभी यहाँ से जाओगे, अपना कमरा-वमरा बंद करो, कहोगे अब पर्सनल टाईम शुरू होता है। फिर बोतल खुलेगी।

मेरे देखे व्यक्तिगत समय, पर्सनल टाईम होना ही नहीं चाहिए। शून्य! बिल्कुल शून्य! तुम्हारा समय उसका है, तुमने बचाकर रखा क्यों? और बचाकर रखोगे तो कांड होंगे। बचाओ ही मत। सब खर्च दो। जिसने बचाया, वही फँसेगा। चोरी है, चोरी फलती नहीं। परम व्यस्तता चाहिए। परम के प्रति व्यस्तता चाहिए। बहुत व्यस्त होना चाहिए तुम्हें।

और तुम देख लेना, जब भी तुम्हें कुछ मिलेगा ऐसा जो तुम्हें पूरा ही व्यस्त कर दे, तुम उससे चोरी करोगे। तुम इधर-उधर छुपोगे, कोने-कतरे जाकर के गायब हो जाओगे, किसी बहाने से कहोगे, ‘थोड़ी सी छुट्टी मिलेगी?’ और जहाँ तुमने छुट्टी ली, तहाँ तुम्हारा बेड़ा गर्ग! सत्यानाश! मेरे पास से तो जब भी कोई छुट्टी लेकर जाता है, गया! गंदा ही होकर आएगा। और लंबी छुट्टी लेकर गया है तो हो सकता है आए ही नहीं।

तुम छुट्टी माँग किसलिए रहे हो? ऊँचे-से-ऊँचा काम यहाँ है, जीवन की सार्थकता यहाँ है। तुम साँस लेने से छुट्टी माँगते हो क्या? दिल के धड़कने से छुट्टी माँगते हो? पानी पीने से छुट्टी माँगते हो? तो जो कुछ भी अनिवार्य है, आत्यंतिक है और आवश्यक है, उससे तुम छुट्टी तो नहीं लेते न कभी? तो परमात्मा के काम से तुमने छुट्टी कैसे माँग ली? कैसे माँग ली? निश्चित रूप से अब इस छुट्टी में तुम कोई घटिया काम ही करने जा रहे हो।

चौबीस घंटा, जागते-सोते, तुम्हें व्यस्त रहना चाहिए। मेरी ये बात लोगों को बड़ी विचित्र लगती है। वो कहते हैं, ‘अध्यात्म का मतलब तो विश्राम होता है न। हम तो अध्यात्म में आए ही इसीलिए थे कि आराम मिलेगा। कहीं आश्रम-वाश्रम में चुपचाप पड़े रहेंगे।’ मैं कहता हूँ, ‘मेरे देखे नहीं होता। मेरे देखे अध्यात्म का मतलब काम होता है।’ आश्रम में दो चार लोग आए, उन बेचारों को बड़ा धोखा हो गया। मेरी सहानुभूति उनके साथ है।

एक सज्जन केरल से आए थे। उनपर क्या गुज़री अब क्या बताऊँ। केरल से यहाँ तक आकर उन्होंने वीडियो वगैरह देखे, उसमें मैं बोल रहा हूँ, ‘विश्राम, राम।’ वो कहें, ‘बढ़िया! उम्र काफ़ी हो गई है, और ये आचार्य जी बिल्कुल विश्राम के पक्षधर लग रहे हैं। चलेंगे आश्रम में, आराम से सोया करेंगें।’ उनको कहा, ‘जाओ बेटा, स्टॉल पर खड़े हो जाओ। और लौटना मत जब तक कम-से-कम दस किताबों का विक्रय न हो गया हो।’ दस-पंद्रह दिन, बीस दिन करे, उसके बाद गधे के सिर से सींग गायब बिल्कुल! तब से आज तक नज़र नहीं आए हैं।

ऐसे ही और भी दो-चार किस्से हुए। लोग पहुँच जाते हैं शांति की तलाश में, कि आश्रम आए हैं यहाँ बहुत शांति मिलेगी। वहाँ उनको पहले ही घंटे से रगड़ दिया जाता है। कह रहे हैं, ‘ये तो कॉरपोरेट से भी ज़्यादा सख़्ती है यहाँ पर! वहाँ कम-से-कम वीकेंड (सप्ताहांत) पर छोड़ देते थे, ये तो कभी भी नहीं छोड़ते! और कोई वर्क लाइफ़ बैलेंस (कार्य संतुलन) ही नहीं है। रात में दो बजे कॉल कर देते हैं।’

परेशान हैं, ‘कुछ व्यक्तिगत हमारे लिए छोड़ा ही नहीं है! कभी भी कह देते हैं, फ़ोन देना अपना। अब फ़ोन में तो! कुछ तो लिहाज़ करा करिए, जवान आदमी है हम। कह देंगें तुरंत, अंशु फ़ोन लाना। कुछ तो हमारे लिए व्यक्तिगत स्पेस (जगह) छोड़ दीजिए।’

बेटा, मैंने छोड़ दी तुम मरोगे। तुम करोगे क्या उस स्पेस का, सोचो तो। और तुम जानते हो क्या करोगे। क्योंकि मैं नहीं भी छोड़ता तो भी तुम चुरा तो लेते ही हो। और उसमें फिर सारा हुड़दंग होता है। फिर जब फँसते हो तो आचार्य जी याद आते हैं। और ये तो तब है जब ये बहुत-बहुत समर्पित लड़का है मेरा। तब भी मन में आकांक्षा बड़ी बलवती रहती है कि किसी तरीके से थोड़ा-सा अपने लिए मिल जाए।

असल में साधना के प्रति कौन कितना उत्सुक है, गंभीर है, ये जाँचना हो तो बस यही पूछ लीजिए, ‘ज़ीरो पर्सनल टाईम के साथ आने को तैयार हो?’ यहाँ पर बड़े-बड़े उखड़ जाते हैं। बड़े-बड़े उखड़ जाते हैं। तभी मैं आसानी से किसी को प्रोत्साहित नहीं करता हूँ कि आश्रम ही आ जाओ। कहता हूँ, आचार्य जी दूर-दूर से अच्छे लगते हैं। यूट्यूब, शिविर, विश्रांति, यहाँ ठीक है। तीन दिन को आए, तुमने कहा है, मेहमान हैं तीन दिन के, तब तक, इतना चल जाता है। ज़्यादा करीब आओगे तो जल जाओगे। वहाँ आग है। वहाँ धूनी रमी हुई है, यज्ञ चल रहा है।

कईयों को तो और ताज्जुब होता है, वो कहते हैं, ‘फिर कॉर्पोरेशन में और आश्रम में अंतर क्या हुआ? वहाँ भी इतना काम होता है, यहाँ भी रगड़कर काम चल रहा है, तो फिर क्या अंतर हुआ?’ मैंने कहा, अंतर ये है कि कॉर्पोरेशन वाले काम ही नहीं करते, नाकारा होते हैं। हम करते हैं काम असली! जितने निकम्मे होते हैं वो कंपनियों में हैं। वहाँ तो बिना काम किए भी चल जाता है। यहाँ बिना काम किए चलाकर दिखाओ!

बड़े से बड़ा अभियान है, उसके लिए नहीं जियोगे तो किसके लिए जियोगे? और जी रहे हो तो हाथ-पाँव तो चलेंगे ही। सही दिशा में नहीं चलाओगे तो अंड-बंड दिशा में चलेंगे। ऊर्जा तो है ही, और अगर जी रहे हो तो ऊर्जा तो बहेगी, व्यय होगी। सही दिशा में नहीं व्यय करोगे तो गलत दिशा में व्यय होगी।

मेरे लिए तो इस तरह की बीमारियों का एक ही इलाज है, ‘चल बेटा, काम पर लग जा।’ दस बारह दिन बाद याद आएगा श से शराब। ‘अरे! वो भी कुछ होती है! याद ही नहीं आया।’ तुम शराब की बात कर रहे हो, मैंने अपने लड़कों को देखा है, ये रात में दो बजे, तीन बजे कहीं से लौटकर आते हैं, इनके बगल में खाना रख दिया जाता है, ये खाना नहीं खा पाते, शराब तो दूर की बात है। खाना रखा हुआ है, ऐसे मुँह खोले सोए पड़े रहते हैं।

एक दफ़े दिल्ली के किसी केंद्र में मेरा व्याख्यान था, दो साल पहले की बात होगी। ये उत्साह में रात भर उस क्षेत्र में पोस्टर लगाता रहा। कहाँ की बात है?

श्रोता: आईआईटी में था।

आचार्य प्रशांत: रमण केंद्र में था, ये आईआईटी में पोस्टर लगा रहे थे। लगाते रहे रात में दो बजे, चार बजे तक। वापस लौटे, बाईक पर ही सो गए। धड़ल्ले से गिरे, धड़धड़ाकर! चलती बाईक में सो गए हैं। तुम मेहनत समझो। हँसने की बात नहीं है, तुम मेहनत समझो।

तुम्हें शराब पीने का समय कहाँ से मिल जाता है? और फिर मेरे सामने आए, लहूलुहान। हाथ-पाँव, घुटना, सब। और अगले दिन ही सत्र था रमण केंद्र में। तो उसमें कुर्ता-पजामा डालकर के सब पट्टी-वट्टी लगाकर के लगे हैं सेवा करने में। ये है असली नशा। अब शराब किसको याद रहने वाली है? ज़िंदगी ऐसी जिओ न, शराब छूट जाएगी। और जब-जब ये लोग समय चुरा ले जाते हैं, तब-तब फिर भुगतते भी हैं। दोनों बातें हैं।

आपका एक-एक पल किसी और का है, उसको दीजिए। बहुत बड़ा गुनाह है उस पल को अपने लिए बचाकर रखना। इसी को फिर कहते हैं, सतत् सुमिरन। यही कॉन्स्टेंट रिमेंबरेंस है। कॉन्स्टेंट रिमेंबरेंस का ये मतलब थोड़े ही है कि लगातार बैठकर किसी का खयाल कर रहे हैं। सतत स्मरण का मतलब ही यही है कि लगातार उसकी चाकरी कर रहे हैं। वो याद है तभी तो उसकी चाकरी हो रही है।

ज़बान चलाना तो बड़ी छोटी और बड़ी ओछी बात है। उससे थोड़े ही तुमने किसी का स्मरण कर लिया। असली स्मरण तो तब है जब हाथ चलाए और पाँव चलाए। तब स्मरण रखा। मुँह से मंत्र जपने से क्या होगा? मुँह से राम-नाम जपने से क्या होगा? हाथ-पाँव, पूरा जिस्म, पूरी हस्ती राम के लिए चलनी चाहिए न।

फ़्री टाईम — इससे बचना। ये सबसे बड़ा शैतान है। और तुम यहीं माँगते हो सबसे ज़्यादा। और उसका शुक्रिया अदा करना (ऊपर की ओर संकेत करते हुए) अगर वो तुम्हें इतना व्यस्त कर दे, इतना व्यस्त कर दे किसी ऊँचे काम में कि तुम्हारे पास एक पल का फ़्री टाईम, खाली समय न मिले। कहना, ‘इससे बड़ा वरदान तू मुझे दे नहीं सकता था।’

वो जिनको श्राप देता हैं उन्हें फ़्री टाईम दे देता हैं। ये उसका श्राप देने का तरीका है, ‘जा, तुझे बहुत सारा फ़्री टाईम दिया! अब सड़ और जल और मर अपने फ़्री टाईम में।’

ट्रेन अभी भी समझ में नहीं आ रही न? आई? चलो, जैसे ही समझ में आए, जो भी पी रहे हो, चाय, पानी, छाछ, लस्सी, शराब, जो भी है, छोड़-छाड़कर भागो और ट्रेन पकड़ लो। फ़र्क नहीं पड़ता क्या पी रहे हो। जो भी पी रहे हो अगर उसने ट्रेन छुड़वा दी, तो वो शराब नहीं ज़हर है।

लेकिन हम तो नैतिक लोग हैं, चाय पीते किसी की ट्रेन छूट जाए तो हम कहेंगे, ‘अरे-अरे-अरे, बड़े भले आदमी थे। उनकी ट्रेन छूट गई।’ और शराब पीते किसी की ट्रेन छूट जाए तो हम कहेंगे, 'भग! पियक्कड़। पी रहा था, ट्रेन छूट गई।’ फ़र्क नहीं पड़ता तुम छाछ पी रहे थे या शराब पी रहे थे। अगर ट्रेन छूटी, तो पाप है ट्रेन का छूटना। क्या पी रहे थे तुम, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। बात समझ में आ रही है?

लुटेरा लूटने में मगन है, इसलिए राम का नाम नहीं लेता। और गृहस्थ गृहस्थी में मगन है इसलिए राम का नाम नहीं लेता। कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम किस में मगन हो, राम का नाम नहीं लिया तो दोनों बराबर हो। ये मत कह देना कि लुटेरा ज़्यादा बड़ा अपराधी या पापी है। तुम जाहे में भी मगन हो, ट्रेन तो तुम्हारी भी छूटी न। छूटी कि नहीं छूटी? तो जो भी तुम कर रहे थे, वो पाप ही हुआ।

लेकिन हम तो नैतिक लोग हैं। कोई गृहस्थी के मारे ट्रेन छोड़ दे तो हम कहेंगे, ‘देखिए साहब, वो जिम्मेदारियाँ निभा रहा था न, इसलिए उसने मुक्ति की दिशा में कुछ नहीं किया।’ और कोई लूटने-पाटने में मगन हो, जुआ खेलने में मगन हो इसीलिए मुक्ति का नाम न ले तो उसको हम कह देंगें कि ये पापी है।

शराब हो या आब हो, लुटेरा हो चाहे गृहस्थ हो, जो कोई कहीं लिप्त होकर के ट्रेन छोड़े दे रहा है, वो बराबर का पापी है।

ये वास्तव में हुआ था। बोर्ड की परीक्षाएँ चल रही थीं मुझसे सीनियर क्लास की, तो वहाँ पर एक किस्सा सुनने को आया था। बोर्ड की परीक्षा थी, दो जने उसमें देरी से पहुँचे परीक्षा देने। पहला जब पहुँचा देर से तो पता चला ये देर से इसलिए आया है क्योंकि ये किसी को पकड़कर पीट रहा था। और पीटने में इतना मगन हो गया कि परीक्षा देने देरी से पहुँचा। उसको परीक्षा नहीं देने दी गई।

फिर एक दूसरा आया, लुटी-पिटी हालत में। पता चला ये वही है जिसको पहला पीट रहा था (श्रोतागण हँसते हैं)। तो मान्यवर, परीक्षा उस दूसरे को भी नहीं देने दी गई। बात समझना। यहाँ सहानुभूति का कोई काम नहीं है। यहाँ नैतिकता का कोई काम नहीं है। जिस भी वजह से तुम्हारी गाड़ी छूटी, छूटी न? तुम चाहे पीट रहे थे चाहे पिट रहे थे, गाड़ी क्यों छोड़ी?

इसी तरीके से वो तुमसे ये नहीं पूछेगा कि तुमने किस वजह से मुक्ति की आराधना नहीं की, तुमने किस वजह से शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया, सत्संग नहीं किया। कोई कह सकता है कि मैं व्यस्त था अपने परिवार की संपत्ति लूटने में, तो इसलिए राम का नाम नहीं लिया। और कोई कह सकता है कि मैं व्यस्त था अपने परिवार की सेवा करने में, इसलिए राम का नाम नहीं लिया। दोनों को सज़ा बराबर की मिलेगी। तुम चाहे संपत्ति लूट रहे थे, चाहे तुम सेवा कर रहे थे, ट्रेन तो छूटी न? छूटी तो छूटी। तुमने वो तो नहीं ही किया जो तुम्हें करना चाहिए था, उसके अलावा तुमने जो कुछ किया सब बराबर और सब मूल्यहीन।

जहाँ देखो कि थोड़ा भी खाली समय मिला है, वही शैतान, फ़्री टाईम, तुरंत उसको समर्पित कर दो। तुरंत। एक पल भी खाली मत रहने देना। हम सब बंधनों में जकड़े हुए लोग हैं। हमें आराम शोभा नहीं देता। जो बंधनों में जकड़ा हुआ हो उसे तो प्रतिपल परिश्रम करते रहना चाहिए। हाथ में बेड़ी, पाँव में बेड़ी, दिमाग में बेड़ी, और साहब फरमा रहे है कि ज़रा रिलेक्सेशन करते है फ़्री टाईम में। तुम इतनी बेड़ियों के साथ रिलैक्स कर कैसे लोगे भाई! तुम तो लगातार मेहनत करते रहो कि बेड़ियाँ तोड़नी हैं। एक पल का भी आराम मत करना।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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