Grateful for Acharya Prashant's videos? Help us reach more individuals!
Articles
सस्ती है वो हँसी जिसके पीछे दर्द न हो || (2020)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
13 min
163 reads

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मैं चौबीस साल का हूँ और मेरा सवाल ये है — हमारे जीवन में उदासी क्यों बनी रहती है?

मैं बहुत बार जब अपने-आपको देखता हूँ तो किसी-न-किसी विचारों में बहुत बार लिप्त हो जाता हूँ, और ख़ुद को पाता हूँ कि उदास ही हूँ, वो जो सोच रहा हूँ उसमें भी। कई बार शुभ विचार भी कर रहा हूँ, उसमें भी विचार करते हुए भी उदासी रहती है। वीडियो (चलचित्र) वगैरह भी देख रहा हूँ आपकी, या किताब पढ़ रहा हूँ, तो उसको भी पढ़ते वक़्त जब ख़ुद पर खयाल आता है तो उस वक़्त मुझे पता चलता है कि मैं उदास हूँ, जैसे अभी पता चल रहा है कि अभी घबराहट है। ये उदासी बनी रहती है जीवन में। कहीं जा रहे हैं, कहीं कुछ कर रहे हैं, जब-जब खयाल आता है ख़ुद को देखने का तो देखता हूँ, समझता हूँ। जैसे सुबह से मैं जो भी कर रहा हूँ तो अपने-आपको देख रहा हूँ, और यही आ रहा है कि उदासी है जीवन में; उदासी रहती है। क्या ये मेरा अभ्यास है?

आचार्य प्रशांत: ये तुम्हारी हस्ती है। आदमी क्यों अनिवार्य रूप से सुख की तलाश में रहता है? कोई देश हो, कोई काल हो, कोई उम्र हो, कोई लिंग हो, कोई अवस्था हो, हर व्यक्ति को खुशी क्यों चाहिए दुनिया में? जिसको देखो वही क्या चाहता है, खुशी चाहता है न? तो इससे क्या पता चलता है? कि हर आदमी की हस्ती मूल-रूप से उदास है, उदास ना हो तुम तो खुशी क्यों माँगोगे? और पूरी दुनिया खुशी के लिए मर रही है; खुशी की कोशिश करते-करते मर ही जाती है।

तो तुम अगर उदास हो तो इसमें कोई अपराध नहीं है तुम्हारा, इसमें कोई विशिष्टता नहीं है तुम्हारी, ये तो बात तुम्हारी हस्ती की है। शरीर लेकर पैदा हुए हो, जीव हो, तो उदास ही पैदा हुए हो; उदासी ही जन्म लेती है। और सौभाग्य होता है उनका जो अपनी उदासी से आँखें-चार कर पाते हैं, सौभाग्य होता है उनका जो अपनी उदासी के सम्मुख खड़े हो पाते हैं। बाकी ज़्यादातर लोग तो इतना डर जाते हैं अपनी ही उदासी से कि उसकी ओर पीठ कर लेते हैं। उदासी उधर खड़ी है, उदासी से डर जाओगे, उदासी की ओर पीठ कर लोगे तो मुँह उदासी से विपरीत दिशा में कर लोगे न? और उदासी का विपरीत क्या खड़ा हुआ है? सुख। अब समझ में आया ज़्यादातर लोग सुख की ओर क्यों देख रहे होते हैं? ताकि उन्हें उदासी का सामना ना करना पड़े।

उदासी का सामना तो करना पड़ेगा। जब आप सुख की ओर देख रहे होते हो, उस वक़्त से ज़्यादा किसी वक़्त आपको नहीं पता होता कि आप उदास हो। पानी की ओर जब हाथ बढ़ा रहे हो, उस वक़्त से ज़्यादा किसी वक़्त पता है आपको कि आप प्यासे हो? जो आदमी भाग रहा है पानी की ओर, उससे ज़्यादा कौन जानता है कि वो प्यास से कितना बेहाल है?

अब क्या करना है? एक तो यही विकल्प है जिसकी अभी बात हो रही है, कि उदास पैदा हुए हो, जीवन-भर खुशी की ओर भागने में समय लगा दो। जीवन कट जाएगा, मर जाओगे एक दिन, खेल ख़त्म, और ख़ुद को ये सांत्वना भी रहेगी कि हमने जीवन किसी उपयोगी काम में लगाया। कोई पूछेगा, “जीवन-भर क्या किया?” तो कहोगे, “सुख की खोज।“ तुम्हारे हर काम का सार क्या था? “हम सुख तलाश रहे थे।“ और तुम्हारी जगह तुम्हारी बात बिलकुल सही होगी, क्योंकि जो आदमी दुखी है वो सुख नहीं तलाशेगा तो क्या करेगा? तुम कहोगे, “देखो, मैंने वैध काम ही किया है, कोई ग़लत काम तो करा नहीं।“ एक तरीका ये है जीने का।

दूसरा एक और तरीका भी होता है। दूसरा तरीका होता है कि ये उदासी इतना परेशान करती है और देखते हो कि वो उदासी टलती तो है नहीं, चाहे सुख की ओर मुँह करो, चाहे कुछ करो, चाहे दाएँ करो मुँह, बाएँ करो मुँह, आसमान पर चढ़ जाओ, धरती में समा जाओ, उदासी तो साथ-साथ ही चल रही है; इस बात को एक बार देख लो अगर, तो उसके बाद समझ जाते हो कि “भाई ये बला टलने की नहीं!” पहली कोशिश ठीक है, भागने की कर ली; लगा कि उदासी कोई बाहर की चीज़ है, इससे दूर भागा जा सकता है, तो ठीक ही किया, उससे भागने की कोशिश करके देख लिया। भागने की कोशिश करोगे दो-चार-दस बार, तो ख़ुद ही समझ जाओगे “ये बला टलने की नहीं! जिधर जाओ सामने खड़ी है; क्योंकि भीतर पड़ी है।“ आँखों के आगे दिखाई देगी, क्योंकि आँखों के पीछे बैठी है। तब आदमी कहता है, “कुछ और इलाज करना पड़ेगा, इसका इलाज भागम-भागी तो है ही नहीं। क्या इलाज है?”

जिस चीज़ से भाग नहीं सकते हो उससे फिर सीधे लड़ ही जाओ, और क्या करोगे? विकल्प क्या है? बात समझ रहे हो? दुश्मनों के घेरे में फँस जाओ— दुश्मनों का एक घेरा है, बीच में तुम फँस गए हो— इधर को भागते हो तो देखा वहाँ एक खड़ा है, देखा वहाँ एक खड़ा है तो तुम उससे विपरीत भागे, विपरीत भागे तो वहाँ भी खड़ा था; उससे और हट कर भगोगे, वहाँ भी खड़ा था। तुम जिधर को भी भाग रहे हो बच-बच कर, वहाँ ही पा रहे हो दुश्मन खड़ा है। तो क्या करोगे, ऐसे-ऐसे भागते रहोगे उस घेरे के अंदर, या कुछ और करोगे? क्या करोगे, बोलो?

श्रोतागण: सामना करेंगे।

आचार्य: भिड़ ही जाओ अब! अगर भाग सकते तो भाग लिए होते भाई; भागना ही सही रहता। पहली कोशिश तो यही करी कि भाग लें, बच लें, लेकिन अब दिख रहा है कि मुठभेड़ के अलावा कोई चारा नहीं है, नहीं है न? तो भिड़ क्यों नहीं जाते हो इससे? उदासी से भिड़ना पड़ेगा।

भागना और भिड़ना, जीने के सिर्फ़ यही दो तरीके होते हैं; किसी एक तरीके को तो चुनना पड़ता है।

अगर पहली वृत्ति भागने की होती है तो तुमको दोष नहीं दिया जा सकता, अच्छी बात है; लेकिन भागे ही जाओ, भागे ही जाओ, पर्याप्त अनुभव ले लेने के बाद भी भागे ही जाओ, तो ये फिर पागलपन है। भिड़ जाओ!

शायद खुशी का रास्ता उदासी के विपरीत नहीं है; उदासी के भीतर से है। उदासी के विपरीत जाकर के जो खुशी मिलती है, वो भ्रम है, झूठ है, छलावा, धोखा है; और उदासी का सीना चीर कर जो खुशी मिलती है, वो असली चीज़ है, वो चीज़ खरी है, उसी को अध्यात्म कहते हैं। और वो खुशी उस भ्रामक-खुशी से इतनी अलग है कि उस खुशी के लिए फिर नाम ही दूसरा दे दिया गया है, उसको आनंद कहते हैं। खुशी हल्की, सस्ती चीज़ होती है; आनंद ख़ून बहा कर मिलता है। साधारण खुशी कुछ पाकर मिलती है; आनंद चोट खा कर के, घाव खा कर के, कभी-कभी सर कटा कर के मिलता है। इसीलिए लोग पहली कोशिश तो यही करते हैं कि सस्ती खुशी ही मिल जाए, काम चला लें उसी से। और मैंने कहा, पहली कोशिश अगर ऐसी है तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर हज़ारवीं कोशिश भी वही है तो बेकार, घटिया है जीवन। अपनी उदासी के साथ सहज होना सीखो, तुम उससे जितना भागते हो, वो तुम्हें उतना पकड़ती है; सहज उदासीन रहना सीखो।

जिन्हें आनंद चाहिए हो, वो उदासी को गले लगा लें; तुम उससे दूर भागते हो, उसकी ताक़त बढ़ती है, तुम उसे गले लगा लो, वो पिघलने लगती है। जो सौंदर्य उदासी में है, वो उथली, छिछली खुशी में कहाँ? जो मूल्य, जो कीमत उदासी की गहराइयों में है, वो किसी भी खुशी में कहाँ? खुशी की समस्या ही यही है कि उसमें गहराई नहीं होती, उदासी में तुम्हें गहराई तो मिली! कुछ भी हुआ, गहराई तो मिली! गहराई जिस कीमत मिले, सस्ती है।

गहरी खुशी देखी है कभी? उल्टा होता है, गहरे-से-गहरा आदमी जब खुश होता है तो छिछोरा हो जाता है। तुम किसी आदमी को अगर जानते हो जो वैसे गुरु-गंभीर रहता हो, उसके व्यक्तित्व में, मन में तुम्हें थोड़ी गहराई दिखाई देती हो, उस व्यक्ति को देख लेना जब वो बहुत खुश हो; सारी गहराई गायब मालूम पड़ेगी, उस व्यक्ति को तुम जो सम्मान देते थे वो छूमंतर हो जाएगा। आमतौर पर तुम अगर किसी को सम्मान देते हो, तो कोशिश करना कि तुम उस आदमी को उसकी खुशी के पलों में ना देखो, सब सम्मान भाप हो जाएगा। खुशी चीज़ ही ऐसी है, गहरे-से-गहरे आदमी को भी छिछोरा बना देती है; और उदासी चीज़ ऐसी है कि छिछोरे-से-छिछोरे आदमी में भी गहराई ला देती है। गहराई अगर उदासी की कीमत पर मिल रही है तो सस्ती है, ले लो!

हँसी भी नूरानी तब होती है जब उसके पीछे दर्द हो।

दर्द नहीं है और खिलखिला रहे हो, तो पिलपिला-से रहे हो। सुख के रास्ते कोई आनंद तक नहीं पहुँचा; आनंद तक जो भी पहुँचे हैं, वो दुःख में प्रवेश करके, दुःख का अनुसंधान करके ही पहुँचे हैं। और तुम दुःख में प्रवेश कैसे करोगे अगर तुम्हें उदासी से ही घबराहट होती है? दुःख तो अपना साथी है।

प्र: अब ये समझ में आ रहा है, धन्यवाद इसके लिए। लेकिन ओशो जी की भी स्पीच (व्याख्यान) इस पर सुनी है, और किसी व्यक्ति से मैंने इस पर बात भी करी थी, जब मैं काफ़ी इन चीज़ों को नोटिस (ग़ौर करना) कर रहा था जीवन में। और मैंने स्पीच भी सुनी थी, जिसमें ओशो जी कहते हैं कि कोई उसके (परमात्मा के) द्वार पर नाचते हुए, आनंदित पहुँचे, कोई उदास ना पहुँचे।

आचार्य: आनंदित हो तो किसी के दरबार पर पहुँचना ही क्यों है? आनंदित हो तो जहाँ हो वहीं रहो न! जो आनंदित है, उसे अब और कुछ चाहिए क्यों? आनंद तो उच्चतम बात है। तो अगर कहोगे कि परमात्मा के द्वार पर नाचते हुए और आनंद-विभोर होकर पहुँचना है, तो मैं कहूँगा, जब आनंद-विभोर ही हो, तो परमात्मा को काहे कष्ट दे रहे हो, उसका दरवाज़ा काहे गिराए दे रहे हो, कि वहाँ जाकर के नाच रहे हो और तकलीफ़ दे दी परमात्मा को?

कुछ बातें नाचने वालों को आकर्षित करने के लिए कही जाती हैं। दुनिया में नचइयों का ही बहुमत हुआ जा रहा है, तो अगर कोई हितैषी तुम्हारा तुम्हें आकर्षित करना चाहे तो उस बेचारे को बोलना पड़ता है कि “आओ आओ, मेरे यहाँ भी नाचने का इंतज़ाम है।“ वो ये सबकुछ ना बोलते तो इतनी बड़ी भीड़ जुड़ती क्या उनके यहाँ? पर ये मत समझ लेना कि ये उनका उच्चतम संदेश है; ये उनका कोई संदेश वगैरह नहीं है, इसको एक तरीके का विज्ञापन मानो।

संसारी में और गुरु में ये एक भेद होता है, इसको समझना। जो संसार में विक्रेता होता है न, माल बेचने वाला, दुकानदार, वो बहुत ऊँचा विज्ञापन देता है, और विज्ञापन से आकर्षित होकर के जब तुम पहुँच जाते हो, तो चीज़ देता है छिछोरी। गुरु को कई बार उल्टा करना पड़ता है; वो विज्ञापन देता है छिछोरा, ताकि सब छिछोरे आ जाएँ, और जब वो आ जाते हैं, तो चीज़ देता है बहुत ऊँची। फिर कई बार लोग शिकायत भी करते हैं, कहते हैं, "नहीं, वो नाचने-गाने, और वो सब जो था कि परमात्मा के द्वार तक, वो सब नाचने वाला, उसका क्या हुआ?" वो सब कहीं नहीं। हाँ, बहुत ऐसे होते हैं जो विज्ञापन देख कर आते हैं, और वो विज्ञापन में ही चिपक कर रह जाते हैं, वो सोचते हैं, “यही तो संदेश है आख़िरी, यही तो सीख है।“ और फिर गुरु अगर पार्थिव रूप से मौजूद ना हो, तो ये भी प्रचारित कर देते हैं कि यही तो आख़िरी सीख थी कि नाचो, तो फिर नाचने-गाने का ही कार्यक्रम चला जा रहा है, चला जा रहा है।

यहाँ आते हैं लोग, कहते हैं, “वो शिविर करा था, यहाँ नाचना कब होगा?” ख़ासतौर पर आजकल ओशो के नाम पर जो शिविर वगैरह चल रहे हैं, वहाँ से भी कुछ लोग भटक कर यहाँ आ जाते हैं। उन बेचारों की बड़ी दुर्दशा होती है, कहते हैं, "तीन घण्टे बीत गए, अभी तक नचाया नहीं। नाचने वाला कब होगा? ढोल बजाइए, कहिए झूमो, यही तो अध्यात्म है।“ अभी पिछले शिविर में एक देवी जी आई थीं, वो तीन दिन के शिविर में पहले दिन के बाद भाग गईं। वो कहती हैं, "ये तो बैठाते हैं, ज्ञान की बात करते हैं। हम सोच रहे थे कि कुछ मनोरंजन होगा, ढोल बजेगा, बाल खोल कर, लिफ़ाफा पहन कर डोलेंगे। वो सब तो करने को ही नहीं मिल रहा।“ ये दुनिया ऐसी ही है, क्या करोगे?

मेरे खयाल से रूमी का या हाफ़िज़ का है, कि एक ज्ञानी आदमी था तो वो चला कि दुनिया से कुछ बात करेंगे। अब ज्ञानी आदमी दुनिया से कुछ बात करता है तो उसमें कुछ उपदेश आ ही जाता है। तो खड़ा हुआ है, बात करे, कोई उसकी बात ही ना सुने। तो ऐसा उसने जब दो-चार बार अनुभव करा, तो फिर उसने दो-चार नाचने वाली लड़कियाँ रख लीं। अब वो जाया करे तो पहले नृत्य का आयोजन किया करे, तो बड़ी भीड़ इकट्ठा हो जाए। और जब भीड़ इकट्ठा हो जाए तो थोड़ा-सा उपदेश दे, और जब भीड़ छँटने लगे तो तुरंत नचा दे; फिर उपदेश दे, फिर भीड़ छँटने लगे, फिर नचा दे। तो ऐसे करके उसने अपना कार्यक्रम आगे बढ़ाया। अब ये जो कविता है, रूमी की हो चाहे इनकी, ये कई-सौ साल पुरानी है। तो आदमी हमेशा से ऐसा ही रहा है; और अब तो भोग की और सुख की प्रवृत्ति और बढ़ गई है। तो ये सब तरीके आज़माने पड़ते हैं, मगर इसका मतलब ये नहीं है कि तुम तो नाचो।

Have you benefited from Acharya Prashant's teachings?
Only through your contribution will this mission move forward.
Donate to spread the light