संसार के बीचोंबीच, संसार से मुक्त || आचार्य प्रशांत (2016)

Acharya Prashant

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संसार के बीचोंबीच, संसार से मुक्त || आचार्य प्रशांत (2016)

प्रश्न : सर, एक चीज़ मन में बैठ गयी थी। ओशो ने कहा है, बाज़ार में ही रहना है, पहाड़ों में नहीं। तो अपनेआप को सिद्ध करने की चाह थी कि अब तो बाज़ार में ही रह कर शांत रहेंगे। तो वहाँ पर अभी भी संघर्ष है, अपने को साबित करने का। कृप्या इस पर कुछ कहें।

और दूसरी ये बात, कि आपने कहा था कि ग़ुलामी छोटी सी बात पर भी सहन नहीं करनी। तो अगर मुझे कोई छोटी सी बात भी पसंद नहीं आ रही, तो क्या वो आज़ादी को ही दिखा रही है, कि मुझे आज़ादी बहुत प्यारी है?

वक्ता : दोनों सवाल बढ़िया हैं। पहली बात तो ये, कि कहा जाता है, कि बाज़ार में भी मुक्ति सम्भव है, समाधि सम्भव है। और अक्सर इस बात का अर्थ ये लिया जाता है कि बाज़ार में रहो। बात सही है, लेकिन उसका अर्थ ठीक नहीं किया गया। बाज़ार का अर्थ है, हर वो जगह जहाँ तुम हो, और कोई और है, और दोनों के मध्य कोई संबंध है। जहाँ भी तुम हो, और कोई और है, और दोनों के मध्य कोई संबंध है, हर वो जगह बाज़ार है। हर वो जगह बाज़ार है, जहाँ किसी भी प्रकार का क्रय-विक्रय चल रहा है। किसी ने कुछ दिया, किसी ने कुछ लिया। वो जगह बाज़ार हो गयी। पूरी धरती ही बाज़ार है। बाज़ार का मतलब ये थोड़े ही न होता है, जो समाज ने बाज़ार बना दिया है। कि जहाँ पर बस मुद्रा का आदान प्रदान हो रहा है, चीज़ें खरीदी बेची जा रही हैं; वही थोड़े ही बाजार है। घर बाजार नहीं है क्या? रास्ता बाज़ार नहीं है क्या? तुम मुस्कुराते हो किसी को देख कर, और वो उत्तर में मुस्कुरा देता है, लेन-देन हुआ कि नहीं हुआ? पत्नी के साथ जो रिश्ता है — ईमानदारी से बताना — लेन देन का है कि नहीं है? वो बाज़ार नहीं है? तुम्हें क्या लगता है, बाज़ार सिर्फ दुकान का नाम है? बिस्तर का नाम भी तो बाज़ार ही है। जिन पहाड़ियों पर जाते हो, और आश्रमों में गुरुओं से मिलते हो, और वहाँ रहने के पैसे देते हो, और वहाँ पहले से ही तय होता है कि चलो आये हो, तो इतनी दक्षिणा चढ़ा दो। ये सब बाज़ार नहीं है क्या?

जिसको शिक्षा कहते हो, और जिस शिक्षा के लिए लाखों खर्च करते हो, और फिर कहते हो कि ये तो मेरा कॉलेज था, ये मेरे शिक्षक थे, वहाँ बाज़ार नहीं है? वहाँ जाकर डिस्काउंट नहीं मांगते? बाज़ार कहाँ नहीं है? जहाँ कहीं भी दो लोग हैं, वहीं बाज़ार हो गया, और कई बार दो लोगों के होने की ज़रूरत भी नहीं होती। तुम जंगल भी गए हो अगर, तुमने वहाँ पर अपने लिए सुविधाजनक जगह देखी और उस जगह पर डेरा डाल दिया। ये तुमने लेन देन किया कि नहीं किया? ‘’तू मुझे सौंदर्य दिखा, मैं तुझे संगत दूंगा।‘’ आपने ज़मीन से कहा, तू मुझे सौंदर्य दिखा, मैं तुझे संगत दूंगा। जो सबसे सुन्दर जगह होगी, वहीं पर बैठ जाऊंगा। उसी को पसंद कर लूंगा। ये दुकानदारी नहीं थी? ये शॉपिंग ही तो करी है आपने, कि जो सबसे अच्छा लगा, उसी पर ऊँगली रख दी। कि ये चाहिए, वहीं पर जम गए। समझ रहे हो? तो क़तार में लगी दुकानों का ही नाम नहीं है बाज़ार। पूरी वसुंधरा बाज़ार है।

तो जब कहा जा रहा है, कि बाज़ार में रहते हुए भी मुक्ति सम्भव है, तो बड़ी ही ज़ाहिर और सहज बात करी जा रही है कि जीते हुए मुक्ति सम्भव है, क्योंकि जहाँ भी हो, बाज़ार है। तो यही कहा जा रहा है कि जहाँ भी हो, वहीं मुक्त रहो। फिर चाहे वो हिमालय की चोटी हो, घर हो, दफ्तर हो। कहाँ हो इस बात को सही-सही तय नहीं किया जा सकता। लेकिन जहाँ भी हो, अपनी मुक्ति के करीब रहना है, तुम्हें बंधन में नहीं फँसना है।

अब अगर तुमने इसका आशय ये निकाल लिया कि तुम्हें तो बाज़ारों में ही पहुँच जाना है, तो बड़ा उल्टा कर लिया। अब तो तुमने बाज़ारों को ही बंधन बना लिया। तुमने कह दिया कि बाज़ार में मुक्ति सम्भव है, अब में बाज़ार में रहूंगा – अब तुम बाध्य हो गए बाज़ार जाने के लिए। ये बड़ी उल्टी बात बैठ गयी।

बाज़ार में भी, मुक्त रहना है। ये थोड़े ही कहा गया है कि बाज़ार में ही मुक्त रहना है। ये थोड़े ही कहा गया है कि बाज़ार छोड़ दिया तो पाप कर दिया, अपराध कर दिया। और बाज़ार को कोई भौगोलिक जगह मत बना लेना।

बाज़ार, दो मौहल्लों के पार नहीं लगता, मौहल्लों में लगता है। घरों के मध्य लगता है, व्यक्तियों के मध्य लगता है। वो सब बाज़ार है।

कुल मिला के बाज़ार माने ज़िन्दगी। बाज़ार में मुक्त रहना है माने? ज़िन्दगी में मुक्त रहना है। बाज़ार कोई भौगोलिक जगह है, इस बात को मन से बिलकुल निकाल दीजिये।

ये सब बस संकेत हैं।

अब दूसरी बात जो थी – क्या ग़ुलाम व्यक्ति वो है, जो ग़ुलामी को बर्दाश्त किये जाता है? और क्या मुक्ति का अर्थ ये है, कि जैसा आपके शब्दों में था, कि ग़ुलामी मुझे ज़रा भी पसंद नहीं आती।

बात इससे ज़रा सी भिन्न है। बात ये नहीं है कि ग़ुलामी मुझे पसंद आती है या नहीं, बात ये भी नहीं कि आज़ादी मुझे ख़ास पसंद है या नहीं। बात ये है, कि ये जो मेरा पूरा तंत्र है, पूरी व्यवस्था हो गयी है, ये ग़ुलामी की ओर देखती ही नहीं है। बात पसंद नापसंद की है ही नहीं।

ग़ुलामी मौजूद हो, तो भी देखती वो आज़ादी की तरफ ही है, मुक्ति की ओर ही रहती है।

जो मैंने उदाहरण दिया था, उससे ऐसा लग सकता है कि मैं कह रहा हूँ, कि ग़ुलामी के प्रति नापसंदगी होनी चाहिए। नापसंदगी से थोड़ा सा आगे की बात है। ग़ुलामी एहसास ही नहीं होता। मैं जानता ही नहीं कि ग़ुलामी क्या है?

ऐसे समझिये, आप यदि पूर्णतया स्वस्थ हैं, और आप में से कोई ऐसा है जिसको कभी पेट की मरोड़ हुई ही न हो। तो आप उससे पूछें, कि बताओ पेट की मरोड़ माने क्या? तो क्या वो बता पाएगा?

वो ये थोड़े ही कहेगा कि मुझे पेट की मरोड़ पसंद नहीं है, वो ये कहेगा, पेट की मरोड़ माने क्या? किसकी बात कर रहे हो? तुम किसकी बात कर रहे हो? आप में से कोई ऐसा हो, जो कभी ज्वर में ना पड़ा हो। आप उससे कहें, मुझे तो बुखार हो गया। वो समझ ही नहीं पायेगा, वो कहेगा क्या? आप उसे लाख समझाएं, नहीं समझ में आएगा। थोड़ा और करीब का उदाहरण ले लीजिये – आपके गले में खराश हो, आप किसी ऐसे को समझा के बता दीजिये, जिसके गले में कभी खराश ना हुई हो। आप जितने शब्दों का प्रयोग करना चाहें, आप पूरा ग्रन्थ लिख कर के उसे समझा दीजिये, तो भी आप नहीं समझा सकते। तो ये नापसंदगी की बात नहीं है कि, ‘’मुझे गले की खराश नापसंद है। ये बात ये है, कि मैं जानता ही नहीं। मेरे भीतर वो ताक़त ही नहीं है कि मैं गले की खराश की बात कर पाऊँ। इसलिए मैंने कहा था, स्वास्थ्य कुछ विशेष ताक़त नहीं है। स्वास्थ्य तो, निर्विशेष हो जाना है। बीमारी और ग़ुलामी में कुछ विशेष होता है। मुझे पता ही नहीं है, तुम क्या बातें कर रहे हो।

*कोई आपको लालच दे रहा है, आपके सामने कोई बैठा है, वो आपको ललचा रहा है। आज़ादी इसमें नहीं है, कि वो आपको ललचा रहा था, और आपको उसकी ये हरकत पसंद नहीं आयी। आज़ादी इसमें है कि वो आपको ललचाता रहा, आप उसके संकेत समझ ही नहीं पाए।*

अब वो सामने बैठ कर के, आपको तरीके तरीके से रिझा रहा है, और आप चुपचाप बैठे हैं, कि भाई तू क्या कर रहा है। आप ये भी नहीं कह रहे कि मुझे नापसंद है तू। ये सब न कर क्योंकि अगर आपको वो नापसंद है, तो इससे ज़ाहिर होता है कि कहीं न कहीं आप डरे हुए हैं। आप कह रहे हैं, कि जो तू कर रहा है, वो एक सीमा के बाद, मुझ पर हावी हो जायेगा। एक सीमा के बाद तू सफल हो जायेगा, इसलिए मैं नापसंद कर रहा हूँ तुझे।

आप नहीं कह रहे कि तू मुझे नापसंद है। आप कह रहे हो कि क्या कहूँ, जाने पागल हो गया है, जाने क्या कर रहा है। कभी नोट दिखाता है, कभी प्रसिद्धि दिखाता है, कभी घर बंगले दिखाता है, पता नहीं क्या कर रहा है, पागल हो गया है। ये आज़ादी है, कि आपको ग़ुलामी का एहसास होना ही बंद हो गया है। आपके भीतर अब वो बहुत कुछ होता ही नहीं, जो औरों में होता है। दुनिया का नाटक चल रहा है, और लोग बैठे हैं, वो उसकी ओर खिंचे जा रहे हैं, कोई हँस रहा है, कोई रो रहा है, कोई आतुर हो रहा है, कि कुछ कर दिखाऊँ। और आप बैठ कर देख रहे हैं। आपके भीतर वो सब हो ही नहीं रहा, जो औरों को हो रहा है।

*ये आज़ादी है। प्रतिक्रिया का अभाव।*

जान तो रहे हैं, पर उससे हमें कुछ हो नहीं रहा। जैसे, बैठा हो कोई ऋषि और उसके चारों तरफ नाच रही हों, उसे रिझाने के लिए अप्सराएं। अब वो ये कहे कि अरे! नालायकों क्या कर रही हो? जहन्नुम में सड़ोगी, अभी श्राप देता हूँ, नर्क में जलोगी। तो इससे यही साबित होता है, कि ऋषि महाराज फिसल रहे हैं। फिसल ना रहे होते, तो इतना विरोध न उठता इनमें। आप तो ऐसे रहिये, कि बढ़िया है, नाच, और नाच। तुम्हारा कुछ असर पड़ता हो हमपर, तो हम तुम्हारा विरोध भी करें, नापसंदगी भी ज़ाहिर करें। तुम जो कुछ कर रही हो, करती रहो भाई, नाचने का मन है तुम्हारा।

एक कहानी सुनिए:

एक ऋषि बैठे हुए थे, उनके सामने अप्सरा भेजी गयी। ऋषियों को ले कर बहुतों को बैचेनी हो जाती है, तो तुरंत अप्सराएं भिजवायीं, जाओ। तो अप्सरा आयी और नाच रही है, उन्हें कुछ हुआ ही नहीं। तो अप्सरा ने एक-एक करके, कपड़े उतारने शुरू किये। और ये भी बहुत मज़ेदार बात है, जो लोग आतुर नहीं होते, कि उनके आगे कपड़े उतरें, उनके आगे लोगों के कपड़े अपनेआप उतर जाते हैं। तो वो उतारे जा रही है, वो अपना बैठे हुए हैं, उतार भई। तो सारे कपड़े जब उतार चुकी, तो नंगी खड़ी थी, ऋषि ने उसकी और देखा, जगमगाती चकमक खाल, और बोले – ये वाला कपड़ा कब उतारेगी? ये भी तो तेरा आखिरी कपड़ा ही है, इसको भी उतार दे। और वो भागी वहाँ से कि किस पागल के पास भेज दिया।

समझ रहे हैं? ये नापसंदगी की बात नहीं है। ये अछूते रह जाने की बात है। ये बात है कि हम अस्पर्शित रह गए। तुम हमें छू ही नहीं पाए। नापसंद कैसी?

श्रोता : तो सर, आप कहते हैं, कि जो स्वभाव के विरुद्ध है, उसमें आपको नहीं रहना है। वो क्या चीज़ हुई?

वक्ता : स्वभाव के विरुद्ध क्या होता है?

स्वभाव के विरूद्ध ये भावना होती है, ये वृत्ति होती है, कि स्वभाव के विरुद्ध रहा जा सकता है।

आप इससे बाज़ आ जाइए। हम सबको, कहीं न कहीं, ये भरोसा होता है, कि सच से हट कर भी काम चल सकता है, कि सीधे की जगह टेड़ा-टपरा चल कर भी जीवन जिया जा सकता है। यही तो है, स्वभाव विरुद्ध होना। स्वाभाव माने सत्य। सत्य के विरुद्ध होने का अर्थ है, ये मानना कि सत्य के अलावा भी कुछ है, जिसके सहारे जिया जा सकता है। आप इस भावना को बिलकुल झूठा जान लीजिये। झूठा जानते ही वो हट जाएगी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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