प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आज शिविर में कथा पढ़ी जिसका शीर्षक था 'नारद का माया दर्शन’, जिसमें ये निष्कर्ष बताया गया है कि हमारी सारी जाग्रत अनुभूतियाँ माया द्वारा रचित भ्रान्तियाँ मात्र हैं। अपने जीवन को देखता हूँ तो माया का प्रभाव हावी दिखता है। माया से हमारा मन भ्रमित क्यों रहता है? जब माया काम, लोभ आदि जगाती है तो इन्हें देखते हुए भी उचित व्यवहार क्यों नहीं हो पाता?
आचार्य प्रशांत: जिस कहानी की ओर इशारा हो रहा है, पढ़ी है सबने? तो श्रीकृष्ण हैं और नारद महाराज हैं, और गये हैं किसी नदी किनारे। और नारद मुनि जिज्ञासा करते हैं कि ये माया वस्तु क्या है, कुछ बताएँ। तो श्रीहरि कहते हैं, ‘अच्छा ऐसा करो, मेरे लिए थोड़ा सा पानी ले आओ।’ और उनको कुछ लोटा, कमंडल, पात्र कुछ देकर भेजते हैं कि जाओ भई, पानी लाओ।
वो पानी लेने जाते हैं, इतने में उनको एक सुन्दर युवती मिल जाती है। उनका प्रेम-प्रसंग छिड़ जाता है, शादी-ब्याह हो जाता है, बच्चे हो जाते हैं। बड़ा राग-रंग है, बड़ी मोह-माया है। वहीं नदी किनारे वो सब घर बसाकर रहने लगते हैं।
दस-बारह साल बीत जाते हैं। फिर एक दिन बाढ़ आती है, सब बहाकर ले जाती है। नदी वगैरह पार कर रहे होते हैं, सब बह जाता है। अकेले बचते हैं मुनि महाराज, तो माथा पकड़कर रो रहे होते हैं। पीछे से श्रीकृष्ण आते हैं, कहते हैं, 'आधा घंटा हो गया, इतनी देर में पानी नहीं मिला तुम्हें? पानी लाने भेजा था।' तो ये चौंकते हैं, बोलते हैं, 'आधा ही घंटा हुआ है? मैंने तो बारह साल बिता दिये, जीवन के सब अनुभव कर आया।'
और फिर इन्हें यकायक समझ आता है कि यही तो माया है। जहाँ कुछ नहीं, वहाँ लगता है बहुत कुछ है। और अपने ही अनुभव, अपना मन, अपनी इन्द्रियाँ, अपनी दृष्टि, अपनी भावनाएँ, सब गवाही देते हैं कि बहुत कुछ है, और जो कुछ है वो बड़ा महत्वपूर्ण है, बड़ा असली है, मुद्दा गम्भीर है।
'अरे भाई, बाढ़ आयी है, पूरा ख़ानदान बहा जा रहा है। तीन-तीन बच्चे हैं अपने, पत्नी कितनी सुन्दर है! वैसा रूप-लावण्य कभी देखा नहीं पहले।' और इस पूरे खेल में भूला कौन हुआ है? जिसने भेजा था पानी लाने वो बिलकुल भूल गये, हरि-मुरारी की कोई सुध नहीं। पत्नी मिल गयी, संसार बसा लिया, सब बढ़िया हो गया। लेकिन जैसे वो बसा था संसार वैसे ही फिर बह भी गया। यही माया है।
प्रश्न क्या पूछा भई?
प्र: माया से हमारे मन में भ्रान्तियाँ क्यों हो जाती हैं? जब माया काम, लोभ आदि जगाती है तो देखते हुए भी उचित व्यवहार क्यों नहीं कर पाते?
आचार्य: माया से भ्रान्तियाँ क्यों हो जाती हैं? प्रश्न को देखो न। जब माया में होते हो तब थोड़े ही दिखायी देता है कि वो माया है। कह रहे हैं, 'जब माया होती है तो उस वक़्त ये सब क्यों छा जाते हैं — काम, क्रोध, लोभ, मोह? सब जानते हुए भी कि मायावी है, उससे छूट क्यों नहीं पाते? सही कर्म क्यों नहीं कर पाते?'
अरे! नहीं जानते भाई कि मायावी है, नहीं जानते। उस वक़्त यही लगता है कि असली है, बाद में भले ही कह दो, ‘मायावी है।’ और एक बात का ख़याल रखना, यहाँ खेल के भीतर खेल होता है। नारद महाराज के बच्चे रहे होंगे, वो रस्सी को साँप समझकर डरते होंगे, तो नारद मुनि पिता जैसी गुरु-गम्भीरता लेकर के उनसे क्या कहते रहे होंगे? 'अरे बच्चों, तुम तो नाहक़ ही डर रहे हो, ये साँप है ही नहीं, ये तो रस्सी मात्र है। इसी को तो माया कहते हैं। देखो, मुझे देखो, मैं माया को पकड़ लेता हूँ। मैं बाप हूँ न तुम्हारा।'
जो माया के भीतर होते हैं उन्हें भी तुम्हारी तरह यही ख़याल होता है कि मुझे तो माया समझ में आ रही है। वो दूसरों के लिए समझ में आती है।
नारद मुनि को भी अपने छोटे बच्चों के लिए माया समझ में आती होगी कि मेरा छोटा बच्चा है, वो परछाई को भूत समझ कर घबरा जाता है, खम्भे को इंसान समझ लेता है, सपने में चौंक जाता है, रोने लग जाता है। तब कहते रहे होंगे अपनी पत्नीश्री से, ‘देख रही हो, ये छोटे-छोटे बच्चे कैसे माया के फेर में आ जाते हैं। पर मैं तो मुनि हूँ, मैं तो ख़ूब समझता हूँ माया को।'
आप जब समझते भी हैं कि आप समझते हैं, आप तब भी भूल में हैं कि आप समझते हैं। बल्कि नासमझी के भीतर समझने का ख़याल आपकी नासमझी को और पुख़्ता कर देता है। जब बाप को बड़ा विश्वास हो जाता है कि उसने बेटे की नासमझी को पकड़ लिया, तो उसे इतना ही विश्वास नहीं होता कि उसने बेटे को नासमझ जान लिया, उसे साथ-ही-साथ ये विश्वास भी गहरा जाता है कि वो स्वयं बड़ा समझदार है। 'मैंने अपने बेटे की नासमझी पकड़ ली, इसका मतलब मैं कौन?'
इस पूरे मायावी वृत्तांत के भीतर बारह वर्षों में नारद मुनि को न जाने कितनी बार लगा होगा कि बीवी नासमझ है। कहते होंगे, 'अरे प्रिय, ओ भार्या, तू क्यों इतना मोह करती है इन बच्चों से, ये मोह तो बस माया है।' और ख़ूब इतराते रहे होंगे अपने ऊपर कि मुझे देखो, मैं तो बड़ा तपस्वी, संयमी हूँ। ये तो स्त्री ठहरी, ज़्यादा मोह-माया में बँध जाती है, मैं थोड़े ही बँधता हूँ।
जिनको ये विचार आ रहा है कि उन्होंने माया पकड़ ली, उनके ऊपर माया बहुत हँसती है। वो माया के चुनिंदा और पसन्दीदा शिकार होते हैं। तो ये सवाल तो कोई करे ही नहीं कि आचार्य जी, मुझे साफ़ दिखायी देता है कि माया है, मैं फिर भी उसमें फँस क्यों जाता हूँ। तुम्हें कुछ नहीं दिखायी देता। दिखायी देने के लिए उनका साथ चाहिए जिनको नारद पीछे छोड़ आये थे। जब तक उनके साथ थे, तब तक माया नहीं छायी नारद पर। और जब पुनः उनके साथ हो लिये, तो माया पुनः कट गयी, फिर पीछे छूट गयी।
बाक़ी तुम अपनी बुद्धि अनुसार, अपने अनुमान अनुसार, अपने निष्कर्ष अनुसार उड़ाते रहो पतंगे कि हमने तो आसमान फ़तह कर लिया, कुछ होने नहीं वाला। माया को जीतने का तो एक ही तरीक़ा है — उसके पास हो जाओ जिसके पास माया फटकती नहीं। तुम्हारे पास तो ख़ूब फटकेगी। जहाँ तुम अकेले हुए कि उसके मुँह में लार ही आ जाती है, कि मिल गया फिर से एक और अकेला भटकता छौना।
हाथियों का झुंड होता है, उसमें हाथियों के नन्हे शावक होते हैं। और शेर जानते हो न! सिंह, बाघ नहीं, सिंह भी समूह में शिकार करते हैं। बाघ अकेला चलता है, ये जो शेर होते हैं ये पाँच-सात-दस चलते हैं। लेकिन दस हाथी चल रहे हों और दस शेर हों, तो शेर जुर्रत नहीं करते हाथियों पर हमला करने की, बिलकुल नहीं। हाथी छेद देगा उनको। लेकिन यही हाथी के बच्चे को अकेला पा जाएँ शेर, तो होगा हाथी का बच्चा लेकिन है तो बच्चा ही। और शेर कितने हैं? दस। शेरों की दावत हो जाती है उस दिन।
बात समझ में आ रही है?
वो माँ है, वो बाप है, वो विराट है, वो हाथियों का हाथी है। उससे ज़रा सा दूर होओगे नहीं कि तुम्हारा तत्क्षण शिकार हो जाएगा। और कभी-कभार अगर हाथी का बच्चा बच भी जाता है तो फिर कैसे बचता है? भाग के आता है, ज़ोर से चिल्लाता है। कभी तो वो स्वयं ही भाग कर के झुंड के पास वापस आ जाता है तो बच जाता है, और कभी इतनी ज़ोर से आर्तनाद करता है कि बाक़ी हाथियों को पता चल जाता है कि लड़का मुश्किल में है, तो वो जाते हैं पास में और शेरों को भगा देते हैं। और कोई तरीक़ा नहीं है।
आपका प्रश्न ही बड़ा निर्मूल है। आप कहें कि हम कैसे पता करें कि अभी हम माया के चक्कर में हैं कि नहीं हैं, आप नहीं पता कर सकते साहब। आप बस इतना कर सकते हो, जैसा मैंने कहा, कि आप उसके साथ हो लो जिसके पास माया फटकती नहीं। उससे दूर हुए तो आपकी कोई चतुराई आपको बचा नहीं पाएगी। आप लगा लो जितनी जुगत लगा सकते हो, आपकी हर जुगत पर देवी जी ही सवार हैं।
बात समझ में आ रही है?
बेहोशी में तो सब ख़बरदार हो जाते हैं। और दिक्क़त ये है कि आपको जब भी आगाह किया गया है, सावधान किया गया है तो बेहोशी के ख़िलाफ़ किया गया है। यही कहा गया है न, 'बेहोशी से बचना, सतर्क रहना, सचेत रहना, सजग रहना, जाग्रत रहना।' यही कहा गया है न? बेहोशी बहुत ज़्यादा नुक़सानदेह नहीं होती, क्योंकि बेहोशी इतनी प्रकट अवस्था होती है कि आप स्वयं ही समझ जाते हो कि अभी ख़तरा है।
आप बेहोश हो तो आप जान जाते हो कि अभी आप कमज़ोर हो, ये आपके दुर्बलता के पल हैं। और जो जान गया कि वो अभी दुर्बल है, वो कुछ-न-कुछ इंतज़ाम कर लेगा, वो किसी का सहारा ले लेगा, वो कोई कवच ढूँढ लेगा।
आपका ज़्यादा-से-ज़्यादा और बड़े-से-बड़ा नुक़सान आपकी बेहोशी में नहीं होता, आप गहरी और प्राणघातक चोट खाते हो अपनी होशमंदी में। जब आपको लग रहा होता है कि आप बेवकूफ़ बन रहे हो और बेवकूफ़ियाँ कर रहे हो, तब आपका नुक़सान होगा भी तो थोड़ा-बहुत होगा, क्योंकि आपको पता है कि आप बेवकूफ़ बन रहे हो और बेवकूफ़ियाँ कर रहे हो। आदमी अपनी ज़िंदगी बर्बाद कर लेता है उन पलों में जब उसे लगता है कि वो तो बड़ा होशियार है, बड़ा चतुर है और बिलकुल ठीक काम कर रहा है।
समझ में आ रही है बात?
जो तुम्हारी बेहोशी के पल हैं, अगर उनके प्रति सचेत रहते हो, तो उससे दस गुना ज़्यादा सचेत रहो उन मौक़ों के प्रति, उन घटनाओं के प्रति, उन पलों के प्रति जब तुम्हें लगता है कि तुम बड़े होशमंद हो, बड़े जाग्रत हो, बड़े सचेत हो। तब पड़ती है मार। बहुत मोटी मार पड़ती है, ठीक तब जब तुम्हें ज़रा भी अंदेशा नहीं होता कि मार खाने वाले हो।
माया भी कोई छोटी-मोटी खिलाड़न थोड़े ही है! बेहोशों को छोड़ देती है, वो कहती है, ‘ये तो पहले ही गिरा हुआ है, इसको क्या गिराएँ!' वो भी पसन्द करती है उनका शिकार करना जिनका दावा होता है होश का। वो कहती है, 'आप आइए, अब मिला कोई बाँका पट्ठा! अब मिला कोई जो बड़े विश्वास के साथ छाती ठोक कर खड़ा हुआ है कि हम जाग्रत हैं, हमें होश है।' माया कहती है, 'हम तुम्हारा शिकार करेंगे और ऐसा शिकार करेंगे तुम्हारा कि तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कि तुम शिकार हो गये।'
कैसा रहेगा?
साल-दर-साल, दशक-दर-दशक, जन्म-दर-जन्म बीतते जाएँगे और तुम्हें पता भी नहीं होगा कि तुम्हारा शिकार हो गया है, तुम्हारा शिकार चल रहा है। कैसा रहेगा ये शिकार? ऐसी शिकारी है वो। आप अपनी समझ से बड़े होशियार बने बैठे हैं, और वो पीछे से आपका कबाब बना रही है।
बात समझ में आ रही है?
इसीलिए प्रबुद्ध जनों में, बोधवान जनों में, जाग्रत सन्तों में बहुत दफ़े एक विचित्र गुण देखा जाता है जो आम आदमी को समझ में नहीं आता। वो बेवकूफ़ी की हरकतें करते हुए दिखायी देते हैं। उनकी बहुत सारी आदतें और हरकतें और कर्म ऐसे होते हैं कि आम आदमी उन्हें देखता है तो कहता है, 'ये पागल है क्या? ये कर क्या रहा है!' जैसे वो जगा हुआ आदमी ख़ुद अपना ही मज़ाक उड़ा रहा हो। जैसे वो इतने होश में हो कि होश का ही मज़ाक उड़ाने लग गया हो।
उसकी बात समझो, वो क्या कह रहा है। वो कह रहा है, 'देखो बेटा, होशमंदों की तो नियति है बेवकूफ़ बनना। हम अपनेआप बेवकूफ़ बन लेंगे। हम बेवकूफ़ बनाने वाली पर कटाक्ष करेंगे ख़ुद ही बेवकूफ़ बन कर। अगर हम होशियार बनते तो वो हमें चुपके से बेवकूफ़ बना जाती। तू हमें बेवकूफ़ क्या बनाएगी, हम ख़ुद ही बन गये।'
"कबीरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय।"
वो कहते हैं, 'तू क्या ठगेगी, हम ख़ुद-ही-ख़ुद को ठग लेते हैं। ले, अब ठग कर दिखा।'
यहाँ का रिवाज़ ही कुछ ऐसा है, जो कोशिश करते हैं ख़ुद को बचाने की, वो ऐसा लुटते हैं कि अपना माल क्या, अपना नाम भी फिर ढूँढ नहीं पाते। और जो ख़ुद-ही-ख़ुद को लुटा देते हैं वो खिलाड़ी हो जाते हैं, विजेता हो जाते हैं, नायक हो जाते हैं। क़तई चैम्पियन!
होशियारी से बचना। सबसे ज़्यादा सतर्क तब रहना जब तुम्हें लगे कि कोई ख़तरा नहीं है। सबसे ज़्यादा सचेत तब हो जाना जब तुम्हें लगे कि तुम्हें सब पता है और सब जानते हो। ग़ौर से देखना जीवन में कहाँ बुद्धू बने हो, कहाँ ठगे गये हो। जंगलों में? अपरिचितों के बीच? अनजान लुटेरों द्वारा? या वैसे ही ठगे गये जैसे नारद महाराज ठगे गये थे, 'ये तो सब मेरे अपने हैं। आज का प्यार और कल के सपने हैं।'
सतर्कता की वहीं ज़रूरत होती है जहाँ लगता है सब ठीक है। जिन्हें पता चल गया सब ठीक नहीं है, वो तो अस्पताल पहुँच जाते हैं, उनके बचने की सम्भावना बढ़ जाती है। मारे वो जाते हैं जिन्हें लग रहा होता है सब ठीक है। उनको रात में सोते-सोते आते हैं दिल के दौरे और वो साफ़ हो जाते हैं। साफ़ होते-होते भी क्या बुदबुदा रहे होते हैं? 'सब बढ़िया है।'
माया इतनी कच्ची नहीं है कि तुम्हें बताकर तुम पर वार करेगी। वो तुम्हें वहाँ पकड़ती है जहाँ तुम्हें ज़रा भी अंदाज़ नहीं होता, अंदेशा नहीं होता, शक नहीं होता। जहाँ तुम्हें लग रहा होता है कि यहाँ तो कोई ख़तरा नहीं, सब बढ़िया है, वहीं वो बैठी होती है। जिस चीज़ के बारे में तुम सबसे ज़्यादा विश्वासी और आश्वस्त होओगे, समझ लो वहीं पर चोट पड़ने वाली है। तो समझाने वालों ने कहा कि बच्चा, इसी बात से समझ जाओ कि चोट कहाँ पड़ने वाली है।
कोई भी जीव किस बात के प्रति सबसे ज़्यादा आश्वस्त रहता है? तुम से कह दिया जाए कि वहाँ दरवाज़े के बाहर कोई नहीं खड़ा है, तुम मान लोगे, दूर की बात है। तुम कहोगे, 'नहीं, हमें बिलकुल कोई आश्वस्ति नहीं है कि कोई वहाँ खड़ा ही है, साहब अगर आप कहते हैं कि दरवाज़े के बाहर कोई नहीं खड़ा है तो हम मानने को तैयार हैं कि कोई नहीं खड़ा है, ठीक है, मान लिया। हम बिलकुल भी विश्वास से भरे हुए नहीं हैं कि दरवाज़े के बाहर कोई है, तो हमने मान लिया कि दरवाज़े के बाहर कोई नहीं है, मान लिया।'
अब थोड़ा और क़रीब आते हैं, तुमसे कहा गया कि मानो कि ये दीवार नहीं है। बड़ी तकलीफ़ होगी, बड़ा ज़ोर लगाना पड़ेगा और बड़े कष्ट के बाद ये मानने को तैयार होओगे कि ये दीवार नहीं है, क्योंकि इस दीवार को लेकर क्या है? विश्वास है, आश्वस्ति है कि दीवार तो है ही भाई। मुझे प्रतीत हो रही है, मैं छू सकता हूँ, देख सकता हूँ, ये दीवार तो है ही है। लेकिन फिर भी अगर तुम्हारे सामने सौ तरह के प्रमाण रखे जाएँ, बता दिया जाए कि ये दीवार नहीं है, कोई थ्री डी (त्रिआयामी) धोखा है, कोई बहुत उन्नत क़िस्म का लेज़र शो है, तो हो सकता है कि तुम मान लो कि दीवार है नहीं, बस ऐसा लग रहा है आँखों को कि दीवार है। फिर भी मान लोगे।
अब और आपके क़रीब आया जाए, न दरवाज़े के बाहर की बात की जाए, न दरवाज़े के भीतर की दीवार की बात की जाए, कहा जाए तुम ही नहीं हो, तो तुम उठ खड़े हो जाओगे। कहोगे, 'इंतहा हो गयी मज़ाक की। पहले कहा दरवाज़े के बाहर कोई नहीं है, हमने मान लिया आदरपूर्वक। फिर कहा ये जो दीवार है, ये ही नहीं है, वो भी हमने आपका दिल रखने के लिए मान लिया। पर अब तो आप बेहद हुए जा रहे हैं, कह रहे हैं हम ही नहीं हैं!'
हर आदमी को किस बात को लेकर पूरी आश्वस्ति है? 'मैं तो हूँ, मैं हूँ।' और हमने कहा, जिस बात को लेकर आपको पक्का भरोसा होता है कि ये बात सच है, माया वहीं पर मारती है, वही चीज़ झूठ होती है। जहाँ आपको पहले ही पता होता है कि दाल में कुछ काला है, माया वहाँ ज़्यादा चोट नहीं करती। उसको इस तरह से शिकार करना पसन्द ही नहीं है कि शिकार को भनक लग गयी।
माया बहुत रसिक है, बड़ा जलवा रखती है, बिंदास है। वो सिर्फ़ शिकारी नहीं है, वो हंटर विद एन एटिट्यूड (एक दृष्टिकोण के साथ शिकारी) है। वो कहती है, 'ऐसे मारूँगी कि मरने वाले को पता भी नहीं चले कि वो मर गया।' वो कब का मर चुका है और मरने के चालीस साल बाद भी उसका ख़याल यही है कि मैं तो हूँ। वो ऐसे मारती है। वो आपका भरोसा नहीं टूटने देती अपने ऊपर से। इसका मतलब जिस चीज़ पर आपको सबसे ज़्यादा भरोसा होता है, वहीं समझ लो माया छुपी हुई है, वहीं पर मामला झूठा और नकली है।
ये जो ‘मैं’ है न, यही माया है। आप कुछ भी मानने को तैयार हो सकते हैं, कभी ये तो नहीं मानेंगे न कि आप हैं ही नहीं। यहीं पर खेल ख़त्म हो गया। आप अपने ख़यालों को मान सकते हैं कि नकली हैं, आप अपने पैसे-रुपये को भी मान सकते हैं कि नकली हैं, आप अपने सम्बन्धों को भी एक मुक़ाम पर आकर हो सकता है मान लें कि नकली हैं, पर बड़ा मुश्किल होगा यही स्वीकार कर लेना कि हम पूरे-के-पूरे नकली हैं, भ्रम मात्र हैं, मिथ्या। वही माया है।
तो जो माया से बचना चाहते हों, वो दूर न जाएँ, अपने क़रीब आयें और तलाशें कि किन चीज़ों पर सबसे ज़्यादा भरोसा है। जिन भी चीज़ों पर सबसे ज़्यादा भरोसा है, जो भी मान्यता आपको बहुत प्रिय है, जिस भी मुद्दे पर आपको किसी तरह का कोई शक-ओ-शुब्हा है ही नहीं, जान लीजिए वहीं पर आपका काम तमाम किया जा रहा है।
इसीलिए माया को बहुत पसन्द आते हैं आत्मविश्वासी लोग, कॉन्फ़िडेंट लोग। 'नहीं साहब, हमें तो पता है, हमें पूरा विश्वास है। हम बड़े कॉन्फ़िडेंस (आत्मविश्वास) के साथ कुछ बातें जानते हैं, कुछ बातों में यकीन करते हैं।' आपके विश्वास, आपके कॉन्फ़िडेंस में ही आपके सारे दुख बैठे हुए हैं।
‘मैं’ के बाद जो दूसरा नन्हा सा शब्द है जो आदमी को कहीं नहीं छोड़ता, वो क्या है? ‘है’; ‘मैं’ और ‘है’। 'है' माने अस्ति। ये चीज़ अस्तित्वमान है, इट एक्ज़िस्ट्स। ये जो चीज़ है, ये है। इसमें सच्चाई है, इसमें हक़ीक़त है, इसकी हस्ती है, इसकी अस्मिता है। ‘है।’
और जहाँ ‘मैं’ वहाँ ‘है’। ‘मैं’ कहा जाता है स्वयं के लिए और ‘है’ कहा जाता है संसार के लिए। ‘मैं’ और ‘है’ साथ-साथ चलते हैं। माया को दोनों ही बहुत पसन्द हैं। जो ज़ोर से बोले ‘मैं’, गया। और जो बोले ज़ोर से ‘है’, गया। और ख़ासतौर पर जो ज़ोर से बोल दे ‘सच तो ये है’, गया।