भोग की कीमत

Acharya Prashant

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भोग की कीमत
अगर कोई NCR में रह रहा है लगातार, तो उसकी उम्र से दस–पंद्रह साल गए — निश्चित रूप से गए। हमको सिखाया नहीं गया है कि क्या कीमती है। गुड लाइफ़ इसमें नहीं है कि हवा साफ़ है, पानी साफ़ है, सेहत अच्छी है, लाइब्रेरी में जाकर पढ़ने को मिल रहा है। गुड लाइफ़ इसमें है कि तुम मेरा माल खरीदो। जब तक हम वो सीमा नहीं तय कर देते कि भाई, इससे ज़्यादा कंज़म्प्शन की किसी भी आदमी को ज़रूरत नहीं है, तब तक ये AQI वगैरह बढ़ता ही रहेगा। लोग बस ये कहते हैं कि “मैं तो नहीं मरा न, और अभी तो नहीं मरा न; आगे मरेंगे तो देखा जाएगा। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। मेरा प्रश्न भारत की प्रदूषित हवा के बारे में है। मैं अमेरिका में शार्लेट नाम का शहर है वहाँ रहती हूँ और मैं कुछ सालों के बाद भारत आई हूँ। और मैं लैंड की थी दिल्ली में इसी महीने और जैसे ही मैं एयरपोर्ट के बाहर निकली तो मुझे साँस लेने में बहुत परेशानी हो रही थी, मेरे गले में खराश हो रही थी और चेस्ट पेन और मेरी आँखों से पानी निकल रहा था। फिर मैंने AQI चेक किया दिल्ली का और जहाँ से मैं आई हूँ, तो जहाँ मैं थी वहाँ पर 30–40 AQI रहता है पॉल्यूशन ट्रैकर पर, और दिल्ली में उस दिन 2000 के भी ऊपर था, कुछ-कुछ इलाकों में तो 2400 था। तो 40 से 2400 पर आकर मेरे शरीर पर बहुत प्रभाव पड़ा और मैंने देखा कि जो वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन है उस पर ये लिखा था कि इतनी प्रदूषित हवा में सबकी ज़िंदगी से बारह साल कम हो सकते हैं अगर लोग ऐसी प्रदूषित हवा में रहेंगे।

तो मेरे लिए ये बहुत चौंकाने वाली बात थी जब मैंने मीडिया में देखा कि इसको लेकर क्या चर्चा हो रही है, तो यही सिर्फ़ यही बातें हो रही थीं कि कौन-सी सरकार बनेगी, कौन-सी सरकार गिरेगी और कुछ IPL की चर्चा, मतलब किसी और विकसित देश में ऐसी प्रदूषित हवा होती तो वो पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी हो जाती। क्योंकि वो सीधे-सीधे बेसिक ह्यूमन राइट का वायलेशन है। तो मैं ये देखकर बहुत ज़्यादा हैरान हुई कि यहाँ पर जो आम आदमी है वो अपने बहुत ही मूल अधिकार को लेकर गंभीर नहीं है।

तो मेरा प्रश्न आपसे यही है कि भारत के जो लोग हैं वो अपने बेसिक ह्यूमन राइट को लेकर, अपने अधिकारों को लेकर जागरूक क्यों नहीं हैं? क्योंकि ये बहुत-बहुत बड़ी चीज़ है, इतनी प्रदूषित हवा में रहना और बिल्कुल भी आवाज़ नहीं उठाना।

आचार्य प्रशांत: देखिए, पहले तो वो जो दो हज़ार या पच्चीस सौ का आँकड़ा था न, उसमें यूनिट्स का अंतर है, वो उतना नहीं है, पर हाँ, चार सौ, पाँच सौ, सात सौ तक भी चला जाता है दिल्ली में। मेरे ख़्याल से आज भी तीन-चार सौ है। तो आप तीस–चालीस वाले क्षेत्र से आई हैं तो उससे दस गुना तो यहाँ रहता-ही-रहता है। वो बड़ी अपने आप में गंभीर बात है। भले ही दो हज़ार न हो पर अगर चार–पाँच सौ है तो भी बहुत एकदम क्रिटिकली सीवियर कैटेगरी में आ जाता है।

भारत में जागरूकता क्यों नहीं है? क्योंकि तुरंत नहीं मर रहे। यही जवाब है, और क्या? अगर कोई ऐसी चीज़ हो जाए कि हम तुरंत मरना शुरू कर दें तो आनन-फानन में फिर लहर दौड़ जाएगी और इमरजेंसी लग जाएगी, है न? ये चीज़ आगे की है कि हमारी उम्र से दस साल, पंद्रह साल कम होंगे। तो ये संभावना की, प्रॉबैबिलिस्टिक बात नहीं है। अगर कोई एनसीआर में रह रहा है लगातार तो उसकी उम्र से दस–पंद्रह साल गए, निश्चित रूप से गए। पर वो आगे होगा न, भारत तो जवान देश है। तो अभी ज़्यादातर लोग जो हैं, वो कोई पच्चीस का है, कोई पैंतीस का है, कोई हुआ तो चालीस–पैंतालीस का है। सबको ये है कि ये तो बात मरने वाली अभी बीस–चालीस साल आगे है, तो कुछ कम भी होंगे साल तो ठीक है, अभी नहीं मर रहे।

हमको सिखाया नहीं गया है कि क्या कीमती है। जीवन में किन चीज़ों को मूल्य देना है, ये बात न हमारी परवरिश का हिस्सा रही है और न हमारी शिक्षा का।

हवा ही नहीं, हमारा जो खाना भी है, जो हम आमतौर पर खाते हैं, वो बहुत ज़्यादा हानिप्रद होता है स्वास्थ्य के लिए। हम जिसको अपना इंडियन स्टेपल फूड भी बोलते हैं, वो भी कोई सेहतमंद नहीं होता है। जो हमारा रोज़मर्रा का खाना है न, दाल–चावल, रोटी–सब्ज़ी, उसमें वो सब चीज़ें होती ही नहीं हैं जो कि आपको अच्छी सेहत के लिए चाहिए।

हाँ, उसमें क्या खूब होता है? कार्बोहाइड्रेट्स। वो आपको रोटी में भी मिल जाते हैं, चावल में भी मिल जाते हैं, दाल तक में मिल जाते हैं। थोड़ा-सा प्रोटीन आपको दाल में मिल जाता है और कुछ आपको विटामिन्स वगैरह आपने जो भी सब्ज़ी ले ली उसमें मिल जाते हैं। सब्ज़ियाँ भी हमारे यहाँ बहुत बार गीली बना दी जाती हैं, उनमें पानी ही ज़्यादा तैर रहा होता है और मिर्च वगैरह खूब डाल दी जाती है। ये हमको शिक्षा ही नहीं दी गई है कि अच्छी ज़िंदगी बोलते क्या हैं, किसको हैं और उसके लिए कौन-सी चीज़ें चाहिए होती हैं। बात ही नहीं हुई है इस पर।

माना गया है कि जो कुछ भी चला आ रहा है परंपरा से वो ठीक है, वही तो अच्छी ज़िंदगी में आता है सारा। पूरी, कद्दू की सब्ज़ी, खीर, अचार खा लो, ये आपकी अच्छी ज़िंदगी में आता है। एक बार मैंने पूछा था, मैं ट्रेन से यात्रा कर रहा था, लंबी दूरी की यात्रा थी, तो रात में जब नौ-दस बजे तो सब लोगों ने अपना-अपना टिफ़िन निकालना शुरू किया। बीस साल पहले की बात है। तब ये भी नहीं होता था कि ट्रेन के भीतर केटरिंग हो जाए, अब तो वो भी होती है। पच्चीस साल, तीस साल पहले की बात है बल्कि। और जितने लोग अपना टिफ़िन खोल रहे थे, पूरे डब्बे में पूरी-आलू की गंध फैल गई। पूरे डब्बे में पूरी-आलू, पूरी-आलू फैल गया। दो-चार रहे होंगे अपवाद तो उन्होंने कुछ और कर लिया होगा, नहीं तो पूरी-आलू, पूरी-आलू-अचार, यही पूरे डब्बे में।

तो मैंने सोचा, मैंने कहा लंबी दूरी की ट्रेन है, ये जो लोग खा रहे हैं, पहली बात तो इनको बहुत समय तक चलने को नहीं मिलना है। ट्रेन के अंदर कितना चल लोगे? दूसरा, इसमें से कई बुज़ुर्ग भी हैं। तीसरा, इसमें बहुत सारे लोग मोटे भी हैं, ओवरवेट हैं। लेकिन हमारी राष्ट्रीय परंपरा क्या है? पूरी-आलू। और वो हम बड़े स्नेह से, बड़ी ममता से बनाते हैं। आमतौर पर घर की महिलाएँ ही बनाती हैं कि कोई सफ़र पर जा रहा है, तो उसको पूरा डब्बा भर के पूरी-आलू दे दिया। ठीक है? और इसको हम मानते हैं कि ये तो प्रेम का द्योतक हो गया। कभी इस पर चर्चा ही नहीं हुई है। कभी ये बात शिक्षा का, परवरिश का मुद्दा ही नहीं बना है कि क्या खाना चाहिए, कैसे जीना चाहिए, शरीर कैसा होना चाहिए, व्यायाम कितना करना चाहिए। इन बातों पर हमारे घरों में कहाँ होती है बात। बात समझ रहे हैं?

तो ले-देकर एक चीज़ है जिस पर हमारे समाज में, घर में, स्कूलों में, कॉलेजों में बात होती है। वो क्या है? पैसा! कुछ हद तक हम समझ सकते हैं, ग़रीब हम रहे हैं काफ़ी। तो पैसा फिर लगता है कि ज़रूरी बात है। पर पैसे की बात सिर्फ़ वही करने में नहीं लगे रहते जिनके पास पैसा नहीं है एकदम। पैसे की बात में वो भी लगे हैं जिनके पास है पैसा। समझ रहे हैं? ये कहाँ से आ गया? ये यहाँ से आ गया कि जो पूरी हमारी संस्कृति ही है न, हम माने-न-माने पर वो पूँजीवादी है। बहुत लोग मिल जाएँगे भारत में जो कि कैपिटलिज़्म को यूँ तो गाली देते हैं पर उनको समझ में नहीं आता कि आप जिस तरीके से अपना समाज, घर, सब व्यवस्थाएँ चला रहे हो, वो भी पूरी तरह पूँजीवादी ही हैं।

अब पूँजीवाद माने क्या होता है? पूँजीवाद माने होता है कि आपकी कामना पर कोई अंकुश नहीं रहेगा, ये पूँजीवाद है। और ले-देकर बस इसका प्रशिक्षण मिलता है हमें अपने घरों में और समाज में और स्कूलों में, और कमाओ, और कमाओ। आपके कॉलेज होते हैं, उनमें आप किस विषय का चयन करोगे? इंजीनियरिंग में जा रहे हो तो कौन-सी ब्रांच लोगे? या कुछ भी आप किस आधार पर चुनोगे, वो बस ऐसे ही तय होता है कि प्लेसमेंट कहाँ हो जाता है। प्लेसमेंट माने नौकरी, माने पैसा। शादी किससे करनी है अपने बच्चों की, सबसे पहले उसका क्या देखा जाता है? पैसा। कहीं पर गए, कोई उत्सव था, किसी ने बुला लिया, वो अच्छा था कि बुरा था वो किस बात से नापा जाता है? पैसा कितना खर्च किया। कोई जगह रहने के लिए अच्छी है कि बुरी है, ये तुरंत कैसे पता चल जाता है? देख लो, वहाँ पैसे वाले लोग रहते हैं कि नहीं रहते।

मैंने लोगों को कपड़े खरीदते देखा है। उनके सामने कपड़े रख दिए गए बहुत सारे। वो सब अलग-अलग तरीकों के, रंगों के, डिज़ाइनों के, उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि क्या लें, क्या न लें क्योंकि उनकी अपनी कोई एस्थेटिक सेंस तो कभी विकसित हुई नहीं है। तो क्या करते हैं कि वो पलट-पलट के प्राइज़ टैग देखना शुरू कर देते हैं। वो उसके अंदर घुसा होगा तो ऐसे खोद-खोद के निकालेंगे, प्राइज़ टैग बाहर आए, देखेंगे कितना है और जिसका देखेंगे कि प्राइज़ टैग मोटा है, माने कीमत ऊँची है, उसी चीज़ को मान लेंगे कि ये बेहतर है।

पूँजीवाद का अर्थ होता है कि पैसा ही जीवन में सबसे बड़ा मूल्य है। कि शर्ट अच्छी है कि बुरी है, ये इससे तय होगा कि उसकी कीमत कितनी है, ये पूँजीवाद है, कैपिटलिज़्म। हमारी संस्कृति है पूँजीवादी, हर चीज़ में पैसा घुसा हुआ है। देखते नहीं हो कि हमने अपनी जो धार्मिक कथाएँ हैं, उनमें भी स्वर्ण को कितना ऊँचा स्थान दिया है? सोना! भव्य! हमने अपने आराध्यों का भी अलंकार सोने से कर डाला। ये क्या है? ये पूँजीवाद नहीं तो और क्या है?

और मैं कह रहा हूँ पूँजीवाद का अर्थ होता है कि कामना पर कोई अंकुश नहीं रहेगा। आप किसी पूँजीवादी से, कैपिटलिस्ट से पूछिए, कितना कमाना है, और उससे कहिए कि किसी जगह पर जाकर पूर्ण विराम लगा दो, वो नहीं लगा पाएगा। कमाना पता नहीं कितना अच्छा है, बुरा है। हो सकता है अच्छा भी हो। समस्या ये है कि अनलिमिटेड पर्सूट ऑफ़ प्रॉफ़िट्स। कोई जगह नहीं आती जहाँ पर वो कह दे कि मुझे रुक जाना है। इतनी भारी कमी है अध्यात्म की कि उसको पता ही नहीं है कि एक सीमा तक जब पैसा आता है ज़िंदगी में तो उससे ज़िंदगी होती है बेहतर, निःसंदेह! पर उसके बाद और पैसा आए तो उससे ज़िंदगी बेहतर नहीं होती। बल्कि और ज़्यादा आ जाए पैसा, तो ये हो सकता है कि ज़िंदगी बदतर होनी शुरू हो जाए। ये कैपिटलिज़्म है।

कोई एकदम ग़रीब हो और उसको आप पैसा दें तो आप उसके साथ अच्छा कर रहे हो। और एक बिंदु आता है, एक सीमा आती है जहाँ तक आप जितना उसको पैसा देते जाओगे, उतना उसकी बेहतरी होती जाएगी, बढ़ती जाएगी। उसकी वेलफ़ेयर, उसका कल्याण बढ़ेगा, क्योंकि वो अपने बच्चों को स्कूल में डाल पाएगा, पहले उसके पास पैसे नहीं थे, स्कूल में नहीं डाल पाता था। वो अपने बच्चों को अच्छा खाना खिला पाएगा। वो अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएँ दे पाएगा। उल्टे-पुल्टे कपड़े पहनकर घूमते थे, जूते ठीक नहीं थे, वो ये सब कर पाएगा। एक कमरे में पाँच लोग रहा करते थे तो पढ़ भी नहीं सकते थे, सो भी नहीं सकते थे, तबीयत ख़राब हो जाती थी। अब थोड़ा तमीज़ का घर ले लेगा तो एक बिंदु तक तो पैसा चाहिए और पैसा जब आता है तो उससे आपकी बेहतरी में इज़ाफ़ा होता है। बिल्कुल सही बात है ये।

कोई एकदम मुझे मिल जाता है ग़रीब तो मैं उसको यही बोलता हूँ, तुम पहले तो पैसा कमाओ। अंधाधुंध नहीं कमाना है पर इतना तो कमाओ कि अपनी साधारण आवश्यकताओं की पूर्ति कर सको, वो बिल्कुल ज़रूरी है। लेकिन वो बिंदु आ जाता है, बहुत ज़्यादा उसके लिए मेहनत या संघर्ष नहीं करना पड़ता। वो बिंदु आ जाता है, आदमी को पता नहीं चलता कि आ गया। आदमी उसके बाद भी कहता है, अभी और चाहिए, अभी और चाहिए, अभी और चाहिए, अभी और चाहिए। और जब अभी और चाहिए तो क्या होगा, कैसे और चाहिए होगा? जो कैपिटलिस्ट एक यूनिट होती है, वो क्या करती है? बहुत साधारण-सा मॉडल है, उसको अगर और चाहिए, उसकी कामनाएँ ऐसी मुँह फाड़े खड़ी हैं कि उसे और चाहिए, तो वो क्या करेगा? वो प्रोडक्शन करेगा, और प्रोडक्शन के लिए उसे क्या चाहिए होगा?

श्रोता: रॉ मटीरियल्स।

आचार्य प्रशांत: उसे चाहिए रिसोर्स। वो रिसोर्स वो कहाँ से लेगा? पृथ्वी से लेगा। तो वो ये कैपिटलिस्ट कंसर्न है। ठीक है? ये एक इकाई है। ये कुछ भी हो सकता है, ये एक व्यक्ति हो सकता है, ये एक फ़ैक्ट्री हो सकती है, ये कोई भी हो सकता है। इसे फ़ैक्ट्री मान लीजिए क्योंकि फ़ैक्ट्री भी व्यक्ति द्वारा ही संचालित है। तो अब ये प्रोडक्शन के लिए ये अर्थ के रिसोर्सेज़ लेगा, इस तरफ़ से। और इधर जो कुछ वो प्रोड्यूस करेगा, वो बेचेगा किसको? कंज़्यूमर को बेचेगा। जो रिसोर्सेज़ लेगा तो पहली बात, तो पृथ्वी से रिसोर्सेज़ ले रहा, और उसको अनलिमिटेड प्रॉफ़िट चाहिए तो इसे रिसोर्सेज़ भी कितने लेने पड़ेंगे? अनलिमिटेड। पृथ्वी के पास इतने रिसोर्सेज़ हैं नहीं, ठीक है?

और जितना ज़्यादा तुम रिसोर्स माँगते हो न और रिसोर्स कम होता जाता है, उसको निकालने में उतना ज़्यादा श्रम करना पड़ता है, उतनी ऊर्जा लगानी पड़ती है। उदाहरण के लिए बहुत सारे ऑयल फ़ील्ड्स हैं मिडल ईस्ट में जो सूख रहे हैं, लेकिन उनमें से भी डीप एक्सप्लोरेशन करा जा रहा है, और वो महँगा पड़ता है और वो पर्यावरण के लिए बहुत घातक होता है, पर फिर भी निकाल रहे हैं। जो चीज़ सतह पर है, उसको उठाने में बहुत एनर्जी नहीं लगती; पर जो चीज़ अब नीचे घुस गई है, चट्टानें फोड़कर जिसको निकालना पड़ रहा है, उसमें…।

तो ये हर तरीके से पृथ्वी का शोषण करेगा, जलाएगा, और जलाने से क्या उठता है? धुआँ। और वही क्या बन जाता है? AQI बन जाता है। तो ये बात हुई कि AQI ज़्यादा क्यों है? क्योंकि हमारे दिमाग में पूँजी भरी है। पूँजी माने भौतिकता, माने पदार्थ। यहाँ कोई अध्यात्म नहीं भरा है। हम कहते रहें कितना भी कि भारत धार्मिक देश है, कोई धार्मिक-वार्मिक नहीं है। हम ज़बरदस्त तरीके से मटेरियलिस्ट लोग हैं। बहुत लोगों को बुरा लगेगा, लेकिन हम पश्चिम से, यूरोप से, अमेरिका से कहीं ज़्यादा मटेरियलिस्ट हैं। समझ रहे हैं?

तो AQI क्यों बढ़ा? क्योंकि हमें जलाना है।

दूसरी बात आपने पूछी कि AQI बढ़ रहा है तो लोग आपत्ति क्यों नहीं करते? क्यों नहीं करते? क्योंकि ये जो माल बना रहा है, उसको खरीदने कौन वाला है? ये! और ये कैसे खरीदता है? इसको विज्ञापन दिखा-दिखाकर और एक उपभोक्तावादी विचारधारा पढ़ा-पढ़ाकर बेहोश कर दिया गया है। इसको बोला गया है कि तुम मेरा माल खरीदोगे, इसी में तो गुड लाइफ़ है।

गुड लाइफ़ इसमें नहीं है कि हवा साफ़ है, पानी साफ़ है, सेहत अच्छी है, लाइब्रेरी में जाकर पढ़ने को मिल रहा है, ये सब गुड लाइफ़ नहीं है। गुड लाइफ़ इसमें है कि तुम मेरा माल खरीदो। तो ये जो बीच में बैठा है, ये क्या कर रहा है? एक तरफ़ तो ये पृथ्वी को जला रहा है, क्योंकि जलाए बिना इसका माल तैयार नहीं होगा।

कोई भी माल तैयार करने के लिए चाहिए तो नेचुरल रिसोर्सेज़ ही न! कोई भी माल ले लो, बिना नेचुरल रिसोर्सेज़ के नहीं बन जाएगा। चाहे आपका ये लैपटॉप ही क्यों न हो। आपको लगता है ये प्रोडक्ट ऑफ़ टेक्नोलॉजी है, नहीं, ये प्रोडक्ट ऑफ़ टेक्नोलॉजी नहीं है, ये प्रोडक्ट ऑफ़ अर्थ है। इसमें अर्थ के संसाधन लगे हैं, तब ये लैपटॉप बना है। तो कोई भी माल बनाना है तो पहले तो अर्थ को तबाह करना पड़ेगा।

जिसको बेच रहे हो, तबाह करोगे तो अब हवा खराब करोगे, पानी खराब करोगे, मिट्टी खराब करोगे, सब खराब करोगे। जिसको बेच रहे हो, वो आपत्ति क्यों नहीं करता? क्योंकि आपने उसको इंडॉक्ट्रिनेट कर दिया है, आपने उसको गहरी पट्टी पढ़ा दी है, क्या? कि कंज़म्प्शन मीन्स हैप्पीनेस, हैप्पीनेस इज़ द पर्पस ऑफ़ लाइफ़।

तुम हैप्पीनेस के लिए ही तो पैदा हुए हो, और वो तुम्हें मिलेगी मेरे माल का उपभोग करके। तो वो ख़ुश है कि उसको माल मिल रहा है। अब उस माल के साथ-साथ अगर उसको पाँच सौ का एस.पी.एम. मिल रहा है तो वो कहता है, “कोई बात नहीं, मुझे तो ये कभी पढ़ाया ही नहीं गया न कि एस.पी.एम. कम होना चाहिए; मुझे तो ये पढ़ाया गया है कि माल ज़्यादा होना चाहिए।”

तो जब तक माल ज़्यादा मिल रहा है उसको, वो एस.पी.एम. पर आपत्ति नहीं करने वाला। ये समस्या शिक्षा और संस्कार की है। हम अपने आप को कितना भी सुसंस्कृत बोलते रहें, कल्चर्ड, सुसंस्कृत, हमारी जो संस्कृति है, वो भोग की ही है, उपभोग की ही है। हमारी जो संस्कृति है, वो तब तक रहती है जब तक आप चीज़ों को समझना न शुरू कर दें। और ‘समझना’ हमारे यहाँ संस्कृति का हिस्सा नहीं है।

हमारे यहाँ पर अगर कोई आदमी धार्मिक भी है, तो उसको धार्मिक माना जाता है जब वो बस बिना समझे ऐसे सिर झुका देता है। हमारे यहाँ धर्म का यही मतलब है (सिर झुकाना), हमारे यहाँ धर्म का मतलब ही ‘समझना’ नहीं है।

तो जब कुछ समझना है ही नहीं, तो ये जो ग्राहक है, ये क्यों समझे कि इसके साथ क्या हो रहा है? ये बस भोगता रहता है। हम सिर भी तो जब झुकाते हैं, हम कहते हैं, हमारे पूज्य हैं, सिर झुकाना है। तो सिर भी तो इसलिए झुकाते हैं न कि सिर झुकाएँगे तो उनकी कृपा से कुछ भोगने को मिलेगा। तो जिसकी कृपा से भोगने को मिले, उसी के सामने सिर झुका देते हैं। तो ये जो ग्राहक है, अगर इसको ये जो मैन्युफ़ैक्चरर है, पूँजीवादी, अगर इसकी कृपा से भोगने को मिल रहा है, तो इसके सामने सिर झुका देता है। अब भले ही ये कितना ही प्रदूषण कर रहा हों, ये सिर झुकाकर रखेगा, क्योंकि ये समझेगा ही नहीं कि इसको माल के साथ-साथ और भी क्या मिल रहा है। इसको मृत्यु-दंड मिल रहा है माल के साथ, पर ये समझेगा ही नहीं। बात समझ रहे हैं?

समस्या सारी उस सामग्री में है जो इस खोपड़े में डाल दी गई है। हमारे खोपड़े में डाल दिया गया है कि भोगो। हम पूजते भी बस इसी आशा से हैं कि अगर पूजेंगे तो भोगने को और मिल जाएगा, मटीरियल प्लेज़र्स मिल जाएँगे, कंज़म्प्शन के और अवसर मिल जाएँगे। हम पूजते भी बस इसी आशा से हैं। कोई नहीं आपत्ति करने वाला।

आप अगर यहाँ पर किसी को बोलें कि तुझे ज़िंदगी भर पाँच सौ AQI में रहना पड़ेगा, उसके बदले में तुम्हें हम इतना देते हैं, एक करोड़, और ज़िंदगी भर पाँच सौ AQI में रहोगे, तो अब से बस पाँच साल और जिओगे। वो कहेगा, “पाँच ही साल के लिए तुम दे दो करोड़। पाँच साल जिएँगे पर ऐश मारेंगे।” और ऐश का क्या मतलब होगा? और ज़्यादा भोगना। तू क्यों इतना भोगना चाहता है? क्योंकि हमें घर पर सिखाया ही यही गया।

“बिन्नी के लिए लड़का ढूँढना है,” कौन-सा लड़का ढूँढना है? जिसके साथ बिन्नी खूब भोग कर सके, खूब पैसा होना चाहिए, बड़ी कोठी होनी चाहिए, बाप की अकेली औलाद हो, और अच्छा है।और “बंटी के लिए बिन्नी ढूँढनी है,” कैसी बिन्नी चाहिए? जिसके शरीर का बंटी खूब भोग कर सके। ये तो सब हमारे कल्चर की बातें हैं ही न?

हम आध्यात्मिक लोग थोड़े ही हैं, हम भले ही कितना भी बोलते रहें कि ये करते हैं, पूजा-पाठ, व्रत-अनुष्ठान, कुछ बोल दें, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। हमने अपने धर्म को भी ऐसा कर दिया है कि वो भी बस भोगने की चीज़ बन गया है। परीक्षा आती है, आप चले जाते हो प्रसाद चढ़ाने के लिए। क्यों? मान्यता है कि कामना पूरी होगी।

धर्म कामना का अड्डा बन गया, और पूँजीवाद भी कामना से संबंध रखता है। तो हमारा धर्म बिल्कुल पूँजीवादी हो गया है।

और ऐसे में आप पाओगे कि धर्म और जो पूँजीवादी सेठ है, ये बिल्कुल एकदम एक साथ आ जाते हैं। आप पाओगे, सेठ कोई जश्न करेगा, कोई उत्सव करेगा, तो वहाँ सब धर्मगुरु जाकर खड़े हो जाएँगे। यही बात है, क्योंकि धर्म भी क्या कर रहा है? भोगना सिखा रहा है। और सेठ भी क्या कर रहा है? भोगना सिखा रहा है। तो दोनों में यारी तो प्राकृतिक है न, बिल्कुल। समझ रहे हैं?

ये सब तब तक चलेगा जब तक हमारी शिक्षा में सुधार नहीं आता, हम बच्चों को सही शिक्षा नहीं देते और बड़ों को सही अध्यात्म नहीं देते। नहीं तो ये पक्का समझ लीजिए कि जो आम धार्मिक आदमी है, वो ज़बरदस्त रूप से मटीरियलिस्ट होता है। वो कितना भी कहता रहे कि “ये, वो” एकदम वो पदार्थवादी और भोगवादी होता है। भले ही वो बोलता रहे कि “नहीं-नहीं, मैं तो दूसरी दुनिया में यक़ीन रखता हूँ।” वो तुम दूसरी दुनिया में भी भोग के लिए ही यक़ीन रखता है।

नरक कौन-सी जगह है? जहाँ गलत चीज़ का भोग मिल जाएगा। गरम तेल का भोग करने को मिल गया, तो उसे क्या बोलते हैं? नरक! और स्वर्ग कौन-सी जगह है? जहाँ दूध, दही, शहद, सोना-चाँदी और सब तरह के सुख और अप्सरा का भोग करने को मिल जाता है। तो नरक और स्वर्ग का भी भेद भोग के ही आधार पर तय होता है, कंज़म्प्शन। और यही तो कैपिटलिज़्म है न, जहाँ सबसे बड़ी बात क्या है? प्रोडक्शन और कंज़म्प्शन।

जो कि ठीक है, मैं ख़ुद कह रहा हूँ, कोई बहुत ग़रीब हो तो उसके तो कंज़म्प्शन के स्तर में वृद्धि होनी चाहिए, बिल्कुल होनी चाहिए। बहुत बेचारे भारत में अभी भी ऐसे ग़रीब हैं कि वो ठीक से खाना भी नहीं कंज़्यूम करते, बिजली भी नहीं कंज़्यूम करते। उनका तो जो कंज़म्प्शन का स्तर है, बढ़ना चाहिए, मैं कहता हूँ बढ़ाओ।

इनका कंज़म्प्शन तो अभी बढ़े, लेकिन जो ज़्यादातर लोग हैं, उनको ये पता ही नहीं है कि कंज़म्प्शन रुकना कहाँ पर है। कहाँ रुकना है, मैं बता देता हूँ, जिस बिंदु पर दिख जाए कि कंज़म्प्शन बढ़ाने से वेलफ़ेयर अब नहीं बढ़ रही, उस बिंदु के आगे कंज़म्प्शन बढ़ाना वेस्टेज है। कंज़म्प्शन सिर्फ़ तब तक बढ़ाना चाहिए जब तक कंज़म्प्शन से वेलफ़ेयर सचमुच बढ़ रही हो, ईमानदारी से। जिस बिंदु पर दिखने लगे कि कंज़म्प्शन बढ़ाना अब सिर्फ़ संसाधन जलाने की बात है, ख़ुद को बेवकूफ़ बनाने की बात है, वहाँ पर कंज़म्प्शन रोक देना चाहिए।

और अगर ये पृथ्वी बचेगी तो बचेगी भी बस एक शर्त पर, एक मोटे तौर पर ये आँकड़ा निकाल दिया जाए कि आदमी की वास्तविक बेहतरी के लिए (एक्चुअल वेलफ़ेयर के लिए) कितना कंज़म्प्शन ज़रूरी है। उतने कंज़म्प्शन तक पर कोई टैक्स न लगे, और उससे ज़्यादा जो कंज़म्प्शन कर रहा हो, उस पर इतना टैक्स लगे कि उसका खेल ही ख़त्म हो जाए।

एक लिमिट होती है कंज़म्प्शन की, उस पर नहीं टैक्स लगना चाहिए, कुछ नहीं, क्योंकि उतना कंज़म्प्शन जीने के लिए ज़रूरी है। उस पर नहीं, और उसके आगे जैसे-जैसे कंज़म्प्शन बढ़ रहा है, उस पर प्रोग्रेसिव टैक्सेशन होना चाहिए, *प्रोग्रेसि*व माने कि थोड़ा बढ़ेगा तो टैक्स की दर थोड़ी बढ़ी, और बढ़ेगा तो बहुत बढ़ी। जब तक हम वो सीमा नहीं तय कर देते न कि भाई, इससे ज़्यादा कंज़म्प्शन की किसी भी आदमी को ज़रूरत नहीं है, सब इंसान के ही बच्चे हैं, तब तक ये AQI वगैरह बढ़ता ही रहेगा। लोग बस ये कहते हैं कि मैं तो नहीं मरा न, और अभी तो नहीं मरा न, आगे मरेंगे तो देखा जाएगा।

ले-देकर वेलफ़ेयर ही तो चाहिए न। आप कंज़्यूम भी इसीलिए करते हो ताकि उससे आपको कुछ चैन-शांति मिल जाए। हाँ, मानवता, ह्यूमैनिटी को सीखना पड़ेगा कि चैन-शांति पाने के नॉन-कंज़म्प्टिव वेज़ भी होते हैं, नॉन-कंज़म्प्टिव वेज़ माने ऐसे तरीके जिसमें कुछ जलाना नहीं पड़ता और फिर भी आनंद आ जाता है।

एक तरीका तो ये है कि आपने प्राइवेट जेट लिया या कि आप यॉट पर जा रहे हो और आप खूब जला रहे हो, किस चीज़ के लिए? आनंद के लिए। वो आनंद जो आपको शायद उससे मिलना भी नहीं है।

और दूसरा ये है कि आप सीख लो कि आनंद पाने के तरीके हो सकते हैं, ऐसे अच्छे, सचमुच के गंभीर, असली तरीके, जिनमें कुछ जलाना नहीं पड़ता, फिर भी आनंद आ जाता है। उदाहरण के लिए, बैठकर मैंने कहा किताब पढ़ना। उदाहरण के लिए, किसी के साथ दो घंटे गहरी, सुंदर, अच्छी चर्चा कर लेना। उदाहरण के लिए, नदी में मुझे नहीं जाना है क्रूज़ पर, मुझे नहीं यॉट में जाकर के ईंधन जलाना है, मैं नदी में… बोलो? तैरता हूँ! मैं नदी में तैरता हूँ। नदी में तैरने से कोई प्रदूषण नहीं बढ़ता और आनंद पूरा आ जाता है। किताब पढ़ने से कोई प्रदूषण नहीं बढ़ता। नाचने से कोई प्रदूषण नहीं बढ़ता।

जीवन के जो सहज ही अंग हैं, हमने उनको रोक दिया है, अंगों को काट दिया है। तो इस कारण फिर हमें आनंद के लिए कुछ बहुत असहज काम करने पड़ते हैं। नहीं तो ज़िंदगी तो सहज आनंद भी देती है।

सड़क पर कुत्ता है, आप खेलना शुरू कर दीजिए उसके साथ, कोई प्रदूषण नहीं हुआ, AQI ख़राब नहीं होगा, और मौज भी पूरी आ जाएगी। ज़िंदगी तो बोलती है ये सब, पर ज़िंदगी के जो सहज आनंद हैं, हमने उनको तो वर्जित कर दिया है, प्रतिबंधित कर दिया है। आप ख़ुद कुछ खेलने निकल जाइए या आप जाकर के थोड़ा-सा जिम में वर्जिश कर लीजिए, उसमें कहीं कोई AQI नहीं बढ़ रहा, लेकिन आपको मौज आ जाएगी। हमने लेकिन उन चीज़ों को ज़िंदगी से बिल्कुल बाहर निकाल दिया है। मैं भारत की बात कर रहा हूँ।

लड़का और लड़का आपस में धौल-धप्पा कर रहे हैं, घूम रहे हैं, आनंद है। क्यों नहीं? उसमें कोई ज़रूरी थोड़ी है कि कोई कंज़म्प्शन हो रहा है। और इसी तरह से ये बहुत प्राकृतिक बात है कि लड़का और लड़की बैठकर के अपने तरीके से वक़्त गुज़ार रहे हैं और ज़रूरी नहीं है कि उसमें वे कुछ जला रहे हों, कि धुआँ फैला रहे हों, कि गंदगी कर रहे हों, बिल्कुल ज़रूरी नहीं है। पर उसमें आनंद है, अपना बैठे हैं।

आनंद से मेरा आशय है कि एक साधारण ऊँची कोटि का प्लेज़र। आप जाकर के कहीं पर प्रदूषण करते, पृथ्वी को तबाह करते, संसाधनों को जलाते, उससे आपको जो सुख मिलता, उससे उच्च कोटि का सुख मिल गया, दो लड़के बैठ गए हैं, एक लड़का और एक लड़की बैठ गए, उन्होंने आपस में तीन घंटे समय गुज़ार लिया। उनका मन भर गया, तृप्त हो गए वो। अब उनको कोई ज़रूरत नहीं रहेगी कि वे कहीं पर जाकर के जंगल में आग लगाएँ, लकड़ी काटें, जानवरों को काटें, नदियों को प्रदूषित करें, उन्हें कोई नहीं है, क्योंकि वे दोनों चैन में हैं। समझ में आ रही है बात?

जीवन को अगर तुम साधारण सुखों से भी वंचित कर दोगे, तो फिर जीवन असाधारण सुखों की माँग करेगा।

पृथ्वी पर अगर तुम साधारण रूप से लड़के-लड़की को नहीं मिलने दोगे, तो तुम्हें फिर लालच देना पड़ेगा कि स्वर्ग में असाधारण अप्सरा मिलेगी। अब स्वर्ग में असाधारण अप्सरा पाने के लिए उसे पृथ्वी पर जो भी उपद्रव करना पड़े, वो करेगा। स्वर्ग की असाधारण अप्सरा की माँग उठती इसीलिए है क्योंकि तुम पृथ्वी पर उसे एक साधारण संबंध भी नहीं बनाने देते। नहीं तो काहे के लिए कहेगा कि मुझे मेनका, रंभा, उर्वशी और ये सब चाहिए? ज़रूरत नहीं है। समझ में आ रही है बात ये?

पहाड़ है, मौजूद तो खड़ा है, चढ़ जाओ न पहाड़ पर! जवान आदमी हो, जाओ, चढ़ो जितना चढ़ सकते हो। नहीं चोटी तक पहुँचे, जहाँ तक जा सकते हो, जाओ न। अब एक सुख है पहाड़ पर चढ़ने में, और एक सुख है, पहाड़ को नंगा कर दिया, सारे पेड़ काट दिए और कहा कि अब इस पहाड़ पर फाइव स्टार होटल बना दो, फिर मैं उसमें जाऊँगा और उसमें मैं जाकर के नाचूँगा या कि कुछ भी उपद्रव करूँगा, जो भी करूँगा।

बिल्कुल सुख होगा इसमें, मैं नहीं मना कर रहा हूँ, आप जाकर के वहाँ रह रहे हो, बढ़िया तबियत से बनाया हुआ कमरा है, और ठंडा पहाड़ है, लेकिन गर्म पानी मिल रहा है नहाने के लिए, सब बढ़िया है, वहाँ स्पा भी है, ये सब है, सुख होगा। पर इस सुख के लिए आप ज़्यादा तब कलपते हो जब आपने अपने आप को साधारण सुख ही न दे रखा हो। जिन्हें पता हो कि पहाड़ पर अपने पैरों से चढ़ने में क्या सुख है, वो फिर थोड़ा कम कलपेंगे कि मुझे तो एक असाधारण जगह चाहिए रुकने के लिए। समझ में आ रही बात ये?

अब आप लोग आते हैं, अब आप लोग, बात आगे बढ़ गई है, आप लोग विदेशों से आते हैं, अब हमारे सत्र भी होते हैं, कैंप्स भी होते हैं तो ऑडिटोरियम्स में हो रहे हैं, ये सब चल रहा है, ठीक है, उसमें एक मज़ा है। ऑडिटोरियम में हो रहा है, ज़्यादा व्यवस्थित होता है और सब सुविधाएँ पूरी होती हैं। आप लोगों के लिए ए.सी. वगैरह चल रहा है, सब अच्छा है, बढ़िया है। लेकिन जिन लोगों ने हमारे पुराने शिविरों में हिस्सा लिया है, वो कहते हैं, “काश! उनको लौटा दो तुम।”

और तब उनमें क्या होता था? वो कैंचीधाम, उदाहरण के लिए, या काणाताल। पहले तो पैदल, सड़क पर वहाँ गाड़ी खड़ी हो गई, वहाँ से किलोमीटर पैदल चल कर आप जा रहे हो पहाड़ पर और वो इतनी-सी, संकरी-सी वो है पगडंडी, और ये भी बताया जा रहा है कि अब तेंदुआ भी रहता है। और मौज लेने के लिए क्या करें? रात में निकल रहे हो, कह दिया, “कोई लाइट नहीं जलाएगा, अँधेरे-अँधेरे चलते हैं। देखते हैं, तेंदुआ आएगा तो हमें पहचानेगा कैसे।”

उसके बाद जहाँ जाकर रुके हुए हैं, वो जगह ऐसी है कि एक कमरे में छह जने लेटे पड़े हैं और कमरे में भी ऊपर एक ऐसे बना हुआ है, उसमें तीन-चार चढ़ गए हैं, वहाँ सो रहे हैं जैसे ट्रेन में होता है न, टू टियर, थ्री टियर वैसे ही वहाँ बना हुआ है और वहाँ मौज किस बात में आ रही है? कि पास में एक झरना है, वहाँ जाकर दो को डाल आए। और वापस आकर बता रहे हैं, “दो को वहाँ डाल दिया है।” अब आप करा लो कितना ऑडिटोरियम में आपको क्या कराना है। वो जो वहाँ दो पड़े हुए हैं और पीछे जाकर किसी ने उनका वीडियो बना लिया और वो हाय! हाय! कर रहे हैं, “हमें बाहर निकालो!” ठंडी जगह, ठंडा पानी, उनको निकाले कौन?

अब यहाँ पर आप फाइव स्टार का खाना है वहाँ पर ये भी होता था कि ज़रा सा, उसने झोंपड़ी बना रखी थी वो जो वहाँ पर ओनर था तो वो अपना थोड़ा-बहुत देकर चला जाता था तो ये सब लड़के लोग रहें, ये रात में उसमें घुस जाएँ चोरी से। उसका जो कुछ पड़ा हुआ है, अब कच्चा ही माल पड़ा होगा, वो कच्चा ही माल खा रहे हैं वहाँ बैठकर के। वो तो मैं भी होता था।

तो हाँ, बिल्कुल ठीक है, एक पॉश, एलीट ऑडिटोरियम का अपना मज़ा होगा कि वहाँ आप बैठ रहे हो और सत्र में मुझे सुन रहे हो और मैं बिल्कुल थ्री पीस सूट पहनकर के, माइक लेकर खड़ा हुआ हूँ मंच पर और आपसे बात कर रहा हूँ। पर एक सुख उसका भी था जब पुराना कुर्ता और ऐसे ही लोअर डालकर के मैं कहीं भी बैठ जाता था और पाँच-सात-दस जने आ गए, ऐसे ही अपना बैठे हैं और उनसे बिना बात की बात चल रही है। पता भी नहीं होता था रिकॉर्डिंग हो रही है, नहीं हो रही है, इतनी सारी तो रिकॉर्डिंग हुई ही नहीं और जो हुई भी, ऐसी हुई कई सारी कि उसमें आवाज़ नहीं है। किसी में जिसने एंगल लगाया था उसने एंगल पेड़ का लगा दिया, मैं नीचे बैठा हुआ हूँ। बीच-बीच में मेरी उँगलियाँ आ रही हैं, ऐसे-ऐसे दिख जाता है। एक सुख उसका भी था।

ज़रूरी नहीं है न कि कंज़म्प्शन में ही सुख हो। बिना कंज़म्प्शन वाला सुख आप जितना लोगे, कंज़म्प्शन की आपकी लालसा उतनी कम होती जाएगी। भारत में बिना कंज़म्प्शन का सुख हम जानते ही नहीं, हमें सिखाया ही नहीं गया। एक आदमी एक किताब में डूबा हुआ हो उसको आप वहाँ से डिगाकर दिखाइए। वो एक ऐसे सुख में लवलीन है कि उसका वहाँ से डिगना बड़ा मुश्किल है और कुछ नहीं लग रहा। "हींग लगे न फिटकरी, रंग भी चोखा।" डेढ़ सौ, ढाई सौ, चार सौ की किताब होगी वो और इतने में उसको महीने भर का सुख मिल गया। समझ रही हैं बात को?

प्रश्नकर्ता: सर तो जैसे बाहर से लोग, भारत में भी लोग योगा वगैरह के लिए आते हैं, वो भी क्या एक नॉन-कंज़म्प्टिव तरीका है चैन पाने का?

आचार्य प्रशांत: हाँ बिल्कुल, एकदम! बशर्ते योग ही आप इसलिए न कर रहे हो कि शरीर फिट हो जाए तो और भोगूँ। अब चार महीने बाद बबली की शादी है तो अभी से योगा ट्रेनर लगा लिया है। उसकी शादी में जाकर के नाचूँगी, अपना वीडियो बनवाऊँगी, और फिर उसकी शादी में जाना है तो फिट कपड़े भी तो खरीदने हैं, तो पाँच तरीके के कपड़े खरीदूँगी, वो लाख-लाख रुपए वाले घाघरा-चोली और ये सब। बस योग का ये उद्देश्य नहीं होना चाहिए।

जैसे किताब में एक अपना सुख है न, किताब इसलिए तो नहीं पढ़ रहे हो कि पढ़कर किसी और को आप प्रभावित, इम्प्रेस करोगे? वैसे ही योग इसलिए नहीं होना चाहिए कि योग से आपको जो मिलेगा आप उसको भोगो। योग अपने आप में सुख होना चाहिए। जैसे किताब अपने आप में सुख है, नृत्य अपने आप में सुख है। इसलिए नहीं सुख है कि मैं नाच रहा हूँ तो कोई ताली बजाएगा या कि मैं नाच रहा हूँ तो रील बनाकर डाल दूँगा तो इंस्टा पर लाइक्स आ जाएँगे। अपने आप में सुख है। किताब में अपने आप में सुख है, वैसे योग में अपने आप में सुख होना चाहिए, तो फिर बढ़िया है। ऐन एंड इन इट्सेल्फ़। और कुछ?

प्रश्नकर्ता: धन्यवाद आचार्य जी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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