प्रश्नकर्ता: दूसरों की खुशी के लिए अपने आप को क़ुर्बान कर देते हैं और फिर देखते हैं कि अपनी ही नज़रों में अपनी कीमत गँवा बैठे हैं। रिश्तों में बड़े आसक्त रहते हैं और फिर उनको बचाने के लिए सौ कोशिशें करते हैं और दुख का अनुभव करते हैं। क्या करें?
आचार्य प्रशांत: कुछ करें नहीं, कर तो आप ख़ूब ही रहे हैं; करते ही गए हैं। करने में क्या कमी छोड़ी है? कर-कर के तो ये हालत बना ली है। पहले देखें कि आप जिस रूप में समस्या का वर्णन कर रहे हैं, स्थिति वास्तव में वैसी है भी कि नहीं। आपने एक कहानी परोस दी है, क्या वो तथ्यों से मेल खाती है? क्या बात वास्तव में वही है जो आपने लिखी?
आप कहते हैं कि दूसरों की ख़ुशी के लिए अपने आप को क़ुर्बान कर देते हैं। क़ुर्बानी तो वास्तव में सिर्फ़ अहंकार की ही दी जा सकती है। और बोधयुक्त व्यक्ति अच्छे से जानता है कि ख़ुशी तो एक ही होती है — परम ख़ुशी, आनंद। पर हम जब कहते हैं कि दूसरे की ख़ुशी के लिए अपने आप को क़ुर्बान कर दिया है, तो क्या यह वास्तव में उनके आनंद के लिए है हमारी कुर्बानी? या उनके क्षणिक उन्माद के लिए? उनकी मुक्ति के लिए है या उनके भयों की रक्षा के लिए?
ये भ्रम और इस भ्रम में निहित गर्व बहुतों को रहता है कि उन्होंने दूसरों के लिए अपने आप को क़ुर्बान कर दिया, दूसरों की ख़ुशी को अपनी ख़ुशी से ऊपर रखा। पर मैं आपसे कहना चाहूँगा, ये सिर्फ़ अहंकार की दर्पपूर्ण उक्ति है और कुछ नहीं। जिसे आप ख़ुशी कह रहे हैं वो एक पारस्परिक लेन-देन है; वो दु:ख का ही दूसरा चेहरा है। जिसे आप क़ुर्बानी कह रहे हैं वो सिर्फ़ व्यापार है। कुछ वास्तव में छोड़ा नहीं आपने, कुछ त्यागा नहीं। त्यागने योग्य तो मात्र अहंता होती है; कहाँ त्यागी? और जब तक अहंता नहीं त्यागी तो अहंता के रहते जो कुछ भी छोड़ा जाता है उसके बदले में सदा कुछ वापस लिया जाता है।
बात को समझ लीजिएगा! अहंता के रहते हो सकता है कि आपको लगे कि आपने कुछ छोड़ा, त्यागा; हो सकता है आपने वास्तव में कुछ छोड़ा भी हो पर जो छोड़ा होगा उसके बदले कुछ वापस लिया होगा। और मन व्यापारी होता है, वो जो छोड़ता है उससे कुछ ज़्यादा ही वापस लेना चाहता है। तो इसीलिए जिन्होंने जाना है उन्होंने कहा है कि और कुछ छोड़ने की कोशिश मत करना क्योंकि वहाँ अगर छोड़ भी रहे होगे तो जितना छोड़ा उससे अधिक ले रहे होगे।
एक साहब थे, उन्होंने कहा कि “मेरी टेबल पर बहुत ज़्यादा कागज-पत्थर हो गए हैं। एक के ऊपर एक फ़ाइलें हैं।” तो अपने सहायक को बुलाया, बोले, “ये सब साफ़ होना चाहिए। ऐसा करो ये जितना कुछ है ये यहाँ से हटा दो और इसकी दो-दो फोटोकॉपी यहाँ लाकर रख दो।” भाई ठीक है, ओरिजिनल (मूल) हटा रहे हैं तो बैकअप तो रखना पड़ेगा न।
तो ऐसा होता है मन का छोड़ना कि ये हटा दो और इसकी दो-दो प्रतियाँ लाकर के यहाँ पर रख दो। बड़ा फ़ायदा हुआ एक के बदले दो मिले और साथ में मिला ये दर्प कि मैंने हटाया। पर हमारी शिक्षा कुछ ऐसी रही है कि हम त्याग, अपरिग्रह, क़ुर्बानी, इन शब्दों के वास्तविक अर्थ से बहुत दूर हो गए हैं। कुछ का कुछ बन गया है।
फिर आप देखते हैं कि हम अपनी ही नज़रों में अपनी कीमत गँवा बैठे हैं। होना ही है, स्वाभाविक-सी बात है क्योंकि आप बहुत कीमती हैं। आप इतने कीमती हैं कि आप अपनी कीमत लगा नहीं सकते। अमूल्य हैं आप! और जब भी कभी आप अपने आप को संसार की किसी भी वस्तु, विचार या व्यक्ति के लिए बेच देंगे तो अपनी ही नज़रों में गिर जाएँगे।
साक्षात ब्रह्म हैं आप और आप बेच आए अपने आप को दुनिया के बाज़ार में! गिरेंगे ही न अपनी नज़र से, और क्या होगा! हीरे को जो कौड़ियों के दाम बेच दे वो अच्छा तो अनुभव नहीं करेगा, शांत तो नहीं रह पाएगा। वही स्थिति फिर आपकी है। आपका स्वभाव है अनंतता; कैसे आपने उस पर कुछ भी संख्या लगा दी? कैसे आपको लगा कि आप सीमित हैं और आपको बेचा, बाँटा या बाँधा जा सकता है?
जब ये कष्ट उठे कि हीरे को कौड़ियों के भाव बेच आया हूँ, तो इस कष्ट को सत्य का संदेश समझिएगा। आपको याद दिलाया जा रहा है कि आपका रास्ता ग़लत है। और याद रखिए कि यदि कोई उम्मीद बाकी न होती तो आपको याद भी न दिलाया जाता। ग़लत रास्ता बदला जा सकता है, क्षण भर में सब बदल सकता है क्योंकि जो है वो मानसिक है, वास्तविक नहीं। विचार ही तो है, धारणा ही तो है; बदलने में समय क्या लगना!
आपको बार-बार जिस कष्ट की अनुभूति हो रही है वो इसीलिए हो रही है कि आप बदलें। और मैं कह रहा हूँ बदलना तत्काल हो सकता है। कष्ट को एक तरीक़े का प्रेम-संदेसा समझिएगा। कोई है जिसने आप में अभी आस्था नहीं छोड़ी है। वो आपसे कह रहा है, “इन रास्तों को छोड़ो न! ये तुम्हें शोभा नहीं देते। ये तुम्हारे अनंत विस्तार के अनुरूप नहीं हैं। कहाँ तुम और कहाँ तुम्हारे तरीक़े!” शेर को शेर की ही चाल चलना चाहिए। वो कीड़े की तरह रेंगेगा तो उसे कष्ट तो होगा न।
फिर आप कहते हैं कि, “संबंधों को बचाने के लिए बड़े प्रयत्न करते हैं, बड़ी आसक्ति होती है और फिर दु:ख की अनुभूति।” यही तो खेल है न दुनिया का। संबंध यदि वास्तविक हों तो उन्हें बचाने के लिए श्रम करना पड़ेगा क्या? संबंध यदि वास्तविक हों तो उन्हें बचाने के लिए पाखंड करना पड़ेगा क्या? पर आप देखिएगा ग़ौर से कि आप और किसी को अपना असली चेहरा उजागर कर भी दें पर जो आपके तथाकथित क़रीबी हैं उनको नहीं कर सकते।
किसी से आपका मात्र व्यापार का, औपचारिक रिश्ता हो, उसे आप बता भी देंगे कि मेरा अब तुम में कोई प्रयोजन नहीं रहा, इस साल हमें कोई लेन-देन नहीं करना, तुम अपने रास्ते हम अपने रास्ते। आप उसे बता भी देंगे तथ्य। पर जो आपके क़रीबी हैं, उनको आप कभी न कह पाएँगे कि बात क्या है। वहाँ तो आप रट ही लगाए रहेंगे, “हाँ, मैं तुमसे प्यार करता हूँ।” उधर से आएगा आई लव यू , इधर से जाएगा आई लव यू।
इससे ज़्यादा ईमानदार तो आप अपरिचितों के साथ रहते हैं; क्या नहीं रहते? और आप इस बेईमानी को प्रेम का नाम देते हैं। फिर यदि आपका जीवन तनाव, विषाद और ऊब से भरा हुआ हो, आपकी आँखें बोझिल हों, तो ज़िम्मेदार कौन? कौन ज़िम्मेदार? लोग इन्टरनेट पर जा करके अपनी क़रीबी समस्याओं के समाधान पूछते हैं — कोई माँ-बाप के बारे में पूछ रहा है, कोई पति-पत्नी के बारे में पूछ रहा है — और किससे पूछ रहा है इन्टरनेट पर? अनजाने लोगों से। और वो उन अनजाने लोगों के जवाबों का ज़्यादा भरोसा कर सकता है।
यहाँ ये सुष्मिता बैठी हैं, ये क़ोरा पर ख़ूब जवाब देती हैं। पूछिए इनसे वहाँ कैसे-कैसे सवाल रहते हैं। मैं तो वहाँ जब भी जाता हूँ तो जवाबों से ज़्यादा सवालों से आकर्षित हो जाता हूँ। ऐसे ग़ज़ब सवाल! “मुझे शक है मेरे पति मुझसे प्रेम नहीं करते। मैं किस तरह की साड़ी पहनूँ?” “मेरी पत्नी मेरा खून चूसती है। और खून कहाँ से लाऊँ?” कोई बता रहा था कि कोई इन्टरनेट पर जाकर के पता कर रहा था कि जिस नौकरी में है वहाँ बड़ा परेशान है, तो पूछ रहा था कि इस नौकरी को छोड़ने के लिए क्या किया जाए। और वहाँ जो उसका एम्प्लॉयर (नियोक्ता) था, बॉस , उसी ने आकर के पहले उसको जवाब दिया और फिर निकाल दिया।
मज़ेदार बात ये है कि उसने उस जवाब के लिए बड़े धन्यवाद दिए होंगे पहले अपने बॉस को। अनाम, अपरिचित व्यक्ति से आ रहा है न, उसकी कुछ विश्वसनीयता है। देखो तो, जो अपरिचित है वो फिर भी विश्वसनीय है। जो तुम्हारे बगल में है बिलकुल, इंटीमेट (अंतरंग), हार्दिक — उसका कोई विश्वास नहीं। तो कहाँ आसक्ति है? किन रिश्तों की बात कर रहे हैं आप? बस इतना ही है कि आदत पड़ गई है और आपने अपनी परिभाषा इन रिश्तों के आधार पर कर ली है।
तामसिक वृत्ति है, कि ऐसे ही चलता आ रहा है, चलने दें, इसी का नाम आसक्ति है। और कुछ भी नहीं है। और याद रखिए — रिश्ता बदलने का अर्थ व्यक्ति बदलना नहीं होता। बहुत संभव है कि आप व्यक्ति के बाद व्यक्ति बदलते जाएँ पर रिश्ता वैसा ही रहे। क्योंकि आप वैसे ही हैं तो आप कितने भी व्यक्तियों को बदल लीजिए, रिश्ता वैसा ही रहेगा।
लोग एक के बाद एक शादियाँ करते हैं, हर शादी का अंजाम वही। तभी तो एक के बाद एक होती हैं। लोग एक के बाद एक नौकरियाँ बदलते हैं, हर नौकरी का अंजाम वही। तभी तो इतनी बदलनी पड़ती हैं। क्योंकि हर नौकरी से आपका रिश्ता वही है। दूसरी ओर, व्यक्ति वही रहते हुए भी रिश्ता बदला जा सकता है। रिश्ता बदलिए। रिश्ता बदलने के लिए व्यक्ति नहीं, आपके मन को बदलना होगा। अपना मन बदलिए, रिश्ता बदल जाएगा।
प्रश्नकर्ता: तो सर, उसमें क्या जैसे हम बाहर वालों से या अनजान व्यक्तियों से शेयर कर लेते हैं लेकिन जो हमारा साथी है या जो साथ वाला है तो उसको शेयर करने में क्या हमारा उसके ऊपर ट्रस्ट (भरोसा) नहीं है? या हमें भय है कि वो इस बात से नाराज़ हो जाएगा या हमें छोड़ देगा? ये मतलब क्या रीज़न (कारण) होते हैं कि हम अपने साथ वाले से नहीं उसको शेयर कर रहे हैं, जबकि अन्य से कर रहे हैं?
आचार्य प्रशांत: छद्म संबंध है। झूठे प्रेम पर आधारित है। अब कैसे कह दें कि बुनियाद ही हिल रही है? कैसे बता दें कि आधार ही नकली है? फिर सवाल तो बाद में पूछा जाएगा। सवाल पूछने का पूरा मौक़ा ही ख़त्म हो जाएगा, माहौल ही ख़त्म हो जाएगा। भई, आप आमने-सामने बैठते हो तो ये कह कर के बैठते हो न कि हम आमने-सामने इसलिए बैठ रहे हैं कि हममें प्रेम है और आमने-सामने बैठ कर के यदि प्रश्न ही यही उठा दिया कि “हममें वास्तव में प्रेम है क्या?” तो आमने-सामने बैठना ही निरस्त हो जाएगा।
इसलिए आप नहीं पूछ पाते; कि बैठेंगे तो, पर अगर ये बात उठा दी तो उठ जाएँगे; बैठना ही बंद हो जाएगा। इसीलिए फिर जब वो नकली फोन कॉल आती है तो आप उसे काट नहीं पाते। कि अगर काट दी तो कट जाएगी। कट जाने का बड़ा भय है क्योंकि कटा ही हुआ है।
प्रश्नकर्ता: तो सॉल्यूशन (समाधान) क्या है सर, फिर उस रिलेशनशिप (संबंध) को वैसे ही चलने दें? मतलब उसे अंधियारे में ही चलने दें?
आचार्य प्रशांत: आप उस अंधकार को दिन-रात पोषण दे रहे हैं, पोषण देना बंद करिए। कुछ नया नहीं करना है, बस जो पुराने ढर्रे हैं उनको ऊर्जा देना बंद करिए। अंधेरा यूँ ही कहीं से नहीं आ गया, आप उसे ढो-ढो कर लाए हो। उसे ढो-ढो कर लाना, आयातीत करना बंद करो, रोशनी अपनेआप आ जाएगी। और जब रोशनी आए तो उससे डरो मत।
अंधेरे कमरे में एक प्रकार की सुविधा होती है — क्या? कुछ दिखाई नहीं देता। पता ही नहीं चलता कि कितनी गन्दगी, कितने कीड़े-मकोड़े, क्या जानवर, क्या दरिंदा अंदर बैठा हुआ है। रोशनी जब आती है तो सहसा भय उठेगा, दिखाई देगा, “अरे! बाप रे बाप, इस कमरे में तो एक से एक पहुँचे हुए राक्षस हैं।”
पर डर क्यों रहे हो, उन्हीं राक्षसों के साथ तो जन्म भर रहे हो। पहले अंधेरे में थे, अब रोशनी में रह लो। रोशनी पर यकीन करो, रोशनी का समर्थन करो। रोशनी के साथ रहो, श्रद्धा रखो। और रोशनी जो भी दिखाए उसे शुभ मानो। नत्मस्तक रहो, “तुमने दिखाया है, मेरे भले के लिए ही होगा अन्यथा तुम दिखाते नहीं।”