वक्ता: (छात्रों से वार्तालाप करते हुए)
चलो, बताओ|
(कुछ देर मौन रहने के बाद)
बोलो बेटा! तुम किसी लैक्चर थिएटर में नहीं आए हो|
श्रोता: सर हम अपने आप को पूरी तरह समर्पित नहीं कर पाते किसी काम में|
वक्ता: बैठो| क्या नाम है?
श्रोता: अखिलेश सैनी|
वक्ता: अखिलेश ने क्या पूछा अभी? किसी भी काम में पूरी तरह डूब क्यों नहीं पाते?
बहुत सीधा उत्तर है| उस काम से ज़रूरी अगर कोई दूसरा काम लगातार याद आ रहा हो, तो किसी भी काम में कैसे डूबोगे?
तुम्हारा कोई दोस्त है| वो पानी में डूब रहा है| और तुम किनारे पर बैठे हो और किताब पढ़ना चाह रहे हो| पढ़ पाओगे? क्यों नहीं पढ़ पाओगे? क्योंकि किताब पढ़ने से ज्यादा जरूरी कुछ और है जो हो रहा है| तुम्हारा मन तुमसे कहेगा…क्या कहेगा?
श्रोता: कि दोस्त को बचाओ|
वक्ता: वहाँ जाओ|
ऐसा है की नहीं है? तुम्हारी ट्रेन है दस बजे की और तुम जा कर के सिनेमा देखने बैठ गए हो| फिल्म ही चलनी है साढ़े नौ – पौने दस बजे तक| मूवी डूब करके देख पाओगे? क्यों? फिल्म से ज़रूरी कुछ और है जो बुला रहा है| बात समझ रहे हो ना? बात महत्व की है, वरीयता की ही| कोई और चीज़ है, जिसकी ज़्यादा वरीयता है, वो बुला रही है, इसीलिए जो कर रहे हो उसमें पूरे तरीके से डूब नहीं पा रहे, संलग्न नहीं हो पा रहे| समझ रहे हो बात को?
लेकिन मामला अगर इतना सीधा होता तो हमने कब का हल कर लिया होता| हम कहते कि ठीक है, बता दीजिये ज़्यादा ज़रूरी क्या है? उसी को कर लेते हैं| पहले उसको निपटा दें, ताकि फिर दूसरे कामों में मन लग सके|’ पर यहाँ पर पेंच आ जाता है| हमें दिखाई क्या पड़ता है?
हमें दिखाई यही पड़ता है कि हम A से ज्यादा जरूरी B को मानते हैं| हम A कर रहे थे और A में मन नहीं लगा| हमें सोच-सोच के ये समझ में आया कि A से ज्यादा जरूरी क्या था? B, तो हम B की तरफ भागे| हमने कहा B कर लेते हैं, B में मन लगेगा| लेकिन गड़बड़ हो गई| B करने लग गए तो B में भी मन नहीं लगा| हमने कहा, “अरे! अरे! लगता है हिसाब में कुछ भूल हो गई| B शायद सबसे ज़रूरी नहीं था| B से भी ज़्यादा ज़रूरी क्या था? C| चलो C कर लेते हैं, शायद C में मन लगेगा|”
C की तरफ गए, तो क्या पता चला? C में भी मन नहीं लगा| पढ़ रहे थे, तो लगा घूम लें| घूम रहे थे, तो लगा फ़ोन पे बात कर लें| फ़ोन पे बात कर रहे थे, तो लगा फेसबुक की ओर चलें जाएँ| फेसबुक की ओर गए, तो लगा बाज़ार की ओर चलें जाएँ| बाज़ार की ओर गए, तो लगा दोस्त के पास चलें जाएँ| दोस्त के पास गए, तो लगा असाइनमेंट पूरा कर लें| असाइनमेंट पूरा करने लगें, तो लगा थोड़ा सो ही लेते हैं| एक के बाद एक हम जो कर रहे हैं, उसको बदलते जाते हैं पर जो भी करने जाते हैं, उसमें पूरे तरीके से मौजूद नहीं हो पाते हैं| यही हमारी कहानी है ना?
लेकिन ये बात भी सही है कि जो सबसे जरूरी होगा, उसमें रहोगे तो मन कहीं भागेगा नहीं| बात ठीक है ना| मन हमेशा किसी ऐसी चीज़ की तलाश में भाग रहा है जो उसके लिए ज़रूरी है| हम भी अपनी ओर से जो कर रहे हैं वो उचित ही है| हम कहते हैं एक काम में मन नहीं लगा| शायद, दूसरा काम ज्यादा जरूरी है, उसकी ओर चले चलते हैं| इसी कारण, हम जो काम करते हैं, उन कामों को लगातार बदलते रहते हैं| बदलते रहते हैं ना?
और इसी बदलते रहने को हमने कई तरह के नाम दे दिए हैं| हमने कभी इसको मनोरंजन बोला है| हमने कभी इसको वर्क-लाइफ बैलंस (काम और जिन्दगी के बीच संतुलन) बोला है| हमने कभी इसको मेनटेनिंग रिलेशनशिप (रिश्तों को बनाए रखना) बोला है| कभी हम कहते हैं कि भाई काम ही सब कुछ नहीं होता, व्यक्तिगत जीवन में भी ध्यान देना चाहिए| कभी हम कहते है कि देखो! मनोरजन जरूरी है| शाम को कहीं घूम आया करो| महीने में कभी एक बार बाहर का भ्रमण कर आया करो| ये सब हम करते हैं ना?
गौर से देखो| ये सब क्या है? ये सब यही है की एक काम में डूब नहीं पा रहे, दूसरा काम कर लो| “एक में मन नहीं लग रहा है, काम बदल के देखो, दूसरे में लगेगा| वो शायद ज़्यादा महत्वपूर्ण हो|पढ़ाई में नम्बर कम आ गए, कोई बात नहीं, मैं माँ का अच्छा बेटा बनके दिखाऊँगा| शायद वो ज़्यादा ज़रूरी हो|’ पर जब तुम उस तरफ जाते हो तो पाते हो कि वहाँ भी मन नहीं लग रहा| “नौकरी में मन नहीं लग रहा, मैं नौकरी बदल दूँगा|’ पर नौकरी बदल जाती है, मन नहीं लगता|” घर में मन नहीं लग रहा है, कोई बात नहीं| लोग बाहर जाकर के नए संबंधों की तलाश करने लग जाते हैं| दोस्तों के साथ घूम लो, यारों के साथ घूम लो| और दूसरे आदमी-औरतों के साथ नए सम्बन्ध बना लो|
अगर ऐसा हो पाता कि तुम्हें आखिर में, अंततः कुछ ऐसा मिल जाता कि जिसमें मन लग ही गया, तो शायद तुम्हारा सोचना सार्थक रहता| तुम दावा कर पाते की A से B में भागे, B से C में भागे, C से D में भागे, और अंततः X,Y,Z कहीं पर आ कर के मन लग गया| लेकिन स्तिथि बड़ी खौफनाक हो जाती है अगर ये दिखाई दे कि A से B, B से C, C से D,….X,Y,Z और Z से वापिस A| अब बात गड़बड़ हो गई है क्योंकि अब तुम एक अंतहीन चक्र में फंस गए हो| अब वो चलेगा| और तुम इसी तलाश में भटकते रहोगे कि कहीं तो मन लगेगा| “नए शेहर में, नए घर में, नए रिश्तों में, नयी जगह में, मन कहीं तो लगेगा|” और मन है कि कहीं लगता नहीं है|
यहाँ तक तो तुमने ठीक पकड़ा कि फिलहाल हम जहाँ मन को लगा रहे हैं, मन वहाँ नहीं रहना चाहता, मन के लिए कुछ और है जो ज़्यादा ज़रूरी है| यहाँ तक का तुम्हारा विश्लेषण बिलकुल ठीक है| पर उसके आगे कुछ भूल हो रही है| भूल क्या हो रही है, उसको ज़रा समझेंगे| भूल ये हो रही है कि तुम्हारे A, B, C, D,….X, Y, Z जितने हैं वो सब के सब एक तल पर हैं| इसको कह लो कि ये कोई समधरातल है| इसको तुम X-Y समधरातल मान लो| तुम जो भी तलाश रहे हो ना, इसी तल पर तलाश रहे हो| इस ताल पर तुम्हें जो भी मिलेगा वो नया नहीं है| इस तल पर जो है वो AX+BY ही तो है| इस तल पर जो भी है वो X और Y का कोई रैखिक मेल ही तो है ना? उसके आलावा तो यहाँ तुम्हें कुछ नया नहीं मिल सकता| तुम यहाँ कुछ नया खोजना चाह रहे हो| नया है नहीं, इसीलिए मन कहीं रुक नहीं रहा है| देखो! इस समधरातल पर कोई भी बिंदु हो, वो क्या है? AX, BY| इसके अलावा तो कुछ नहीं है न? या है?
यहाँ जो भी खोजोगे वो नया नहीं होगा| तुम A से B पर जा रहे हो| पर A से B पर जाना, वस्तुतः कोई बदलाव है ही नहीं| कोई बदलाव नहीं है क्योंकि तल एक ही है – मानसिक है, वस्तुगत है, कोई चीज़ है, कोई आदमी है, कोई विचार है, कोई जगह है, कुछ ऐसा है जो तुम्हारे मन के भीतर से आया है, मन में समाया है, मन से छोटा है| जो मन से छोटा है, उसमें मन नहीं लग सकता| नौकरी कितनी भी बड़ी हो, तुम्हारे मन से तो छोटी ही है ना| मन जब चाहता है, नौकरी बदल देता है| तो नौकरी कितनी भी बड़ी हो, मन से…
श्रोता: छोटी है|
वक्ता: बड़े से बड़ा सम्बन्ध हो, टूट सकता है अगर मन न लगे उसमें| तो बड़े से बड़ा सम्बन्ध भी मन से छोटा है| बड़े से बड़ा इंसान हो जिसकी तुम हद से ज्यादा इज्ज़त करते हों, पर एक दिन तुम उसकी इज्ज़त करना छोड़ सकते हो| छोड़ सकते हो की नहीं छोड़ सकते हो? तो कितना भी बड़ा इंसान हुआ, तुम्हरे मन से तो छोटा ही है| क्योंकि उसका नाप तो तुम्हारा मन ही ले रहा है| समझ रहे हो बात को? मन को किसी ऐसे की तलाश है जो इस तल पर न हो| मन को अपने से बड़े किसी की तलाश है| इस तल पर जो कुछ भी होगा, मन उसमें लग नहीं सकता| चाहे वो कुछ भी हो| अगर तुम ये उम्मीद कर रहे हो कि यहाँ से वहाँ जा कर के मन लग जाएगा, तो तुम्हारी उम्मीद व्यर्थ जानी है, निराश रहोगे| और उम्मीद तुम जिन्दगी भर कर सकते हो| क्योंकि जगहें बहुत हैं X-Y समधरातल पर| X-Y समधरातल पर कितने बिंदु हैं?
सभी श्रोतागण: अनगिनत|
वक्ता: तो तुम अपनी पूरी जिंदगी चाहो तो मेंढक की तरह एक बिंदु से दूसरे बिंदु पर कूदते हुए बिता सकते हो इस उम्मीद में कि यहाँ मन नहीं लगा तो वहाँ लग जाएगा| 2,3 पर नहीं लगा तो चलो 4,1 पर चलते हैं| क्या फर्क पड़ता है? 2,3 हो या 4,1 हो, हैं तो AX– BY ही ना| या अलग हैं?
यहाँ तक, दोहरा रहा हूँ, तुमने ठीक सोचा कि जहाँ पर तुम खड़े हो, वहाँ मन नहीं लग रहा पर मैं तुम से कह रहा हूँ कि ये मत सोचो कि फुदक के कहीं और पहुँच जाओगे तो वहाँ मन लग जाएगा| मन कहीं भी नहीं लगना है| मन तो वहीं लगना है जहाँ पर मन बिलकुल शांत हो जाए| और मन के शांत होने का मतलब है कि मन विचारहीन हो जाए, मन अब सोच ही नहीं रहा है शान्ति के बारे में| और जब मन सोच ही नहीं रहा है शांति के बारे में, तब मन बचा कहाँ? तब मन कहाँ बचा| समझो बात को|
जब तुम शांति के बारे में सोच रहे हो, तो शांति है या सोच है? तुम शांति के बारे में खूब सोच रहे हो, अभी शान्ति है या सोच है?
श्रोता: सोच|
वक्ता: और जब वास्तव में शांत हो जाओगे, तब क्या सोच रहे होंगे कि मुझे शान्त होना है? सोच रहे होंगे क्या? तब शान्ति है, सोच नहीं है| मन को उसी बिंदु की तलाश है जहाँ पर इस पूरे विस्तार में भटकना ही नहीं है| ये पूरा ( X-Y समधरातल) तो भटकाव का विस्तार है| इधर से उधर जाओ, कुछ मिले, कुछ मिले, मन को तलाश है न 2,3 की, न 4,1 की, न 500, 400 की| मन को तलाश है 0,0 की| क्या बोलते है उसको?
श्रोता: ओरिजिन (स्त्रोत )|
वक्ता: जोर से बोलो क्या बोलते हैं उसको?
श्रोता: ओरिजिन (स्त्रोत)|
वक्ता: ओरिजिन| ओरिजिन को हिन्दी में क्या बोलते हैं?
श्रोता: मूल|
वक्ता: मूल, उद्गम, स्त्रोत| मन को वहाँ जाना है| जहाँ से मन आया है, वहीँ पर वो शांत हो पाएगा| वहाँ पहुँच गए, वो लगने लग जाएगा | उसके बाद ये शिकायत करने के लिए कोई बचता ही नहीं है कि मन नहीं लग रहा क्योंकि मन लग गया| अब मस्त हो| अब शिकायत क्या करनी है? अब भटकना नहीं है| अब बेचैन नहीं रहना है| अब छटपटाए से नहीं रहना है| मन की छटपटाहट हज़ार रूपों में तो अभिव्यक्त होती है ना| किसी को कुछ पाना है, किसी को कुछ छोड़ना है, कोई भागा चला जा रहा है, कोई ख़ुशी मना रहा है, कोई दुःख मना रहा है, कोई उम्मीद पाल के बैठा हुआ है|
ये जितनी हरकतें होती हैं इंसान की, ये सब क्या है? ये मन की छटपटाहट ही हैं| स्त्रोत, उद्गम, मूल वो जगह हैं जहाँ पर ये छटपटाहट नहीं है, शांत हो गया है मन| उस जगह पर तब तक नहीं पहुँच सकते जब तक मन में तुमने ये धारणा डाल रखी है कि बाहर कुछ है जो पा लूंगा और बाहर कुछ है जिसमें मन लग सकता है| जब तक ये ख्याल तुमने पकड़ रखा है, तब तक स्त्रोत होते हुए भी तुमसे बहुत दूर रहेगा | क्योंकि तुमने खुद ही तय कर रखा होगा कि मुझे तो इधर ही भटकना है| कभी +,+ में, कभी +, – में, कभी -,+ मे हर तरीके के जुगाड़ तुम बिठाओगे, लेकिन शांत और चुप तुम कहीं नहीं हो पाओगे| डरे-डरे से रहोगे, थके-थके और बेचैन रहोगे|
शांत हो करके अगर इतना देख लो ध्यान से कि भागना एक मन की क्रीड़ा तो हो सकती है, एक यूँ ही खेल तो हो सकता है, पर कभी कोई बहुत गहरी और महत्वपूर्ण बात नहीं हो सकती| उसी समय ये पाओगे कि अब जो भी कर रहे हैं उसमें मन लगाने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि मन लगा ही हुआ है वहाँ जहाँ उसे होना था|अभी तो तुम जो करते हो, चैन पाने के लिए ही तो करते हो न? अभी तो तुम्हारा सवाल भी यही है कि कुछ करते हैं, तो उसमें मन लगाएँ कैसे? जो करते हो, उसका कोई महत्व मान के बैठते हो|
एक दूसरी स्तिथि भी होती है जहाँ तुम कहते हो कि मन को जहाँ लगना था, लग गया है| अब जो भी कुछ कर रहे हैं, वो यूँ ही मज़े में कर रहे हैं| उसमें से कुछ पाना नहीं है|शान्ति की तलाश नहीं है, वो मिली हुई है| किसी ऊँची मंज़िल की तलाश नहीं है, वो मिली हुई है| वो कहाँ पे है? वो स्त्रोत पर है| हमें घर मिल गया है हमारा| ओरिजिन (स्त्रोत) को हम जान गए हैं|
ओरिजिन (स्त्रोत) पर मौजूद रहते हुए अब हम जो करते हैं, सो करते है| बोलो, कहाँ तक दौड़ के जाना है? चले जाएँगे| लेकिन ये समझ गए हैं कि हमारा घर ओरिजिन (स्त्रोत) है| ये समझ गए हैं कि जो भी कुछ असली है, वो वहीं पर है और वो मिला हुआ है, कुछ न करके मिला हुआ है, ज़ीरो में मिला हुआ है, शून्य में मिला हुआ है| कुछ हासिल करना ही नहीं है| तो अब हमसे कहिए कि चलो एक खेल खेलते हैं और देखते हैं कि कौन जीतता है? हम बेशक खेलेंगे| हम जीतने के लिए ही खेलेंगे| लेकिन हम अगर हार भी जाएँगे तो हम ये नहीं कहेंगे कि हम अशांत हो गए क्योंकि शांत तो हम पहले से ही हैं| खेल के परिणाम का हमारी शांति पर कोई असर नहीं पड़ेगा| आओ खेलते हैं| बोलो क्या-क्या खेल खेलने हैं?
हम जीतेंगे तो हम मस्त रहेंगे और अगर हम हारेंगे, तो भी हम मस्त रहेंगे| समझ में आ रही है बात? हम ये नहीं कहेंगे कि हमें जीत से जीत की तरफ जाना है| हम हारे हुए हैं, हमें जीतने की तरफ जाना है|अभी हमारी जो सारी गति है, वो ऐसे ही रेहती है कि हम हारे हुए हैं, हमें जीतने की तरफ जाना है| हम कमज़ोर हैं, हमें ताकात की तरफ जाना है| हमारे पास कम है, हमें ज़्यादा हासिल करने की तरफ जाना है| यही रहती है ना हमारी सारी गति? इसी को तुम कहते हो जीवन का लक्ष्य, इसी को तुम कहते हो तुम्हारी सारी कोशिश| कि कुछ कम है और तुम्हें ज़्यादा की तरफ जाना है| यही रहता है ना?
जो जा कर के स्त्रोत में बैठ जाता है, वो कहता है, “जहाँ पहुंचना था, वहाँ पहुँच ही गए हैं, पहुँचे ही हुए हैं, कम से ज़्यादा की तरफ नहीं जा रहे| जहाँ से जहाँ को भी जा रहे हैं, ज़्यादा से ज़्यादा को जा रहे हैं| हम जीतने में तो जीते हैं ही, हम हारने में भी जीते हुए हैं|” आ रही है बात समझ में? अब मन लगेगा, बेशक लगेगा| अभी तक तुम्हारा मन क्यों नहीं लगता है? हारते हो तो मन इस चिंता की ओर भागता है कि कहीं कल भी न हार जाएँ| कल जीतना हैं, और अगर जीतते हो तो मन इस चिंता की ओर भागता है कि…?
श्रोतागण: कल हार न जाएँ|
वक्ता: कैसे सुरक्षा रखें कि कल भी जीत जाएँ| दोनों ही स्तिथियों में डर तो बना रहा ना? या डर चला गया? जब कुछ नहीं होता तुम्हारे पास तो तुम्हें डर रहता है कि कहीं मेरी यही हालत चलती न रहे? यही रहता है न डर? और जब कुछ होता है तुम्हारे पास — देखो उनको जिनके पास कुछ है –वो डर से मुक्त हो जाते हैं?
ज़्यादा बड़े-बड़े ताले तुम कहाँ पाते हो? छोटी-छोटी झोपड़ियों में या बड़े-बड़े महलों में, कोठियों में? ज़्यादा बड़ा ताला कहाँ पाते हो? जिनके पास कुछ है, वो और ज़्यादा डरे रहते हैं कि छिन न जाए| तो तुम ऐसे हो या चाहे वैसे हो, लगातार हो तो डरे हुए ही| हो तो लगातार शंकित, बेचैन ही| स्त्रोत पर होने का मतलब होता है – जो ऊँचे से ऊँची उपलब्धि हो सकती थी, वो हमने पा ली है| मन का जो आखिरी ठिकाना हो सकता था, वो मिला ही हुआ है| आखिरी लक्ष्य पा लिया है| अब बताओ क्या करना है? अब बताओ और कौन से लक्ष्य पाने हैं| आखिरी कदम हमने ले लिया है| अब बताओ और कौन से कदम लेने हैं? लेंगे, मज़े में लेंगे|
समझ में आ रही है बात?
स्त्रोत पे होने का ये मतलब नहीं है कि अब कुछ करोगे नहीं| स्त्रोत पर रहने का ये मतलब है की अब करोगे, खूब करोगे लेकिन मस्ती में करोगे| ताकत में करोगे, अपने पूरेपन में करोगे| भिखारी की तरह और डर में नहीं करोगे| अब मन लगेगा| अब मन के पास भागने की कोई वजह नहीं है| मन, लेकिन याद रखना, किसमें लगेगा? मन काम में नहीं लगेगा| काम में किसी का भी कोई मन लग नहीं सकता| मन वहाँ लगेगा जहाँ मन लग सकता है, वो एक मात्र बिंदु| मन वहाँ जाकर के लग जाएगा|
मैं वापस वहाँ जा रह हूँ जहाँ से मैंने शुरू किया था| अगर तुम ये सोच रहे हो कि तुम चीजों में, या विचारों में, या व्यक्तियों में मन को लगा लोगे तो भूल कर रहे हो| अपने आस-पास की दुनिया को देख लो या अपने ही मन को टटोल लो, तुम्हें यही दिखाई देगा कि कोई भी चीज़ ऐसी नहीं होती जिसमें मन लगा रह सके| कोई भी रिश्ता ऐसा नहीं होता| थोड़ी देर के लिए तुम्हें भ्रम ज़रूर हो जाएगा की मन लग गया है पर भ्रम टूटेगा| और जितनी बार वो भ्रम टूटेगा उतनी बार तुम भी टूटोगा| अच्छा लगता है बार-बार टूटना? कि उम्मीद पाते हो कि शायद मिल गया और कुछ ही दिनों बाद पाते हो कि उम्मीद फिर टूट गई| कुछ उम्मीदें टूट गई हैं, कुछ टूटने के लिए तैयार खड़ी हैं| अच्छी लगती है ये स्तिथि? मूर्खता की बात नहीं है कि इसके बाद भी हम उम्मीदें बांधे जाते हैं|
मन लगेगा, दोहरा रहा हूँ, (लेकिन) किसी काम में नहीं लगेगा| हर काम में रहेगा| जहाँ हो, वहीँ लगेगा| तुम ऐसे आदमी की तरह हो जाओगे जिसका पेट भरा हुआ है, जिसका दिल भरा हुआ है, जो खूब मस्त है| अब वो जो भी करेगा, कैसा करेगा? मज़े में करेगा ना|
जो आन्तरिक तौर पर मस्त हो गया, वो अपने सारे काम मस्ती में ही तो करेगा| अब ये नहीं कहेगा वो कि फलाने काम में मन लग रहा है मेरा| क्योंकि काम में आज तक किसी का मन लगा नहीं| काम में अब मन नहीं लग रहा है क्योंकि वो अब जो भी काम कर रहा है, उसी में मन लग रहा है| तुम्हारा मूड बहुत अच्छा है, तुम्हें कुछ खास मिल गया है| तुम कपड़े धो रहे हो अपने| कैसे धोओगे? मूड बहुत अच्छा है, और कर क्या रहे हो? कपड़े धो रहे हो या बर्तन धो रहे हो? कैसे धोओगे?
श्रोतागण: मस्ती में|
वक्ता: मस्त हो करके ना|
कपड़ेधो रहे हो और कुछ गुनगुना रहे हो| हुआ है कभी ऐसा? हुआ है?
श्रोतागण: जी सर|
वक्ता: अब तुम कहोगे कि ये तो कितना छोटा सा काम है-कपड़े धोना| तुम्हारा कपडे धोने में मन लगा है क्या? तुम्हारा मन तो है जो लग ही गया है, अब उस लगे हुए मन की साथ, उस मस्त मन के साथ तुम कपड़े भी धो रहे हो तो मस्त ही हो| इसका विपरीत उदहारण भी देख लो| मन उखड़ा हुआ है, उदास है, बेचैन है| ठीक है| इस उदास, बेचैन मन के साथ तुम गणित का ऊँचे से ऊँचा प्रमेय भी पढ़ रहे हो, तो मुँह कैसा रहेगा? लटका हुआ| कौशि और यूलर (प्रसिद्ध गणितज्ञ) सामने बैठे हुए हैं रीमन को बुला रहे हैं| और तुम्हारी शक्ल कैसी है? और ये अजीब बात है| थोड़ी देर पहले तुम झाड़ू लगा रहे थे और तुम्हारी शक्ल कैसी थी? कैसी थी?
श्रोतागण: मस्त|
वक्ता: और यहाँ तुम इतने ऊँचे -ऊँचे लोगों से मिल रहे हो और शक्ल कैसी है?
तो बात काम की है क्या कि काम क्या कर रहे हो? बात काम की नहीं है| न काम में मन लगा है और न ही काम से मन उचटा है| मन कहीं और लगता है| मन को वहाँ लगा दो फिर हर काम प्यारा हो जाएगा| और अगर मन वहाँ नहीं लगा है, तुम भटकते रहो जिंदगी भर कोई काम तुमको चैन नहीं देगा| समझ रहे हो बात को?
उस जगह को कहते हैं ‘मेरी आंतरिक पूर्णता, ओरिजिन, स्त्रोत, उद्गम’| आप से कोई पूछे, “अपना पता बताओ?” तो बोला करो-0,0| कहाँ रहते हैं हम?
श्रोतागण: 0,0 पे|
वक्ता: और जो थोड़ा और ज्यादा विवरण देना चाहें, तो वो बोलें-0,0,0| अब तीन ही आयाम होते हैं| कोई कहे, “नहीं, चौथी भी होती है-समय|” तो ठीक है, “आखिरी बात बोल देते हैं|” इससे आगे मत पूछना| 0,0,0,0| बस वही रहते हैं हम| नो स्पेस, नो टाइम, (न किसी स्थान में, न समय में) वही घर है मेरा| जो वहाँ रहेगा, वो हमेशा मस्त रहेगा| और जो वहाँ से हट करके कहीं भी रहेगा, वो भटकता रहेगा| काम बदलता फिरेगा| नौकरी बदलेगा, छोकरी बदलेगा, और तब भी तड़पता ही रहेगा| कपडे बदल लेगा, गाड़ी का पहिया बदल देगा, लोग यही सब हरकतें तो करते हैं, हेयर कट बदल लेगा| काम बदलें जा रहे हैं भाई| अपने कपड़े धोते समय मूड खराब था, तो पड़ोसी के कपड़े धोने लग गया| मूड अच्छा हो जाएगा?
पर हमें यह सब भी सिखाया गया है कि अगर मन खराब हो तो दूसरों की मदद करो, मन अच्छा हो जाएगा| ये ऐसा ही है कि अपने कपड़े धोते समय मन खराब था, तो जाकर के पड़ोसी के कपड़े धो दिए| मन अच्छा हो जाएगा क्या? आ रही है बात समझ में?
कुछ समझ में आया है, किस एड्रेस (पते) की बात हो रही है? किस एड्रेस (पते) की बात हो रही है? शाम को बाईक लेके निकल मत जाना कि राजनगर, कविनगर में खोज रहे हो-0,0,0,0| या पोस्ट ऑफिस जाके पूछ रहे हो, “0,0 राजनगर” कहाँ है ये? कहाँ है वो एड्रेस? कहाँ है?
मन के भीतर है? मन के भीतर नहीं है| वो मन का ओरिजिन (स्त्रोत) है| वो, वो जगह है जहाँ से मन उठा है, ओरिजिन ऑफ़ द माइंड (मन का स्त्रोत्र)| उस जगह के बारे में बस इतना ही कहना काफी है कि तुम मस्त जब होते हो तो वहाँ होते हो और सिर्फ वहाँ हो कर ही मस्त हो सकते हो| और तुम्हारी भाषा में, जो बात तुम्हें समझ में आ सके, फिर दोहरा रहा हूँ-वो जगह वो बिंदु है जहाँ महत्वाकांक्षा और उपलब्धि नहीं होती| मैंने कहा था ना कि जिन्हें पाना है, वो अभी X,Y प्लेन (समधरातल) में भटकेंगे| और जिन्होंने पा लिया ही है, वो 0,0 पर होते हैं| उस 0,0 का नाम इनफिनिटी(अनन्त) भी इसीलिए है| क्योंकि वो ऊँची से ऊँची उपलब्धि है|
वहाँ होने का मतलब समझ गए न? वहाँ होने का मतलब ये है कि तुम हमें छोटा नहीं कर सकते| और तुम हमें बड़ा भी नहीं कर सकते| मुझे कुछ न आता हो, तो भी मूल रूप से मैं पूरा हूँ| तुम मेरी दस परीक्षाएँ लो, मैं हर परीक्षा में फेल हूँ, तो भी मैं बढ़िया हूँ| तुम सौ बार बोलो कि मुझ में ये कमी है, ये खोट है, ये बदसूरती है, मैं तो भी ठीक हूँ और बिलकुल ठीक हूँ| उस जगह पर होने का मतलब है यही भाव कि मैं बिलकुल ठीक हूँ| मैं कैसा हूँ? मैं बिलकुल ठीक हूँ| ज्ञान की कमी हो सकती है, क्षमता की कमी हो सकती है, स्किल की कमी हो सकती है, जितनी कमियाँ दुनिया में हो सकती हैं, वो सब मुझमें हो सकती हैं और उन सारी कमियों के बावजूद मैं ठीक हूँ| ओरिजिन का यही अर्थ है|अगर तुम इस भाव में तो हमेशा मस्त रहोगे, मन लगा ही रहेगा| आ रही है बात समझ में?
वहाँ होने का मतलब है हर तरीके की हीनता से मुक्त होना| तुम मुझे चाहे जो पढ़ा लो, जो लिखा लो, तुम चाहे बड़े-बड़े आदर्श खड़े कर लो और खूब कहानियाँ सुना लो, मैं ये कभी नहीं मानूंगा कि मैं हीन हूँ| हाँ! कुछ जानने लायक बात है, आप बताएँगे, हम बेशक सुनेंगे| और आपको धन्यवाद भी देंगे| ज्ञान बहार से ही आता है, हम ज्ञान लेने को पूरे तरीके से तैयार है लेकिन हम अगर अज्ञानी भी हों, तो भी हम ठीक ही हैं|
अपने सारे ज्ञान, सारी असमर्थता, सारी अक्षमता, और हर विफलता के बावजूद मैं छोटा नहीं हो गया| इस दृढ़ श्रद्धा को कहते हैं 0,0 में जीना|
मस्त होगा न ऐसे रहना| यकीन कर पाना ही मुश्किल है| तुम्हारे लिए थोड़ा मुश्किल है यकीन कर पाना क्योंकि हम जिस माहौल में रहते हैं ना , वहाँ हमें लगातार क्या एहसास कराया जाता है? कि कोई कमी है| कोई सीधे-सीधे ये बोलने नहीं आता है कि तुममें कमी है| उस बात कोई इस तरह से कहा जाता है कि-“आगे बढ़ो, कि ऊँचा उठो|” ऊँचा उठने का क्या मतलब है? कि अभी कैसे हो?
श्रोतागण: नीचे हैं|
वक्ता: आगे बढ़ने का क्या मतलब है? कि अभी कहाँ हो?
श्रोतागण: पीछे|
वक्ता: और ये बातें हमें वो लोग बोलते हैं जो अपने आप को हमारा शुभ चिन्तक कहते हैं कि बेटा, हम तो तुम्हारी तरक्की चाहते हैं| तरक्की किसकी हो सकती है? जो पिछड़ा हुआ हो| कोई ये तुमसे ये कहने तो आता ही नहीं है ना कि तुम तरक्की न भी करो, तो भी तुम जो हो सो हो| तुम जीवन में कुछ न भी करो, तो भी तुम्हारा जीवन व्यर्थ नहीं गया| तुमसे तो यही कहा जाता है ना कि जीवन सार्थक तब है जब ये हासिल करो, और वो हासिल करो| इन सब बातों का नतीजा ये हुआ है कि हम में एक गहरी हीन भावना बैठ गई है-इन्फ़िरिओरिटी (हीनता)| कि हममें कुछ कमी है और हमें कुछ हासिल करके दिखाना है|
लगातार ये सन्देश हमारे अन्दर आरोपित किया ही जाता रहता है| अखबार उठा लो, टीवी खोल लो, शिक्षा की पूरी व्यवस्था, कॉरपोरेशंस (निगम ), सब लगातार इसी कोशिश में लगे हुए हैं कि तुम अपने आपको छोटा समझे रहो| जब तुम अपने आपको छोटा समझोगे, तभी तो तुम जाकर के गधे की तरह मेहनत करोगे ना, कि बढ़ोतरी मिलेगी| जब तुम्हें एहसास कराया जाएगा कि अरे! तुम अभी तक बाइक पर ही चलते हो, गरीब आदमी| तभी तो तुम घिस-घिस के पैसे बचाओगे ना कि कार खरीद सकूँ|
स्वार्थी लोगों ने अपने स्वार्थ के खातिर खूब षड़यंत्र करा है तुम्हें तुमसे ही अनजान रखने का|
“अरे तुम सिर्फ ग्रेजुएट हो| तुम्हारी ज़िन्दगी बेकार है|” अब तुम्हारे लिए ज़रूरी हो जाता है कि तुम जाकर के ऍम.एस करो, कि ऍम.टेक करो, कि ऍम.बी.ए. करो और किसी की जेब भरो|
“अरे! चेहरा देखो अपना| सांवला|” अब तुम्हारे लिए ज़रूरी हो जाता है कि तुम जाकर के फेयरनेस क्रीम खरीदो| फेयरनेस क्रीम बिकेगी कैसे अगर तुम ये कहो कि ‘जैसे हैं मस्त हैं’?
“अरे! तुमने अपने बाल सीधे नहीं करवाए|” सिर्फ चार हज़ार में बाल ठीक कर दिए जाएँगे तुम्हारे| और अगर तुम बाल ठीक करवाने नहीं आ रही, तो अगली (बदसूरत )हो| वो तुमसे ये नहीं कहेगा कभी सीधे-सीधे| उसकी हिम्मत नहीं है कि सपाट शब्दों में ये कहदे कि तुम अगली हो| वो इस बात को किस कैसे कहेगा? कि खूबसूरत दिखने के लिए हमारे पास आइये | ऐसे ही कहेगा न| और तुम कहोगी, “देखो! ये मिला मेरा शुभेक्षु| ये मुझे खूबसूरत बनाना चाहता है|” पर जो तुमसे कह रहा है कि खूबसूरत दिखने के लिए मेरे पास आईये, तुम समझ क्यों नहीं रहे कि वो तुमसे क्या कह रहा है? वो तुमसे क्या कह रहा है कि अभी कैसे हो?
श्रोतागण: बदसूरत हो|
वक्ता: अगर तुममें जरा अकल होती तो तुम उसको जाके एक थप्पड़ मारती, “बदसूरत किसे बोला?” पर उसे थप्पड़ मारने की जगह, तुम जाकर के उसे चार हज़ार रूपए दे आओगे, “ये लीजिये चार-हज़ार और मेरी बदसूरती को खूबसूरती में तब्दील कर दीजिये|”
बड़ी कम्पनियाँ बड़े ऑफिस बनाती हैं| और तुम्हारे भीतर हसरत जागती है कि मैं इन बड़े-बड़े ऑफिसों में काम करूँ| और तुम ये देख ही नहीं पाते कि उन बड़े ऑफिसों से निकलते समय तुम कितने छोटे हो जाते हो| कोई बचती है तुम्हारी कीमत? जवाब दो|
पर तुम्हें लगातार कहा यही जाता है कि तुम्हरी ज़िन्दगी बन गई, तुमने खानदान का नाम रौशन कर दिया अगर तुम्हारी उस बड़े ऑफिस में नौकरी लग गई| वो बड़ा ऑफिस जिसके सामने तुम बहुत छोटे हो जाते हो| कभी देखा है कि तुम्हारा व्यवहार, तुम्हारी सोच, सब बदल जाते हैं जब तुम उस ऑफिस के सामने खड़े होते हो| भीतर जाना तो छोड़ ही दो| देखा है कभी?
एक ढाबे पर तुम जैसा व्यवहार करते हो, क्या तुम किसी फाईव स्टार होटल में भी वैसा ही व्यवहार करते हो? फाइव स्टार होटल इतना बड़ा हो जाता है कि उसके सामने तुम अपने आपको बड़ा छोटा अनुभव करते हो| वो इतना बड़ा हो गया कि उसने तुम्हारा चाल-चलन तक बदल दिया| ये गुलामी हुई की नहीं हुई? और वो कहते हैं कि तुम वैसे कपड़े पहन के आओगे जैसे हम चाहते हैं| अन्यथा हम तुम्हें घुसने भी नहीं देंगे|’ कोई ढाबा तुमसे ये नहीं कहेगा| किसी ढाबे ने तुमसे आज तक कहा है? जवाब दो|
श्रोतागण: नहीं सर|
वक्ता: पर तुमको लगता है कि फाइव-स्टार होटल कितनी बड़ी बात है, “मेरी इज्ज़त बढ़ गई वहाँ पहुँच के|” तुम देख ही नहीं पाते कि इज्ज़त बढ़ नहीं गई| सबसे पहले उन्होंने तुम्हें यह एहसास कराया कि तुम हो| “जाओ, कपड़े ठीक से पहन के आओ|” तुम किसको कहोगे कि जाओ, कपड़े ठीक से पहन के आओ? किसको बोलोगे? जो पहले से ही प्यारा हो और पूरा हो, उसको क्या ये कहोगे कि जाओ, कपड़े ठीक से पहन के आओ? वो तो तुमसे कहते हैं कि जाओ, कपड़े ठीक से पहन के आओ| और तुम कहते हो-“देखो! कितनी सुन्दर बात कही| हमारी इज्ज़त बढ़ा दी|” जवाब दो|
कदम-कदम पर तरीके मौजूद हैं तुमको क्षुद्रता में धकेलने के लिए| उनसे सतर्क रहना है| उस सतर्कता के अलावा कोई विधि नहीं स्त्रोत पर पहुँचने की| उसी सतर्कता का दूसरा नाम ध्यान है| सतर्क रहना है की कहीं मैं फेसबुक पर कोई नकली फोटो तो नहीं लगा रहा अपनी? क्योंकि अगर तुम नकली फोटो लगा रहे हो, तो तुम जानते हो, क्या कह रहे हो? क्या कह रहे हो? कि मेरा असली चेहरा दिखाने लायक नहीं| यही कह रहे हो ना? तुम जा कर उसे (तस्वीर) इन्स्टाग्राम में दस बार बदलते हो, और फिर लगाते हो| यही करते हो ना| और जब से डिजीटल कैमरे आए हैं, तब से तो बहुत बढ़िया है| सौ फोटो खिंचवाओ, फिर उसमें से एक चुनों| सौ फोटो खिंचवाओ और फिर उनमें से एक चुनों| सौ खिंच रही हैं और उसके बाद एक चुन रहे हो कि अब ये ठीक आई| अब इसको लगा देंगे| तुम्हें दिखाई नहीं पड़ रहा कि ये एक गहरी बीमारी है|
और ये बीमारी तुम्हारी ज़िन्दगी को खा रही है| तुमको लगता है कि ये तो छोटी सी बात है, “मैं अपनी एक अच्छी सी फोटो लगाना चाहती हूँ|” ये छोटी सी बात नहीं है| ये एक बहुत बड़ी बीमारी का एक छोटा सा लक्षण है| बीमारी बहुत गहरी है| ऐसा आदमी बहुत दुखी होगा भीतर ही भीतर और बहुत डरा हुआ होगा और भटक रहा होगा| इन्हीं छोटी बातों में तो सतर्कता चाहिए और सतर्कता कहाँ चाहिए?
अब यहाँ आए हो, मुझसे बात करने| कई और भी हैं जो शायद आना चाहते होंगे पर आ नहीं पाएँगे| क्यों? “क्योंकि दूसरों की नज़रों में मेरी छवि कैसी बनेगी?” तुममें से भो हो सकता है कुछ ऐसे हों जो छुपते-छुपाते आए हो| जो जब जा रहे हों, और जब दूसरों ने पूछा हो कि कहाँ जा रहे हो? तो कहा होगाकि कहीं नहीं, बस ऐसे ही, उधर थोडा टहलने जा रहे हैं| निश्चित रूप से कुछ ऐसे होंगे जो साफ़-साफ़ कह करके नहीं आए होंगे|
इस बात को साधारण चूक मत समझ लेना| ये गहरी बीमारी है| तुम्हारे भीतर इच्छा है की किसी तरीके से दूसरे कह दें कि मैं ठीक हूँ| कहीं मुझे कुछ ऐसा न करना पड़े जिसे दूसरों का अनुमोदन न मिले| ये भाव ही तुम्हें 0,0 से दूर करता है| जिन्हें वहाँ जीना हो, अपने असली घर में- 0,0,0,0, वो अपने आपको अपनी क्षुद्रता से शून्य कर लें| बिलकुल सजग रहें की कोई मुझे ये बताने न आए कि कोई क्षुद्रता, कोई हीनता, कोई तुच्छता है मुझमें| और जब भी देखें कि ऐसा माहौल पैदा हो रहा है, कि कोई ताकत है जो इस तरह का सन्देश दे रही है — भले ही तुम्हारी हितैषी बनकर दे रही हो — तुरंत उठ कर खड़े हो जाओ| कहो, “न! ये सन्देश मत देना कभी|”
आते हैं लोग कहने, “बेटा! हम तुम्हारे लिए बहुत चिंतित हैं, तुम्हारा क्या होगा?” तुम किससे कहते हो ये कि तुम्हारा क्या होगा? जिसको तुम बीमार पाते हो| अगर तुमसे कोई कहे कि हम चिंतित है तुम्हारे लिए की तुम्हारा क्या होगा, तुम पूछो पलट के, “मैं क्या आपको इतना कमज़ोर लगता हूँ कि आपको ये चिंता करनी पड़ रही है कि मेरा क्या होगा? जहाँ से आप आए हैं, जहाँ से ये दुनिया आई है, वहीं से मैं भी आया हूँ| पैदा हुआ हूँ, साँस ले रहा हूँ, आँखें हैं, समझ सकता हूँ, जी रहा हूँ, जी लूंगा| कृपा करके चिंता करके मेरा अपमान न करें|”
जो तुम्हारी चिंता करता है, वो तुम्हारा बड़ा अपमान करता है| क्या तुम इस बात को समझ पा रहे हो? क्योंकि किसी की चिंता करना ये कहना है कि तू नाकाबिल है| मुझे तेरी चिंता करनी पड़ रही है| तुम नाकाबिल हो? तुम नाकाबिल हो? और तुम ये देख नहीं पा रहे कि जो तुम्हारी चिंता कर रहा है, उसमें कितना अहंकार है| वो ये कह रहा हैकि तू तो इस काबिल भी नहीं कि अपनी परवाह कर सके और मैं इस काबिल हूँ कि मैं अपनी और तेरी, दोनों की प्रवाह कर लूंगा| तुम उसका अहंकार देख रहे हो? और उसका करता भाव देख रहे हो?
जो तुम्हारी परवाह करना चाहते हैं, उनसे पूछो, “अपनी कर ली? अपनी कर लो| और अगर अपनी कर ली होती, तो मेरी फ़िक्र करने न आते|” अक्सर जो लोग अपनी फ़िक्र नहीं कर पाते, जो स्वयं को ही नहीं जान पाते, उन्हें बड़ी चिंता रहती है दूसरों का हित करने की| अपना हित कर नहीं पाए, अपना हित जान नहीं पाए, दूसरों का क्या जानोगे? पर यहीं पर, इन्हीं सब मोड़ों पर, हम फिसल जाते हैं|
“बेटा, दुनिया बड़ी खूंखार है| वो तुम्हें खा जाएगी|” दुनिया तुम्हें खाने के लिए उत्सुक नहीं है| दुनिया तुम्हें खाने के लिए उत्सुक होती, तो इतनी प्यारी रौशनी नहीं आ रही होती| दुनिया अगर इसीलिए होती कि तुमको कष्ट मिले, तो ये हवा नहीं उपलब्ध होती तुम्हें साँस लेने के लिए| अस्तित्व का अगर यही प्रयोजन होता कि तुम्हें दुःख दे, तो अभी दुःख दे सकता है|30 डीग्री है, 50 डिग्री हो जाए, झेल नहीं पाओगे| और 70 डिग्री हो जाए, तो यहीं मर जाओगे| मानते हो की नहीं? अस्तित्व इसीलिए नहीं है कि तुम्हें दुःख दे| अगर इसलिए ही होता तो तुम पैदा ही कैसे होते? हो सकते थे पैदा? दुःख के लिए तो नहीं आए हो न| तो फिर सुख की इतनी चेष्ठा क्यों?
देखो! हर आदमी में, और खास तौर पे जवान आदमी में एक बेफिक्री होनी चाहिए| एक फक्कड़पन| कुछ है बेपरवाही में ऐसा जिसमें बड़ी कशिश है| और जब देखोगे किसी बेपरवाह, अलमस्त को तो तुम्हारे पास करोड़ों भी हो, तुम्हें ईर्ष्या हो जाएगी| क्योंकि उसके पास कुछ ऐसा है जो तुम्हरे करोड़ों से कहीं ज़्यादा कीमती है| और यही तुम्हारी सज़ा है| जो करोड़ों कमा के बैठे हैं उनकी सज़ा ही यही है कि जब वो किसी फक्कड़ को देखेंगे तो ईर्ष्या से जल उठेंगे बिलकुल| वो कहेंगे कि जो करोड़ों कमा के हमको नहीं मिला, वो ये ऐसे ही लिए घूमता है; 0,0 पे| हम भागे जा रहे हैं कि ये पा लें, कि वो पा लें, और इस के पास कुछ नहीं है| पर फिर भी इसके पास कुछ ऐसा है जो हमसे बहुत दूर हो गया| जितना हम इकट्ठा करते गए, उतना हम उससे दूर होते गए|
और इस तरीके से जो चिंता में लगा है, इकट्ठा करने की कोशिश में लगा है, खूब हिसाब-किताब बैठा रहा है, आगे के लिए पूरी योजना बनाके बैठा हुआ है कि अब ऐसे करूँगा, अब वैसे करूँगा, वो आदमी ही नहीं सुहाता| और अगर वो जवान आदमी हो तो वो आँख में काँटे की तरह चुभता है| कि ये जैसे चाँद पे धब्बा कहाँ से आ गया? अस्तित्व के चेहरे पे दाग| तू जवान है? जवान आदमी ऐसा होता है? सूखा हुआ मुँह और रो रहा है कि मेरा क्या होगा? क्या होगा?
तुममें से कईयों के चेहरे पर अभी भी सवाल देख रहा हूँ| ये मत सोच लेना कि मैं जिस फक्कड़ की बात कर रहा हूँ, वो भूखो मरता है| भूखों नहीं मरता| कोई भूखा नहीं मरता| आदमी की भूख इतनी होती ही नहीं है की उसके लिए बहुत चाहिए| कितना खाते हो? कौन इतना खाता है कि उसके लिए दो करोड़ ? कौन है इतना जो खाता हो इतना? और कपड़े कितने पहनोगे? बोलो| जितना मज़े में जीने के लिए चाहिए, उतना तो बेपरवाही में भी मिल ही जाता है| तुम न चाहो, तब भी मिल जाएगा| यूँही आ जाएगा इधर से, उधर से| तुम्हें उसके लिए मरने की, कलपने की, खटने की ज़रूरत नहीं है कि हाय-हाय! मेरा क्या होगा?
और जो मर रहे हैं, और खप रहे हैं और कलप रहे हैं, उन्होंने भी क्या हासिल कर लिया है? क्या मिल गया है इससे उन्हें? उन्हें ये लगता है कि उनका ये जीवन सार्थक हो गया है? उनसे जाके पूछो| बैंक में २०-४० लाखरुपये हैं, एक २ बी.अच्.के फ़्लैट है और एक कार है उनके पास| पूछो सार्थक हो गया? हो गया इतने में? नहीं, हो गया हो तो बता दो| और इतना तो हो सकता है वैसे भी मिल जाता|
मैं पढता था जब — अपने आई.आई.एम अहमदाबाद के दिनों का बता रहा हूँ — वहाँ उन्होंने मेरा नाम रखा था-रावण| अब क्यों रखा था? मेरा तरीका कुछ ऐसा था कि जब तक क्लासरूम में रहता था, पूरी तरह जगा हुआ रहता था, एकदम सतर्क| सब सुनना भी है, बोलना भी है, पूरी सहभागिता| लेकिन वहाँ से जाने के बाद, फिर मुझे किताबों से बहुत मतलब नहीं रहता था| अगले दिन के केस वगैरह पढ़ लिए, उतना काफी है| किताबों के साथ खटना मेरी आदत नहीं थी| और बहुत काम थे| दौड़ता था, खेलता था, बाहर जाता था; मज़े|
तो परीक्षाएँ हों, मैं परीक्षाओं के समय भी, अगर पुस्तकालय गया हूँ दूसरों के साथ, तो पुस्तकालय में भी कोई नाटक उठा लिया, वो पढ़ रहा हूँ, कुछ और पढ़ लिया इधर-उधर का| सोने का मन है, तो सो भी लिए, बाहर जाना है तो बाहर भी चले गए| और जो मेरे साथ के थे, वो लगे हुए हैं, “जान जाती है, जान जाती है|” ठीक है, पढ़ो| परीक्षा होती थी, मार्क्स (अंक) आते थे| मार्क्स आए तो पता चले कि जितने उनके आए हैं, उसी से थोड़ा कम-ज़्यादा मेरे भी आये हैं| अब मैं पेट पकड़ के और मुँह फाड़ के हँसता था जोर से| तो उन्होंने मेरा नाम रखा रावण| मैं कहता था कि जितना कल्पे तुम, जितनी तुमने अपनी ज़िन्दगी जलाई, तुम्हें मिला क्या? क्यों जलाई? और चलो अगर मुझसे तुम्हारे दो-चार नम्बर ज़्यादा आ भी गए, तो उससे तुम्हें क्या मिल जाएगा ये बता दो| मैं साठ पे, तुम सत्तर पे| तुम क्या पा जाओगे?
और आज वो मुझसे कहते हैं कि सही में, क्या पा लिया| तू साठ पे, हम सत्तर पे, क्या पा लिया? और सबसे ज़्यादा मज़ा तो तब आता था जब इतना कलप-कलप के भी वो साठ पे रह जाते थे और मैं सत्तर पे| वो भी होता था| और अक्सर वो साठ पे रह ही इसीलिए जाते थे क्योंकि उन्होंने ज़्यादा पढाई कर ली थी| इतना पढ़ा की सब गठ-मठ हो गया|
समझ रहे हो बात को?
ये खौफ निकाल दो अपने अन्दर से की तुमको किसी संग्राम में जीतकर दिखाना है| ज़िन्दगी कोई संग्राम-वंग्राम नहीं है| तुम यहाँ लड़ने के लिए नहीं आए हो| और न ही ये कोई दौड़ है कि लेन बनी हुई है और सब भगा-भग दौड़े जा रहे हैं| और देख रहे हैं कि कौन आगे रह गया, कौन पीछे रह गया| ये जो तुम्हारा मॉडल है दिमाग में, ये बहुत फ़िज़ूल मॉडल है| और जिन लोगों ने ये मॉडल तुम्हारे मन में डाला है, वो खुद बेचारे समझते नहीं|
मैं एक जिम(व्यायामशाला) जाता हूँ| वहाँ पर उन्होंने अपनी टैग लाइन बना रखी है, “टू वर्क हार्डर, यू मस्ट वर्क आउट” (कठोर परिश्रम करने के लिए, तुम्हें परिश्रम करना पड़ेगा)| हैं भाई! क्या चल रहा है? एक अभी गाड़ी लॉन्च हुई है, उसकी लाइन है-‘सिम्पली क्लेवर’| क्या चल रहा है? एक घड़ी है, उसकी लाइन है-‘ बिकॉज़ लाइफ इज़ अ रेस अगेंस्ट टाइम’| (क्योंकि जीवन समय के विरुद्ध एक दौड़ है) बड़ा ब्रैंड है| तुम इसीलिए खरीदने जाते हो उसको क्योंकि वो तुम्हें ऐसी ज़हरीली बात कह रहे हैं, “ बिकॉज़ लाइफ इज़ अ रेस अगेंस्ट टाइम|”
ये पागल लोग हैं; विक्षिप्त| पागल छोड़ दो यहाँ मैदान में, फिर देखो, वो क्या-क्या करके दिखाएगा? और अगर वो दौड़ने पे उतर आए तो फिर तुम उससे जीत नहीं सकते| तुम जीत के दिखाओ किसी पागल से| वो ऐसा भागेगा कि उसे होश नहीं रहेगा की पाँव फट गया, की हाथ टूट गया, की पैन्ट फट गई| तुम तो भागोगे, तो भी थोड़ा विचार करोगे की भागने की कोई सीमा होती है| उसके भागने की कोई सीमा नहीं| वो पूरे ट्रैफिक के बींचो-बीच भागेगा| वो ट्रेन के आगे भागेगा| तुम उससे जीत नहीं सकते| ‘ बिकॉज़ लाइफ इज़ अ रेस अगेंस्ट टाइम’| ये बात उस पागल से ज़्यादा कोई नहीं समझता|
किसी का मन लगा है आज तक पागलपन में? कहते हो मन नहीं लगता| तुम मन लगा कैसी चीजों में रहे हो? वहाँ लगेगा कभी? किताब उठाते हो, तो इसीलिए उठाते हो…
श्रोता: की मार्क्स आ जाएँ|
वक्ता: उसमें मन लगेगा कभी?
मार्क्स (अंक) में किसी का मन लग सकता है| छी!
(श्रोतागण हँसते हुए)
किसी का मन लगा है आज तक मार्क्स (अंकों) में? जिन्हें नोबल पुरस्कार मिल गए हैं भौतिक विज्ञान में, रसायन विज्ञान में, उनसे जाकर के पूछो, “तुम्हारा अंकों में मन लगा था कभी?” जाके पूछो| वो कहेंगे, “हमारा भी नहीं लगा|”
मन तो वहीं लगता है – 0,0,0,0| उसी को कहते हैं, “पूर्ण, पूर्ण, पूर्ण, पूर्ण|” हम पूरे हैं, पूर्ण| हम हीन भावना से खाली हैं, शून्य| पूर्ण माने हम पूरे हैं| शून्य माने हम हीन भावना से खाली हैं| तो पूर्ण और शून्य एक ही बात है|