प्रश्न: जो कुछ भी बाहरी है उसको हम व्यर्थ, कचड़ा, धूल क्यों कहते हैं?
आचार्य प्रशांत: जो कुछ भी बाहरी है जब वो आपके सम्पर्क में आता है तो आप में क्या बदलाव आता है? बाहर से ज्ञान आया, अनुभव आया, कोई संवेग आया। ज्योंही ये आपके सम्पर्क में आये, आपके साथ क्या हुआ?
प्र: मुझमें विचार आ गये।
आचार्य: तुममें विचार आ गये, तुममें विचार आ गये। तुममें कुछ जुड़ गया, तुममें कुछ बढ़ गया। बाहरी तुमसे जब भी मिलेगा तुममें कुछ जोड़ देगा, बढ़ा देगा। और जो कुछ भी जुड़ा और बढ़ा वो कहाँ बैठ गया?
प्र: मन में।
आचार्य: मन में बैठ गया। और मन में जब कुछ जुड़ जाता है, बढ़ जाता है तो क्या हालत होती है?
प्र: व्यथित।
आचार्य: अच्छा, एक बात बताओ, सोना अच्छा क्यों लगता है?
प्र: क्योंकि हमें बताया गया है कि सोना अच्छा होता है।
आचार्य: न बताया गया होता तो? छोटा बच्चा है उसे कुछ नहीं बताया गया। तो उसे सोना बुरा लग रहा है?
प्र: अच्छा लगता है।
आचार्य: सोना अच्छा इसीलिए लगता है क्योंकि उस वक्त विचार की, पहचान की, मन की जो प्रक्रिया होती है वो थम जाती है, रुक जाती है, संसार ही ख़त्म हो जाता है तुम्हारे लिए। जैसे थोड़ी देर के लिए तुम कचड़े से आज़ाद हो गये। कचड़ा वो जो व्यर्थ है, जिसके बिना भी काम चल जाए। उसे ही कचड़ा कहते हो न? यही परिभाषा है न कचड़े की?
जिसके बिना भी बखूबी काम चले वो कचड़ा। जिसका होना कोई उपयोगिता नहीं रखता, बस जगह घेरता है उसे कचड़ा कहते हैं। तो नींद, मौन, चैन, समाधि, ये सब प्रमाण हैं इस बात के कि वो सब जो हमारे मन में लगातार उठता रहता है, उसके बिना भी हम हैं।
हाँ, हम वैसे नहीं हैं जैसे हम अपनेआप को समझते हैं। अगर आप सो रहे हो तो आप शान्तनु, नसरुद्दीन, या अल्ताफ़, या सौरभ नहीं हो — लेकिन आप हो। आप वैसे नहीं हो जैसे अभी आप दिख रहे हो क्योंकि सोते समय आपको नहीं पता कि आपकी कितनी टाँगें हैं, और आपके मुँह है या नहीं। तो सोते समय आप एक नाम भी नहीं हो, आप एक देह भी नहीं हो — लेकिन आप हो। अगर नाम के बिना, देह के बिना, विचार के बिना, ज्ञान के बिना हुआ जा सकता है। तो नाम, रूप-रंग, देह, विचार ये सब क्या हुए?
प्र: कचड़ा।
आचार्य: कचड़ा। तो कचड़े को हमने परिभाषित ही यही किया कि जिसका होना ग़ैर-ज़रूरी हो सो कचड़ा। जिसके न हुए बिना भी जो है वो अक्षुण्ण बना रहे, वो कचड़ा; जिसके न होने से आपके चैन में इज़ाफ़ा हो जाए वो कचड़ा।
जिसके न होने से आपके चैन में इज़ाफ़ा हो जाए उसी का नाम है कचड़ा।
तो इसीलिए जो भी हम संचित करके चलते हैं, जिससे हम अपना व्यक्तित्व बनाते चलते हैं, उन सब बातों को जानने वालों ने व्यर्थ कहा है, कचड़ा कहा है।
ज्ञान से, जानकारी से, भाषा से, धारणा से बड़ा दूसरा कोई बोझ नहीं है।
प्र२: हमारे अंदर इंटर्नल रिचनेस विदिन अस (आन्तरिक परिपूर्णता) क्या है?
आचार्य: इंटर्नल रिचनेस अपनेआप में कोई चीज़ नहीं है। वो वैसी ही है कि जैसे आप एक गर्म, उमस भरे कमरे में क़ैद हों और बाहर आ जाएँ जहाँ गर्मी और उमस न हो, सबकुछ सामान्य और साधारण हो। इंटर्नल रिचनेस से तो ऐसा लगता है जैसे कि वो आन्तरिक ऐश्वर्य अपनेआप में कोई ख़ास, विशेष बात है। वो ख़ास और विशेष नहीं है, वो साधारण, वो सामान्य है।
ख़ास और विशेष बात ये होती है — उदाहरण पर वापस जाते हुए — कि आपको एक विशेषतया गर्म और विशेषतया उमस भरे कमरे में क़ैद कर दिया गया — ये बात ख़ास थी। इस ख़ास बात से अब आज़ादी मिली; तब आप निर्विशेष हुए, सामान्य हो गये, साधारण हो गये, सहज हो गये। इसी सहजता को आन्तरिक ऐश्वर्य, आन्तरिक धन्यता कहते हैं। समझ में आ रही है बात।
अब फिर पूछिये कि आज़ादी क्या है? आज़ादी अपनेआप में कुछ नहीं होती, ग़ुलामी बहुत कुछ होती है। जहाँ ग़ुलामी नहीं है वहाँ जो ग़ुलामी से शून्य स्थिति है उसको आज़ादी कहते हैं।
वो सब कुछ जो हमारे लिए अस्तित्वमान है जब वो हटता है तब जो स्थिति आती है उसे कहते हैं आज़ादी। उसी स्थिति का ये दूसरा नाम भी है, आन्तरिक परिपूर्णता, इंटरनल रीचनेस इत्यादि। लेकिन वो जगह हमारी जानी-पहचानी नहीं है, वो जगह हमारी जानी-पहचानी इसलिए नहीं है, क्योंकि हम ख़ुद परिस्थितियों का उत्पाद हैं।
आप ऐसे समझ लो, इस उदाहरण से आपको बात समझ में आएगी। बाहर मिट्टी-ही-मिट्टी है, वो जो बाहर मिट्टी है, उसने तमाम तरह के अनुभव देखें हैं — धूल, बारिश, हवा, सूरज। उसका एक ढेला बन जाए। वो ढेला बना ही इन्हीं सब बाहरी अनुभवों से है। और तो कहीं से वो बना नहीं।
तो उस ढेले ने क्या देखा है? उस ढेले ने वही तो देखा जिससे वो निर्मित हुआ है। उससे आगे का उसको होश क्या? वो जो बाहर ढेला पड़ा है उससे पूछा जाए कि बताना ज़रा आश्रम के भीतर क्या है? तो वो क्या बता पाएगा? चूँकि वो बाहर की पैदाइश है इसलिए उसे बाहर की ख़बर पूरी होगी। वो बाहर का बता सकता है, भीतर का वो क्या बताएगा?
इसी तरीक़े से हम जो हैं, जिससे हमारा साझा है, जिससे हमारा तादात्म्य है, हम पूरे तरीक़े से बाहर की ही पैदाइश हैं। तो इसीलिए जब भीतर की बात छिड़ती है तो हम हक्के-बक्के रह जाते हैं, आवाक् — ‘ये कौनसी नयी बात हो गयी।’
हाँ, बाहर की जब भी बात छिड़ेगी तो हममें फिर ज़रा गर्मी आ जाएगी, जान आएगी — ‘अच्छा! हाँ बताओ, यह हमारे मतलब की बात है, ये हमारे परिचय का क्षेत्र है, इससे हम वाक़िफ़ हैं। दुनियादारी की बात बताओ, समय की बात बताओ, इतिहास की बात बताओ, भविष्य की बात बताओ, वहाँ क्या हो रहा है ये बताओ, और वहाँ क्या हो रहा है ये बताओ।’
इससे हम खूब परिचित हैं, क्योंकि हम इसी से तो बने हैं। आप कहाँ से बने हो? कुछ तो माता के गर्भ से पैदा हुए हैं, बाकी तो रेडियो से पैदा हुए हैं, टीवी से पैदा हुए हैं, अख़बार से पैदा हुए हैं, पड़ोसी से पैदा हुए हैं, बाज़ार से पैदा हुए हैं, दुकान से पैदा हुए हैं, जलेबी से पैदा हुए हैं, नमकीन से पैदा हुए हैं, टीवी शो से पैदा हुए, या नेताओं से पैदा हुए हैं। ये सब हमारे माँ-बाप हैं, तो हमें इनकी ही ख़बर है।
हम इन्हीं के जैसे दिखते भी हैं। ठीक वैसे जैसे हर बच्चे में अनुवांशिक गुण होते हैं। तो हममें भी इन्हीं के गुण हैं। एक ढेला होता है न मिट्टी का, उसमें सूरज समाया होता है। पकी हुई ईंट देखी है कभी? उसमें आग समायी होती है। वो ढेले में मिट्टी, हवा ये सब समाये होते हैं।
हममें क्या समाया हुआ है? हम किससे बने हैं? हम उन मूवीज़ से बने हैं जो हमने देख लीं, हम उन कहानियों से बने हैं जो हमने सुन लीं, वो सारी बातें जो इन्द्रियों से हममें प्रवेश करती गईं, हम उसी का निर्माण हैं। तो ये जो दूसरा है ये हमें बड़ा अनजाना लगता है। मैं प्रमाण देता हूँ आपको। ये जो आपने सवाल लिखे हैं इनमें से एक भी सवाल ये नहीं पूछ रहा कि संसार क्या है। इनमें से हर सवाल ये पूछ रहा है कि, अरे भाई! बताओ, सत्य क्या है? आन्तरिकता क्या है?
आप मुझसे पूछ रहे हो कि बाहर वाले को कचड़ा क्यों कहते हैं, क्योंकि ये बात आपको अजीब लग रही है। बाहर वाले को आपने जीवनभर कभी कचड़ा समझा ही नहीं इसलिए अजीब लग रही है। कचड़ा कैसे समझोगे, जिस चीज़ से हम बने हों, उसे हमें कचड़ा कहते तो लाज आएगी न?
इसी तरीक़े से आप कह रहे हैं कि ये आन्तरिक सम्पूर्णता क्या है? ये आन्तरिक वैभव क्या है? ये सवाल ही बताता है कि आन्तरिकता से हम परिचित नहीं हैं। तभी तो पूछना पड़ रहा है और फिर ये सवाल ही हमें बता देगा कि हमने साझा किससे कर रखा है। अगर अंदर वाले के बारे में बहुत सवाल करने पड़ रहे हैं तो ज़ाहिर है कि हम?
श्रोतागण: बाहर वाले हैं।
आचार्य: बाहर वाले हैं। नहीं तो अंदर वाले के बारे में इतने सवाल क्यों करने पड़ते? फिर तो तुम बाहर वाले के बारे में पूछ लेते भले। तुम पूछ लेते, ‘ये दुनिया में क्या बे-सिर-पैर का चलता रहता है?’ पर तुम ये कभी नहीं पूछते।
कभी ये कहते हो क्या कि, ये मैंने क्यों इंजीनियरिंग कर डाली? ये तुम कभी नहीं पूछते। कभी कहते हो क्या कि हम कपड़े ऐसे ही क्यों पहनते हैं? खाना ऐसे ही क्यों खाते हैं? ऐसे ही क्यों जीते हैं? ये तुम कभी नहीं पूछते। क्यों नहीं पूछते? क्योंकि उन सबमें तुमको कुछ विचित्र लगता ही नहीं, वो नस-नस में समा गया है, जैसे मिट्टी के ढेले की नस-नस में?
प्र२: सूरज।
आचार्य: सूरज समा जाए, गन्दगी समा जाए और धूल समा जाए। उसको लेकर उसे कोई आश्चर्य होगा फिर? ‘वो तो मैं हूँ ही।’
हाँ, ब्रह्म की चर्चा चले तो हठात् खड़ा रह जाए। ‘अरे! ये कौनसी नयी चीज़ आ गयी।’ इसको तो कभी देखा नहीं। अब ये अजीब बात है, जो तुम हो उसको कभी देखा नहीं, और जो तुम नहीं हो, उसमें तुम जिये जा रहे हो।
प्र३: क्या सिर्फ़ ईगो को, अहंता को जानने से उससे मुक्ति मिल जाती है?
आचार्य: मिल जाती है। लेकिन जानना माने वो नहीं होता जो तुम माने बैठे हो। तुम्हारे लिए जानने का क्या अर्थ है? समझना ये बात। मैं तुमसे कहूँ कि आपको जानते हो (श्रोताओं में से एक की ओर इशारा करते हुए) — आपका नाम? (श्रोतागण में किसी से पूछते हैं)
श्रोता: बृज।
आचार्य: मैं तुमसे कहूँ, ‘ये बृज साहब हैं, इनको तुम जानते हो?’ तुम कहो, ‘मैं बखूबी जानता हूँ। सफ़ेद उन्होंने शर्ट पहनी हुई है। सिर पर इनके बाल नहीं हैं। लखनऊ से आये हैं। सत्तर क़रीब इनकी उम्र है। पैतृक आवास इनका रूस में है। तुम्हारे लिए जानने का तो यही अर्थ है। तुम कब कहते हो कि तुम कुछ भी जानते हो? बताओ। अच्छा, तुम इस खम्भे के बारे में क्या-क्या जानते हो?
प्र३: ईंट से बना हुआ है। ‘प्लास्टर ऑफ पेरिस’ इस्तेमाल है।
आचार्य: ये जीतनी बातें बोल रहे हो, इसमें साझा क्या है? इससे तुम समझ पाओगे कि जानकारी की तुम्हारी परिभाषा क्या है।
प्र३: जो बताया गया है।
आचार्य: तुम सिर्फ़ उस बात को जानकारी कहते हो जो तुम्हारी आँखों की और इन्द्रियों की पकड़ में आ जाए। इसको तुम कहते हो, जानना। तुमने इनके (बृज जी की ओर इशारा करते हुए) बारे में क्या जाना? तुमने इनका चेहरा जाना और इनकी शर्ट को जाना।
तुमने इसके बारे में (खम्भे को इंगित करके) क्या जाना? तुमने ईंट को जाना। अब कहने को वो ईंट अंदर है, दिख नहीं रही है, पर फिर भी वो चीज़ ऐसी है कि हाथ में रख लोगे, इन्द्रिय के पकड़ में आ गयी। तो तुम्हारे लिए जानने का अर्थ है वो जो मन और इन्द्रिय की समझ में आये।
कुछ भी ऐसा जानते हो क्या जो न दिखाई पड़े न सुनाई पड़े, और कल्पनातीत भी हो, जो न इधर रखा जा सके न उधर रखा जा सके, जो न अंदर पाया जाता है न बाहर पाया जाता हो, जो न भूत का हो न भविष्य का हो, जो ना काला हो न सफ़ेद हो, जो न गोल हो, न चौकोर हो? कुछ भी ऐसा जानते हो?
प्र३: नहीं, जानते तो नहीं हैं लेकिन जानने की कोशिश कर सकते हैं।
आचार्य: तो तुम सिर्फ़ वही जान सकते हो जिसकी अनुमति तुम्हें तुम्हारी इन्द्रियाँ और मन देते हैं। कुछ भी ऐसा जान सकते हो जिसका कोई रूप, रंग, आकार नहीं होता? करो कोशिश।
प्र३: इमोशंस (भावना)
आचार्य: उनका कोई रूप, रंग, आकार नहीं होता। चलो, अभी कर लेते हैं। मैं अभी तुमसे कहूँ, वहाँ पर तीन चित्र टँगे हुए हैं, एक है बुद्ध का और एक है एक रोती हुई स्त्री का। मैं तुमसे कहूँ, ‘बताओ, इमोशनल (भावुकता) कौन है?’ तो तुम बता पाओगे या नहीं? बोलो।
प्र३: हाँ।
आचार्य: तो कहो कि तुम इमोशंस (भावना) का रूप, रंग, आकार जानते हो कि नहीं जानते हो? नहीं जानते हो तो ये कैसे बता देते हो कि कौन है इमोशनल। जानते हो न?
तुम जो कुछ जानते हो, तुम उसका ख़ाका खींच सकते हो। या उसके बारे में कम-से-कम वर्णन तो कर ही सकते हो, ये हमारी जानकारी की परिभाषा है। ऐसे नहीं जाना जाता। ऐसे तो जो भी जानोगे वो सतही होगा, फ़ालतू जाएगा। अहंकार को ऐसे नहीं जाना जाता।
तुम जिसे जानना कहते हो वो जानकारी है, सूचना मात्र है। और सूचना का कोई मोल नहीं, या है भी तो हल्का-फुल्का। सूचना का ऐसे ही मोल है कि तुम जा रहे हो अपनी प्रेमिका से मिलने और तुमने जीपीएस चालू कर दिया है। वो तुम्हें सूचना दे रहा है कि तुम्हें कैसे मिलना है, वो कोई प्रेमिका थोड़े ही दे देगा, वो तो तुम्हें सूचना भर दे देगा मार्ग की।
दरवाज़े पर खटखटाना भी तुम्हें प्रेमिका नहीं दे देगा, और मैं तुमसे कहता हूँ कि प्रेमिका भी तुम्हें काफ़ी नहीं पड़ेगी। क्योंकि प्रेमिका का मिल जाना भी प्रेम की आश्वस्ति नहीं है। प्रेम ऐसी चीज़ है जिसको कभी हथेली में नहीं ले सकते, लेकर दिखाओ। प्रेम का वज़न बताओ, प्रेम का आकार बताओ, प्रेम को फेंक के दिखाओ, प्रेम को जेब में रखकर दिखाओ। अब फँस गये न?
तो प्रेम की जानकारी हो सकती है क्या? जानकारी सिर्फ़ उन चीज़ों की हो सकती है जो जेब में रखी जा सकती हैं या मन में रखी जा सकती हैं। न प्रेम की, न आनन्द की, न मुक्ति की, इनकी जानकारी नहीं हो सकती। जैसे प्रेम जाना जाता है, जैसे आनन्द जाना जाता है, अगर वैसे ही अहंता को जान सको — प्रेम से, आनन्द से और मुक्ति से — तो समझो कि जाना। नहीं तो कुछ नहीं जाना।
किताब पढ़कर कोई जानता है? आँख से देखकर कोई जानता है? आनन्द में जाना जाता है, आज़ादी में जाना जाता है।
अहंकार को जानने का एक ही तरीक़ा है उससे आज़ाद रहो। उसे उसका काम करने दो, तुम उसके साथ चिपक न जाओ।
प्र३: तो रोक दें?
आचार्य: न! होने दो उसे। ये यहाँ पर घास है। तुम क्या इसकी उपेक्षा कर रहे हो? ये तो संगी है हमारी, हम उपेक्षा क्यों करें इसकी? उपेक्षा करना तो तिरस्कार करने जैसा है, और तिरस्कार अपमान होता है।
यहाँ बैठे हुए हो, अभी सामने से पाँच-दस लोग दौड़ते हुए निकल जाएँ तो तुम भग लोगे उनके पीछे-पीछे? बोलो? या ये करोगे कि वो निकल रहे हैं तो जाकर दरवाज़ा भी बन्द करोगे? ऐसा करोगे? तुम्हें कुछ भी नहीं करना। वो जो कर रहे हैं उन्हें करने देना है। तुम जो कर रहे हो, तुम अपना काम करो।
अहंकार की अपनी एक गति है, एक वेग है, एक प्रकृति है उसकी, वो लगा रहता है। और अहंकार के साथ जबतक तुमने अपनी ऊर्जा नहीं जोड़ दी तबतक उसमें कुछ हानिप्रद नहीं होता।
प्र४: अहंकार प्राइड है कि ईगो है?
आचार्य: इतनी तुमने कहानियाँ, उपन्यास पढ़ ली हैं अध्यात्म वाली, अभी पूछ रहे हो कि अहंकार प्राइड है कि ईगो है। हम अभी हिन्दी में नहीं बात कर रहे। हम जिस भाषा में बात कर रहे हैं उसे कहते हैं स्पिरिचूअलीज़ । क्या कहते हैं? स्पिरिचूअलीज़ । ये सुनने में हिन्दी जैसी लग रही है, हिन्दी नहीं है। अंतर करना सीखो। ये कौन सी भाषा है?
श्रोतागण: आध्यात्मिक।
आचार्य: स्पिरिचूअलीज़ । थोड़ी देर में हम बदल के हो सकता है ऐसी भाषा में बात करने लगें जो सुनने में अंग्रेज़ी जैसी लग रही हो, लेकिन वो फिर भी क्या होगी?
श्रोतागण: स्पिरिचूअलीज़ ।
आचार्य: स्पिरिचूअलीज़ । प्राइड हो कि ह्यूमिलीटी हो, ये सब अहंकार के छोटे-छोटे हिस्से हैं। तुम तो ज़रा आध्यात्मिक साक्षरता रखते हो।