जो नहीं समझे वो चूके,जो समझे वो और भी चूके || आचार्य प्रशांत (2016)

Acharya Prashant

7 min
60 reads
जो नहीं समझे वो चूके,जो समझे वो और भी चूके || आचार्य प्रशांत (2016)

प्रश्न: सर, सब कुछ अगर छवि ही होता है, तो जो समझ में आता है, जैसे आपकी बात सुनना, वो भी समय की प्रक्रिया है। क्या ऐसा होता है, एक छवि या कुछ छवि बाकि सारी छवियों को मिटा सकती हैं?

वक्ता: देखिये, इस बात को स्वीकार करना आसान होगा कि संसार में ही कुछ छवियाँ होती हैं जो कि दूसरों से बेहतर होती हैं, जो दूसरों की काठ होती हैं। कुछ छवियाँ ऐसी होती हैं जो कि आपको छवियों से मुक्त कर सकती हैं। पर अगर मैं इस बात को स्वीकार करूँगा, तो बात ईमानदारी की नहीं होगी। आप यदि यहाँ बैठे हैं और आपको कुछ समझ में आ रहा है, तो वो इसलिए नहीं आ रहा है कि मैं आपसे कुछ कह रहा हूँ, आप कुछ सुन रहे हैं। जिसे आप ‘समझ’ कहते हैं, वो मन के पार की बात है। जिसे आप समझ कहते हैं, वो आपको समझ ‘न’ आने वाली बात है।

आप यहाँ बैठते हैं, आप यहाँ शान्त हो जाते हैं। आपको उसके लिए कोई न कोई विवेचना ढूँढ़नी है, क्योंकि आपको हर बात अपनी समझ के दायरे में रखनी है। तो आपके लिए आवश्यक हो जाता है कि आप इस बात को तर्क में व्यक्त कर दें कि यहाँ क्या हो रहा है, तो आप एक कहानी गढ़ते हैं। आपकी कहानी है- यहाँ आप बैठे हैं, यहाँ मैं बैठा हूँ। मैं कुछ बातें कह रहा हूँ, आप उन बातों को सुन रहे हैं। वो बातें आपको ठीक लग रही हैं और ठीक लगने के कारण आपको शान्ति मिल रही है।

मैं जो कह रहा हूँ, ऐसी कोई घटना नहीं घट रही है। न आप यहाँ बैठे हैं, न मैं यहाँ बैठा हूँ, और जो शान्ति है, वो मेरे कुछ भी करने से नहीं आ रही है, न आपके सुनने से आ रही है। यहाँ क्या हो रहा है वो आँखों से देखने की नहीं, कानों से सुनने की नहीं और मन से सोचने की नहीं बात है। जो भी कोई इन्द्रियों के और मन के किसी कारण के चलते यहाँ आ करके बैठेगा, वो वही भूल कर रहा है जिसके बारे में आज हमने इतनी बात करी है। वो संसार में सत्य खोज रहा है, वो व्यक्ति में गुरू खोज रहा है। उसे कुछ हाथ नहीं लगेगा।

हाथ उनके लगता है जो बिना कुछ जाने समझे, जो अकारण ही बिना आगे-पीछे देखे, यूं ही बैठ गये हैं। ये कहना भी उचित नहीं होगा कि वो यहाँ बैठ गये हैं, क्योंकी वो यदि बैठते, तो अपनी मर्ज़ी से, अपनी सम्मती से बैठते। किसी प्रवाह ने, किसी ताकत ने, किसी ज़ोर ने उन्हें यहाँ बैठा दिया है। और जिन्हें कोई हसरत नहीं है यह जानने की, कि वो क्यों यहाँ मौजूद हैं। जो पूरी प्रक्रिया को कोई नाम नहीं देना चाहते, कोई कहानी नहीं खड़ी करना चाहते, सिर्फ वही वास्तव में बैठे हैं। जिनके पास वजह है, जिनके पास तर्क है, भले ही उनका तर्क यह हो कि यह बातें उन्हें भाती हैं। भले ही उनका तर्क यह हो कि भ्रम मिटते हों, और शान्ति आती है, पर यदि उनके पास कारण है और तर्क है, तो उन्हें सिर्फ़ चूँक मिल रही है, एक और चूँक।

श्रोता: सर, उद्गार मौन के। शब्द अभी भी संसार से लिये गये हैं, सुनना अभी भी संसार से आ रहा है। तो कैसे वो शब्द मौन की ओर ले जा सकते हैं?

वक्ता: बचपना है। कोई तुक्का मारने की कोशिश है कि जैसे किसी बच्चे की माँ जब भी बाहर से लौटे, तो अपने जूते उतार करके किसी रैक (अलमारी) पर रख दे। और बच्चा यह निष्कर्ष निकाले कि रैक (अलमारी) पर रखा जूता, माँ से मिलाने का ज़रिया हो सकता है। जैसे कि रैक (अलमारी) पर रखा जूता, कारण बन सकता हो माँ से मिलने का। जो ‘है’ उसकी प्रतीति तुम्हें अभी तब हो रही है जब यह शब्द तुम्हारे कान में पड़ रहें हैं। पर जो है, क्या वो सिर्फ़ तब है जब मैं बोल रहा हूँ, बोलो? वो तो निरन्तर है न।

जब जगोगे तो पाओगे कि मौन में शब्द नहीं है, मौन में ही मौन है।

वही है। शब्द क्या उस तक ले जायेंगे, शब्द भी वही हैं। पर अभी एक मानसिक स्थिति में हो, उस मानसिक स्थिति में तुम शब्दों में जीते हो, तो जो पूरा फैला हुआ सत्य है, वो तुम्हें नहीं दिखाई देता। तुम्हारी सीमा है। तुम्हारा जो रिसीवर (पकड़ने का माध्यम), वो सिर्फ़ शब्द पकड़ पाता है। तुम्हारी तो स्थिति ऐसी है कि मैं तुम्हारे सामने आनंद में बैठा हूँ, तुम्हें आनंद की कोई खबर नहीं लगेगी क्योंकी आनंद को जानने वाला, पकड़ने वाला, यंत्र ही तुम्हारे पास नहीं है। तुम्हें तो आनंद का ज्ञान तब होगा जब मैं आनंद पर कोई वक्तव्य दूँगा, कुछ बोलूँगा। तो तुम बोलोगे “शब्द आनंद में हैं”। अब ये बात हकीकत से बहुत दूर है। आनंद तो शब्दों के पहले भी था। तुम्हारी भूल है कि तब तुम्हें दिखाई नहीं देता था क्योंकी तुम शब्द जीवी हो। तुम्हें तब ही समझ में आता है जब कोई बोले, और जो तुम्हें समझ में आता है वो बड़ी नासमझी है।

तुम कहते हो कि मेरे शब्दों से तुम्हारा मन मौन की तरफ़ जा रहा है, तो शब्द किसके? मेरे। मेरे होने से नहीं जाता है! मैं तो मैं ही हूँ न। मैं तो दिनभर इधर-उधर घूम रहाँ हूँ, बैठा हूँ तुम्हारे सामने। तब तुम नहीं कहते ‘कदम भी मौन में हैं, खाना भी मौन में है, सोना भी मौन में है, चलने में भी शान्ति है, क्योंकी तुम्हें किसी के होने, किसी की उपस्थिति को पढ़ना आता ही नहीं। तुम्हें उतना ही आता है जितना स्थूल हो। शब्दों भर को पकड़ पाते हो, तो शब्द दिये जाते हैं। इसी कारण थोड़ी देर में तुम यह घोषणा कर दोगे कि सत्र समाप्त हुआ। फिर मैं गुरू नहीं रहूँगा। फिर तुम इतना ध्यान देने की ज़रूरत नहीं समझोगे।

तुम कहोगे “‘शब्द’ ले जाते थे न इनके मौन में और ‘शब्द’ तो खत्म हो गये। तो अब थोड़ा ज़रूरी है ध्यान देना। अभी बोल रहे हैं तो सुन लो क्योंकि ‘शब्द में मौन हैं, होने में मौन थोड़ी है’।

फिर स्थूलतम से ज़रा आगे बढ़ोगे, सूक्ष्म की ओर जाओगे, तब गुरू को बोलना नहीं पड़ता, उसके होने को समझते हो, उसकी आँखों को समझते हो (आँखों में मौन), मुस्कुराने में मौन। कुछ और नहीं हो रहा, तुम बदल रहे हो, तुम्हारा कोहरा छट रहा है। वरना और कोई घटना नहीं घट रही, जो कुछ हो रहा है वो तुम्हारे ही भीतर हो रहा है और फिर एक बिन्दु ऐसा भी है जहाँ ‘मौन में मौन है’। जहाँ न किसी के शब्दों से तुम्हें प्रयोजन है, न किसी के देह से, न किसी की उपस्थिति से।

मौन ही मौन है।

गुरू ही गुरू है।

आत्मा ही आत्मा है।

सत्य ही सत्य है।

मौन और सिर्फ़ मौन।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories