इतनी गलत ज़िंदगी, फिर भी इतना आत्मविश्वास? || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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इतनी गलत ज़िंदगी, फिर भी इतना आत्मविश्वास? || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: मैं देखती हूँ कि ग्रंथों के और अध्यात्म के जो मूल सिद्धांत हैं, बहुत लोग हैं जो उनके बिलकुल विपरीत जी रहें हैं। मुझे साफ़ दिखाई देता है कि वो एक ग़लत ज़िंदगी आगे बढ़ा रहें हैं।

लेकिन फिर भी उनमें भरपूर आत्मविश्वास होता है। मैं समझना चाहतीं हूँ कि लोग इतनी ग़लत ज़िंदगी जीते हुए भी इतने कॉन्फ़िडेंट (आत्मविश्वासी) कैसे रहते हैं?

आचार्य जी: देखो, अगर तुम एक करुणा-विरुद्ध, बोध-विरुद्ध, धर्मविहीन जीवन जी रहे हो तो कोई वजह होगी न! वजह है — भय और सुख। दोनों साथ चलते हैं। समझिएगा।

आप जैसी ज़िंदगी जी रहें हैं उसमें भ्रम है, धोखा है, हिंसा है, अप्रेम है, लालच हैं तमाम तरीक़े के; लेकिन उसमें से आपको कुछ तात्कालिक सुख मिलते जा रहे हैं। किस तरह के सुख? कि मानसिक तल की सुरक्षा मिल गयी कि तुम जो कर रहे हो, ये करते रहो।

अगर ये करते रहोगे आज, तो आश्वस्ति है कल तुमको फ़लाने तरह का फल मिलता रहेगा। तुम्हारा भविष्य अनिश्चित नहीं रहेगा। भले ही आज जो कर रहे हो वो ग़लत है, पर अगर तुम ये करते चलो तो भविष्य में सुरक्षा का आश्वासन तुमको उपलब्ध रहेगा।

तो आपको सुख मिल गया। तुम आज जो कर रहे हो करते चलो, भले ही तुमको पता है कि वो सही नहीं है, लेकिन उसके बदले में तुमको पैसा मिलता चलेगा। तो आप करते चलोगे।

आप ये कर भी रहे हो, करने का सुख भी ले रहे हो लेकिन साथ ही साथ चूँकि आप चैतन्य हो, तो एक तल पर आप जानते भी हो कि जो कुछ हो रहा है वो ठीक तो नहीं है।

अगर ये ठीक नहीं है तो मैं क्या करूँ? इस सवाल से भय लगता है। अगर ये ठीक नहीं है तो विकल्प क्या है? इस सवाल से भय लगता है।

अगर ये सब कुछ मैंने छोड़ दिया तो फिर मेरा क्या होगा? इस सवाल से भय लगता है। तो जो साधारण, औसत, सांसारिक सुख हैं वो भय के हमेशा साथ चलते हैं।

समझ में आ रही है बात?

अब आपको एक तरफ़ तो मिल रहा सुख और साथ ही साथ आपको ये पता है कि ये सुख छोड़ा तो बड़ी अनिश्चितता आ जाएगी। कुछ भी घटित हो सकता है। तो उस सुख को छोड़ने के खिलाफ़ दरवाज़े बंद हैं बिलकुल।

दरवाज़ों के बाहर जो है वो डराता है। तो अपने लिए आवश्यक हो गया है कि आप उस सुख में क़ैद ही रह जाओ। समझ रहे हो? और वो भय आपके साथ फिर लगा ही रहेगा।

जब अपने साथ वो भय लगा रहेगा तो आपको अपनेआप को थोड़ा सहज रखने के लिए निर्भयता का स्वाँग करना पड़ेगा।

कॉन्फ़िडेन्स जानते हो क्या होता है? एक डरे हुए मन की कोशिश निडर दिखने की, निडर प्रतीत होते हुए काम करने की।

इसको कभी मैंने बोला था कि निर्भयता और अभयता में फ़र्क़ करना सीखो। वो बात अभी दोहराऊँगा, हो सकता है कुछ लोग उसमें थोड़ा चक्कर खा जाएँ। तो ऐसे ही आप समझ लीजिए, जिस भाषा में अपने सवाल पूछा है कि कॉन्फ़िडेन्स (आत्मविश्वास) फीयरलेसनेस (निर्भयता) नहीं होता।

कॉन्फ़िडेन्स का मतलब ये नहीं होता कि आप भयमुक्त हो गए। कॉन्फ़िडेन्स का मतलब होता है कि भीतर भय तो बिराजा ही हुआ है उसके ऊपर आप निर्भय दिखने की कोशिश कर रहे हो।

समझ में आ रही है बात?

अगर भीतर वो डर मौजूद नहीं होता तो आपको कॉन्फ़िडेन्स की भी कोई ज़रूरत नहीं पड़ती ही नहीं। ये बात समझेंगें आप। बहुत कम लोग आपको मिलेंगें जो कहेंगें, ‘हम भय-मुक्त हैं, फ़ीयरलेस हैं।’

ये तो शब्द ही प्रचलन में नहीं है, फ़ीरलेसनेस। हाँ, आपको लाखों-करोड़ों लोग मिल जाएँगे जो बहुत कॉन्फ़िडेंट हैं। वजह सीधी है। ऊपर-ऊपर से, बाहर-बाहर से निर्भय दिखना भी है, पर भीतर के भय को बचाकर रखना भी है क्योंकि भीतर भय का नाता किससे है? सुख से।

पूरी बात समझ रहे हो?

अगर आपको निर्भयता इतनी ही प्यारी थी, भई! आप कॉन्फ़िडेन्स दिखा रहे सबको, आप बिलकुल कॉन्फ़िडेंट बनकर घूम रहे हो। अगर आपको निर्भयता इतनी ही प्यारी होती, वाक़ई, ईमानदारी से, तो अपने भय को पूर्ण विदाई न दे दी होती कि भाई, तुम जाओ। तुम्हें हम चाहते ही नहीं कि हमारे भीतर रहो।

लेकिन आप भय को पूरी तरह छोड़ना नहीं चाहते। भय को आप पकड़कर, गाँठ बाँधकर, सहेजकर भीतर रखे हुए हो, पर बाहर प्रदर्शित भी नहीं करना चाहते कि हम डरे हुए हैं, अजीब लगता है न? अनैतिक भी लगता है, विचित्र हो जाएगा कि सब डरे-डरे घूम रहे हैं।

डरे हो और अपना डर तुमने अपने चेहरे पर दिखा भी दिया तो बात तो ईमानदारी की हो जाएगी। ग़लत हो जाएगा तुम्हारे साथ। तो तुम्हारे साथ ये ग़लत हो जाएगा न, फिर कि कोई चीज़ ईमानदारी की हो जाए कि भीतर भी डरे हो और डर बाहर भी छलक रहा है।

तो हमें तो ऐसा ही रहना है कि भीतर तो डरें हैं और बाहर बिलकुल अकड़ में हैं, मुस्कुरा रहें हैं, रीढ़ सीधी कर रखी है, ऐसे दिखा रहें हैं जैसे अरे! हमें तो फ़र्क़ कोई पड़ता नहीं, हम तो बेपरवाह हैं बिलकुल।

तो इसका मतलब ये है कि हमें डर से आज़ादी चाहिए ही नहीं। हमें बस डर के ज़ाहिर हो जाने से आज़ादी चाहिए, डर प्रदर्शित नहीं होना चाहिए। खुलासा नहीं हो जाना चाहिए कि हम डरे हुए हैं।

दूसरों को हमनें धोका देना है ये दिखाकर के कि हम डरते नहीं हैं और भीतर ही भीतर दिल सूपक, सूपक, सूपक! विचारणीय है कि हमें डर भीतर क्यों बनाकर रखना है, बसा के रखना है? क्योंकि हमारे ज़्यादातर सुखों के साथ वो डर अनिवार्य है। उस डर को तुम हटाओगे तो तुम्हारी कई सुख-सुविधाएँ हट जाएँगी।

बात समझ में आ रही है?

आप ज़्यादातर कामों को ही ले लीजिए न! बहुत सारे काम ऐसे हैं, नौकरियाँ ऐसी हैं जिनमें आपको मुनाफ़ा या तनख़्वाह ही इस शर्त पर मिलती है कि तुम फ़लाने व्यक्ति से या व्यवस्था से डरकर रहोगे। अपने वो डर छोड़ा नहीं कि अपनी तनख़्वाह भी छूट जाएगी।

बात समझ रहें हैं?

तो माने डर का सीधा नाता किससे है? सुख से और पैसे से सुख मिलता है। तो इसलिए हम डर को त्यागना नहीं चाहते। हमें पता है कि डर अगर हमने छोड़ दिया तो डर से मिलने वाली बहुत सारी जो हमें जो सुख-सुविधाएँ हैं वो भी छूट जाएँगी।

बेटे को पता है कि बाप ग़लत जीवन जी रहा है, बेटे को पता है बाप व्यापार में कई तरह की धांधली कर रहा है, बेटे को पता है बाप माँ के साथ दुर्व्यवहार करता है, बेटे को ये भी पता है कि बाप का मन कई तरीक़ों से संक्रमित है, विकृत है; पर बेटे ने ये बात जाकर के बाप से साफ़-साफ़ बोल दी तो भय है बेटे को कि बाप से जो सुविधा मिलती है और जो पैसा मिलता है वो बंद हो सकता है।

समझ रहे हो बात को?

तो बेटा इस भय के कारण कुछ बोलेगा नहीं और इसी भय के कारण इस बेटे की सुविधाएँ क़ायम रहेंगी। लगातार उसको मिलतीं रहेंगी। तो भय अगर उतनी ही बुरी चीज़ होती जितनी कि हमें बतायी जाती है हर आदमी कहता है, ‘नहीं, मुझे डरना पसंद नहीं है, मैं डरकर नहीं रहना चाहता।’ अगर हमें डर इतना ही नापसंद होता तो हमनें उसे कब का त्याग दिया होता।

डर हमें वाक़ई नापसंद है नहीं क्योंकि डर के एवज में हमें मिलतीं हैं सहूलियतें। समझ रहे हो? तो डर का भीतर रहना हमारे लिए हो गया अनिवार्य। डर का भीतर रहना अनिवार्य हो गया तो फिर ये भी ज़रूरी हो जाता है कि डर के ऊपर, क्या लेप लगाया जाए? कॉन्फ़िडेंस का।

तो इन बातों का अंतर्संबंध आप समझ पा रहें हैं? डर है इसीलिए कॉन्फ़िडेंस की ज़रूरत है। कॉन्फ़िडेंट लोगों को देखकर के उनके बड़े प्रशंसक मत बन जाया करो कि देखो, क्या चाल है इसकी! क्या कॉन्फ़िडेंस है इसका! न।

जो वास्तव में भयहीन होते हैं, जो वास्तव में भयमुक्त होते हैं वो कॉन्फ़िडेंट नहीं होते। उनकी बातचीत में, उनके चेहरे में, उनके व्यवहार में आपको सहजता मिलेगी, आत्मविश्वास नहीं।

आत्मविश्वास तो एक तरह का अहम्-विश्वास है, जिसको आप आत्मविश्वास कह रहे हैं उसमें आत्म माने आत्मा नहीं होता। उसमें आत्म माने अहम् होता है।

तो जी सही, खरा, ईमानदार आदमी होगा उसमें आप कॉन्फ़िडेंस या आत्मविश्वास नहीं पाएँगे। उसमें आप क्या पाएँगे? सहजता पाएँगे। कॉन्फ़िडेंस और डिफिडेंस (संशय) ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

समझ में आ रही है बात?

जहाँ कॉन्फ़िडेंस होगा बाहर–बाहर, वहाँ डिफिडेंस होगा अंदर–अंदर। ये दोनों अलग–अलग चाल ही नहीं सकते। सहजता कोई सिक्का नहीं है, सहजता का कोई दूसरा पहलू नहीं होता।

सहजता माने सहजता। सहजता माने जैसे अंदर वैसे बाहर। अंदर-बाहर में कोई फ़र्क़ नहीं है कि बाहर कॉन्फ़िडेंस भीतर डिफ़ेडेंस। बाहर निर्भयता और भीतर भय ही भय; न।

और सहजता आक्रामक नहीं होती। डर हमेशा आक्रामक होता है। जब आदमी डरा होता है भीतर ही भीतर तो वो बाहर कैसा हो जाता है? आक्रामक हो जाता है। इसीलिए कॉन्फ़िडेंस में हमेशा एक अग्रेशन (आक्रामकता) होता है एक आक्रामकता होती है।

आप कॉन्फ़िडेंट आदमी को देखिएगा, उसमें एक हमेशा आप पाएँगे, अग्रेशन। वो आप पर चढ़ने को तैयार रहेगा, उसकी आवाज़ ऊँची होगी, इन्हीं सब बातों से तो पता चलता है की वो कॉन्फ़िडेंट है।

उसकी चाल देखिएगा, वो अपने अनावश्यक रूप से कंधे पीछे को फेंककर के चल रहा होगा, छाती आगे फेंककर चल रहा होगा। जहाँ ज़रूरत नहीं होगी वहाँ भी वो अपनी ठुड्डी ऊपर करके बात करेगा।

ये क्या है? ये आक्रामकता है, ये अग्रेशन है। लेकिन ये दुनिया के बाज़ार में बिकता है। लोग कहते हैं वाह ये आदमी है, ये नहीं डरता किसीसे और वो बहुत डरता है भाई, वो बहुत डरता है तभी तो इतना प्रदर्शन कर रहा है निडर होने का।

जो वास्तव में भययुक्त है वो पानी जैसा हो जाता है। वो अपना काम कर रहा है। उसे लड़ने-झगड़ने की कोई बहुत ज़रूरत ही नहीं। बहता पानी देखा है? उसके रास्ते में पत्थर आ जाए, वो क्या करता है? भई! मैं तो आगे बढ़ूँ। कोई मतलब नहीं।

और पत्थर से आप उसका रास्ता ही रोक लीजिए तो कुछ देर बैठा रहेगा, बैठा रहेगा फिर उसका तल उठेगा, उठेगा और पठार को लाँघ जाएगा। वो कहेगा बग़ल से नहीं तो ऊपर से। पर उसकी कोई रुचि नहीं है कि वो जाकर पत्थर पर वार करे, हथौड़ा लेकर के; कहे कि तुम अपना काम करो, मैं अपना काम करूँ।

तो सहजता में किसी तरह की हिंसा नहीं होती। सहजता पौरूष प्रधान नहीं होती।

प्रेमचंद का उपन्यास है, ‘कर्मभूमि’ मेरे विचार से, जहाँ उन्होंने कहा था कि सहजता स्त्रैण होती है और व्यक्ति का मानसिक रूप से जैसे-जैसे विकास होता है उसमें परिपक्वता आती है। उसकी हिंसा, उसकी आक्रामकता जो आमतौर पर पौरुष के सब लक्षण माने जाते हैं वो उसमें कम होने लगते हैं और स्त्रैण लक्षण और स्त्रीत्व के लक्षण उसमें बढ़ने लग जाते हैं।

क़रीब-क़रीब उनका आशय इसी सहजता से है कि लड़ने-भिड़ने में, दूसरों पर अपनी धौंस चलाने में, दूसरों पर अपना एक गहरा प्रभाव छोड़ने में अपनी रुचि कम हो जाती है।

बात समझ रहें हैं?

आपको ये लगता ही नहीं है कि पकड़कर मैं किसी की जल्दी से बाँह मरोड़ दूँ, किसी को दबा दूँ, किसी को झुका दूँ। आप दूसरे को डराने की कोशिश करना बंद कर देते हैं।

क्यों बंद कर देते हैं? क्योंकि अब आप ख़ुद ही भीतर से डरे हुए नहीं हैं। जो डरा हुआ नहीं है वो दूसरों को डराने की कोशिश भी नहीं करेगा।

नानक साहब का वचन याद है न? कि मुक्त-जन कौन हैं? जो न डरता है, न डराता है। न डरता है, न डराता है; और दोनों बातें साथ-साथ चलेंगीं। जो डरा है वो डराएगा भी। किसी को किसी को डराता देखें तो समझ लीजिएगा कि वो डरा हुआ है।

कौनसा प्रसिद्ध जर्नल (पत्रिका) था अभी याद नहीं आ रहा है, पर उसका कथन ये था कि अगर तुम ये जानना चाहते हो कि तुम्हारा दुश्मन किस चीज़ से सबसे ज़्यादा डरता है, तो तुम ये देखो कि वो तुम्हें डराने के लिए कौनसी युक्तियाँ लगा रहा है।

उन्होंने कहा, ‘अगर तुम ये जानना चाहते हो कि तुम्हारा दुश्मन किस चीज़ से डरता है तो देखो कि वो तुम्हें कैसे डरा रहा है। वो तुम्हें जैसे डरा रहा है वो उस चीज़ से ख़ुद भी बहुत डरता है। तभी तो तुम्हें वो ऐसे डरा रहा है।

सहजता दूसरी चीज़ है। तो सहजता माँगिए, आत्मविश्वास नहीं। आत्मविश्वास माँगने का मतलब ही यही है कि आपने अपने डर के ऊपर बस एक आवरण माँग लिया। आप कह रहें हैं — डर क़ायम रहे, डर को लपेट दो किसी सुनहरे कपड़े में। तो बाहर-बाहर चकाचौंध रहेगी। भीतर क्या है? डर। और बाहर सुनहरी आभा। ये नहीं चलेगा।

डर छोड़ना आसान है, बस डर के साथ जो सुख सुविधाएँ मिलती हैं उनका लालच थोड़ा छोड़ दीजिए। उन सुख-सुविधाओं का दाम बहुत कम है, उसके बदले में जिस डर के साथ आप जी रहें हैं वो बहुत बड़ी क़ीमत आप अदा कर रहें है। ज़िंदगी बर्बाद कर रहें हैं। ठीक है?

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=EUYGrL7HKS8

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