आचार्य प्रशांत: ‘भगवान का भय’, से क्या आशय होता है? समझना। एक भय होता है, जो संसार को ना पाने का होता है। भय का अर्थ है, ‘कुछ छिन रहा है’। डर एक सोच है।
प्रश्नकर्ता: कुछ खो जाने का डर।
आचार्य: एक भय होता है कि संसार छिन रहा है; और एक भय होता है कि ‘सत्य’ छिन रहा है। हैं दोनों भय ही। दोनों में यही लग रहा है कि कुछ छिन रहा है। ज़्यादातर हमें जो भय होता है, वो संसार के ही छिनने का होता है। कोई-कोई होता है जिसके भीतर, जिसके मन में, ये भाव उठता है कि, "ज़िंदगी व्यर्थ जा रही है। कुछ ही पल और शेष बचे हैं, और सत्य को नहीं पाया। जीवन बर्बाद कर दिया। जिये तो क्या जीये?" ये डर कहलाता है, ‘भगवान का डर’। सत्य को पाए बिना ही यह जीवन, जिसको मैं अपना सीमित जीवन जानता हूँ, सत्य को पाए बिना ही ये जीवन ख़त्म हो जाएगा। ये कहलाता है, ‘भगवान का डर’।
ठीक है? ये आपका साधारण डर नहीं है। यह आपका साधारण भय नहीं है।
प्र: क्या ये स्मरण करने जैसा है?
आचार्य: ये स्मरण जैसा ही है। अंतर बस ये है कि जिसे हम, ‘सुरति’ कहते हैं, उसमें मन, प्रेम-पूर्वक याद करता है; और जिसे हम, ‘भगवान का डर’ कहते हैं, याद उसमें भी करता है, पर इस डर से याद करता है कि ‘तुझे नहीं पाया रे!' एक याद करना ये है कि तू कितना प्यारा है, कितनी शांति देता है, कितना कुछ मिला है तुझसे; एक याद करना ये हुआ। दूसरा याद करना ये हुआ कि "मुझे तो तुझसे मिला है, पर मैं अनाड़ी ही रह गया। तू मुझे सदा याद करता रह गया। तूने कभी नहीं भुलाया, और मैंने नहीं याद किया तुझे", ये दूसरा भय है। इसे भगवान का भय कहते हैं।
ठीक है?