हम बड़े लोगों से अपनी तुलना क्यों करना चाहते हैं?

Acharya Prashant

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हम बड़े लोगों से अपनी तुलना क्यों करना चाहते हैं?

प्रश्नकर्ता: हम ऐसा क्यों करते हैं कि बड़े लोगों से हम अपनी तुलना करते हैं जैसे संत कबीर हो गए, आप हो गए, कृष्णमूर्ति जी हो गए, जबकि हमको पता है कि हमारी औकात क्या है, फिर भी?

आचार्य प्रशांत: इसीलिए, क्योंकि तुम्हें पता है कि तुम्हारी क्या औकात है। तुम्हारी औकात उन लोगों से ज़रा भी कम नहीं है जिनसे तुम अपनी तुलना कर रहे हो, जिनका तुम नाम ले रहे हो, इसीलिए यह तुलना सार्थक है, किया करो।

हम तुलना में गड़बड़ कर देते हैं न, एक दफ़े और मैंने खूब बोला था इसपर। हम तुलना करीब-करीब अपने जैसों से ही कर लेते हैं, और अपने-आपको यह सांत्वना दिए रहते हैं कि, "देखो! हम जिससे तुलना कर रहे हैं उससे प्रतिस्पर्धा करके उसकी बराबरी कर सकते हैं।" उनसे तो हम तुलना करते ही नहीं जो वास्तव में बहुत आगे के हैं, आगे के ही नहीं, ऊपर के हैं।

उनसे तुलना करनी ज़रूरी है, महत्वाकांक्षा के कारण नहीं, इसलिए क्योंकि वो जहाँ के हैं वहाँ का होना तुम्हारी भी नियति है। मार्मिक रूप से तुममें और उनमें कोई अन्तर थोड़े ही है भाई! बल्कि उनको बार-बार यह कह करके कि वो बहुत ये हैं वो हैं, कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम अपने आपको यह मौका दे रहे हो कि, "मुझे तो मेरे जैसा ही रहना है"? अभी बीच में तुम बोल भी गए थे, "हमें हमारी औकात पता है" यह अधूरी बात मत बोला करो। जब भी कहो "हमें हमारी औकात पता है", साथ-ही-साथ यह भी बोलो, "हमें हमारी संभावना भी पता है"। इन दोनों में से एक भी बात अगर छोड़ दी तो अनर्थ होता है।

जिसको अपनी औकात पता है—औकात माने? आज की स्थिति, यथार्थ—जिसको अपनी औकात पता है, लेकिन बस औकात पता है और अपनी संभावना भूल गया है, वह आगे ही नहीं बढ़ पाएगा कभी। वह यह तो जान जाएगा कि वह बुरी हालत में है लेकिन वह उसी बुरी हालत को अपनी नियति समझ लेगा क्योंकि वह अपनी संभावना भूल गया है। वह कहेगा, "मैं छोटा हूँ, छोटा ही रहूँगा। कमज़ोर हूँ, कमज़ोर ही रहूँगा।" वह कभी बेहतर नहीं हो पाएगा।

और अब उस आदमी की बात करो जिसको अपनी संभावना तो पता है, जो बार-बार बोलता है, ‘अह्म ब्रह्मास्मि’, लेकिन अपनी औकात से बेखबर है, इस आदमी में भी कोई सुधार नहीं हो पाएगा। कहो क्यों? इसे सुधार की कोई ज़रूरत ही नहीं, यह तो पहले ही ‘अह्म ब्रह्मसमी’ है। यह तो कह रहा है, "मैं तो अभी जैसा हूँ वैसा ही बिलकुल संतो, ऋषियों के बराबर ही हूँ, मुझे ज़रूरत क्या है फिर?"

तो दोनों ही बातें याद रखनी होती हैं, अपनी औकात भी और अपनी संभावना भी। औकात याद रखने से विनम्रता रहती है और संभावना याद रखने से हौसला रहता है। हमें विनम्रता भी चाहिए और हमें संकल्प भी चाहिए, हौसला भी चाहिए। दोनों में से एक भी अगर नहीं है तो आगे नहीं बढ़ पाओगे। और इन दोनों को एक साथ याद रखना, इन दोनों बातों को एक ही साँस में कहना।

थोड़ा कठिन काम है, एक ही साँस में कहना कि, "मैं बहुत गिरा हुआ हूँ लेकिन ऐसा रहूँगा नहीं। साफ कह रहा हूँ, बिलकुल मान रहा हूँ, दिल पर हाथ रख कर मान रहा हूँ कि मैं बहुत गिरा हुआ हूँ लेकिन संकल्प पूरा है कि ऐसा रहूँगा नहीं, मैं जानता हूँ कि मेरी मंज़िल कहीं और है।" इन दोनों बातों को एक साथ कहना बड़ा मुश्किल है क्योंकि इन दोनों बातों को एक साथ कहा तो जानते हो क्या आ जाता है? क्या? ज़िम्मेदारी।

ज़िम्मेदारी का क्या मतलब होता है? मेहनत। वो कौन करना चाहता है? यह कहना भी ठीक है कि, "हम गिरे हुए हैं और गिरे हुए ही रहेंगे, अब मेहनत क्या करनी हम तो गिरे हुए ही रहेंगे।" यह कहना भी ठीक है कि, "आत्मा तो एक ही होती है न और सब में वही आत्मा विद्यमान है, अब भी मेहनत करने की क्या ज़रूरत है?" लेकिन यह कहना कि, "सच हमारा कुछ और है और हम फिज़ूल ही अभी गिरे हुए हैं", यह बात अब तुम्हारे लिए ज़िम्मेदारी माने धर्म माने कर्तव्य बन जाएगी, यह तुमसे कुछ करवाएगी। कर्तव्य माने जानते हो क्या होता है? वह जो करना ज़रूरी है, अब तुम्हें सही कर्म करना पड़ेगा और सही कर्म करने में बड़ी जान लगती है, कौन लगाए? आदमी मेहनत से घबराता है।

तो एक तरफ तो बड़ी विनम्रता हो, बड़ी विनम्रता। कृष्णों, कबीरों के आगे लोट जाया करो और दूसरी ओर भीतर एक ठसक भी होनी ज़रूरी है, "हैं तो हम भी वही!" दोनों बिलकुल साथ-साथ रहें, कोई भी कम ज़्यादा ना हो। खासतौर पर जो दूसरी चीज़ है वह तो बिलकुल ज़्यादा नहीं होनी चाहिए, कौनसी? अह्म ब्रह्मास्मि, आई एम ऑलरेडी दैट , अरे मैं वही तो हूँ। और पान की पीक मारी पुच्च, मैं वही तो हूँ।

प्र: जैसा आपने बताया, ‘पान की पीक मारी' ऐसा सच में मेरा एक दोस्त है, ऐसे ही करता है। दिखाई दिया मुझे वह, आपने बोला तो वह नज़र के सामने आ गया।

आचार्य: बहुत सुख मिलता है इसमें और अध्यात्म की बहुत बड़ी-बड़ी सभाएँ हैं, दुकाने हैं जहाँ पर यही सुख बाँटा जा रहा है कि, "तुम अरे तुम! तत्वमसि: वही तो हो तुम।" और ये बैठे-बैठे, "वाह! वाह!" और जो बगल वाला है वह थोड़ा मायूस हो गया। तत्त्वमसि: तुम भी वही हो। बोलो और किस-किस को, सब वही हो और सब बाहर निकलकर के एकदम ब्रह्म-पखेरू हुए पड़े हैं, उड़ रहे हैं।

इससे ज़्यादा भयानक बात नहीं होती जब एक आदमी जो अपने अहंकार के कीचड़ से बिलकुल लिपटा हुआ है, वो बड़े गर्व के साथ कहता है ‘शिवोहम'। रोंगटे खड़े हो जाते हैं यह सुनकर, रीढ़ पर झुरझुरी उतर जाती है, कि किसने बोल दिया शिवोहम।

रावण को बहुत पसंद था कहना अह्म ब्रह्मास्मि, अरे वह तो फिर भी रावण था उसको थोड़ा बहुत शोभा देता था, रावण था भाई रावण! इन्द्र और बाकि सब देवता वगैरह पकड़कर उसने अपने कारागृह में ठूस रखे थे, रावण था। तो रावण को तो एक बार फिर भी इस बात की रियायत दे दो कि भाई बोल गया धोखे से अह्म ब्रह्मास्मि। यहाँ अग्गुलाल-पिच्छूलाल, वो गए कहीं दो दिन का कुछ प्रवचन सुन आए और वह बता रहे हैं क्या? अह्म ब्रह्मास्मि।

वैसे ही एक और चलन चलता है कि जो हो रहा है सब ठीक है, सब ठीक है। अच्छा बुरा कुछ होता ही नहीं, जो जैसा है बिलकुल सही है। जो जैसा है बिलकुल सही है तो फिर तो किसी को कुछ करने की ज़रूरत ही नहीं तो हमें ज्ञान भी क्यों दे रहे हो? जो जैसा है बिलकुल सही है तो जो अंधेरे में है उसे अंधेरे में रहने दो न, उसे ज्ञान क्यों समझा रहे हो? उसका अंधेरा भी सही है फिर तो।

ये मूर्खतापूर्ण बाते हैं इनसे बचा करो। तो कहते हैं, "नहीं-नहीं-नहीं! बुरा यह है कि कुछ लोग इस बात को जानते ही नहीं कि न कुछ अच्छा है, न कुछ बुरा है।" अरे जब कुछ न अच्छा है, न बुरा है तो यह भी बुरा कैसे हो गया कि कुछ लोग इस बात को नहीं जानते कि कुछ न अच्छा है, न बुरा है? और दूसरी बात अगर यह बुरा है भी और तुम जानते हो कि न कुछ अच्छा है, न बुरा है तो तुम काहे को भाषण दे रहे हो? तुम तो जानते हो न कि न कुछ अच्छा है, न बुरा है, वह नहीं जानता बेचारा उसे पड़ा रहने दो। उसका जो दुःख है फिर वह भी तो बुरा नहीं हुआ न?

तुम कहते हो कि, "नहीं हम तो करुणा के नाते बताते हैं।" जब कुछ न अच्छा है, न बुरा है तो उसका दुःख भी बुरा नहीं हुआ, पड़ा रहने दो न उसे। जानते हो ये जो न कुछ अच्छा है, न बुरा है यह भी क्या है? यह भी ज़िम्मेदारी से बचने का बहाना है, क्योंकि मान लिया कि निश्चित रूप से कुछ है जो बुरा है तो ज़िम्मेदारी आ जाती है न कि कुछ बुरा है तो उसे बदलो। जिसके लिए न कुछ अच्छा है, न बुरा है उसको सच बोलते है, उसको आत्मा बोलते हैं। उसके लिए कुछ है ही नहीं तो अच्छा-बुरा क्या होगा। पर तुम आत्मा हो क्या?

तुम्हारे लिए तो निश्चित रूप से कुछ अच्छा है, और कुछ बुरा है, कुछ शुभ है, कुछ अशुभ है। तुम तो अहंकार हो, जो कुछ तुम्हें मुक्ति की ओर ले जाए वह अच्छा है, जो तुम्हें मुक्ति से दूर करे वह बुरा है, सीधी सी बात। लेकिन बेकार का वितंडावाद! “कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। यू जस्ट रिलैक्स इन यूअर प्योर इनर सेल्फ, बियोंड ऑल गुड एंड बैड (अच्छे-बुरे से अलग होकर अपनी शुद्ध आत्मा में विश्राम करो)।” रिलैक्स इन प्योर रियल सेल्फ ! इतना सस्ता है?

जहाँ तुमने कह दिया कि तुम तो बस अपने आंतरिक सत्य में विश्राम करो, वहाँ वह विश्राम तो ज़रूर करने लगेगा। विश्राम शब्द ही उसे बहुत पसंद है। कहेगा, "बढ़िया, यह बढ़िया बात बताते हैं कि आराम करो", वह आराम तो वह ज़रूर करेगा पर वह आराम कौनसा आराम होगा? नशे का आराम, अज्ञान का आराम, जैसे तमसा की बेहोशी। चित्त पड़ा हुआ है एक शराबी। वह कर तो रहा है आराम और उसको आप कह रहे हैं कि जस्ट रिलैक्स इन यूअर प्योर सेल्फ !

क्यों उसको बेवकूफ़ बना रहे हो? वह बीमार है उसे इलाज़ चाहिए, उसे सांत्वना दे रहे हो तुम, उसे मीठी गोलियाँ चटा रहे हो तुम। आपको भी मिलती होंगी चाट मत लीजिएगा। नीम बेहतर है, कड़वी होती है लेकिन लाभ देती है।

प्र२: कल हम पढ़ रहे थे कि सोहम के भाव में मन को विलीन करो तो उसका फिर क्या अर्थ हुआ?

आचार्य: मन को करो न, बढ़ाओ। तीन बाते वहाँ कही गईं थी अगर याद हो तुम्हें; शून्य, लय फिर विलय, इनको समझो। विलीन की तुमने बात की वह होता है विलय, विलय से पहले बाकी दोनों आते हैं न, क्या? शून्य और लय। शून्य का मतलब होता है जिन सब धन्धों में उलझे हो, जिन बातों को तुम बढ़ा-चढ़ाकर महत्व देते हो, पहले उन बातों को जानो कि उनका शून्य महत्व है। यह हुई पहली चीज़, पहला चरण। शून्य, शून्य साधना, कि, "मैं जो कुछ भी कर रहा हूँ पहले तो देखूँ कि काम का है नहीं। मेरे जितने धंधे चल रहे हैं, जो-जो बाते मुझे बहुत बड़ी लगी हैं मैं साफ-साफ देखूँ कि वह मुझे कुछ फ़ायदा दे नहीं पाई, उनसे कितना लाभ हुआ? शून्य।" यह शून्य साधना है।

लय का मतलब क्या हुआ? लय का मतलब हुआ कि जैसे तुम शक्कर का एक ढेला लो और उसको लीन कर दो, किसमें? पानी में। तो वो पानी में है और वो सोख रहा है पानी को लेकिन अभी वह अपनी अस्मिता बचाए हुए है, अस्मिता माने अपनी हस्ती बचाए हुए है, यह लय हुआ। और विलय क्या हो जाता है फिर? कि वह धीरे-धीरे करके घुल ही जाता है, वह विलीन हो गया, यह विलय होता है।

लय का मतलब होता है किसी महान की संगति में आओ और उसमें डूब जाओ और इतना समय दो उसको कि वह तुम्हें गला सके। अपने आपको उसकी संगति से ज़रा भी बाहर मत रखो। शक्कर के ढेले का जितना हिस्सा पानी की सतह से बाहर है उस हिस्से का क्या होगा? वह बचा रह जाएगा न? लय का मतलब है कि डूब ही गया।

और दूसरा उदाहरण लेकर लय को समझना चाहते हो तो लय वैसा हो जाएगा जैसे रेजोनेंस होती है न, कि वहाँ जो कंपन है, वही कंपन तुममें होने लगे। वहाँ माने? वह जो सही है, वह जो स्रोत है। वह जो इस लायक है कि उसकी संगति की जाए। उसका जो कंपन है वैसा ही तुम्हारा होने लगे, जैसे वह नाच रहा है वैसे ही तुम नाचने लग जाओ। जिसको कहते हैं मुरशिद से एक हो जाना।

बिना पूछे अब तुम्हें उसका आदेश मिलने लग गया, यह लय है। वह बोल भी नहीं रहा और तुम उसकी बात समझ रहे हो। जैसे बुद्ध किया करते थे न, बहुत दफ़े ऐसा करते थे। लोग आते थे और उनसे कहते थे कि, "बता दीजिए कुछ ज्ञान", तो वह कहते थे, "बैठ जाओ।" और अपना बैठाए रहें, किसी को घंटों बैठा लिया, किसी को हफ्तों भी बैठा लिया और बोलें उससे कुछ नहीं। और हफ्तेभर बाद, पंद्रह दिन बाद वह आदमी बिलकुल तृप्त होकर के कहे, "सब जान गया!" यह लीनता का उदाहरण है, लीनता का, कि बात कही कुछ नहीं जा रही है पर कुछ ऐसा हार्दिक संबंध बैठ गया है कि सम्प्रेषण हो जा रहा है, आदान-प्रदान हो जा रहा है।

और फिर विलय जिसमें कि वह जो दूसरे के साथ काँपता था वह बचा ही नहीं, वह काँप-काँप कर झड़ गया। पहले तुम काँपते थे बुद्ध के साथ लेकिन थे तो तुम ही न? काँप उनके साथ रहे थे लेकिन अपनी हस्ती को बचाकर के काँप रहे थे। अब काँप-काँप कर तुम्हारी हस्ती ही झड़ गई, गिर गई; शक्कर का जो ढेला था वह पूरा ही बह गया यह विलय कहलाता है, मिट गए। सबमर्ज (आंशिक-विलय) होकर फिर मर्ज (घुल) ही हो गए।

वह यूँ ही नहीं हो जाता, मेहनत लगती है न? मिटना किसको पसंद है! तो जीवन मुक्त गीता जब आपसे कह रही थी कि मन को सोहम तक ले जाना है, तो जो बात इतने में कह दी कि मन को सोहम तक ले जाना है वह ले जाना लंबा काम है, श्रम-साध्य काम है। पहले देखना होता है हम जो कुछ हैं उसमें कोई दम नहीं है, वह शून्य है। उसके बाद उसके पास जाना होता है जो दमदार है और उससे बिलकुल एक हो जाना होता है।

शून्य, लय, फिर विलय होकर के तुम सोहम कह सकते हो। तब तुमको अधिकार मिला, कह दो वह मैं हूँ, सोहम। उससे पहले मत कह देना, "शून्य कर लिया? नहीं किया। लय हुए हो? नहीं हुए। लेकिन सोहम!" जिसको देखो वही 'सोहम' है, यह बात तो ठीक नहीं है, है क्या ठीक? अभी तो तुम्हें हक़ नहीं मिला न सोहम बोलने का। न शून्य हुए, न लय हुआ तो सोहम कैसे कह दिया भाई?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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