आचार्य प्रशांत: पृथ्वी को बचाने के लिए बिल्कुल जमीनी बात बता रहा हूँ। पृथ्वी को बचाने के लिए जो यूनाइटेड नेशंस की सीओपी होती है (कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़), उसने बहुत साफ-साफ साइंटिफिक डेटा के साथ यह शर्त रखी थी कि हमें अपने कार्बन एमिशंस इतने कम करने हैं कि 2030 तक भी जो ग्लोबल टेंपरेचर है, वह 1.5 डिग्री से अधिक नहीं बढ़ना चाहिए।
2025 आ गया है। और हम जो 1.5 डिग्री का थ्रेशहोल्ड था, जो सीमा रखी गई थी, हम उसको 2025 में ही लांघ चुके हैं। और यह आने वाले बहुत-बहुत बड़े विनाश का संकेत है। तो उसके लिए जो "ऑपरेशन 2030" है, उसी की बात हो रही है, क्योंकि हमने अपने लिए यह लिमिट तय की थी कि 2030 तक भी ऐसा न हो। इतने एमिशंस हैं, उनको रोक कर के रखना है। वह तो हमने टेंपरेचर की सीमा 2025 में ही लांघ दी है।
मैं इसमें थोड़ा-सा आपको और विस्तार से बताता हूँ। हमने — पूरी दुनिया ने, सब देशों ने मिलकर के — ख़ुद से यह वादा किया था कि 2019 में जितने ग्लोबल कार्बन एमिशंस हैं, कार्बन डाइऑक्साइड का जो उत्सर्जन है, हमें उसको 2030 तक 43% कम कर देना है। 2019 की तुलना में हमें 2030 तक 43% की कटौती करनी थी। अब 2019 से 2030 के बीच में 2025 तो आ चुका है, और वह 43% कम होने की जगह शायद थोड़ा बढ़ गया है, या उतने का उतना ही है, या अगर कम हुआ भी है तो बस 2% ही कम हुआ है।
तो हम बिल्कुल भी गंभीर नहीं हैं अपने ही किए गए वादों को लेकर। और जो 1.5 डिग्री तापमान की सीमा हमने तय की थी, वह यूं ही नहीं रख दी गई थी। यह 1.5 डिग्री कोई रैंडम नंबर नहीं है। असल में, 1.5 डिग्री तापमान की वृद्धि बहुत ख़तरनाक एक आंकड़ा है। क्यों? क्योंकि जब पृथ्वी का औसत तापमान सामान्य से 1.5 डिग्री से अधिक हो जाता है, तब बहुत ही ख़तरनाक किस्म के फीडबैक साइकिल्स सक्रिय हो जाते हैं।
फीडबैक साइकिल का मतलब यह होता है कि अब आप और ज़्यादा अतिरिक्त कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित (एमिट) नहीं भी करोगे, तो भी अब ऐसे चक्र चल पड़े हैं, ऐसे साइकिल्स सक्रिय हो गए हैं जो ख़ुद ही अब कार्बन डाइऑक्साइड को वातावरण में बढ़ाते रहेंगे। और उन चक्रों को, उन साइकिल्स को अब इंसान रोक नहीं सकता।
वे चक्र सेल्फ-सस्टेनिंग हैं, सेल्फ-रीइनफोर्सिंग हैं, और यदि वे सक्रिय हो गए तो इसका मतलब यह है कि अब इस पृथ्वी का, हमारे ग्रह का तापमान अनियंत्रित गति से बढ़ता ही जाएगा, बढ़ता ही जाएगा।
उसको रोका नहीं जा सकता। यह ठीक वैसा ही है जैसे कोई न्यूक्लियर चेन रिएक्शन होता है। हम उस न्यूक्लियर चेन रिएक्शन को किसी तरीके से रोकने के लिए कह रहे थे कि भाई, 1 डिग्री पर रोको, 1.5 डिग्री पर रोको, अधिक से अधिक 2 डिग्री पर रोको। और 2 डिग्री भी बहुत ख़तरनाक था।
लेकिन वह 1.5 डिग्री, जिसको हम 2030 तक रोकना चाहते थे, वह 1.5 डिग्री हमने अपनी लापरवाही और असावधानी के चलते अभी 2025 में ही लांघ दी है। और यह देखते हुए “ऑपरेशन 2030” चलाया जा रहा है, जिसका उद्देश्य यह है कि आम आदमी में चेतना जगाई जाए — कि देखो, तुम, तुम्हारा घर, तुम्हारा ग्रह विनाश की ओर कितनी तेज़ी से बढ़ रहा है। और तुम गृहस्थ हो, तुम्हारे पास अपनी ज़िन्दगी है। उसके बाद तुम्हारे बच्चों की ज़िन्दगी है। तुम अपने बच्चों के लिए एक ऐसा ग्रह छोड़कर जा रहे हो जहां आफ़तें ही आफ़तें होंगी।
असल में, आप अभी अगर जाएंगे और संयुक्त राष्ट्र (United Nations) की रिपोर्ट्स पढ़ेंगे—या रिसर्च रिपोर्ट्स देखेंगे — या सीधे-सीधे Chat GPT से भी बात करेंगे और पूछेंगे कि पूरी दुनिया के सामने इस वक़्त सबसे बड़ा ख़तरा क्या है? तो आपको सिर्फ़ एक जवाब मिलेगा — क्लाइमेट चेंज।
लेकिन मीडिया इसको इतना कवर नहीं करता है। आम जनता में यह बात पहुँचाई नहीं जाती है। इस मुद्दे पर न तो टीवी और न ही प्रिंट मीडिया में बहुत कवरेज मिलती है, न इस मुद्दे पर फिल्में बन रही हैं। सोशल मीडिया पर भी ना तो लोग इसको डालते हैं, ना ही एल्गोरिदम इसको सपोर्ट या प्रमोट करता है। तो यह जो लोगों में चेतना की कमी है — लोग समझ ही नहीं रहे हैं कि हम बिल्कुल विनाश के मुहाने पर खड़े हुए हैं।
हम इसको एंथ्रोपोसीन (Anthropocene) बोल रहे हैं। यह सिक्स्थ मास एक्सटिंक्शन (Sixth Mass Extinction) का दौर है। लोगों को यह बात समझ में ही नहीं आ रही है। हम छोटे-छोटे दूसरे मुद्दों में उलझे हुए हैं। पृथ्वी पर पाँच बार पहले भी मास एक्सटिंक्शनस हो चुके हैं, और वे भी इसी वजह से हुए थे कि वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड बहुत ज़्यादा बढ़ गई थी। तब क्या हुआ था? कि लगभग सारी प्रजातियाँ पृथ्वी से बिल्कुल समाप्त हो गई थीं — लाखों सालों के लिए।
हम फिर से एक ऐसे ही 'मास एक्सटिंक्शन' फेज़ में अब प्रवेश कर चुके हैं। हम उसके मध्य में हैं बिल्कुल।
और उसको इस बार नाम दिया जा रहा है एंथ्रोपोसीन — एंथ्रोपो यानि मनुष्य का बनाया हुआ कि इस बार जो अब नाश आ रहा है, यह मनुष्य का बनाया हुआ है। हमने ख़ुद अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मार ली है। हम विनष्ट होने जा रहे हैं। और हम अपने विनष्ट होने से पहले न जाने कितनी और प्रजातियाँ — जितनी भी प्रजातियाँ हैं — हम उन सबको मारकर मरने वाले हैं। हम यही करने वाले हैं।
इतिहास में, इतिहास हमारे लिए पिछले कुछ हज़ार सालों की ही बात है — आदमी के इतिहास में इससे ख़तरनाक पल कभी नहीं आया। हम सोचते हैं कि आज से पहले जो महामारियाँ पड़ी हैं, बाढ़ है, सूखा है, युद्ध है — यह सब बड़ी-बड़ी बातें हैं। नहीं, वह सब कोई बड़ी बात नहीं है। जो आज हो रहा है, सन 2025 में — इससे भयानक ख़तरा हमारी प्रजाति और पूरे ग्रह के सामने कभी नहीं आया था। उस ख़तरे को चुनौती देने के लिए ही यह "ऑपरेशन 2030" है।
प्रश्नकर्ता: "सर, किस तरीके से अपने टीचिंग के द्वारा आप लोगों को बताएँगे कि यह कितना महत्त्वपूर्ण है, इसके बारे में बात करना और समझना?"
आचार्य प्रशांत: देखिए, कई स्तरों पर समझाना पड़ेगा। सबसे पहले तो लोगों को यह पता ही नहीं है कि यह एक मास एक्सटिंक्शन का दौर चल रहा है। मास एक्सटिंक्शन यानि सामूहिक विलुप्ति। “मरना” — एक बात होती है, और “विलुप्त”— बिल्कुल दूसरी बात होती है। विलुप्त का मतलब होता है कि एक इंसान या एक प्राणी नहीं — आपकी पूरी प्रजाति ही साफ हो जाने वाली है।
ज़्यादातर लोगों को तो यह बात पता ही नहीं है। जिनको थोड़ा बहुत आइडिया है भी, उनको लगता है — हाँ, कार्बन डाइऑक्साइड आ रही है, उससे तापमान बढ़ जाता है। उनको यह नहीं पता है कि यह जो कार्बन एमिशन्स हैं, इनके सोर्सेस क्या हैं — उनको नहीं पता।
जिनको यह भी पता है कि कार्बन एमिशन कहाँ से आता है — कि साहब गाड़ी चल रही है, उसमें से आ जाता है; कोयला जलाने से आ गया; डीज़ल जलाने से आ गया — उनको भी उसका जो बारीकी से डिस्ट्रीब्यूशन है, वह नहीं पता है।
वो नहीं जानते हैं, उदाहरण के लिए कि इलेक्ट्रिसिटी और हीट के बाद जो सबसे बड़ा सोर्स है कार्बन एमिशन का, वो है मांसाहार। कि आप जो यह जंगलों को काट-काट के जो खेत बनाए जाते हैं, और उन खेतों में फिर जो उगाया जाता है अन्न, ताकि मवेशियों को खिलाया जा सके, और फिर उन मवेशियों का मांस काटा जाता है, पहुँचाया जाता है — ये बहुत बड़ा कारण है। तो इस तरह की डिटेल्स लोगों को नहीं पता है।
और जो बहुत महत्त्वपूर्ण बात लोगों को नहीं पता है, वह यह है कि क्लाइमेट चेंज इस पृथ्वी पर अमीरों का लाया हुआ अभिशाप है। यह तो कोई भी नहीं जानता। देखिए, जितने कार्बन एमिशन होते हैं, जो दुनिया की 10% अमीर आबादी है, वो आधे से ज़्यादा कार्बन एमिशंस के लिए जवाबदेह है। दुनिया की जो शीर्ष 1% सबसे अमीर आबादी है, वो लगभग 1/4 कार्बन एमिशंस के लिए जवाबदेह है। और जो आम जनता है, पूरी दुनिया की — वो जो आखिरी 50% हुआ — वो सिर्फ़ 5% के लिए जवाबदेह है। और भारत की तो लगभग पूरी आबादी ही ग्लोबल बॉटम 50% में आती है। हम ये सब नहीं जानते हैं।
इसका आशय यह है कि हम जिनको अपना रोल मॉडल बनाते हैं, जिनको हम सक्सेस की प्रतिमूर्ति मानते हैं — हम सोचते हैं — मुझे ऐसा बनना है, मुझे भी अमीर होना है, मुझे भी सफल होना है। यही वो लोग हैं जिन्होंने हमारे घर में और इस पूरे ग्रह में आग लगा दी है। आप बात समझ रहे हैं? और यही वो लोग हैं जिनके हाथ में मीडिया भी है। यही वो लोग हैं जो सरकारों को कठपुतलियों की तरह नचाते हैं। चुनावों की फाइनेंसिंग करते हैं। ये सब बातें हम नहीं जानते हैं। हमें नहीं पता कि हमारे सामने जो आदर्श रखे गए हैं, वो आदर्श पुरुष ही हमारा काल बन गए हैं। हमें ये सब नहीं पता है।
चाहे वो कोई बिलेनियर हो, चाहे वो कोई सेलिब्रिटी हो, और चाहे वो कोई पॉलिटिशियन हो — ये सब लोग, जिनको हम आइडलाइज करते हैं और ऐडमायर करते हैं — यही वो लोग हैं जो हमारी मौत के लिए, विलुप्ति के लिए जिम्मेदार होने वाले हैं।
मैं आपको एक आंकड़ा देता हूँ — दुनिया के शीर्ष 1% अमीर लोगों ने जो एमिशंस किए हैं पिछले 10 साल में, 'कार्बन एमिशंस' — यह लगभग 13 लाख लोगों की मौत के जिम्मेदार हैं।
क्या यह बात आपको कहीं मीडिया वगैरह में पढ़ने को मिलती है? क्या इस मुद्दे पर कहीं कोई चर्चा हो रही है? और यह जो 1% लोग हैं जो एमिशंस कर रहे हैं — हम इनको कैसे देखते हैं? बिल्कुल रोमांच के साथ, आदर के साथ, प्रेम के साथ, आदर्श की तरह कि कितने अच्छे लोग हैं! यही वो लोग हैं जिन्होंने पिछले एक दशक में 1.3 मिलियन — 13 लाख मौतें हमें सौंप दी हैं। और इनका जो भोगने का रुख है, वह थमने का नाम नहीं ले रहा है। ये अभी और भोगे ही जा रहे हैं, और पूरी दुनिया को प्रेरित कर रहे हैं कि तुम भी कंज़्यूम करो, तुम भी कंज़्यूम करो।
देखिए, जो पूरी 'क्लाइमेट की क्राइसिस' है न — यह 'कंज़म्प्शन की क्राइसिस' है। और आप और ज़्यादा 'कंज़म्प्शन' इसलिए करना चाहते हो, भोग इसलिए करना चाहते हो, क्योंकि आपको यह दिखाई देता है कि वो आदमी है, वो इतना 'कंज़म्प्शन' कर रहा है और वो इतना खुश है, और वो इतना भला है, और उसको इतने सम्मान भी मिल रहे हैं। तो 'कंज़म्प्शन' का संबंध 'हैप्पीनेस' से और 'रिस्पेक्ट' से जुड़ गया है।
हम और कंज़म्प्शन को पर्सनलाइज़ करते हैं। कंज़म्प्शन की मूर्ति बनते हैं। पर्सनिफ़ाइ करने वाले वो लोग होते हैं। हम आर-पार नहीं देख पा रहे हैं। हम बात को समझ नहीं पा रहे हैं। ये चीज़ें हैं जो आम जनता के सामने लानी पड़ेंगी — और नहीं लाएँगें, तो हम जैसी ज़िन्दगी जी रहे हैं, जीते रहेंगे। हमारे लक्ष्य वैसे ही बने रहेंगे। और हम अब एक बिल्कुल समझिए रपटीली ढलान पे हैं — और बहुत तेजी से अपने अंत की ओर बढ़ रहे हैं। ये नहीं कि उसमें अभी सैकड़ों साल लगेंगे — यह मामला अब कुछ सालों का, कुछ दशकों का है।
हर साल हालत और ज़्यादा और ज़्यादा खराब होती जा रही है। 2025 मानव इतिहास का सबसे गर्म साल है। इससे पहले 2024 मानव इतिहास का सबसे गर्म साल था। और मानव भविष्य का — यानि आने वाले सब सालों का — सबसे ठंडा साल है 2025। आशा यह है कि आगे जितने भी साल होंगे, 2025 उन सबसे ठंडा है। आगे और गर्म ही गर्म होने वाले हैं। यह हमारी स्थिति है।