
प्रश्नकर्ता: आप भक्ति में जुड़ जाते हैं, उसके बाद प्रॉब्लम ये होती है कि आप एकदम वीक लेवल पर चले जाते हो और फिर उसके बाद आप काफ़ी इमोशनल हो जाते हो। आपकी एक्सपेक्टेशन ही बढ़ जाती है, क्यों? क्योंकि भगवान है। बट सर, फिर लाइफ़ में कुछ ऐसे मोमेंट्स आते हैं जहाँ पर आपको सब कुछ नहीं मिलता, आप जो चाह रहे हो और कहीं-न-कहीं मेंटली आप डिप्रेस्ड हो जाते हैं।
फिर सर, कुछ लोग आते हैं जो न्यूमरोलॉजी, एस्ट्रोलॉजी ऐण्ड ऑल। तो सर, मैं जानना चाहती हूँ कि ये सब क्या है? मतलब, भक्ति करना, उस पर विश्वास करना, फिर उसका हर्ट होना। मतलब मैं कंफ्यूज़ हूँ।
आचार्य प्रशांत: भगवान ने कहा था क्या, कि मैं तुम्हारी उम्मीदें पूरी करूँगा? तो फिर भगवान को क्यों दोष दे रहे हैं आप। आप कोई उम्मीद बना लेते हो, वो भी अपनी पसंद की सत्ता से। ठीक है न?
सब लोगों के अलग-अलग भगवान होते हैं, हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, सबके अलग-अलग होते हैं। और हिंदुओं में भी सबके अलग-अलग भगवान होते हैं। तो उसमें आप ख़ुद ही चुन लेते हो अपने हिसाब से, अपना जो भी जुगाड़ लगाकर, अपनी गणना के अनुसार। तो आपने करा फिर ये सब, भगवान ने नहीं करा। आप किन भगवान के पास जा रहे हो, उनका नाम गॉड है कि ईश्वर है या अल्लाह है, ठीक है? ये भगवान ने नहीं बताया, ये आपने तय करा।
और इन सब भगवानों में भी ख़ासकर अपने हिंदू, इतनी विविधता है कि आप जाकर चुन रहे हो। तो अभी तक सारा काम किसने करा है? आपने। ठीक है? आपने चुना। उसके बाद उम्मीद भी आपने ही लगाई कि अब ये मेरी कामना है, डिज़ायर है, ये आप पूरी करो। आपने जिनको भी चुना, उन्होंने तो नहीं कहा था, पहली बात कि ये कामना रखो। आपने उनसे पूछ कर तो कामना नहीं रखी, कामना आपकी अपनी है। और फिर आपने किसी को चुना है कि तुम अब मेरी कामना पूरी करोगे।
प्रश्नकर्ता: सर, चूज़ नहीं करना। मेरा मतलब ये है कि आप किसी-न-किसी ट्रस्ट लेवल पर आप वहाँ चले जाओ।
आचार्य प्रशांत: नहीं नहीं, जो मैंने बोला उसके साथ हैं आप या उसमें कहीं आपको कुछ खोट दिख रही है? आपने ही तो चुना न भगवान को। आपको जो पसंद है, सबके अपनी-अपनी दैवीय शक्तियों के अपने-अपने कंसेप्शन होते हैं। ठीक है? मुझे ये भगवान, मेरा ऐसा, मेरा वैसा। आप ही चुन रहे हो।
आपने चुना, लेकिन अपनी डिज़ायर आपने नहीं चुनी, वो बस आ जाती है, और उस डिज़ायर को लेकर, अपनी कामना को लेकर, आप भगवान के पास चले गए कि अब इसे पूरी करो। ये बात आपको कुछ अटपटी नहीं लग रही है, ये क्या चल रहा है?
प्रश्नकर्ता: वही सर, इसलिए फिर कहीं-न-कहीं उम्मीद।
आचार्य प्रशांत: बात उम्मीद के टूटने की नहीं है, ये पूरा काम ही अटपटा है। ये हम कर क्या रहे हैं?
और फिर हम, जिसके पास जा रहे हैं, हम सोच रहे हैं वो हमारे ही जैसा है। कि हम खुशामद करेंगे, पाँव पड़ेंगे, तारीफ़ें करेंगे, फूल माला पहनाएँगे, दूध चढ़ाएँगे, तो वो प्रसन्न हो जाएगा और प्रसन्न हो के क्या करेगा? हमारी डिज़ायर्स पूरी करेगा, और डिज़ायर्स हमारी बड़ी ख़तरनाक होती हैं। बड़ी ख़तरनाक। और एक डिज़ायर आपकी है कि आप उनको हरा दें, एक उनकी है कि वो आपको हरा दें। और दोनों एक ही भगवान के पास गए हैं, और दोनों ने बिल्कुल एक बराबर, एक-एक लीटर दूध चढ़ा दिया है। अब भगवान फंस गए, किसकी पूरी करेंगे? उनकी पूरी करें तो आपकी नहीं हो सकती, आपकी पूरी करें तो उनकी नहीं हो सकती।
तो ये तो गड़बड़ है। मामला ही अटपटा नहीं लग रहा है। ये हम भक्ति की जो परिभाषा रख रहे हैं और जिस रूप में हम उसका व्यवहार कर रहे हैं, वो सब अटपटा नहीं लग रहा है कि क्या चल रहा है।
प्रश्नकर्ता: सर, ये क्वेश्चन मैंने इसलिए किया क्योंकि प्रीवियस मैंने देखा है, बलि चढ़ाई जा रही है। मंदिरों में इतना दान दिया जा रहा है। गरीबी अलग जा रही है, मंदिरों में अलग पैसा जा रहा है, उसका अलग यूटिलाइज़ हो रहा है। सर, कुछ सॉल्यूशन नहीं निकल रहा है।
आचार्य प्रशांत: ये तो मंदिरों में थोड़ी जा रहा है वो। ये आपकी भूल है कि वो मंदिरों में जा रहा है। जहाँ जा रहा है, वो आपने देखा ही नहीं, वो आप देख लें तो सारा खेल खुल जाएगा कि ये सब चल क्या रहा है। देखिए, पैसा कहीं से निकला है, ये पक्का है। कहाँ से निकला? आपकी जेब से निकला है। तो किसी की जेब में तो गया है। भगवान की तो जेब होती नहीं, और ये आपने पता किया नहीं कि आपकी जेब से निकला है तो किसकी जेब में गया है।
प्रश्नकर्ता: सर, क्योंकि हर इंसान एक उम्मीद से मंदिर जाता है। वहाँ पर चढ़ावा चढ़ाता है, सब कुछ करता है। और फिर वो उम्मीद करके बैठ जाता है कि “हाँ, हमें कुछ।”
आचार्य प्रशांत: हाँ, तो जो कोई उम्मीद के साथ मंदिर जाएगा, उसने मंदिर को बहुत छोटी जगह बना दिया। मंदिर में चले गए न अपनी छोटी सी उम्मीद को लेकर, छोटी चीज़ माँगने। अब मंदिर की तो परिभाषा ही यही है कि जहाँ सिर्फ़ बड़े काम हो सकते हैं, और आप मंदिर में भी घुस गए अपनी छोटी-छोटी डिज़ायर्स लेकर। तो फिर आपने मंदिर को भी बहुत छोटी जगह बना दिया, ये गड़बड़ है।
प्रश्नकर्ता: क्योंकि भगवान नहीं बोलता कि मेरे लिए आप प्रसाद चढ़ाओ, कुछ भी करो। लेकिन इंसान क्यों वहाँ पर जा रहा है, क्योंकि उसने उम्मीद।
आचार्य प्रशांत: अरे भई, क्योंकि वो लड्डू चढ़ा रहा है, कोई तो खा रहा होगा। आप बात ही नहीं समझ रहे हो। भगवान ने नहीं बोला पर किसी ने तो बोला है, तभी वहाँ जाकर दूध चढ़ा रहे हो, पैसा चढ़ा रहे हो। तो वो जो आप चढ़ा रहे हो, किसी की जेब में तो जा रहा है न। तो सारी कारस्तानी उसकी है। उसको देखो आप, वो कौन है?
वो कौन है? क्योंकि भगवान को इन चीज़ों से क्या मतलब है? आपके रुपए, पैसे से भगवान को कोई मतलब है? कोई मतलब नहीं है। भगवान माने सत्य। सत्य माने जो पहले ही पूर्ण है, वो आपका पैसा लेकर क्या करेगा, वो दूध पिएगा क्या?
सत्य के तो माँ-बाप ही नहीं होते, सत्य ने तो अपनी माँ का दूध भी नहीं पिया कभी। गाय, भैंस का दूध क्यों पिएगा?
लेकिन आप जो कुछ भी वहाँ लेकर जा रहे हो, कोई तो उसका कंज्यूमर है। आप जो भी कुछ धर्म के नाम पर चढ़ा रहे हो, कोई तो उसका भोग कर रहा है न, और यहीं पर आप गच्चा खा जाते हो। आपने कभी पता ही नहीं करना चाहा कि जो आपकी जेब से निकल रहा है, वो किसकी जेब में जा रहा है। जिसकी जेब में जा रहा है, उसी का स्वार्थ है और उसी ने सारी गड़बड़ फैलाई है। उसी ने सबको बुद्धू बनाया।
प्रश्नकर्ता: क्योंकि मैंने देखा सर, साउथ में सबसे ज़्यादा चढ़ा हुआ है। सबसे ज़्यादा गोल्ड, सारी चीज़ें यहाँ जा रही हैं। नॉर्थ में भी देखा जा रहा है सर, महल बने हुए हैं लोगों के। लेकिन पता नहीं क्यों सरकार क्यों नहीं जागरूक हो रही है, क्यों नहीं हो रहा है, सब बेवकूफ क्यों बन रहे हैं?
आचार्य प्रशांत: अच्छा, सरकार क्यों जागरूक हो? सरकार को क्या मिलेगा इसमें?
प्रश्नकर्ता: सरकार को ही तो मिल रहा है।
आचार्य प्रशांत: क्या मिल रहा है?
प्रश्नकर्ता: सर, कहीं-न-कहीं इसका फंड जा रहा है।
आचार्य प्रशांत: तो सरकार तो जागरूक है न।
प्रश्नकर्ता: लोग जागरूक।
आचार्य प्रशांत: तो ये बोलिए न कि लोग जागरूक नहीं हैं। सारी सरकारों को धर्मों को इस्तेमाल करना आता है। दुनिया भर में बाबा जी और नेताजी साथ चले हैं, ये इतिहास की पूरी धारा रही है। तो
सरकारों को सब पता है। लोगों को नहीं पता है, लोग हैं ऐसे ही भोंदू।
श्रोता: ब्रेनवाॅश।
आचार्य प्रशांत: हाँ, उनको लगता है कि बस ऐसे ही चमत्कार हो जाएगा।
श्रोता: एक्चुअली इसमें गेम ऑफ़ प्रोबेबिलिटी भी किस हद तक रहता है, क्योंकि दस लोग अगर जाकर पूजा करते हैं, उसमें से एक को अगर मिल गया रैंडमली, नौ को लगता है कि अच्छा, पूजा की है इसलिए है। तो फिर बाक़ी भी उसी में लग जाते हैं।
प्रश्नकर्ता: क्योंकि हमें लाइन पर बहुत लंबा लगा दिया जाता है, आप पीछे जाओ। वीआईपी एंट्री, आप पहले दर्शन पाओ। तो मेरा इसलिए, ये सवाल मैं आपसे पूछना चाहती हूँ। और इसके थ्रू लोगों तक पहुँचे ये आवाज कि वीआईपी टिकट्स क्यों ले रहे हो आप?
आचार्य प्रशांत: अरे क्यों न लें? फिर वही बात। अरे भाई, वीआईपी टिकट लिया है तो उसने पैसा दिया होगा। तो जिसको मिला है, वो क्या अपना पैसा मरवा दे? आप ये क्यों कह रहे हो? “वीआईपी टिकट ले क्यों रहा है?” उसने पैसा खर्च किया है न, पैसा खर्च किया तो किसी की जेब में पहुँचा। जो वहाँ बैठा है, वो बैठा ही है वहाँ पैसा कमाने के लिए। आपको लग रहा है वो भगवान के लिए बैठा है। आप वहाँ जाकर बार-बार उसके पाँव छू रहे हो, वो बैठा वहाँ दूसरे उद्देश्य से है। वीआईपीज़ की संगति करके, सेलिब्रिटीज़ को पास बुला-बुला के, अगर उसको लाभ होता होगा तो क्यों नहीं अपना लाभ करेगा?
प्रश्नकर्ता: बिल्कुल, ओके सर थैंक यू।
आचार्य प्रशांत: (कुछ पुस्तकें नीचे गिरती हैं पुस्तक शेल्फ़ से)। भगवान के बारे में आपने देखा, उल्टी-पुलटी बातें करेंगे। देखिए, ये दैवीय चेतावनी है, दोबारा कुछ मत कहिएगा, न भगवान को, न भगवान जी के बाबा जी को। अभी यही गिरा है, थोड़ी देर में और बहुत कुछ गिरेगा।
श्रोता: सटीक एग्ज़ाम्पल दिया सर।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, हम में से कुछ लोगों को आप पिछले सात दिन से रोज़ देख रहे होंगे अपने साथ, तो हमारी शक्लें देख-देख के आप ऊब गए होंगे।
आचार्य प्रशांत: अपने मन का पता नहीं, मेरे मन को पढ़ रहे हो। ये लगभग वैसा ही है कि मन आत्मा का विषय होता है, या आत्मा मन का विषय होती है? ये परीक्षा का प्रश्न था। बोलो जल्दी बोलो।
श्रोता: मन आत्मा का विषय होती है।
आचार्य प्रशांत: तो मैं वहाँ रहूँगा जहाँ आप हैं, या आप वहाँ रहेंगे जहाँ मैं हूँ?
श्रोता: हम वहाँ रहेंगे जहाँ आप हैं।
आचार्य प्रशांत: माइनस टू हो गया इनका (एक श्रोता को इंगित करते हुए)।
श्रोता: आचार्य जी, मेरे साथ तो जब से मैंने जॉइन किया, तब से मैं जहाँ-जहाँ जा रही हूँ, वहाँ पर आप आते हैं। मैं इंदौर में थी तो आपको भोपाल आए।
आचार्य प्रशांत: किसी को और को बताइएगा मत, ये राज है, मेरे पास खुफ़िया शक्तियाँ हैं। ये सब मेरी चमत्कारिक दैवीय शक्तियों का कमाल है।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, एक छोटा सा प्रश्न था। जब से थोड़ा सा आपको सुनना शुरू किया है, आचार्य रजनीश जी को मैं थोड़ा फॉलो करता हूँ। तो समाज में एक तालमेल बिठाना मेरे लिए थोड़ा मुश्किल सा हो गया।
आचार्य प्रशांत: तो मेरा तो बैठ रहा है, आप सब लोग खड़े हो। ऐसा कैसे है कि मैं तो दिन भर समाज में ही रहता हूँ, और आप कह रहे हो मुझको सुनकर आप समाज से बाहर होते जा रहे हो। ऐसा हो सकता है? तो कुछ गड़बड़ सुना होगा फिर। इसका मतलब सुना नहीं है।
मैं दिन भर समाज से ही घिरा रहता हूँ, ऐसा ही है न? और आप कह रहे हो मुझे सुनकर आप समाज से बाहर हो रहे हो। इसका मतलब आपने मुझे सुनने में कुछ मिस ही किया होगा। ये भी हो सकता है, बिल्कुल सही सुना हो। ये भी हो सकता है कि
मैं समाज से बाहर होऊँ, लेकिन एक तल पर समाज के साथ पूरी तरह जुड़ा हुआ भी हूँ। तो शायद यही कला होती है कि भीतर समाज से अछूते रहो और बाहर, तो यही जगत है, इसी में व्यवहार करना है।
इससे भाग के कहाँ जाना है, है न? बाहर-बाहर व्यवहार चलेगा और भीतर-भीतर अस्पर्शित रहो।
प्रश्नकर्ता: वो अस्पर्शता नहीं आती।
आचार्य प्रशांत: वो सिर्फ़ तब नहीं आती जब कामना होती है। जब दुनिया से कुछ चाहिए होता है, तो दुनिया यहाँ बिल्कुल छाती में, अंदर तक घुस जाती है। वरना तो अस्पर्शित रहोगे ही, क्या समस्या है। ठीक है?
आचार्य प्रशांत: जी।