प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। मेरा नाम मधुरेंद्र है। मैं बिहार के एक अति ग्रामीण, गरीब, अशिक्षित और किसान समाज से दिल्ली विश्वविद्यालय तक आया हूँ। यहाँ कैंपस में मेरे सारे दोस्त काफी अमीर, सभ्य, शिक्षित और शहरी समाज से है। जिनका जीवन शैली और स्टेटस देखकर मैं डीमोटिवेटेड सा हो गया हूँ। और मुझे स्वयं से, अपने परिवार से और अपने समाज से नफ़रत जैसी हो गई है इस वजह से पढ़ाई में मन नहीं लगता है। कृपया मार्गदर्शन कीजिए।
आचार्य प्रशांत: नफ़रत हो गई है। खुद से नफ़रत हो गई है। इतने आशिक़ हो दौलत के? क्या-क्या बोल दिया अपने आप को। क्या-क्या बोला — अनपढ़, गरीब, गंवार, अशिक्षित, असभ्य यहाँ से मैं आता हूँ। बिहार के किसी क्षेत्र से, अभी कहाँ दिल्ली आए हो?
प्रश्नकर्ता: जी दिल्ली विश्वविद्यालय में।
आचार्य प्रशांत: दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली में क्या-क्या है? अमीर, सभ्य, सुसंस्कृत और क्या-क्या? शहरी, ये सब शिक्षित ये सब हो गए और इस वजह से खुद से नफ़रत हो गई है।
देखो पहली बात तो ये कि पैसों में कोई बुराई नहीं होती। ठीक है? यहाँ भी तुम अगर आकर मुझसे बात कर रहे हो, कान में हेडफोन लगा रखा है। इन सब चीज़ों में पैसे लगे हैं। लेकिन तुमको ये समझाने की तो शायद मुझे ज़रूरत है ही नहीं कि पैसों का महत्व है। क्योंकि पैसों का महत्व तो तुम खुद ही बहुत मान रहे हो। तो मैं और क्या समझाऊँ? ये तो तुमने मान ही रखा है कि पैसे बड़ा काम की चीज़ है तो वो समझाने की मुझे कोई जरूरत नहीं है। कई लोगों को ये भी समझाना पड़ता है।
जो बहुत धार्मिक किस्म के होते हैं वो यहाँ आएँगे, बी एम डब्ल्यू से उतरेंगे फिर कहेंगे पैसा तो कुछ है ही नहीं, फिर उनको समझाना पड़ता है कि बहुत कुछ है — देखो गाड़ी नहीं है अब बाहर। तुरंत समझ आ जाता है कि बहुत कुछ है पैसा। पैसे के साथ ये सब कैसे जोड़ दिया तुमने? सभ्यता, संस्कृति, ऊँचाई ये सब कैसे जोड़ दिया? पैसे का महत्व है वो हम मानते हैं, बिल्कुल मानते हैं। पर पैसा है उन लोगों के पास तो वो निडर हो गए क्या? और बहुत बड़ी बात है ये छोटी बात नहीं है। जो आदमी लगातार डर में जी रहा हो और जिसमें इतनी ईमानदारी हो कि — माने कि उसमें डर है उससे पूछना डर कितनी बड़ी बात है। ये निडर हो गए अपने पैसे के मारे। हाँ ये लोग बिल्कुल ऐसा करते हैं हो सकता है तुम्हारे साथ भी हुआ हो।
ये देश के दूसरे हिस्सों से खासकर पूरब की ओर से पूर्वी उत्तर प्रदेश हो, बिहार हो, झारखंड हो, छत्तीसगढ़ हो, मध्य प्रदेश भी — इधर से अगर लोग आ जाते हैं दिल्ली में तो उनका मज़ाक भी बना देते हैं। तुम्हारा ही बना दिया क्या? हो सकता है ना बनाया हो। बना दिया?
प्रश्नकर्ता: कुछ दोस्त।
आचार्य प्रशांत: जिन्होंने मजाक बना दिया वो दोस्त हैं? ये बड़ी इनकी खासियत होती है। इसको ये बोलते हैं — ले ली।
क्या करा? — ले ली।
फलाने की — ले ली और जैसे तुम्हें अपनी क्षेत्रीयता को लेकर के बड़ी हीनता है वैसे ही इनमें भी अपनी क्षेत्रीयता को लेकर के बड़ा उपद्रव, बड़ा दंभ रहता है — हम दिल्ली वाले हैं। हमारा क्या काम है? हमने तो — ले ली। अच्छी बात है पैसा है तुम्हारे पास, उसी पैसे के कारण तुम्हारे पाँच-सात तरीके की ऐसी सांस्कृतिक कल्चरल बातें हैं जो तुम दूसरे में नहीं पाते तो तुम उसको नीचा घोषित कर देते हो। ठीक है ना? तुम टेलर स्विफ्ट वग़ैरह की बात करोगे तो बिहार से कोई आया है तो हो सकता है उसको नहीं पता हो।
भारत में पश्चिम से कोई बैंड आ रहा है परफॉर्म करने के लिए। कोई बिहार से आया है वो नहीं जानता। तुम कहोगे — ये देखो ये हैं अलादीन की औलाद, औरंगजेब के ज़माने के इनको यही नहीं पता। अभी वो कौन सा है जो फिर से आगे परफॉर्म कर रहा है।
श्रोतागण: कोल्ड प्ले।
आचार्य प्रशांत: हाँ, अब बिहार वालों को क्या पता कि कोल्ड है कि हॉट है कि क्या है? कहेंगे कैसी बातें हो रही हैं हमें नहीं मालूम ये क्या है? जिनकी बहुत जरूरत है कि उनकी ली जाए, उनकी कभी ली? अगर तुम्हारा यही आशय है कि हमने फलाने, ले ली से यही मतलब होता है ना तुम्हारा — कि फलाने को जाकर के हमने टक्कर दे के नीचा दिखा दिया, यही आशय होता है ना। तो आज बहुत जरूरत है, बहुत ताकतें ऐसी हैं कि जिनसे तुम जाकर के भिड़ जाओ, अपना दमखम दिखाओ, निडर होकर के उनको आईना दिखाओ। उनको कभी आईना दिखाया क्या? इसलिए मैंने पहली बात पूछी कि पैसे से तुम्हारा डर चला गया क्या?
कोई गरीब मिल गया यूपी, बिहार, एमपी, राजस्थान इधर-उधर का कहीं का जिसको ये कभी रिमोट एरिया बोलते हैं। कभी इंटीरियर एरिया बोलते हैं — उस पर तो चढ़ बैठे, उसका मजाक उड़ा दिया, हँस लिए उस पर और उसकी ले ली। और जो दमदार, रसूखदार बाहुबली हैं उनके खिलाफ तुम्हारे मुँह से एक शब्द नहीं निकलता। निकलता है क्या? इसको रोस्टिंग बोलते हैं ये। मैं पूछता हूँ — तुम्हारी हिम्मत है कि किसी सचमुच ताकतवर आदमी की रोस्टिंग करके दिखा दो। ये जो बड़े-बड़े हैं यह सब कहते हैं इसकी ले ली, उसकी ले ली — हमेशा ये लेने के लिए बेचारा कोई कमजोर आदमी पकड़ लेते हैं।
जहाँ पता है कि लेने निकलेंगे और बहुत पिटेंगे वहाँ पर हिम्मत नहीं होती। जहाँ पता है कि थोड़ा सा बोलने जाएँगे और बोलने से पहले जेल हो जाएगी, वहाँ हिम्मत नहीं होती। और नहीं हिम्मत होती तो मुझे बताओ फिर पैसे से क्या मिल गया? — वो पैसा जो तुम्हारे भीतर हिम्मत का संचार नहीं कर सकता, जो तुम्हारा डर नहीं काट सकता, वो पैसा फिर किस काम का है? तुम किस बात के लिए खुद से नफरत कर रहे हो? तुम्हें क्यों लग रहा है कि इन लोगों को वास्तव में कुछ मिल गया है? क्या मिल गया है?ब्रांडेड कपड़े?
ये कुछ ब्रांड्स के नाम ले लेते होंगे जो ब्रांड्स तुम नहीं जानते और तुमको लगता होगा कि मेरे गाँव वाले, मेरे घर वाले बाटा की चप्पल्स यही मुझे जिंदगी भर में दे पाए। और यहाँ पर तुम आते हो तो कोई ये कह रहा है, कोई वो कह रहा है, कोई बता रहा है अभी दुबई में वेकेशन करी, कोई बोल रहा है नहीं मैं तो स्विट्जरलैंड जाऊँगा और ये सब तुम सुन रहे हो — तुम कह रहे हो क्या…हम तो ट्रेन में भी जनरल में चलते हैं और ये इंटरनेशनल फ्लाइट में बिज़नेस क्लास की बात कर रहा है। वो सब होगा पर वो सब होने से बताओ ना जिंदगी में क्या हासिल हो गया? मोह चला गया? काम को हरा दिया? ज़्यादा आसानी से तुमको अब गुस्सा दिलाया जा सकता है क्योंकि तुम्हारे भीतर ये भाव आ गया है कि हम कुछ हैं। और आमतौर पर जो कहते हैं कि हम कुछ हैं वो बाप के पैसे पर ही कह रहे होते हैं — तुम्हारा तो अपना है भी नहीं। पर फिर भी भाव ये बहुत है कि हम कुछ हैं।
जब पैसा पराया होता ना तो डर और गहरा होता है। किसी भी दिन पैसा छिन सकता है और गुलामी भी और गहरी होती है क्योंकि अपना नहीं है और उस पैसे की आदत लत लग गई है। तो अब उस पैसे की गाजर दिखाकर तुमसे कुछ भी कराया जाएगा। तुम गरीब हो, कम से कम तुम उस गुलामी से तो बचे हुए हो ना। बिल्कुल मानता हूँ — गरीबी के कारण भी कई तरह की गुलामियाँ होती हैं। पर ये मत सोचना कि अमीरी से गुलामी नहीं होती। अमीरी से भी खूब गुलामियाँ होती हैं। अगली बार तुम्हारे सामने कोई आए —अमीरजादा और ये लेने लेवाने की कोशिश कर रहा है और डूड बन रहा है।
उसको गौर से देखना बहुत जल्दी से अपने भीतर हीन मत हो जाया करो। गौर से देखना कहना इसको अभी गुस्सा दिलाया जाए तो गुस्सा आएगा कि नहीं? तुम कहोगे आता है — देखा है आता है — तुम पूछना कि अभी दो-चार इसको वासना के विषय मिल जाएँ हॉट एंड सेक्सी तो ये उत्तेजित हो जाएगा कि नहीं? तुम कहोगे — बिल्कुल हो जाएगा और बिहारियों से ज़्यादा हो जाएगा। तुम उसकी गुलामी की ओर देखना, तुम उसकी इमोशनल फ्रेजिलिटी को देखना। ये ज़्यादातर लोग भीतर से बड़े कच्चे और कमजोर होते हैं क्योंकि बाहर-बाहर से इन्होंने ये रखा होता है कि यह कुछ हैं भीतर से कुछ होते नहीं। तो थोड़ा सा ठोक बजा दो, थोड़ा सा सतह के नीचे जाँच पड़ताल तहकीकात कर लो तो टूटने लग जाते हैं और जब ये सब देखोगे तो ये भाव हट जाएगा कि उनको कुछ खास मिला हुआ है।
अपने से नफ़रत वग़ैरह जो भी है होनी बंद हो जाएगी। मैं पैसे को दौलत को बुरा नहीं कह रहा हूँ। मैं ये कह रहा हूँ कि — पहली बात तो पैसा सही साधन से आया हो, सही उद्देश्य के लिए आया हो और उसके बाद भी पैसा तुम्हारा व्यक्तित्व नहीं बन सकता।
पैसा तुम्हारी हस्ती के केंद्र को नहीं भर सकता। पैसे का महत्व है पर एक आयाम में है एक सीमा तक है। वो आयाम जरूरी है पर पर्याप्त नहीं है।
उस आयाम में भी तब ना महत्व है जब अपना कमाया हुआ हो — अपना तो है नहीं। तुम उनसे प्रभावित ज़्यादा इसलिए हो जा रहे हो क्योंकि तुम जानते ही नहीं हो कि अमीरी कहते किसको हैं। तुम सोच रहे हो कि कोई गाड़ी से उतर रहा है और एप्पल के सामान इस्तेमाल कर रहा है और दो-चार उसने ऐसे ब्रांड्स पहन रखे हैं या उठा रखे हैं जिनका तुमने कभी नाम भी नहीं सुना, तो अमीर हो गया। अमीरी वो नहीं होती है।
अमीर वो होता है जिसके पास कुछ भी ना हो तो भी वो उससे ना घबराए जिसके पास बहुत कुछ है — वो अमीर है। फूटी कौड़ी नहीं है हमारे पास फिर भी हम किसी धन्ना सेठ के सामने नहीं झुकते तब हम अमीर हैं। किसी ने पूछा था एक बार कि गरीब की परिभाषा क्या है? मैंने कहा — जिसको अभी और चाहिए वो गरीब है। अमीर कौन है? — जो कह रहा है कि अपनी आंतरिक पूर्णता के लिए हो सकता है पेट के लिए अभी और चाहिए हो। लेकिन अपनी आंतरिक पूर्णता के लिए हमें नहीं चाहिए। भीतर से हम मस्त हैं। व्यक्तिगत रूप से हम खाली नहीं बैठे हुए हैं, वो अमीर होता है।
तुम बहुत बाहरी चीजों को अमीरी का द्योतक समझ बैठे हो। और वो बाहरी चीजें भी बहुत ज़्यादा नहीं होती। तुम तो कॉलेज में जाते होंगे, तो क्या दो-चार चीज़ें — वही गाड़ी देख लेते हो, जूते देख लेते हो, किसी का हैंडबैग है, किसी के चश्मे हैं, एक्सेसरीज हैं और क्या होता है? फोन है। और? और बातें हैं कि कल हम तीन लोग फलानी जगह पार्टी करने गए थे और 33,000 का बिल आया। और तुम कहते हो — अरे! तीन लोगों पे 33,000 का, क्या पार्टी किए? क्या खाए? 33,000 तो हमारे पूरे खानदान की कुल मिलाकर के मासिक आय नहीं है। और ये लोग एक रात में जाकर के तीन लोग दो घंटे में 33,000 फूंक आए! 33,000 नहीं कई बार 3 लाख भी फूंक आते हैं, उससे कुछ नहीं हो जाता। मूर्ख-मूर्ख ही रहेगा भले ही कितना अमीर हो जाए। अमीर मूर्ख है अब वो — अमीर मूर्ख है ना।
गड्ढा हो जमीन में उसमें नोट भर दो तो गड्ढा भर नहीं जाता कुछ समय बाद नोट भी मिट्टी हो जाएँगे। वास्तव में अमीरी किसको कहते हैं? ये जान गए होते तो तथाकथित अमीरों से घबराते नहीं, परेशान नहीं होते। उन्हें अपने ऊपर चढ़ने का मौका नहीं देते। वही जो ले ली वगै़रह भी करते हैं ना वो इसीलिए करते हैं क्योंकि वो भीतर से खुद बहुत इनसिक्योर है, असुरक्षित हैं। तो जो मिले उसी के ऊपर चढ़ने की कोशिश करते हैं ताकि किसी तरह यह साबित हो सके कि उनकी अपनी जिंदगी ठीक है। उनकी अपनी जिंदगी ठीक नहीं है। जिसकी अपनी जिंदगी ठीक होती है, वह किसी दूसरे की जिंदगी पर नहीं चढ़ता।
वो दूसरों को प्रभावित करने का, उनको नियंत्रण में लाने का, अंकुश में लाने का, उन पर वर्चस्व चलाने का, डोमिनेट करने का जो प्रयास करते हैं, इसी से पता चलता है कि उनकी अपनी जिंदगी अच्छी नहीं है।
सचमुच अमीर कौन है? ये जानना है तो किताबें पढ़ो। और उसके बाद ये सब जो अमीर बनके घूम रहे हैं, इन पर तुम्हें दया सी आएगी कि अपने आप को अमीर बोलते हैं — ये तो बहुत गरीब हैं।
बोध कथा है कोई ऐसा नहीं कि तथ्यात्मक है। इसमें छेद निकालने चलोगे तो बहुत सारे मिल जाएँगे। पर बोध कथा कुछ समझाने के लिए होती है — एक राजा था। अब राजाओं के ज़्यादा कुछ काम तो होता नहीं है — अयाशी— विरासत में मिली हुई राजसी सत्ता। तो राजा को धुन सवार हुई बोला, आधी जो पूरी दौलत है राजकोष की किसी ऐसे को दे दूँगा जिसके पास पहले ही बहुत दौलत हो। जो बहुत अमीर होगा उसको दे दूँगा और पूरी जनता को बता दिया कि, राजा उसको खोजने आ रहा है जिसके पास बहुत कुछ है।
तो अब राजा से जो मिले वही क्या दिखाने की कोशिश करें? हमारे पास ही बहुत कुछ है। हमारे पास भी बहुत कुछ है। तो बड़े-बड़े सेठों से मिल रहा है राजा। और हर सेठ क्या दिखा रहा है? हमारे पास भी है। हर सेठ दिखा रहा है — हमारे पास बहुत कुछ है शर्त ही यही रखी गई थी जिसके पास बहुत कुछ होगा, उसको और दे दूँगा मैं। दौलत का लालच ऐसा कि आदमी का दिमाग खराब हो जाए तो साधारण लोग भी राजा के सामने आ रहे हैं। तो वो भी क्या दर्शा रहे हैं? — हमारे पास ही बहुत कुछ है। अब राजा ने इस तरह करके पूरा राज्य छान मारा और उसको जो मिला ये प्रदर्शित करता हुई हुआ ही मिला कि हमारे पास बहुत कुछ है।
राजा ने कहा ये ऐसी बात बन नहीं रही है। यहाँ तो हर आदमी बस दिखावा कर रहा है कि उसके पास बहुत कुछ है। तो राजा निकल रहा था एक बैठा हुआ था वहाँ पर अपना — साधु, फ़क़ीर, नंग-धड़ंग पेड़ के नीचे बैठा हुआ है। पेड़ से आम गिरे हुए हैं बहुत सारे आम गिरे हुए हैं, वो आमों को देख रहा है। फिर उसने एक आम उठा लिया उसको भी देख रहा है और हँस रहा है।
राजा ने कहा — ये बढ़िया बात, कुछ दिखाई नहीं दे रहा कि इसके पास है। ऐसे ही अपना दो कपड़ों में बैठा हुआ है और पेड़ के नीचे घर तो है नहीं, कुछ दौलत भी नहीं दिख रही है और तो कुछ है ही नहीं ये आम गिरे हुए हैं। ये आम भी नहीं बटोर रहा। एक आम उठा रखा है और उसको देख के हँस रहा है। और सबसे बड़ी बात क्या? मैंने इस के आगे अपना रथ रुकवा दिया है ये मुझे देख ही नहीं रहा। जबकि पिछले 6 महीने से मैं राज्य भर में घूम रहा हूँ और हर आदमी मुझे देखते ही क्या करता है? — पहली बात महाराज! महाराज! प्रणाम शतशत नमन। और दूसरी बात क्या दिखाता है? — मेरे पास भी बहुत कुछ है, क्या पता थोड़ा बहुत ही महाराज की दौलत का हमें दान कर दें।
बोल रहे पहले तो ये आम तक नहीं ठो उठा रहा, एक ठो उठा लिया जितना शायद इसके पेट की जरूरत होगी एक आम इसने उठा लिया है। और दूसरा ये मेरी ऐसे उपेक्षा कर रहा है जैसे मैं कहीं का भिखारी हूँ। तो राजा वहीं जा कर उसके सामने बैठ गया — बैठ गया तो उसको एक निगाह ऐसे देख लिया फ़क़ीर ने — देख लिया अपना तो अपने आम को देखने लगा फिर उसने अपना आम छीला थोड़ा सा चूसा। फिर देखा राजा को, राजा अभी तक व बैठा है तो उसने एक आम उठा के राजा को दे दिया। बोला, लो।
राजा रोने लग गया, उसे कोई मिला ही नहीं था जिसके सामने जमीन पर बैठ पाए। कोई मिला ही नहीं था जो उससे कुछ माँगे ही नहीं उसे जमीन पर गिरा हुआ एक आम उठाकर दे दे, कि देखो — एक आम मैं खा रहा हूँ, एक आम तुम भी खा लो। राजा को सहसा लगा कि वो मिल गया जिसके पास बहुत कुछ है।तो राजा ने कहा कि मेरी इतनी दौलत है और मैं आपको अर्पित करना चाहता हूँ। वो हँसने लग गया। बोले आप हँस रहे हैं। मैं समझ रहा हूँ — आपको जरूरत नहीं है तो आप किसी और को दे दीजिएगा। आप जिसको भी देंगे आप ठीक ही देंगे आप समझदार आदमी हैं आप चुन के देंगे किसी को। लेकिन आप ले लीजिए क्योंकि पूरे राज्य में आप ही मुझे मिले हो जिसके पास बहुत कुछ है। तो हँसते-हँसते बोला नहीं बात ये नहीं है कि मुझे नहीं चाहिए। बात ये नहीं है कि मैं तुम्हारी दौलत इसलिए अस्वीकार कर रहा हूँ कि मुझे तुम्हारी दौलत नहीं चाहिए। बात ये है कि — तुम इतने गरीब हो कि मैं तुमसे कुछ ले कैसे लूँ।
उस साधु जैसे हो जाओ, फिर ये जितने अमीर हैं ना तुम्हें इनकी गरीबी दिखाई देगी। ये बहुत गरीब हैं, फिर तुम खुद से नफ़रत नहीं करोगे। फिर तुम उस वृत्ति से, उन ताकतों से, उस संस्कृति से नफ़रत करोगे जिसमें ऐसे लोग पैदा हो जाते हैं जिनके पास बाहर- बाहर बहुत कुछ होता है और भीतर कुछ भी नहीं। फिर तुम सुधारक बन जाओगे। फिर तुम ये नहीं कहोगे कि मुझे इन सब चीज़ों से बड़ी आत्मग्लानी होती है स्वयं के प्रति बड़ा दुख होता है — तुम पूरे समाज को ही ठीक करने वाला निमित्त बन जाओगे।
ये रुपए पैसे का खेल ये आदमी द्वारा आदमी का शोषण। ये एक आदमी द्वारा ये मानकर दुख झेलना — कि मैं तो अमीर हूँ और दूसरे आदमी द्वारा ये मानकर दुख झेलना — कि मैं तो गरीब हूँ। तुम्हें ये सारा खेल समझ में आएगा कि ये कैसे चल रहा है। खेल के शिकार मत बनो, खेल के खिलाड़ी मत बनो। थोड़ा सा बाहर निकलो और इस खेल के दृष्टा बनो। ये खेल ऐसा है कि जो इसे खेलने लग जाते हैं उन्हें ये खेल कभी समझ में नहीं आता। ये खेल उन्हें खा जाता है, इस खेल को वही समझ सकता है जो इस खेल से थोड़ा बाहर आ गया है। आ रही है बात समझ में?
बिना डरे, बिना कामना के जो अभी तुम्हें डोमिनेट करते हैं उनकी ज़िन्दगी को ध्यान से देखना। हो सकता है तुम भी उसी फ़क़ीर की तरह फिर उनके — जाकर के कंधे पर हाथ रखो और उन्हें एक आम दो। बोलो ये जो कुछ भी तुम 5-10,000 की चीज़ें खाने को लेकर घूम रहे हो ये अलग रखो। मेरे जैसा कोई नहीं मिलेगा तुम्हें जो तुमको ये आम दे। अभी ताज़ा-ताज़ा पेड़ से गिरा है और मिट्टी से उठा के ला रहा हूँ। नहीं समझ में आ रही बात? नहीं समझ में आ रही बेटा तो तुम में भी फिर पैसे की उतनी हवस है जितनी उनमें है।
कैसे कह दें कि अमीर और गरीब के बीच में खाई है, फासला है। अगर गरीब को भी पैसे की उतनी ही हवस है जितनी अमीर को है। आप छात्र हो, पढ़ाई करो । सिर्फ वही नहीं चीज़ें जो आपके पाठ्यक्रम में हैं। दुनिया के जितने ऊँचे लोग हुए हैं उनके बारे में पढ़ो। दुनिया में जो ऊंचे काम हुए उनके बारे में पढ़ो और जानो कि उन सब कामों में पैसा लगा है पर पैसे की उपयोगिता वहाँ 10-20% ही होती है।
जितने दुनिया में बड़े लोग महापुरुष हुए हैं चाहे किसी भी क्षेत्र में उनकी ज़िन्दगीयों को पढ़ो तो तुम्हें पता चलेगा कि उनकी महानता में पैसे का कोई बहुत योगदान नहीं था। अभी तो तुम भी उनके ही जैसे हो — जिनकी तुम यहाँ शिकायत जैसी कर रहे हो — वो भी पैसे को जीवन का केंद्र मानते हैं और तुम भी पैसे को जीवन का केंद्र मान रहे हो। क्यों मान रहे हो?
कमा लोगे, पढ़ाई लिखाई कर रहे हो दिल्ली आए हो। कमा लोगे। पर कमाया किसी उद्देश्य के लिए जाता है। और वो उद्देश्य क्या है? पहले ये स्पष्ट होना जरूरी है। नहीं तो आदमी की ज़िन्दगी न्यूट्रल पर खड़ी गाड़ी जैसी हो जाती है। न्यूट्रल पर खड़ी है और तेल जला रही है। गाड़ी चालू है —न्यूट्रल पर लगी है और एक्सलरेटर दबाया जा रहा है। बस तेल जलता है आदमी उसमें तेल डलवाता है — तेल जलाता है। डलवाता है —जलाता है। आम आदमी की ज़िन्दगी ऐसे ही होती है। कमाता है —उड़ाता है। कमाता है — उड़ाता है। गाड़ी पहूँचती कहीं नहीं है। न्यूट्रल पर खड़ी है, पहूँचेगी कैसे? कुछ समझ में आ रही है बात? या बस पैसे ही चाहिए।
प्रश्नकर्ता: सर, इसमें पैसे वाले फैक्टर से ज़्यादा मतलब मेरे भाषाई फैक्टर है। मतलब, मुझे जैसे इस वजह से मुझे मैं समाज से विशेषकर नफ़रत हो गया कि मुझे वो माहौल नहीं मिला जिसकी वजह से मैं मतलब — मेरा भाषाई स्तर वैसा नहीं है।
आचार्य प्रशांत: ये शब्द ये ध्वनियाँ भाषा ये बड़ी मज़ेदार चीज़ होते हैं। किरकुटपोटा पोको को। इसी भाषा में इसका कोई बहुत ऊँचा अर्थ हो सकता है। “तत् त्वम् असि” हो सकता है। क्यों नहीं हो सकता? तुम हँसे क्यों? अरे, ये वोकल कॉर्ड की गति ही तो है और क्या है? और क्या है ये लेरिंग्स होता है ना, लेरिंग्स ऐसे यहाँ (गले की ओर इंगित करते हुए) होता है उसके ऊपर से हवा गुजरती है तो वाइब्रेशन होता है, उससे क्या होता है? — आवाज निकलती है। और जो ब्रेन होता है ये उस वाइब्रेशन को यानी ये जो यहाँ मसल्स हैं उनको बहुत नाजुक तरीके से नियंत्रित करता है तो अलग-अलग तरह की आवाज़ें निकलती हैं।
भाषा में क्या है? — हमका जाए का है (आई नीड टू गो) —इसमें से एक बात दूसरे से श्रेष्ठ कैसे हो गई? कैसे हो गई? बताओ तो ध्वनियाँ हैं दो। कैसे श्रेष्ठ हो गई? सब ध्वनियाँ हैं बाकी तुम्हारे खोपड़े का खेल है। श्रेष्ठता का ठप्पा भाषा में नहीं है निहित, वो तुम्हारे खोपड़े से आ रहा है। उस दिन मैं देख रहा था अफ्रीका का कोई कबीला, वहाँ लोगों के नाम कैसे थे बताया है ना एक बार पहले। पहला खड़ा उससे पूछा तुम्हारा नाम क्या है बोलता है…….अब ये नाम है? क्यों नहीं हो सकता ये नाम? दूसरे से पूछा तुम्हारा नाम क्या है……तीसरा……ये उसका नाम है बुलाना है तो ऐसे ही बुलाओ। नाम है। क्यों नहीं हो सकता ये नाम? ध्वनि है। हँस क्यों रहे हो? मॉम माइकल स्टीवनसन यू कैन कॉल मी मिक। यही नाम होता है। ओ स्टीव इफ यू विश। यही होता है।
और तुम्हें नफ़रत हो रही है कि हमारे यहाँ पर मैथिली, भोजपुरी चलती थी। क्या चलती है तुम्हारी तरफ?
प्रश्नकर्ता: भोजपुरी।
आचार्य प्रशांत: भोजपुरी चलती थी, तो बड़ी नफ़रत हो रही है हमारी तरफ से भोजपुरी।
प्रश्नकर्ता: भोजपुरी और हिंदी।
आचार्य प्रशांत: हिंदी। तो ये सब जो अमीर वाले हिंदी भी नहीं बोलते।
प्रश्नकर्ता: सर मेरे कैंपस में तो बहुत ही कम लोग हैं। प्रोफेसर भी नहीं बोलते और किताबें भी हिंदी में बहुत ही कम उपलब्ध है।
आचार्य प्रशांत: अरे, किताबें अंग्रेजी में है तो किताबें तो इसलिए नहीं है कम से कम कि तुम में हीन भावना आ जाए और किताबों के तो अनुवाद भी मिलते हैं। तो किताबों की नहीं है पर जहाँ भाषा का इस्तेमाल हथियार की तरह किया जाए वहाँ ये प्रश्न लाज़मी है ना — कि एक ध्वनि दूसरी ध्वनि से श्रेष्ठ कैसे हो गई किसी भी मानक पर?
मुझे ये बड़ा फ़ितूर रहा है वो अभी भी है। मैं जब अकेला होता हूँ तो मैं अजीब-अजीब नामों का उच्चारण करके हँसता हूँ कि देखो यही तो है ना। पूरा जो माइंड स्टफ होता है मन वो नाम ही है और नाम कैसे-कैसे हो सकते हैं कुछ भी — हकाटापु, ये हकाटापु है और वो — पोंडारो और इन दोनों में बड़ी जंग छिड़ी हुई है हकाटापु पोंडारो तभी वहाँ पर शिकालो पोका आ गया। मिट्टीमाकी आके बोली कि नहीं वो जो वहाँ डोलाशेका ले है — ये नाम हँस क्यों रहे हो तुम्हारे नाम में क्या रखा है? कैसे-कैसे तुम्हारे नाम है वो जो नाम है शुभंकर कोई नाम है। ये एकाटेकापोका से अलग कैसे है बताओ तो? तो कोई हँस कैसे सकता है किसी भी नाम पर? टिंडाशाही।
बोलो, कोई भी नाम किसी दूसरे नाम से श्रेष्ठ कैसे हो सकता है वोकल कॉर्ड की हरकतें हैं। और बाकी सब सुपरइंपोज्ड मीनिंग्स, इनेट नहीं इंट्रिंसिक नहीं प्रक्षेपित आरोपित और वो आरोपण तुमने करा है क्यों कर रहे हो मत करो। खाए का है त जा खा बा। कीप इट सिंपल डूड खाए का है त जा खा बा — टुकुर-टुकुर निहारत काहे लाग हा हाए, हैं ही नहीं तक हीं और रोए हीं उछिन्न करे हैं। सो चीप, सो चीप।
जब वो अपना स्लैंग चला सकते हैं तो तुम अपना भोजपुरी क्यों नहीं चला सकते? तुम भी चलाया करो। तुम्हारे जैसे दो चार तो होंगे कैंपस में। तुम भी खुला आहलाद किया करो अपनी भाषा में। कोई भाषा किसी दूसरी से श्रेष्ठ नहीं होती। और ये लोग जो हिंदी भोजपुरी को हीन समझते हैं आती इन्हें अंग्रेजी भी नहीं है। इन्हीं कैंपसेस में मैं जब जाकर के संवाद करता हूँ तो दो सवालों के बाद कहते हैं, वो पहले बोलेंगे अ लिटिल बिट ऑफ हिंदी — समझ में इन्हें इंग्लिश भी नहीं आती है। इनके पास बस अपने ब्रांड का एक स्लैंग है। रीजनल स्लैंग है और रीजनल स्लैंग है तो वो तो हर रीजन में होता है ना। और कोई रीजन किसी दूसरे से श्रेष्ठ कैसे हो गया?
तुम अपना चलाओ — दबना क्या? डरना क्या? क्यों भई? तू आपन चाल चला हम आपन चलाब। मज़ा आया नहीं आया? तुम्हें समझ में नहीं आ रही मेरी बात— जो मैं बोल रहा हूँ भोजपुरी नहीं है पर समझ में आ रही होगी उधर की ही है। तुम्हारे पड़ोस की है। ये बहुत प्रचलित बीमारी है और पता है इसका नतीजा क्या निकलेगा? अभी से तुम्हें सावधान करे दे रहा हूँ — तुम उनके जैसे नहीं बनोगे तुम उनसे भी ज्यादा उनके जैसे बन जाओगे।
कहावत है कि दैट्स अ ट्रबल विद फाइटिंग मॉन्सर्स। यू बिकम अ बिगर मॉन्सर। उदाहरण दे रहा हूँ इसको सही दृष्टि से ही सुनना और समझना।
रोंदेवो होता है आई आई टी दिल्ली का जो फेस्टिवल होता है सितंबर अक्टूबर में हुआ करता था। सितंबर में होता था ज़्यादा तो उसमें दिल्ली भर के तुम्हारी यूनिवर्सिटी के सारे कॉलेजेस की भीड़ आया करती थी तो हम लोग देखते थे। तो उसमें जो सबसे वाहियात तरीके से लोग नाच रहे होते थे। अजीबोगरीब पोशाकें पहन कर के और बहुत ज़्यादा अपने आपको इन दिखाने की कोशिश करते हुए, इन समझते हो? आई बिलोंग टू द क्राउड आई एम इन विशेषकर लड़कियाँ सबसे कम कपड़ों में, और कम कपड़ों में भी अपनी एक गरिमा होती है। कम कपड़े पहनने की भी एक तमीज़ होती है। उसका भी एक एस्थेटिक्स होता है कि कम कपड़े भी कैसे पहने जाते हैं। पर एकदम विचित्र तरीके से कम कपड़े कुछ पता ही नहीं कि क्या छुपाना था, क्या दिखाना था कुछ भी चल रहा है।
अक्सर पता चलता था कि ये वो हैं जो 2 साल पहले दिल्ली आए थे किसी दूर-दराज़ के पिछड़े हुए इलाके से। पढ़ने के लिए आए थे — दिल्ली यूनिवर्सिटी हो गया, जेएनयू हो गया। और यहाँ आकर के इनका जो पहला फेज़ रहा वो रहा — डोमिनेंस और इनफीरियरिटी का। ये डोमिनेट हुए और इनके भीतर हीन भावना जगी। और उसकी प्रतिक्रिया में अब ये इनका दूसरा फेज़ चल रहा है। पहला दौर कौन सा रहा? — जब इनको इनके कॉलेज की क्राउड ने स्वीकार नहीं करा। कि ये तो गंवार है। देखो जैसे तुमने बोला ना कि असभ्य, असंस्कृत है, ये तो गंवार है तो अपने आप को इन करने के लिए — अपने आप को अपने कॉलेज, यूनिवर्सिटी में स्वीकृति दिलाने के लिए इन्होंने क्या करा? ये दूसरी अति पर पहुँच गए। और ये हमेशा होता था कि जो बिल्कुल ही दूसरी अति पर पहुँचा हुआ है। वो हमारे हिंदी हार्टलैंड का क्राउड होता था — तुम वो बन जाओगे।
अभी तो यहाँ आकर के फिर भी तुमने भोलेपन से सवाल पूछ लिया, एक साल बाद आओगे और कहोगे यो ची? वेयर इज़ द आचार्य? बस अभी हाथ दिख नहीं रहे ना ऐसे-ऐसे (हाथों को हिलाते हुए) कर रहे होंगे हाथ। और इतनी देर में पैसे तो आ नहीं जाएँगे तो नकली ब्रांड इसीलिए बिकते हैं यहाँ किसी नकली ब्रांड का हेड बैंड लगा रखा होगा, यहाँ टैटू खुदवा रखा होगा आई एम सो कूल भले ही सूझ गया हो। यहाँ पर खूब ऐसे दाँत में कुछ लिखवा लिया होगा, बालों में हल चला लिया होगा। देखिए ना खेत में हल चलता है तो क्या होता है? फरोज़ बन जाती हैं। वैसे ही होता है। बाल में हल चलाया जाता है ऐसे, तुम ये बन गए होंगे। ऐसे ही बना जाता है ये जस्ट टू प्रूव दैट आई एम कूल। और ये उन मूर्खों की सबसे बड़ी जीत होगी कि उन्होंने तुम्हें उनके जैसा बना लिया — उनको ये जीत मत दे देना।
तुम जहाँ से आ रहे हो वो बड़ी अच्छी जगह है। अभी उसकी दुर्दशा है, हम जानते हैं शिक्षा में और आर्थिक तौर पर बिल्कुल उसकी दुर्दशा है। मैं कभी इस पर बात करूँगा क्योंकि पूर्व के लोगों में विशेषकर बिहार के लोगों में बड़ी हीन भावना पाई जाती है खासकर जब वो दिल्ली, मुंबई वग़ैरह चले आते हैं तो — मैं किसी दिन इस पर बात करूँगा। जब मैं कह रहा हूँ कि महान लोगों के बारे में पढ़ो तो तुम अपनी बिहार की मिट्टी के बारे में ही पढ़ लो — फिर तुम कैसे दबोगे इन हस्तिनापुर वालों से? तुम बिहार से हो। धर्म का पालना था वो बौद्धों ने धर्म के इतने केंद्र इतने विहार, कोई एक धर्म का केंद्र होता है विहार इतने विहार वहाँ स्थापित करे कि पूरे क्षेत्र का नाम ही पड़ गया — बिहार।
तुम्हें बिहार के गौरव के बारे में भी कुछ पता है? छोटी-मोटी जगह है बिहार? अब आज आप उसको बर्बाद करके रख लें तो वो आपकी मर्ज़ी है। तो बुद्ध की बात करी, महावीर कहाँ थे? ये जो इलाका रहा है पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और नेपाल का सीमावर्ती इलाका ये धर्म की दृष्टि से बड़ा ज़बरदस्त रहा है और दो धर्म बोले अभी इसमें तीसरा और जोड़ लो सिख धर्म उसका बिहार से क्या संबंध है ये भी पता करो। नाज़ होना चाहिए ना तुम्हें अपने बिहारी होने पर, हीन भावना कैसी?
हम बार-बार बोलते हैं कि पश्चिम की दिशा से आक्रमण होते रहे और भारत गुलाम बनता रहा। पश्चिम की दिशा से जो पहला आक्रमण हुआ था जानते हो ना उसको किसने हराया था? बिहारियों ने हराया था। किसकी बात कर रहा हूँ मैं?
प्रश्नकर्ता: चंद्रगुप्त मौर्य।
आचार्य प्रशांत: हाँ..। और वो आक्रमण ऐसा भी नहीं कि थोड़ा पास से आया हो कहीं कि अफगानिस्तान से आ गया, ईरान से आ गया या तुर्की से आ गया। जानते हो कहाँ से आया था वो आक्रमण? और पश्चिम से आया था। कहाँ से आया था? हाँ..ग्रीस से आया था — सीधे यूरोप। बिहारी वो है जिसने यूरोपियंस को हरा रखा है तब से और इतना ही नहीं था। जलवे देखो बिहारियों के — उसको हराया और बोला अब तेरी बेटी से शादी करेंगे, यहाँ तक आया काहे के लिए पंगे लेने। और वो बेचारा हाथ जोड़ के बोल रहा है किसकी बात कर रहा हूँ पढ़ना अच्छे से। और बेचारा हाथ जोड़ के बोला हाँ ठीक है-ठीक है। हमारी बेटी खुद बोल रही है कि ये बिहारी बड़ा मस्त है — ब्याह करा दो। वो यहाँ छोड़ के गया।
उत्तर प्रदेश और बिहार ये दो राज्य जब तक नहीं उठेंगे तब तक बताओ भारत कैसे उठेगा? हम 30 करोड़ से ऊपर तो यहाँ बैठे हैं और सबसे गरीब भी यहीं बैठे हैं, सबसे अशिक्षित भी यहीं बैठे हैं और गरीबी भी हट जाए या शिक्षा भी हट जाए। ये हीन भावना तो हटे। नालंदा, नालंदा हम आज भी करते हैं। कहाँ है नालंदा?
कहाँ है?
अरे, नहीं ग्रेटर कैलाश में है। कैसी बातें कर रहे हो तुम? रजौरी गार्डन में है — पर तुम्हें खुद ही नहीं पता पढ़ो जानो।
प्रश्नकर्ता: सर इसमें एक और छोटा सा फैक्टर है कि मेरे समाज और परिवार मतलब मेरे दोस्तों की तुलना में ज़्यादा खुलापन या स्वतंत्रता को स्वीकार नहीं करते।
आचार्य प्रशांत: तो अगर ये बातें अच्छी है तो तुम भी उसको ग्रहण करो। क्या समस्या है? देखो जब हम कह रहे हैं कि बिहार धर्म का पालना था — तो धर्म का तो अर्थ ही होता है बड़े से बड़ा खुलापन, उसी को मुक्ति बोलते हैं। मन में ज़बरदस्त तरीके का ग्राह्यता भाव है कि कि कुछ भी जो बढ़िया होगा उसका विरोध नहीं करेंगे। कुछ भी जो मुक्तिप्रद होगा उसको नमन कर लेंगे।
बिहारी की तो ये पहचान होनी चाहिए कि जहाँ कहीं भी जो कुछ भी श्रेष्ठ दिखाई दिया बिना विरोध के उसको स्वीकार करेंगे। तो अगर यहाँ तुम पाते हो कि किसी तरीके से दृष्टियाँ ज़्यादा उदार हैं, लिबरल है, खुली हुई है और तुमको वो बात ठीक लगती है तो बेखट के उसको तुम स्वीकार करो। मैं उत्तर नहीं दे रहा हूँ। तुम्हारे लिए काम छोड़ रहा हूँ। मैंने कहा पढ़ो।
जितना जानते जाओगे उतना ज्यादा तुम्हारी रीढ़ तनती जाएगी। सीधे होते जाओगे। अहंकार नहीं बढ़ेगा। गरिमा बढ़ेगी।
ठीक है? कुछ और। कैसे मिलोगे एक साल बाद? ऐसे…चलो ठीक है।
प्रश्नकर्ता: धन्यवाद आचार्य जी।