अध्यात्म में आने के बाद क्या पुराना सब छूटने लगता है? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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अध्यात्म में आने के बाद क्या पुराना सब छूटने लगता है? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जब आपसे पहली बार मेरी मिलने की इच्छा हुई थी, उस समय क्या था कि मैं पढ़ाई कन्टिन्यूअस (लगातार) कर नहीं पाता था। तो मैंने सोचा कि आपके पास चलें और इस विषय को डिस्कस (चर्चा) करें कि मेरे जीवन में कन्टिन्यूटी (निरन्तरता) क्यों नहीं आ पाती है। मैं आया था इस विषय को लेकर के और काशी शिविर इसीलिए अटेंड (भाग लेना) भी किया, लेकिन मेरे साथ हो गया उल्टा।

मैं वहाँ से आया तो वहाँ से लौटने के बाद अब न मेरा पेपर पढ़ने का मन कर रहा है; मैं इसके पहले यू.पी.एस.सी. की प्रिपरेशन करता था; तो अब न पेपर पढ़ने का मन कर रहा है न यूट्यूब देखने का मन कर रहा है।

पहले मैं घर पर फ़ोन करता था तो अपनी माँ से एक-एक, डेढ़-डेढ़ घंटे बात करता था और वो ऊब जातीं थीं, अब घर पर फ़ोन भी नहीं करने का मन करता। पहले ऑफिस में दोस्तों, मित्रों के साथ हर तरीके की बात होती थी, अब उनका साथ भी छूट रहा है क्योंकि हमें लग रहा है कि बकवास कर रहे हैं— अकेले ज़्यादा रहने का मन करता है।

तो मुझे ये लग रहा है कि अध्यात्म के जीवन में आने से ये होता है क्या कि जो सांसारिक जीवन होता है वो खत्म होने लगता है क्या? क्योंकि मेरी नज़र में तो यही है कि पद पाओ, सांसारिक जीवन तो यही होता है कि पद पाओ , प्रतिष्ठा पाओ, प्रोन्नति करो, जीवन में बड़ा नाम करो, ये करो, वो करो। लेकिन अध्यात्म के जितना मैं नज़दीक जा रहा हूँ मुझे लग रहा है कि ये सब चीज़ें छूटती जा रही हैं।

जैसे कि पहले सिलेबस की किताबें पढ़ता था, अब क्या है कि उन किताबों को पढ़ने का मन नहीं करे क्योंकि एक ही किताब को पाँच-छः बार पढ़ चुका हूँ, फिर उसको अब पढ़ने का मन नहीं कर रहा है कि अब इसमें क्या पढ़ें; उसके बजाय आपकी किताबें ही पढ़ रहा हूँ।

तो मेरा यही प्रश्न है कि क्या अध्यात्म के आने से जो सांसारिक, जो सो कॉल्ड (तथाकथित) एक जीवन होता है वो खत्म होने लगता है क्या? और इस डर की वजह से मेरे एक-दो मित्र थे जो आपके पास आने की उत्सुकता थी उनकी, आपको यूट्यूब पर सुनकर थोड़ा इम्प्रेस (प्रभावित) होते थे, ये मेरी स्थिति देखकर वो कह रहे हैं कि नहीं, मुझे नहीं जाना, तुम ही जाओ।(सब हँसते हैं)

आचार्य प्रशांत: एक साहब थे, उन्हें दुनिया बहुत पसन्द थी, तो उन्होंने दुनिया स्वादिष्ट जानकर खानी शुरू कर दी, अब वो खाते गये, खाते गये, खाते गये, पच्चीस साल तक उन्होंने दुनिया खायी, और खाकर इतने मोटे हो गये, इतने मोटे (दोनों हाथ फैलाकर दिखाते हुए)। वो गये एक वैद्य के पास, वैद्य ने कहा ‘क्या करके आये हो?’, बोले ‘पच्चीस साल से बस चबा रहे हैं, यही करके आये हैं।‘

जो मिलता गया उसको भीतर लेते गये, इरादा तो ये था कि पूरी दुनिया ही गप कर जाएँ लेकिन उससे पहले ही तबियत ज़रा नासाज़ हो रही है इसलिए आपके पास आ गये। उन्होंने कहा, अच्छा ठीक है, पच्चीस साल से चबा रहे हो। ऐसा करलो बेटा, दो दिन परहेज़ करना पड़ेगा, दो दिन का उपवास रखना पड़ेगा। ज़रूरी है कि तुम्हारे भीतर जो कचरा जमा है थोड़ा वो हटे, दो दिन का उपवास करना पड़ेगा।

बोला ‘ठीक है, ये दो दिन शुरू कब होंगे?’ बोले, बस अब कल से ही शुरू होते हैं। तो कल सुबह छः बजे से तुम्हारा परहेज़ शुरू है, कुछ खाना नहीं है दो दिन। आदत क्या पड़ी हुई है? दिन भर चबाने की, और मुँह ही भर से नहीं— आँख से भी चबाने की, नाक से भी चबाने की, कान से भी चबाने की, त्वचा से भी चबाने की, विचार से भी, स्मृतियों से… दनादन चबाने की।

अब सुबह छः बजे प्रक्रिया शुरू हुई है, आठ बजे नहीं कि वो वैद्य जी का कातर निगाहों से लगे चेहरा ताकने।(खाना माँगने का इशारा करते हुए) कह रहे हैं ‘क्या उपचार में ऐसा ही होता है? दो घंटे हो गए और कुछ खाया नहीं है।‘ वैद्य जी ने कहा, दो ही घंटे तो हुए हैं, तू पच्चीस साल से खा रहा था, कोई तुलना है? थोड़ा तो सब्र रख। अब जैसे ये चबाने वाले, वैसे ही इनके मित्र होंगे— जैसे तुम वैसा तुम्हारा समाज।

अब मित्रों ने देखा कि आज किसी ने पूरे दो घंटे तक कुछ नहीं चबाया है; वो खौफ़ में आ गए, बोले ये वैद्य खतरनाक है, दो घंटे से हमारे साथी को इसने कुछ चबाने नहीं दिया। कसम से पूरे दो घंटे, एक-सौ-बीस मिनट बीत चुके हैं। एक-सौ-बीस मिनट! बात सही है, कितने सारे! शतक पार हो गया, एक-सौ-बीस मिनट, ये तो बड़ी नाइंसाफी है- आदमी एक और मिनट एक-सौ-बीस। फिर बजे दस; पहले तो बस कातर निगाहों से ही देख रहे थे वैद्य जी को कि थोड़ी रियायत करिए दो घंटा बीत गया है। अब आँखों में कातरता की जगह द्वेष आ रहा है, कह रहे हैं, वैद्य, इरादे क्या हैं तेरे? मेरा माल तू गप करना चाहता है, कुछ तो राज़ है जो तू मुझे खाने नहीं दे रहा, ज़रूर तेरा कोई स्वार्थ है। चार घंटे से मैंने कुछ नहीं खाया।

वैद्य कह रहा है, चार ही घंटे तो हुए हैं। तू पहले सोच कि तेरी हालत क्या है, पच्चीस साल पुराना कूड़ा भी तेरे भीतर जमा है अभी। और ऐसा नहीं है कि तुझे इंतज़ारर करना नहीं आता। वासनाओं के लिए तू दस-दस रात इंतज़ार कर सकता है, कामनाओं के लिए तू हफ्तों तक कहीं खड़ा होकर पहरा दे सकता है, तो ऐसा भी नहीं है कि तुझे इंतज़ार करना नहीं आता। प्रतीक्षा करनी तुझे खूब आती है, पर सिर्फ़ उन वस्तुओं और विषयों की जिनसे तेरा मन आसक्त है। स्वास्थ्य के प्रति तुझमें कुछ सम्मान नहीं, इसीलिए चार घंटे की प्रतीक्षा भी तुझे कितनी अखर रही है। कितना पुराना तेरा मर्ज़ है, करीब-करीब असाध्य है, हम उसका इलाज करने बैठे हैं।‘

बताने वाले बता गए कि साधक में तितिक्षा का होना बहुत ज़रूरी है। असीम धैर्य चाहिए, स्थितियों के प्रति उदासीनता चाहिए, सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास इन सबके प्रति उपेक्षा चाहिए, और तू चार ही घंटे में दम तोड़ रहा है। तो इसने सुन लिया और बस किसी तरीके से जज़्बात दबाकर रह गया।

अब बारह बजे नहीं कि कहा वैद्य जी आपकी अनुमति भी नहीं लेंगे, एक तरफ़ होइए, मारा धक्का और नौ-दो-ग्यारह। और नौ-दो-ग्यारह हुआ नहीं कि बाहर वही सब दोस्त खड़े थे समोसा, कचौड़ी लेकर, लगे ठुसाने, कि मित्र तू बहुत ही गलत फँस गया था, पूरा टोकरा तेरे लिए हम तैयार करके लाए हैं कचरे का। छः घंटे में तो तू सूखकर कांटा हो गया है, भुखमरी से आज एक मौत होने ही वाली थी। छः घंटे की प्रतीक्षा कर ली भाई।

सूत्र समझो- जितना पुराना तुम्हारा मर्ज़ होता है, उतनी ही कम तुममें प्रतीक्षा की सामर्थ्य बचती है। क्योंकि मर्ज़ ने यही तो खा लिया होता है; मर्ज़ ने तुम्हारा सब्र खा लिया होता है। अब मर्ज़ जितना पुराना है उसको ठीक करने के लिए उतना सब्र चाहिए, लेकिन मर्ज़ जितना पुराना होता है उतना ही तुममें कम सब्र बचता है, मर्ज़ ही सब्र को खा गया होता है। नतीजा, मर्ज़ जितना पुराना होता जाता है उतना ही वो असाध्य होता जाता है, लाइलाज होता जाता है।

बहुत सारे चिकित्सक इसीलिए पहले ही बता देते हैं, मैं भी बता देता हूँ कि पुराने रोगी हो, तत्काल चमत्कार की उम्मीद मत रखना। तुम बहुत खेले-खाए हो, यहाँ कोई जादू की छड़ी नहीं है। स्वास्थ्य के प्रति तुममें गहन अभीप्सा हो तो ही आगे बढ़ना, नहीं तो थोड़ी दूर जाओगे फिर निराश होकर लौटना ही पड़ेगा।

मुमुक्षा समझते हो न? या तो मुक्ति दे दो या प्राण ले लो। इतनी तीव्र अभीप्सा हो तो आगे बढ़ो, नहीं तो मिलेगा कुछ नहीं और मन में शिकायतें तमाम खड़ी हो जाएँगी। ऐसे साधक बहुत घूम रहे हैं, कृष्ण उन्हें योगभ्रष्ट कहते हैं कि चले थे योगी होने और बीच में ही भोगी हो लिये, चले थे पहाड़ चढ़ने और बीच में फिसल लिये, और बिलकुल खाई में जाकर गिरे हैं। इनको शिखर की ऊँचाई से शिकायत थी, ये कह रहे थे, ‘अरे दस दिन हो गए चढ़ते-चढ़ते अभी तक शिखर तो मिला नहीं’,कोई बात नहीं, आपके लिए खाई में बिस्तर बिछाया है, आप नीचे जाएँ।

शिखर अगर आपको महँगा सौदा लगता है तो आपके लिए खाई है न, जाइए वहाँ जाइए। और शिखर तक चढ़ने में बेटा थकान तो होगी न, अंग-अंग टूटेगा, कीमत तो अदा करनी पड़ेगी न?

ये सब स्थितियाँ हैं, ये आएँगी और जाएँगी। कभी किसी चीज़ में मन लगेगा, कभी नहीं लगेगा। दोष इसमें अध्यात्म का नहीं है, ये मन की प्रकृति है। लो एक सवाल पूछे लेता हूँ तुमसे, तुम कहते हो अध्यात्म के बाद तुम्हारा पढ़ाई में मन नहीं लगता, अध्यात्म से पहले तुमने कौन-कौनसी परीक्षाएँ साधकर रख दी थीं? पर तुरन्त लिया और घड़ा फोड़ दिया परमात्मा के माथे; जैसे कि परमात्मा न होता तो तुम दुनियाभर की परीक्षाओं में अव्वल ही आ रहे थे। पर कोई तो चाहिए न दोषारोपण के लिए।

अध्यात्म आया तो तुम्हारे दोस्त तुमसे विमुख होने लगे, उलाहना देने लगे, ये तुमको बड़ा बुरा लगा; और जब अध्यात्म नहीं था तब तुम्हें ये बुरा नहीं लग रहा था कि तुमने इस तरीके के घटिया दोस्त इकट्ठा कर लिये थे। जो दोस्त तुम्हें आज उलाहना दे रहे हैं, वो दोस्त तुमने क्या अध्यात्म के बाद इकट्ठा किए थे? ये दोस्त तुमने संचित कब किए? अध्यात्म से पहले। अध्यात्म से पहले का तुम्हारा जीवन और तुम्हारे निर्णय और तुम्हारे चुनाव अगर बहुत सटीक रहे हों, तो तुम वैसे ही हो जाओ न जैसे पहले थे। पर जैसे तुम पहले थे, तुम स्वयं जानते हो तुम्हें चैन नहीं था, इसीलिए अध्यात्म की ओर मुड़े, है न?

तुम्हारे दोस्तों में कोई कीमत ही होती तो उनकी दोस्ती ही तुम्हें काफ़ी पड़ती, तुम्हें शास्त्रों, ग्रन्थों, गुरुओं की तरफ़ क्यों मुड़ना पड़ता। ज़ाहिर-सी बात है, तुम्हारे वो दोस्त तुम्हारे किसी काम के नहीं हैं। पर हाँ, इतना काम वो ज़रुर कर रहे हैं कि अब जब तुम मुड़े हो सत्य की दिशा में, तो वो पीछे से कंकड़ मार रहे हैं तुमको और पाँव खींच रहे हैं तुम्हारा और ताने फेंक रहे हैं।

कष्ट संसार में भी है, कष्ट साधना में भी है। साधना का कष्ट बुरा लगता हो तो जाओ संसार का कष्ट सह लो। कितने लोग हैं जिनका मन बिलकुल प्रफुल्लित हो जाता है अस्पताल के विचार से ही? कितने लोग हैं जो नाच पड़ते हैं अस्पताल पहुँचकर के? कितने लोग हैं जो आतुरता से प्रतीक्षा करते हैं कि कब डॉक्टर देवता के दर्शन होंगे? अच्छा किसी को नहीं लगता अस्पताल जाना, पर अगर अस्पताल जाना बहुत बुरा लगता हो तो अपनी बीमारी के साथ रह लो।

इस धोखे में कोई न रहे कि अध्यात्म माने ‘सुख की वर्षा’, नहीं, बिलकुल भी नहीं, ये फिल्मी छवि है, इसको लेकर आगे मत बढ़ना। अध्यात्म के रास्ते में भी बड़े काँटे हैं। जिनमें ज़रा हिम्मत हो, जिनमें ज़रा प्रेम हो वो ही आगे बढ़ें। साधना और तपस्या हल्की बातें नहीं हैं—एक आग का दरिया है और डूबकर जाना है।— साधना, तपस्या तो छोड़ दो, इश्क के बारे में भी यही है। इश्क तक रूमानी नहीं है अध्यात्म में; रूहानी है, रूमानी नहीं। इश्क भी आग का दरिया है। ये बातें तो किसी बहुत ज़िद्दी प्रेमी के लिए ही हैं।

“सर सौंपो सीधे लड़ो, काहे करो कुदाव”, जो सर सौंपने के बाद लड़ने को तैयार हो ऐसा चाहिए कोई। जो ये न कहे कि सर बचाए-बचाए लड़ाई में जा रहे हैं, सर बचाए-बचाए लड़ाई में जाओगे तो डरे-डरे क्या लड़ोगे? इससे अच्छा सर पहले कटा लो, फिर लड़ने जाना, ऐसा कोई चाहिए।

कभी एक स्थिति आएगी, कभी दूसरी स्थिति आएगी। आज कह रहे हो ‘पढ़ाई में मन नहीं लगता’, कल हो सकता है कहने लग जाओ कि पढ़ाई में मन लग रहा है। लग रहा हो चाहे नहीं लग रहा हो; तुम्हें स्थिर रहना है। बहुत ऐसे हैं जो जब अध्यात्म के रास्ते पर चलते हैं तो उनका पढ़ाई इत्यादि में बहुत मन लगना शुरू हो जाता है; वो भी कोई विशेष बात नहीं है, क्योंकि अध्यात्म का लक्ष्य न तो ये है कि तुम पढ़ाई में बहुत अच्छे हो जाओ, न ये है कि तुम्हारी पढ़ाई छूट जाए।

अध्यात्म का तुम्हारी शैक्षणिक योग्यता और उपलब्धियों से कोई लेना-देना ही नहीं है। तुम्हारे साठ प्रतिशत अंक आते थे, ये भी हो सकता है कि अध्यात्म के उपरान्त तुम्हारे अस्सी आने लग जाएँ और ये भी हो सकता है कि साठ के तीस रह जाएँ न अस्सी में कुछ रखा है न तीस में कुछ रखा है, अध्यात्म का लक्ष्य कुछ और है। तुम्हें अस्सी के प्रति भी संयम रखना होगा और तीस के प्रति भी संयम रखना होगा।

तुम्हें निशाने पर निगाह रखनी होगी, बाकी सब चीज़ों को कहना होगा ‘हो गयीं तो हो गयीं’, कुछ बढ़ गया तो बढ़ गया, कुछ घट गया तो घट गया। अध्यात्म के रास्ते पर चलकर बहुत भिखारी हो गए, और अध्यात्म के रास्ते पर चलकर बहुत ऐसे भी हैं जिनके यहाँ धनवर्षा हो गयी। न धन का आना मायने रखता है न धन का जाना मायने रखता है, निशाना कहीं और है।

अगर आदमी वास्तव में आध्यात्मिक है तो न उसे इस बात से फ़र्क पड़ेगा कि पैसा चला गया, न इस बात से पड़ेगा कि पैसा आ गया, आया है तो कल जा सकता है, आज नहीं है तो कल आ सकता है। क्या इस बात का बहुत खयाल रखें, जा तो हम कहीं और रहे हैं न? अंक बढ़ गये अच्छी बात, अंक घट गये अच्छी बात; दोस्त-यार आज खफ़ा हो गये, हो सकता है खफ़ा हो जाएँ ये भी हो सकता है कि कल तुम्हें दस नये दोस्त-यार मिल जाएँउसमें भी कोई बड़ी बात नहीं, मिल गये तो मिल गये।

कइयों को इस बात से बड़ा अपमानित होना पड़ता है—संयोग की बात है— कि तुम क्या भक्त बने घूम रहे हो, ये क्या तुमने टीका इत्यादि लगा रखा है, ये क्या तुम माला जप रहे हो। इस बात से बहुतों को अपमान झेलना पड़ता है, और इसी बात से बहुतों को सम्मान भी मिल जाता है कि आइए-आइए श्रीमन् पधारिए, आप तो बड़े ज्ञानी लगते हैं, सत्य के पारखी हैं, आइए, बैठिए। सम्मान मिल गया तो भी ठीक है, अपमान मिल गया तो भी ठीक है क्योंकि उद्देश्य न सम्मान है न अपमान है, उद्देश्य कुछ और है, तो बीच की इन बातों की इतनी चर्चा क्यों?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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