स्वीकृति की चाह और नियन्त्रण का भाव || (2014)

Acharya Prashant

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स्वीकृति की चाह और नियन्त्रण का भाव || (2014)

प्रश्नकर्ता: स्वीकृति, मान्यता हमारे लिए इतना महत्व क्यों रखती है? जब कोई नहीं होता तो हम ख़ुद अपने-आप को अपनी स्वीकृति देने लगते हैं।

आचार्य प्रशांत: स्वीकृति से, मान्यता से नियंत्रण का भाव आता है। "जो हो रहा है वो मेरे चाहे हो रहा है। मैं पूरे नियंत्रण में हूँ। नहीं मैं बह नहीं रहा हूँ, मैं तो अपेक्षित दिशा में ही जा रहा हूँ। मेरी नाव हवाओं के साथ नहीं है, मेरी नाव मेरी मर्ज़ी के साथ है।" आप देखिएगा वही घटना हो रही हो, अभी उसपर आपकी स्वीकृति की मोहर ना लगी हो, आप उसका विरोध करने लगेंगे, और कोई आकर के आपकी सिर्फ़ एक झूठी, नाममात्र की स्वीकृति ले ले तो फिर आपको वो चीज़ स्वीकार हो जाएगी।

घर के बच्चे को कहीं जाना है, जाना उसे वहीं है जहाँ उसे जाना है, पर माँ-बाप का ख़ास ज़ोर इस बात पर रहता है कि हमारी स्वीकृति ले कर के जाओ। इस स्वीकृति में अकसर बच्चे की कोई भलाई नहीं है, सिर्फ़ माँ-बाप के अहंकार कि तुष्टि है। बच्चे की इसमें कोई भलाई नहीं है क्योंकि जाना उसे वहीं है जहाँ उसे जाना है, आपका आग्रह बस इतना है कि हमारी अनुमति से गए कि नहीं गए। बच्चे की भलाई महत्वपूर्ण नहीं है, आपका नियंत्रण में होना महत्वपूर्ण है, ‘हमारी अनुमति से गया है तो ठीक है।’

प्रेम विवाह आदि को लेकर के घरों में जो अकसर अड़चनें आती हैं, वो इसलिए नहीं आती हैं कि आपके बच्चे ने जिसको चुना है उसमें कोई खोट है, अड़चन यह है कि उसने क्यों चुना। चुनाव में ग़लती नहीं हो गई है कि माँ-बाप विरोध में अब खड़े हैं, ग़लती इसमें है कि तुम्हें चुनने का हक़ किसने दिया! "नियंत्रण में कौन हैं? हम! तो हमें ही तुम्हारा भाग्य निर्धारित करने दो।"

जहाँ पर हमारी स्वीकृति से या अस्वीकृति से कोई अन्तर नहीं पड़ता हम वहाँ भी उसको ठूसे हुए हैं। आप अपनी भाषा को देखिए – मैं साँस ले रहा हूँ। ‘आप’ साँस ले रहे हैं, वाकई? ज़्यादा नहीं बस आप चार मिनट के लिए रोक कर दिखा दीजिए फिर। पर वहाँ भी हमारा दावा यह है जैसे साँस भी हमारी स्वीकृति से आ-जा रही हो। अच्छा लगता है, ‘जो हो रहा है वो मेरे मुताबिक हो रहा है।’ बढ़िया लगता है।

आप कुछ देखेंगे, कुछ सोचेंगे, कुछ समझेंगे तो शब्द कैसे रहते हैं – फिर मैंने ये देखा, मैंने ये समझा और मैंने ये किया, जैसे कि ये सब कुछ ‘आप’ के करे हुआ हो। यहाँ पर ये मशीनें हैं, ये लाइट है, ये ए.सी है, इन्हें क्या हक़ है ये कहने का कि, "पहले हम चले फिर हमने ठंडा किया और फिर थोड़ी देर बाद हम चुप हो गए, बंद हो गए।" पर ये बचे हुए हैं अभी, सौभाग्य है इनका कि इन्हें अहंकार की बीमारी नहीं लगी है, नहीं तो ए.सी का दावा जानते हैं क्या होता?

पहली बात तो ये कि, "मैं बहुत कूल हूँ" और दूसरी बात, "हर इतवार सुबह नौ बजे मैं चला जाता हूँ और इनको सबको बोलता हूँ कि आकर बैठो यहाँ पर। फिर मैं कहता हूँ कि चलो बात-चीत शुरू करो, और मैं देख रहा हूँ तुम्हें ऊपर से कोई गड़बड़ नहीं करेगा। ये सब कुछ जो होता है वो बिलकुल मेरे नीचे-नीचे होता है, और ये सब नीचे बैठ कर करते क्या हैं? ये सब नीचे बैठ कर के मेरा गुणगान करते हैं कि 'प्रभु शीतलता दो'।" अगर उसमें अहंकार होता तो वो यही कहता कि जो हो रहा है वो 'मेरे' करे हो रहा है, 'मेरी' सहमति से हो रहा है, 'मेरी' स्वीकृति से हो रहा है। बड़ा अच्छा लगता है! "मैं ही तो कर रहा हूँ, और कौन कर रहा है।"

ना आपके विचार आपके हैं, ना आपके कर्म आपके हैं। दोनों ही तरह नहीं हैं आपके। जब अहंकार है तो आप मशीन बराबर हैं तो तब भी आपके नहीं और जब अहंकार नहीं है तो आप पूर्ण अस्तित्व हो गए तब भी आपके नहीं। आपका होना-न-होना, आपकी मर्ज़ी, आपकी मान्यता, इनकी क्या कीमत है? लेकिन अच्छा लगता है।

एक कहानी है – नन्हा राजकुमार (लिटिल प्रिंस ), उसमें राजा है एक और वो एक ऐसे ग्रह का राजा है जहाँ पर सिर्फ़ वही है और शायद एक-आधे और हैं लोग। तो वो रोज़ अनुमति देता है – "सूरज अब तुम उग सकते हो, सूरज अब तुम ढल सकते हो।" जो होगा उस ग्रह पर वो उसकी मर्ज़ी से होगा क्योंकि वो राजा है तो सूरज भी कब उगेगा? तो ठीक जब सूरज के उगने का समय होता है वो जाकर के सूरज को आज्ञा दिया करता है – "उगो!" और ठीक ढलने के समय पर वो जाकर के पुनः आज्ञा देता है – "ढल जाओ!"

ऐसा ही हमारा जीवन है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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