सतह में व्याकुलता और गहराई में चैन || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

Acharya Prashant

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सतह में व्याकुलता और गहराई में चैन || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात्। संबाहुभ्यां धमति सं पततैर्द्यावाभूमी जनयन्देव एकः।।

वह एक परमात्मा सब ओर नेत्रों वाला, बाहुओं और पैरों वाला है। वही एक मनुष्य आदि जीवों को बाहुओं से तथा पक्षी-कीट आदि को पंखों से संयुक्त करता है, वही इस द्यावा पृथ्वी का रचयिता है।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद (अध्याय ३, श्लोक ३)

आचार्य प्रशांत: दोहराव है उसी भाव का जो पिछले श्लोक में अभिव्यक्त था। तुमको किसी भी तरह की सामर्थ्य देने वाला वो ही है जिसकी तुम छुपे-छुपे बड़ी कामना रखते हो। बात शरीर की नहीं है, शरीर को तो सामर्थ्य प्रकृति से ही मिल जाएगा। कोई पागल आदमी भी हो, तो हो सकता है कि उसके शरीर में बड़ा दम हो, अकसर विक्षिप्त लोगों के शरीर में बहुत दम होता है। तो निश्चित रूप से उपनिषदों का तात्पर्य यहाँ तुम्हें शरीर के बाहुबल के क्षेत्र में ले जाना नहीं है।

उपनिषद् तो मन के आयाम में बात करते हैं, और मन को ताक़त वो ही देगा जिस तक मन को पहुँचना है। ऐसे समझ लो कि एक कमज़ोर आदमी बैठा हुआ है, वो बड़ा कमज़ोर है, वो हिल-डुल ही नहीं रहा। क्यों कमज़ोर है? खाया-पिया नहीं है बहुत समय से तो बिलकुल एकदम बस हड्डी और चमड़ी बची है, और वो निढाल बैठ गया है और अब वो उठने को भी राज़ी नहीं है। लग रहा है ऐसे ही बैठे-बैठे दम न तोड़ दे कहीं।

क्यों ये हालत हुई? क्योंकि उसको कुछ मिला नहीं। क्या नहीं मिला? भोजन। और अब वो उठ भी नहीं रहा। उससे तमाम बातें की जा रही हैं, कोई बात कर रहा है "आओ, आओ, तुमको बढ़िया गाना सुनाते हैं"; कोई बोल रहा है, "फ़िल्म दिखाते हैं"; कोई कहता है, "आओ, पैसा देंगे बहुत सारा।" वो नहीं उठ रहा। और फिर थोड़ी देर में उससे कुछ दूर पर बढ़िया सुस्वाद थाली सजा कर रख दी जाती है और एक-से-एक व्यंजन महक रहे हैं, एक-से-एक उसमें खुशबूदार पकवान। वो धीरे-धीरे उठ बैठता है और सरकते-सरकते पहुँच जाता है।

उसको उठने की ताक़त किसने दी?

उसी ने दी जिसकी उसको कामना थी और जो उसको मिल नहीं रहा था, जिसके अभाव में वो बेचारा दुर्बल हो गया था। वरना उसमें कोई ताक़त नहीं थी।

अब ये ताक़त कहाँ से आयी? क्या ये शरीर से आयी? नहीं, ताक़त मन से आयी। शरीर तो वही है पहले वाला।

मन को उठाता वही है जिसकी मन को कामना है। शरीर तो नहीं बदल गया था न? फिर भी उठ बैठा। और जिसकी ओर गया है उसकी निकटता पाकर के अब वो और ज़्यादा बल से भर जाएगा। पहले तो कुछ ग्रास वो बड़े काँपते हाथों से लेगा और जैसे-जैसे भोजन भीतर जाएगा, थोड़ी देर बाद पाएगा कि भोजन को भी ग्रहण करने की उसकी सामर्थ्य बढ़ गई है। जल्दी-जल्दी, जल्दी-जल्दी खाना शुरु कर देगा।

तो यही भाव उपनिषद् यहाँ व्यक्त कर रहे हैं, कह रहे हैं वो ही है जो तुम्हें बाहुबल देता है, वही है जो कीट-पतंगों को पंख देता है। तुममें जिस भी तरह की जो भी ताक़त है मानसिक तल पर, उसी से आती है, क्योंकि उसी की तो तुम्हें कामना है; वो कामना ही तुम्हारी ताक़त बनती है। बस वो कामना कहीं तुम रास्ते में ही ना व्यर्थ कर देना।

जैसे कि भूखा आदमी चला हो भोजन की ओर और रास्ते में खिलौना देख करके रुक जाए। इसका क्या होगा? ये भूखा ही रह जाएगा। और कुछ समय बाद किसी खिलौने तक जाने की भी इसमें ताक़त नहीं बचेगी। और भूलना नहीं कि चला तो वो भोजन की ओर ही था, राह में खिलौना मिल गया, या ये भी हो सकता है कि वो खिलौने की ओर ही चल दे। ये और बड़ा अभाग है क्योंकि रखा है उधर भोजन, जाना इसे भोजन की ओर चाहिए और जा रहा है ये खिलौने की ओर।

थोड़ी देर को जी बहल जाएगा, पर जितना भी समय ये खिलौने के साथ लगाएगा, वो समय इसके जीवन की उल्टी गिनती जैसा होगा। तू लगा रहा है वहाँ पर दस मिनट और उल्टी गिनती चल रही है दस, नौ, आठ, सात, छः और शून्य आते ही तेरा किस्सा ही ख़त्म।

तो अब से जब भी ये आप सुनें, पढ़ें कि 'सब कुछ वो ही देता है'। सुनते हैं न हम ऐसे 'सब कुछ उसी ने तो दिया है।' 'अरे साहब! सब उसी का दिया हुआ है।' इस तरह के जुमले आप सुनते हैं कि नहीं? तो इसका मतलब समझिएगा, उसने निश्चित ही दिया है पर उसने इसलिए दिया ताकि उस तक पहुँच सको। ताक़त वो ही दे रहा है, पर वो ताक़त इसलिए दे रहा है कि उस तक पहुँच सको। वो ताक़त इसलिए नहीं दे रहा कि उसकी दी हुई ताक़त का प्रयोग करके कहीं और पहुँच गए। कहीं और पहुँच जाओगे तो उसने जो ताक़त दी है वो वापस चली जाएगी, तुम्हारे किसी काम की नहीं रह जाएगी।

और भूलना नहीं कि जब तुम दूर हो भोजन से, भूखे आदमी, तो भोजन की श्वास तुम्हें ताक़त देती है आकर्षण बनकर। और जब तुम भोजन के निकट पहुँच जाते हो और भोजन को अपने भीतर ही ले लेते हो, तब तो जो ताक़त मिलती है उसका कहना ही क्या।

तो जो परमात्मा से दूर होते हैं परमात्मा की खुशबू उन्हें करीब खींच लेती है। दूर हो तो भी खुशबू काफ़ी है, तुम्हें खींचेगी। और जो निकट पहुँच गए, वो तो परमात्मा को भोजन की तरह लेने लग जाते हैं, उनकी रग़ों में बहने लग जाता है, उनकी ताक़त का कहना ही क्या! भूखे आदमी में भी ताक़त का संचार कर देता है वो, तो जिसका पेट उसने भर दिया, सोचो उसमें कितनी ताक़त आ जाती होगी!

तो इतना कहना काफ़ी नहीं होता कि, "सब वही देता है, उसी की बरकत है।" "अरे साहब! मालिक की कृपा है।" ये बहुत बचकानी बातें हैं, ये बिलकुल धूर्ततापूर्ण बाते हैं। अगर उसने दिया है तो इसलिए नहीं दिया कि तुम मज़े मारो। उसने दिया है तो इसलिए दिया है ताकि तुम जिन चक्रों में फँसे हो उनसे आज़ाद हो करके उसकी तरफ़ जा सको। उसके देने का बस एक यही अभिप्राय है।

"वही इस द्यावा पृथ्वी का रचयिता है।" द्यावा माने क्या? द्युलोक, माने वो सब जितने चमकते हुए ग्रह, नक्षत्र, उपग्रह, तारे हैं, उनको द्युलोक कहा जाता है। जैसे विद्युत होती है न, जो कुछ चमक रहा हो। तो उसी से द्यावा पृथ्वी माने समस्त अंतरिक्ष। वही इन सब ग्रहों, उपग्रहों का और पृथ्वी का रचयिता है। क्यों कहा जा रहा है कि वही रचयिता है? क्योंकि अगर वो रचयिता नहीं है तो तुम रचयिता हो, क्योंकि अगर उसने नहीं बनाया तो फिर तो सब तुम्हारा प्रक्षेपण मात्र है।

हमारे भीतर धारणा क्या रहती है ये समझो। उपनिषद् जो करना चाह रहे हैं वो अगर हम समझ जाएँ, तो फिर उनके शब्द बिलकुल हमारे लिए खुल जाएँगे। हमारे भीतर संसार को लेकर धारणा क्या रहती है? हमारे भीतर इस संसार को लेकर धारणा ये रहती है कि 'ये एक भौतिक जगह है जहाँ हम मौजूद हैं। इस भौतिक जगह पर मेरे जैसे प्राणी आते-जाते रहते हैं।' और ये भौतिक जगह क्यों है, कैसे है, उसका हमें ज़्यादा कुछ पता नहीं।

विज्ञान हमें कहता है कि हुआ था कुछ बिग-बैंग जहाँ से इस पूरे ब्रह्मांड की उत्पति हो गई। कोई पूछे, "बिग-बैंग से पहले?" तो विज्ञान कहता है, "बिग-बैंग के साथ ही समय शुरू हुआ, बिग-बैंग से पहले समय भी नहीं था।" अरे, तो भाई बिग-बैंग से समय शुरु होता है तो क्या बिग-बैंग ही प्रथम है? क्या बिग-बैंग को ही परमात्मा बोल दें?

अब यहाँ पर आकर विज्ञान खामोश रहता है, कुछ बताता ही नहीं कि ये सब आया कहाँ से। बल्कि यूँ कहिए कि विज्ञान की कहानी शुरू ही वहाँ से होती है जहाँ से सब कुछ आ गया था। बिग-बैंग का अर्थ ही है कि कुछ था जिससे ये सब कुछ एक विस्फोट से उत्पन्न हुआ; कुछ था। वो आयाम जिसमें कुछ नहीं होता उसकी तो विज्ञान वैसे भी बात ही नहीं करता। विज्ञान तो मटीरियल (पदार्थ) के आयाम की बात करता है न। माने जहाँ कुछ पहले से ही 'है'। वो 'है' और फिर बिग-बैंग , और फिर विस्तार होने लग गया और बहुत सारे परिवर्तन होने लग गए; सूरज, तारे, ग्रह यह सब अपना निर्मित होने लग गए और बड़ा लंबा समय लगा, ये सारी बात।

अगर हम ऐसा मान रहे हैं तो फिर हम अपने बारे में भी वैसे ही मूल अज्ञान में रहेंगे जैसे विज्ञान ब्रह्मांड के बारे में मूल अज्ञान में है, कि एक बिंदु तक जाता है, उसके आगे कुछ पता ही नहीं। ये कोई बात है? एक बिंदु तक गए, आगे का कुछ पता ही नहीं। क्या हुआ? क्यों हुआ? नहीं पता।

अगर तुम भी ऐसे ही हो गए अपने बारे में, तो तुमको ये तो पता होगा कि मैं यहाँ गया था ये लेने के लिए। अच्छा, "ये लेने क्यों गए थे?" "क्योंकि मुझे ये चीज़ चाहिए थी।" "क्यों चाहिए थी?" "क्योंकि कल मुझे लगा था कि ऐसा होगा अगर, ये चीज़ होगी मेरे पास, तो मुझे ये लाभ हो जाएगा।" "अच्छा ऐसा क्यों लगा था?" "वो हमें पता नहीं।" तो तुम अटक जाओगे। तुम अपनी वृत्तियों तक, अपने अंतःस्थल तक कभी पहुँच ही नहीं पाओगे।

तुमको बताया जा रहा है कि जब गहरे, गहरे और गहरे प्रवेश करोगे, चाहे भौतिक जगत में और चाहे अपने आंतरिक जगत में, तो जिस जगह पहुँचते हो उसका नाम परमात्मा है। और उस जगह तक तुम इंद्रियों के माध्यम से और विज्ञान और उपकरणों के माध्यम से नहीं पहुँच सकते, उस जगह तक तो तुम नकार, नकार कर ही पहुँच सकते हो। आप कहेंगे 'नकार, नकार करके कैसे पहुँच सकते हो?' क्योंकि नकारने में श्रद्धा चाहिए और क्या नकारना है, ये जानने के लिए ध्यान चाहिए। ध्यान और श्रद्धा जब मिल जाते हैं तो परमात्मा हमारे लिए आविर्भूत होता है।

अब ये बात समझ में आ रही है कि क्यों तमाम तरह के धर्म, पंथ, मज़हब कहते रहते हैं कि परमात्मा ने इन सब चीज़ों की रचना करी? उसका एक तर्क तो ये होता है कि 'देखिए, कोई भी चीज़ होती है तो उसे बनाने वाला होता है; तो ये दुनिया है तो इसे बनाने वाला कोई होगा। रचना है तो रचनाकार होगा, घट है तो घटकार होगा, तो इसी तरीके से ज़रूर कोई गॉड या ईश्वर है।'

ये बहुत बेतुका तर्क है और बहुत उथले तल का तर्क है। इस तर्क में कोई दम नहीं है, क्योंकि देखो, घट को बनाने वाला अगर घटकार होता है, या चादर को बुनने वाला बुनकर होता है, तो बुनकर और चादर एक ही तल में होते हैं न। दोनों क्या हैं? दोनों भौतिक हैं।

बुनकर का भौतिक हाथ होता है जिससे एक भौतिक चादर बुनी जाती है, कुम्हार का भौतिक हाथ होता है जिससे भौतिक घड़ा बनाया जाता है। तो अगर आप कह रहे हो कि, "साहब, दुनिया है तो इसीलिए दुनिया को बनाने वाला भी होगा", तो आपने दुनिया के बनाने वाले को भी दुनिया के आयाम में डाल दिया। और अगर वो दुनिया के ही आयाम का है तो उसको ही बनाने वाला कोई और होगा फिर, क्योंकि आप तो कह रहे हो न कि दुनिया में जो कुछ भी है इस आयाम में, जो कुछ भी है, उसको बनाने वाला कोई होगा।

भाई, चादर को बनाने वाला बुनकर होता है तो बुनकर को बनाने वाला कोई और भी होता है। इसी तरीके से तुमने अगर कह दिया कि ये जगत भौतिक है इसलिए इसे बनाने वाला कोई ईश्वर, अल्लाह बैठा है, तो तुम बहुत अच्छा तर्क नहीं दे रहे हो। फिर तो ये सवाल पूछा जाएगा कि, "फिर उसको किसने बनाया?" और अगर ये सवाल ना भी पूछा जाए तो भी इस तरह के जिस ईश्वर की फिर तुम कल्पना कर रहे हो, वो ईश्वर पूर्णतया भौतिक होगा, चादर के ही तल का होगा। उसमें कुछ खासियत नहीं।

तो असली बात क्या है ये समझो। जब कहा जाए कि ईश्वर ने संसार की रचना की, तो उसका वास्तविक अर्थ ये है कि अब से सदा ध्यान रखना कि संसार की गहराइयों में अगर जाओगे, तो जिसको पाओगे वो सत्य है। और संसार की सतह पर ही अगर रह जाओगे, माने संसार को अगर पूरा नहीं जान पाओगे, तो संसार फिर संसार जैसा है।

संसार बिलकुल कहाँ से आ रहा है, संसार का स्रोत क्या है, संसार की असलियत क्या है, ये जिसने जान लिया वो सत्य के करीब पहुँच गया। और जो संसार की सतह पर रह गया, सतह पर रह गया माने ये ही कह दे कि 'ये प्लास्टिक है, ये लोहा है', इतनी बात बोली और संतुष्ट हो गया, उसके लिए कुछ नहीं है।

और संसार को जानना और मन को जानना बिलकुल साथ-साथ चलते हैं, क्यों? क्योंकि संसार को जानने वाला तो मन ही है। संसार का पूरा अवलोकन करने वाला, निष्कर्ष निकालने वाला, संसार का द्रष्टा, ज्ञाता, सब मन ही है। तो संसार की गहराई में जाना और मन की गहराई में जाना बिलकुल एक ही बात है। संसार की सतह पर तुमको अज्ञान मिलेगा, संसार की गहराई में तुम्हें सत्य मिलेगा। मन की सतह पर तुमको भ्रम और दुःख मिलेंगे और मन की भी गहराई में तुमको चैन मिलेगा। उसी चैन का, उसी सत्य का नाम ईश्वर है।

उसने बनाया माने वो ही है गहराइयों में। उसने बनाया माने अगर लाँघ जाओगे इसको तो वो मिलेगा। "लाँघ जाएँगे, पर क्यों लाँघें?" क्योंकि लाँघे बिना चैन नहीं है। तो ये जो जनसामान्य में प्रचलित दैवीय सत्ता के बारे में, ईश्वर, परमात्मा के बारे में जो मुहावरे चलते हैं, सूक्तियाँ चलती हैं, इनका वास्तविक अर्थ जानना ज़रूरी है। अगर इनका वास्तविक अर्थ जान लिया तो इनसे बहुत लाभ हो जाएगा। इनका वास्तविक अर्थ नहीं जाना तो इन्हीं सूक्तियों के कारण आप जीवन भर अज्ञान में पड़े रह जाएँगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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