प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। गीता में स्पष्ट रूप में लिखा हुआ है कि कर्मकांड क्या है और वेदान्त क्या है। तो पहले तो सुनते हुए मुझे ये बात का आभास हुआ कि भारत की दुर्गति में एक तरफ़ तो वेदान्त नहीं मिला तो आन्तरिक रूप से दुर्बलता आयी। और जो कर्मकांड मिला, तो हमने भौतिक रूप से भी कोई तरक़्क़ी नहीं की। तो ये दो चीज़ें स्पष्ट सी लग रही थी। दूसरा ये लगा कि श्रीमद्भगवद्गीता और वेद, दोनों ही काफ़ी प्रचलित हैं। ख़ासकर भारत में। और इतने साफ़ और स्पष्ट शब्दों में श्रीमद्भगवद्गीता बोल रही है कर्मकांड को काफ़ी स्पष्टता से, तो फिर इतने सालों से कैसे श्रीमद्भगवद्गीता प्रचलित भी है। दोनों को ही एक जैसा ही सम्मान कैसे मिल रहा है?
आचार्य प्रशांत: नहीं, वेद लोगों ने पढ़े नहीं हैं न। श्रीमद्भगवद्गीता के तो फिर भी दो-चार श्लोक सुन लेते हैं, वेद पढ़े नहीं हैं। और श्रीमद्भगवद्गीता को भी सुन लिया है, गुना नहीं है। देखो, सबकुछ स्पष्ट लिखा रहता है। लेकिन स्वयं ही कृष्ण क्या बोल रहे हैं कि जिसके मन में कामनाओं का डेरा है, वहाँ ज्ञान अगर पहुँचा भी दो, तो वहाँ टिकता नहीं है। अभी भी सैकड़ों लोग जुड़े हुए हैं हमारे साथ। ठीक इस समय लाइव, वो सब सुन रहे हैं। लेकिन जितनी बातें उनसे कही गई हैं, उनमें से आधी भी उनमें टिकेंगी थोड़े ही। क्योंकि वहाँ पहले ही कामनाएँ टिकी हुई हैं न। जहाँ कामनाएँ गहराई से टिकी हों, जहाँ लालसा यही हो किसी तरीक़े से सुख मिल जाए, वहाँ मुक्तिदायक ज्ञान का क्या काम?
प्र: जो कर्मकांड है, वो निचली कामनाओं को पूरा करने के लिए है। पर क्या जो कर्मकांड में निचली जिस तरह से वो कह रहे हैं कि अगर आपको मकान बनाना है, तो आप ये करिए। उससे अच्छा ज़्यादा अच्छा ये नहीं है कि जो बाक़ी पश्चिम में हुआ कि उन्होंने वास्तव में...
आचार्य: बेहतर है, बिलकुल बेहतर है। बिलकुल बेहतर है। भारत की दुर्गति के बड़े-से-बड़े कारणों में ये कर्मकांड है। अभी भी, आज भी था, किसी ने हमें सन्देश लिखकर के भेजा है कि आप यज्ञ आदि का समर्थन क्यों नहीं करते? क्योंकि जब उसमें घी डाला जाता है, तो उससे ऑक्सीजन निकलता है। और जब भोपाल गैस कांड हुआ था, तो दो परिवार बच गये थे क्योंकि वो दोनों रात में हवन कर रहे थे। तो उस कारण उनकी हवा शुद्ध थी तो ज़हरीली गैस उन पर असर नहीं डाल पायी।
अब इस तरह के लोगों को क्या करोगे? जिन्हें ये समझ में ही नहीं आ रहा है कि कुछ भी जब जलता है, तो वो ऑक्सीजन से जलता है। वो ऑक्सीजन पैदा कैसे कर देगा? जलने को ऑक्सिडेशन बोलते हैं। कुछ भी जलाने के लिए ऑक्सीजन चाहिए, उससे ऑक्सीजन पैदा नहीं होता। उससे ऑक्सीजन खर्च होता है। आप ये गिलास ले लो। इसमें आप एक मोमबत्ती रख दीजिए। पानी नहीं है। इसमें एक मोमबत्ती रख दीजिए और ऐसा कर दीजिए ( ढक्कन से ढँकते हुए) क्या होगा थोड़ी देर में? क्यों बुझ जाएगी? ऑक्सीजन ख़त्म हो गया। कुछ भी जब जलता है, तो वो ऑक्सीजन को सोखता है, ऑक्सीजन पैदा नहीं करता।
लेकिन हमारे लोग; और ये सब वो लोग हैं जो बार-बार वेदों की बात करते हैं। कहते हैं, ‘वेदों में वर्णित है न। यज्ञ, हवन, ये, वो।’ कहते हैं, इससे ऑक्सीजन पैदा होता है। तो जितना ये प्रदूषण है आजकल, इसका उपचार क्या है? लकड़ी जलाओ। लकड़ी जलाओ, हवन करो। इससे प्रदूषण कम हो जाएगा। वो ऑर्गेनिक मैटीरियल है। वो कार्बन है। उसको जलाओगे, तो क्या बनेगा? ऑक्सीजन बनेगा या कार्बनडायऑक्साइड बनेगी? और कार्बनडायऑक्साइड से क्या होगा? समझ में ही नहीं आती बात? ये होता है कर्मकांड से।
हिन्दू धर्म तो ख़ासकर पूरी तरह से कर्मकांड का धर्म बन गया है। इस दिन दाढ़ी नहीं बनानी है, बच्चा इतने साल का हो जाए, तो उसके बाल घुटा देने हैं। और ग़लत-से-ग़लत काम ये हो रहा है कि इन कर्मकांडों को वैज्ञानिक बताने की आजकल चेष्टा की जा रही है। कि आप जो कुछ भी करते हो उल्टा-पुल्टा संस्कृति के नाम पर, दिखाओ कि किस तरह से उस चीज़ का एक वैज्ञानिक आधार है? हर चीज़ का वैज्ञानिक आधार स्थापित करो। जहाँ कोई आधार है ही नहीं। गोबर पोत लो, उससे न्यूक्लियर रेडिएशन घर में नहीं आएगा।
और ये सब बातें आज ही नहीं हो रही हैं। वो कृष्ण के समय में भी हो रही थीं। इसीलिए कृष्ण को इतना साफ़-साफ़ अर्जन को बताना पड़ा कि तुम मोह और आसक्ति में फँसे हुए हो। और मोह और आसक्ति से सम्बन्धित जो वेदों का भी हिस्सा है, तुम्हें उसका भी अतिक्रमण कर देना है। तुम्हें उससे भी आगे निकल जाना है। वो अर्जुन से इतना ही नहीं बोल रहे कि तुम अपनी व्यक्तिगत कामनाएँ छोड़ दो। अर्जुन से कह रहे हैं, ‘वेदों में भी जो भाग कामना की पूर्ति के लिए है, तुम वेदों के भी उन भागों को छोड़ दो।’ व्यक्तिगत कामना तो छोड़ो ही, वेदोक्त कामना भी छोड़ दो।
बिलकुल ठीक पकड़ा तुमने कि भारत की दुर्दशा के एक तरीक़े से यही दो कारण बताये जा सकते हैं। पहला तो ये कि वेदान्त से वंचित रह गया क्योंकि वेदों का अर्थ समझ लिया कर्मकांड। अब वेदों में उपनिषद भी हैं पर उपनिषदों पर ध्यान ही नहीं गया किसी का। कुछ ज्ञानी लोग थे जिन्होंने उपनिषदों को सम्मान दिया। आम जनता का उपनिषदों पर कोई ध्यान ही नहीं है। आम जनता के लिए वेदों का मतलब भी वही रह गया; इस देवता की ऐसे करनी है, वैसे करनी है। पूजा ऐसे करो, ऐसे सन्तुष्ट करो। ऐसा करने से ये देवी प्रसन्न हो जाती हैं। ये सब ये।
एक तो वेदान्त की ओर ध्यान नहीं गया और दूसरी ओर भौतिक तल पर भी मारे गये क्योंकि भौतिक तल पर सफलता मिलनी थी विज्ञान से, कर्मकांड से थोड़े ही। अध्यात्म से भी वंचित रह गये। क्योंकि वेदान्त की ओर ध्यान नहीं गया। और विज्ञान से भी वंचित रह गये क्योंकि सोच लिया कि भौतिक समृद्धि आ जाएगी कर्मकांड से। भौतिक समृद्धि कर्मकांड से नहीं, विज्ञान से आती है। विज्ञान से भी वंचित रह गये, अध्यात्म से भी वंचित रह गये। नतीजा कुल वो है जो आज भारत की स्थिति है, दयनीय।
ये बात बिलकुल साफ़-साफ़ समझ लीजिए। सनातन धर्म का अर्थ वेदान्त के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। बाक़ी जितनी भी बातें इधर-उधर की, उनको बिलकुल त्याग दीजिए पूरे तरीक़े से।
प्र २: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी, मेरा जो जन्म है, वो एक ब्राह्मण परिवार में हुआ है। तो मैंने बचपन से कर्मकांड काफ़ी देखा है। और जब मैं अपने घर में कुछ बताता कि ऐसा नहीं करें, तो मेरे पिताजी का उत्तर होता था कि कम-से-कम मैं ऐसा काम कर रहा हूँ, जो आम संसारी नहीं कर रहा है। तो मेरे मन में एक तरह से मुझे आज लगा सुनते वक़्त कि सीढ़ी बने हुए हैं कि मान लीजिए एक तो हो गया जो वेदान्त पढ़ते हैं। एक कर्मकांड के हो गये और फिर संसारी हो गये। तो पर जब सुना तो ऐसा लगा कि जिनको हम संसारी कहते हैं और जो कर्मकांडी है, वो कहीं-न-कहीं एक ही हैं।
आचार्य: हाँ, वो एक ही हैं। क्योंकि दोनों को कर्म के माध्यम से सुख चाहिए। संसारी जो कर्म कर रहा है, उससे तो फिर भी हो सकता है कि उससे कुछ लाभ हो जाए भले ही भौतिक। पर कर्मकांडी जो कर्म कर रहा है, उससे तो भौतिक लाभ भी नहीं होगा। वो तो बस आत्म प्रवंचना है, स्वयं को धोखा देने वाली बात है। लेकिन ये बिलकुल ठीक है कि संसारी और कर्मकांडी दोनों की बीमारी एक ही होती है कि कुछ करूँगा जिससे आगे मुझे स्वर्ग या सुख या कुछ और मिल जाएगा। कोई और प्रसन्न हो जाएगा। संसारी पूजा कर-करके अपने बॉस को प्रसन्न करता रहता है कि इससे मुझे कुछ लाभ हो जाएगा। कर्मकांडी पूजा कर-करके अपने देवता को प्रसन्न करता रहता है कि इससे मुझे कुछ लाभ हो जाएगा। संसारी को तो हो सकता है फिर भी पदोन्नति मिल जाए, कर्मकांडी को कुछ नहीं मिलता।
प्र २: पर आचार्य जी, मन में एक ये विचार आता था कि कम-से-कम जो कर्मकांडी है; जैसे हमने दुर्गासप्तशती पढ़ा, हमारे घर में भी पढ़ा जाता था। हम सुनते रहते थे। तो मन में आता था कि कम-से-कम चलो पढ़ तो रहे हैं, हो सकता है अर्थ न जानते हों। इसीलिए उसको थोड़ा सा ऊँचा..
आचार्य: स्कैनर आते हैं। एक स्कैनर में और एक मानव नेत्र और मन में क्या अन्तर है? स्कैनर है, वो उसको ऐसे ले जाओ, तो जो कुछ लिखा होगा, वो सबकुछ रिकॉर्ड कर लेगा वो। और आदमी की आँख भी है। वो भी जो कुछ लिखा होता है, वो सबकुछ पढ़ लेती है। दोनों में अन्तर किस चीज़ का है? समझने का अन्तर है। तो बस यही बात है। ज्ञान का अर्थ है समझना। जो तुम पढ़ रहे हो, उसको समझो।
कर्मकांड में भी बहुत सारी क्रियाएँ ऐसी हैं, विधियाँ ऐसी हैं जो प्रतीक के तौर पर बहुत उपयोगी हैं। पर उनका अर्थ तो तुमको पता हो। बिना अर्थ जाने अगर तुम बस उनका पालन कर रहे हो, तो कोई लाभ नहीं होगा। उस पर कर्मकांडी का तर्क ये होता है, ‘क्या आपको पता है कि आप जो दवाई खा रहे हैं, वो भीतर कैसे काम करती है? आपको नहीं पता न। पर वो काम करती है। इसी तरीक़े से आप बस कुछ विधियों का पालन करिए, काम हो जाएगा।‘ अच्छा! ग़ज़ब! क्या तर्क दिया है? अच्छा, आप ये संस्कृत में श्लोक बोल रहे हो, आपको इसका अर्थ पता है? आपको संस्कृत आती है? नहीं आती। कह रहे हैं, ‘ फिर इससे लाभ कैसे होगा?’ बोले, ‘ अर्थ नहीं पता। पर इनके वाइब्रेशन (तरंग) होते हैं न वाइब्रेशंस , उनसे लाभ हो जाता है।‘ तो जब बुद्धि इस किस्म के फिज़ूल तर्क देना शुरू कर दे, तभी समझ जाओ कि इस व्यक्ति को अब क्या लाभ मिला होगा ये जो करा इसने।
प्र २: आचार्य जी प्रणाम। अभी कर्मकांडों की बात हो रही थी। और जिस परिवेश से मैं आता हूँ, तो वहाँ ये चीज़ बहुत ज़्यादा होती है। तो बचपन से कहीं-न-कहीं हमें कर्म करने से मतलब मेहनत करने से रोका जाता है। और इस तरफ़ ज़्यादा धक्का दिया जाता है कि आप ये पूजा कर लो या मतलब बहुत सारे अलग-अलग चीज़ें हैं। ऐसे-ऐसे कर्मकांड हैं। अब वो चीज़ अभी तक भी रहती है कि ख़ुद हो जाएगा। या एक जो टालने की आदत होती है। तो उससे नुक़सान तो हो रहा है जीवन में, दिख भी रहा है नुक़सान हो रहा है। तो अब मैं उससे कैसे बाहर निकलूँ?
आचार्य: जो भी कर्म करते हो कर्मकांड के तौर पर, उसमें अपनेआप को पूछ लो कि ये क्या सत्य का प्रतीक है? अगर है, तो ज़रूर करो। क्योंकि हम सबको प्रतीकों की आवश्यकता तो रहती ही है। अगर कमरे में एक मूर्ति रखने से ये निरन्तर याद आता रहता है कि कुछ है जो मुझसे ऊँचा है, कुछ है जो साफ़, सुन्दर, स्वच्छ है, तो तुम मूर्ति अवश्य रखो और उसकी पूजा भी करो। पर तुम सिर्फ़ एक परम्परा के तौर पर पूजा कर रहे हो और उसका कोई अर्थ तुम्हें स्पष्ट नहीं है, तो फिर वो पूजा व्यर्थ जाएगी।
प्र २: वो कर्मकांड तो छूट रहे हैं लेकिन जो उनके कारण जो जीवन में नुक़सान हुआ है, एक जो मेहनत करने की आदत नहीं है। वो इसी चीज़ के कारण थी कि हमसे कभी ये बोल दिया गया था कि भाई, आप ऐसा फ़लाना-फ़लाना कर लो, तो आपको वो चीज़ मिल जाएगी, मेहनत क्यों करनी है जीवन में।
आचार्य: वो तुम्हें बोल दिया गया था, वो तुम्हें आज तक याद है। और ज़िन्दगी भर ये देख रहे हो कि बिना मेहनत के कुछ मिलता नहीं है, वो नहीं याद हो रहा? ये तो स्वार्थ है इसमें और कुछ नहीं है। इसमें बात ये नहीं है कि तुम्हें बचपन में क्या बोल दिया गया था। प्रतिदिन जीवन तुम्हारे सामने सबूत लेकर आ रहा है कि बिना मेहनत के कुछ नहीं होने वाला। तो ये सबूत तुम्हें क्यों नहीं दिख रहे? बस इन सबूतों को ज़रा सम्मान दो न।
प्र ३: विचार उस स्थिति में पहुँच जाए जिसको कहे कि सन्देह श्रद्धा में बदल जाए मतलब बेकार, व्यर्थ के विचार न करें जैसे कि पुराने बाबा लोगों का हुआ है।
आचार्य: तो विवेक को और बढ़ाइए। अगर विवेक को ही लेकर इतनी असुरक्षा है कि कहीं विवेक न छूट जाए, तो विवेक को और बढ़ाइए। हो सकता है विवेक ही बढ़कर ये संस्तुति करे कि अब चाबी फेंक दो। हो सकता है बढ़ा हुआ विवेक ही आपसे कहे कि अब फेंक दो चाबी। और विवेक बढ़ने के उपरान्त अगर कहता है कि नहीं, अभी चाबी पकड़कर रखो, तो मत फेंकिए। चाबी फेंकना अविवेक नहीं है। चाबी फेकना ऊँचे विवेक का निर्णय है, चयन है। अगर नहीं फेंक पा रहे चाबी तो माने अभी विवेक में ही कमी है। और जाँच-पड़ताल करिए। और परखिए। या तो पकड़ने में मदद मिलेगी या फेंकने में। अटके नहीं रहेंगे बस।