जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय – ये चार अवस्थाएँ क्या हैं? || (2019)

Acharya Prashant

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जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय – ये चार अवस्थाएँ क्या हैं? || (2019)

आचार्य प्रशांत: अब आते हैं अगले प्रश्न पर, “जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय – ये चार अवस्थाएँ क्या हैं?” इसका जो शास्त्रीय तरीका है बताने का, शुरुआत वहाँ से करेंगें। दस तो मानी गईं हैं इंद्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच ज्ञानेंद्रियाँ। और उसके अलावा होता है अन्तःकरण। अन्तःकरण क्या? अन्तःकरण चतुष्टय, जिसमें चार आते हैं। कौन से चार? जो अंदर के हैं। इंद्रियाँ वो जो सीधे-सीधे बाह्य जगत से संपर्क रखती हैं। और अन्तःकरण चतुष्टय में वो आते हैं चार जो अंदर-अंदर बैठे हैं, जो सीधा संबंध नहीं रखते बाहरी जगत से। वो चार क्या हैं? मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। ठीक है?

तो इनको आधार बना करके चेतना की इन तीन अवस्थाओं की विवेचना की जाती है। जाग्रत् अवस्था वो है चेतना की जिसमें ये चौदहों सक्रिय हैं; जहाँ ये चौदहों सक्रिय हैं, वो अवस्था मानी गई जागृति की। चौदहों सक्रिय माने आँखें कुछ भीतर ला रही हैं, जो भीतर आ रहा है, वो स्मृति के द्वारा एक नाम पा रहा है, चित्त उसको पुराने अनुभवों से जोड़कर देख रहा है, अहंकार उसके साथ संबंध बना रहा है और मन उसका उपयोग करके विचार और कल्पनाएँ कर रहा है।

चौदहों सक्रिय हैं जाग्रत् अवस्था में। कुछ आया तुम्हारे भीतर तुम्हारी त्वचा के स्पर्श से, तुम्हारे कानों में पड़े शब्द से, रंग, रूप, रस, गंध, शब्द, इंद्रियों के ये सब जो विषय होते हैं, तो ये सब विषय इंद्रियों के द्वारा भीतर प्रवेश कर रहे हैं। और भीतर जो यंत्र काम कर रहा है, वो इस भीतर आई जानकारी पर, इस भीतर आए डेटा (आँकड़े) पर कुछ कार्यवाही करके किसी तरीके का कोई उत्पाद तैयार कर रहा है, जिसके द्वारा फ़िर जीव कुछ अनुभव करता है और कर्म करता है। ये जाग्रत् अवस्था हुई।

ये जो जीव है, इसका अहंकार अगर अनुभवों से बहुत लिप्त है और अनुभवों के फल का बड़ा लोभी है, तो फ़िर ये जो अहंकार है, ये इस बात की भी प्रतीक्षा नहीं करता कि बाहर से कुछ माल-सामग्री आए तो मैं उसके साथ संबंध बनाऊँ, तो मैं उस पर कुछ प्रक्रिया करूँ। वो अहंकार फ़िर कहता है, “बाहर से सामग्री नहीं भी आ रही, हम तो भी कल्पना का इस्तेमाल करके कुछ-न-कुछ माल तैयार कर लेंगे।” इस अवस्था को कहते हैं स्वप्नावस्था।

जागृति में तो अनुभव लेने के लिए आवयश्क है कि तुम्हारे सामने कोई खड़ा हो। मान लो तुम पैसे के पुजारी हो, तो जागृति में पैसे से संबंधित अनुभव तुम्हें कब होगा? जब आँखें कम-से-कम पैसे को देखें, हाथ पैसे को छुएँ, कानों में पैसों से संबंधित कुछ बातचीत पड़े। जागृति में अनुभव लेने के लिए इंद्रियों का सक्रिय सहयोग आवश्यक है। इंद्रियों की सक्रियता आवश्यक है, है न? स्वप्न में? स्वप्न में तो तुम्हें इंद्रियों की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। तुम्हारा अहंकार इतना लिप्त हो चुका है भोग से कि वो कहता है कि “आँखों से मुझे धन दिखाई पड़ रहा हो, चाहे न दिखाई पड़ रहा हो, मैं तो, साहब, कल्पना कर लूँगा और कल्पना कर-करके ही अनुभव के मज़े लूट लूँगा”, जो कि आपके साथ नींद में होता है।

नींद में आपको दिखाई तो कुछ नहीं पड़ रहा, लेकिन आप प्रतीक्षा भी नहीं करते कि दिखाई पड़े तो भोगूँ, आप कहते हैं, “नहीं भी दिखाई पड़ रहा, मैं तब भी भोग लूँगा, मैं तो बड़ा चालाक हूँ, मैं तो स्मृति का सहारा लूँगा।” चित्त क्या होता है? स्मृति का घर। “मैं तो स्मृति का सहारा लूँगा और मैं मन का सहारा लूँगा।” मन क्या होता है? कल्पना का घर। स्मृति के आधार पर कल्पना की जा सकती है।

आपको किसी चीज़ का पूर्व अनुभव हो, वो क्या बन जाता है? स्मृति। और उस पूर्व अनुभव को ही आप नया रूप, रंग, कलेवर, आकार दे करके क्या बना लेते हैं? कल्पना। ये स्वप्नावस्था है, जिसमें आप चित्त में संग्रहित सामग्री का इस्तेमाल करके अपने आप को सुख देने वाली या किसी तरह के अनुभव देने वाली कल्पनाओं का निर्माण कर लेते हैं। उन कल्पनाओं को ही कहा जाता है स्वप्न।

समझ में आ रही है बात?

तो आप जो स्वप्न ले रहे हैं, वो वास्तव में आपकी अनुभव-लोलुपता के प्रदर्शक हैं। हम अनुभव के ऐसे भूखे हैं कि दिन के जगते हुए सोलह घण्टों में हमें जो अनुभव हुए, वो हमें पूरे नहीं पड़े, हम कहते हैं, “अभी और अनुभव चाहिए।” वो अनुभव कुछ भी हो सकते हैं, ज़रूरी नहीं है कि वो सीधे-सीधे, प्रत्यक्ष तौर पर सुख के ही अनुभव हों। लोग सपनों में डरते भी हैं। लोगों को सपनों में ये भी दिखाई दे जाता है कि उनकी मौत हो गई, या कोई नुकसान हो गया या वो किसी ऊपर इमारत से गिर पड़े हैं नीचे। लेकिन आपको भले ही सपनों में डर का अनुभव हो रहा हो, अनुभव तो हो रहा है न? तो सपने लेना यही दिखाता है कि आपमें अनुभव-लोलुपता बहुत है। आपके भीतर जो अनुभोक्ता बैठा हुआ है, अहम्, वो संतुष्ट ही नहीं हो रहा, वो कह रहा है, “अभी और चाहिए। मुझे अनुभव कराओ, एक्सपीरिएंस कराओ।“

देखा है न, लोग पागल रहते हैं। कोई पूछता है कि, “जीवन किसलिए है?” तो कहते हैं, “जीवन अनुभव लेने के लिए है। अभी मुझे पाँच-सात और तरीके के अनुभव लेने हैं।” अब मान लो ये जो तुम्हें अनुभव लेने हैं, जाग्रत् अवस्था में इनको पाने की कीमत चुकाने का तुममें सामर्थ्य ही ना हो तो तुम क्या करोगे?

भाई, आप अनुभव लेना चाहते हो कि आपने जा करके चाँद पर छलाँग लगा दी है; आप एस्ट्रोनॉट (अंतरिक्ष-यात्री) हो, आप रॉकेट में बैठकर गए हो और आप चाँद पर कूद रहे हो। आपकी बड़ी इच्छा है कि आप ये अनुभव लो, पर ना आपकी रॉकेट पर बैठने की योग्यता है, ना चाँद पर छलाँग लगाने की पात्रता है, तो वो मौका तो आपको ज़िंदगी में मिलने से रहा। तो फ़िर आप एक चतुर तरीका क्या निकालोगे? सपना ले लोगे, कहोगे, “अनुभव ही तो लेना था, लंबा-चौड़ा पैसा खर्च करके और मेहनत करके कौन अनुभव ले? आँख बंद करो, सो जाओ और 'आलालाला', चाँद पर पहुँच गए लाला।” तो सपने एक तरह की चतुराई हैं, उसको चतुराई भी कह सकते हो, और विवशता भी कह सकते हो, और नादानी और अज्ञान भी कह सकते हो, जो कहना चाहो।

अब आते हैं तीसरी अवस्था पर, जिसको क्या बोलते हैं? सुषुप्ति। सुषुप्ति भी अवस्था तो निद्रा की ही है, पर इस अवस्था में कुछ और होता है, इसमें तुम्हें सपने भी नहीं आ रहे होते। और कहा गया है कि सुषुप्ति का जो आनंद होता है, वो तो सपनों से भी आगे का होता है। जाग्रत् में आप सुख ढूँढ रहे होते हो संसार में, स्वप्न में आप सुख का निर्माण कर रहे होते हो कल्पनाओं से और सुषुप्ति में सुख का निर्माण भी नहीं करना पड़ता, आप बिना किसी विषय का उपयोग करे ही सुख भोग रहे होते हो।

तो सुषुप्ति क्या है? सुषुप्ति वो अवस्था है जिसमें आनंद अहम् को ‘अपने होने' से ही आ जाता है; अहम् को अब किसी विषय की ज़रूरत नहीं है, वो अपना ही आनंद ले रहा है, उसे कोई कल्पना भी नहीं करनी है, वो अपनी ही बेहोशी में डूब गया है, अब वो विषयों से रिक्त हो गया है। एक तरीके से ये समाधि के पास की अवस्था है और दूसरी दृष्टि से देखो तो ये गहरा और मूल अंधकार और अज्ञान है, ये दोनों ही बातें सुषुप्ति पर लागू होती हैं।

जब व्यक्ति के, मनुष्य के अस्तित्व को कोशों के द्वारा निरूपित किया जाता है तो उन कोशों के बिलकुल केंद्र पर जो बैठी होती है, उसे कहते हैं आत्मा। और उस आत्मा के जो निकटतम है, उसको कहते हैं आनंदमय-कोश। उसी आनंदमय-कोश का संबंध सुषुप्ति से है। तो एक तरफ़ तो ये जो सुषुप्ति है, ये आत्मा के निकटतम है, दूसरी ओर, ये जो सुषुप्ति है, वो सबसे बड़ा झूठ भी है और सबसे बड़ा नशा भी है; क्योंकि आपको आनंद की प्राप्ति हो गई है बिना मुक्ति के ही, बिना साधना के ही। ये आनंद तो है पर झूठा आनंद है, और झूठा इसलिए है क्योंकि इसमें नित्यता नहीं है, ये टूटेगा। ये आपको थोड़ी देर के लिए सब दुखों से तो मुक्त कर देता है, पर अभी कोई आएगा, आप सो रहे हो, गाल पर चपत लगाएगा, या हो सकता है बस ज़ोर से आपका नाम लेकर आपको आवाज़ दे दे, और ये आनंद छूमंतर हो जाना है।

तो आनंद मिला तो, पर बड़ा अनित्य था, बड़ा झूठा था। कुछ इस आनंद ने बताया तो, कुछ इशारा तो किया, पर चला नहीं, टिका नहीं। और जो अनंत ना हो, उसको सच्चा कैसे मानें? जो आया ही इसलिए हो कि छोड़कर चला जाए, उसका भरोसा क्या करें? दूसरी ओर, वो छोडकर भले ही चला गया, पर थोड़ी देर के लिए ही सही, स्वाद तो दे गया; ये तो बता गया कि रोज़-मर्रा के, जागृति के और स्वप्न के, सुख-दु:ख और तनाव के आगे गहरी राहत की भी कोई अवस्था की संभावना है।

तो सुषुप्ति में आपको जो गहरे आनंद का अनुभव होता है; और अनुभव तो होता ही है, गहरी नींद लेकर के आप उठते हो तो कहते नहीं हो, “बड़ी गहरी नींद आई। आहाहा! बड़ा ताज़ा अनुभव हो रहा है”? कहते हो कि नहीं? तो सुषुप्ति में आपको जो गहरे आनंद का अनुभव होता है, वो आपके लिए अच्छा भी हो सकता है, बुरा भी हो सकता है। अच्छा ऐसे है कि उसने आपको बता दिया कि तनाव ज़रूरी नहीं है, उसने आपको तरो-ताज़ा कर दिया है, वो आपको बता गया है कि आप जैसे दिन भर जीते हो, वो फ़िज़ूल है, व्यर्थ है, और संभव है एक सहज, तनावमुक्त जीवन जीना।

अगर आप इस इशारे का सदुपयोग कर लें तो सुषुप्ति बड़े सौभाग्य की चीज़ है, आपको सहारा देने आई है, इशारा देने आई है। और अगर आप सुषुप्ति का उपयोग सिर्फ़ इसलिए कर रहे हैं कि आपको एक तात्कालिक राहत मिल जाए, दो-तीन घण्टे आपको गहरी नींद मिल जाए—आठ घण्टे सोए, उसमें से सुषुप्ति के बस दो ही तीन घण्टे होते हैं—वो दो-तीन घण्टे में आपको गहरी नींद मिल जाए ताकि आप पुनः ताज़े होकर के अपने पुराने ही ढर्रो में लौट जाएँ, तो सुषुप्ति फ़िर आपके लिए बड़े दुर्भाग्य की बात है। क्योंकि सुषुप्ति आपको तरो-ताज़ा तो कर रही है, पर सिर्फ़ इसलिए ताकि आप अपने पुराने बंधनों में बने रह जाएँ। तो सुषुप्ति चेतना की एक बड़ी विशिष्ट अवस्था है।

बात आ रही है समझ में?

फ़िर सुषुप्ति के आगे जो होता है, उसे चेतना की अवस्था नहीं मानते, वो चेतना का आधार कहलाता है, उसे आत्मा कहते हैं। और वो चूँकि इन तीनों अवस्थाओं से आगे होता है तो इसीलिए उसे तुरीय भी कहते हैं। चूँकि वो चेतना की कोई अवस्था ही नहीं होती बल्कि अवस्थाओं के प्रति निरपेक्षता होती है, अवस्थाओं के प्रति एक तरह की अरुचि होती है, तो उसको कहते हैं साक्षी।

तुरीय ही आत्मा है, तुरीय ही साक्षी है।

दि फ़ोर्थ , चौथा – तुरीय। तीन से आगे चौथा, चौथा भी इसलिए कहना पड़ रहा है कि तीन से आगे है, नहीं तो बस ये कहना काफ़ी होता कि तीन से आगे है। असल में जब चौथा बोल दिया तो ऐसा लगता है कि जैसे तीन अवस्थाएँ हैं तो ऐसी ही कोई चौथी अवस्था भी होती होगी। ये बात समझ में आ रही है? तुरीय चेतना की कोई अवस्था होती ही नहीं है, तुरीय विशुद्ध चेतना मात्र है।

तो इससे ये भी स्पष्ट हो गया होगा कि ये जो चेतना की तीन अवस्थाएँ हैं, जिनकी हमने बात करी, ये वास्तव में तीन अशुद्ध अवस्थाएँ हैं। ये चेतना की तीन अशुद्धताओं के नाम हैं: जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति। ये चेतना में तीन तरह के विकारों और विकृतियों के नाम हैं; जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति।

जब चेतना बिलकुल स्वच्छ और शुद्ध हो जाती है, विशुद्ध चेतन, चैतन्य मात्र हो जाती है, तो वो तुरीय कहलाती है।

अब उसमें कोई अवस्था नहीं है, अब वो अवस्थातीत हो गया। इसी को ऐसे भी कह सकते हो कि तुरीय चेतनातीत है; एक तरफ़ तो ये भी कह रहे हो कि विशुद्ध चेतना है और दूसरी दृष्टि से ये भी कह सकते हो कि चेतना से आगे है। जब कहते हो कि चेतना से आगे है, तो वास्तव में तुम कह रहे हो कि चेतना की अशुद्धियों से आगे है, शुद्ध है।

स्पष्ट है चेतना की तीनों अवस्थाएँ और तुरीय?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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