बस ध्यान से सुनो

Acharya Prashant

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बस ध्यान से सुनो

आचार्य प्रशांत: कभी कोई ऐसी समझ आई है जिसको शब्दों में व्यक्त न कर सको? और जिसको शब्दों में व्यक्त कर सको वह ख़्याल है। हमें समझ कुछ नहीं आता, हमारे पास सिर्फ़ निष्कर्ष होते हैं और इसीलिए हम उसको एक वाक्य में अभिव्यक्त कर सकते हैं।

हम कहते हैं, "मुझे समझ में आया कि ये सब कुछ दिव्य है, मुझे समझ में आया कि अभी मैं अपना मालिक हूँ, मुझे समझ में आया कि"—कुछ-न-कुछ होता है न? जो 'कि' के बाद होता है वह क्या होता है? वह विचार है, वह निष्कर्ष है।

हमारी समझ कभी समझ होती ही नहीं है, समझ का मतलब होता है निष्कर्षों का विलोप। जब तक तुम्हें लग रहा है कि तुम्हें समझ में आया तब तक तुम्हें कुछ समझ नहीं आया। वास्तविक समझ बड़ी अदृश्य घटना होती है। वह चुपचाप होती है। तुम्हें नहीं पता लगेगा कि तुम्हें समझ में आ रहा है।

हाँ, तुम्हें समझ के परिणामों से पता लगेगा कि कुछ हुआ है। बाद में तुम पाओगे कि मन ज़रा शांत-सा हो गया है, आसानी से प्रतिक्रिया नहीं कर रहा, दुनिया के रंग ही जैसे कुछ बदल गए हों। यही पेड़ होते हैं बारिश के बाद कैसे लगते हैं? पेड़ वही हैं रंग बदल गए। होता है न? अभी यही बारिश हो जाए देखना ये सब बदल जाएगा। समझ का प्रभाव ये होता है। समझ को मात्र उसके प्रभावों से जाना जा सकता है, समझ को समझ कर नहीं जाना जा सकता। जहाँ प्रभाव पाओ वहाँ जान लेना कि पीछे समझ मौजूद है। जहाँ प्रभावों को पाओ वहाँ पर मुस्कुराकर मान लेना कि, "अच्छा! तो पीछे समझ मौजूद है" तभी तो ये प्रभाव आ रहे हैं, नहीं तो आ ही नहीं सकते थे।

समझदारी के चक्कर में मत पड़ो समझदारी बड़ी गड़बड़ चीज़ है। इसीलिए तो कहता हूँ चुपचाप सुना करो, कोशिश ही मत किया करो समझने की। चुपचाप सुन लो, बाद में कोई पूछे भी कि, "क्या समझ में आया?" तो बुद्धू की तरह मुँह बना देना, "कुछ समझ में नहीं आया!" या बस ऐसे (भौचक्का होकर) उसका मुँह देखना कि, "ये कोई पूछने वाली बात है कि क्या समझ में आया? हम समझने थोड़ी गए थे, हम तो सुनने गए थे। बैठे, सुने, आ गए।" समझ काम है समझाने वाले (परमात्मा) का, तुम्हारा काम नहीं है समझना। तुम्हारा काम है सुनना, तुम पूरी तन्मयता से सुनो।

समझ किसका काम है? समझाने वाले का। वह समझा लेगा तुम कोशिश मत करो समझने की, क्योंकि उस पर तुम्हारा अख्तियार है ही नहीं। जिस चीज़ पर बस नहीं चलना उसके लिए हाथ-पाँव क्यों फेकना इधर-उधर? तुम्हारा बस बस इसपर चल सकता है कि तुम जब सुनने बैठो तो फालतू के उपद्रवी विचारों को ऊर्जा न दो। ये नहीं कि सुनने बैठे हो तो मोबाइल से छेड़खानी कर ली, या सुनने बैठे हो तो उधर से कोई आवाज़ आई उधर देखने लग गए, या सुनने बैठे हो बगल में कोई चींटी रेंगने लगी तो अब दिमाग़ में चीटियाँ ही चीटियाँ। तुम बस इससे बचो तुम।

तुम अभी जिसके अनुसन्धान में हो वह तुम्हारे विचारों की पकड़ में नहीं आएगा। समझ-समझ कर वहाँ तक नहीं पहुँचोगे। वहाँ तक चुप हो कर के, गिर कर, सोकर, समर्पित होकर, मौन होकर, झुक कर पहुँचते हैं।

समझ के पीछे जानते हो क्या होती है? समझ की माँग के पीछे सुरक्षा की माँग होती है। तुम्हें लगता है कि तुम समझ गए तो भीतर से बड़ी सुरक्षा की भावना उठती है कि, "ठीक है, अभी मामला मेरे नियंत्रण में है क्योंकि मैं समझ गया हूँ।" तुम कहीं को गाड़ी लेकर चले जा रहे हो, तुम्हें प्रति-पल पता होता है न कि अभी मंज़िल किधर है और तुम्हारी गाड़ी कहाँ पर है? तो इससे मन ज़रा सुरक्षित अनुभव करता है, उसके डर दबे रहते हैं। और यही तुम जा रहे हो गाड़ी लेकर के, न तुम्हें मंज़िल का पता है, न अपनी वर्तमान स्थिति का तो भीतर से कैसी चीख उठेगी, "मैं कौन हूँ? कहाँ को जा रहा हूँ? कहाँ पहुँच गया?" परमात्मा की राह ऐसी ही है; न मंज़िल का पता होता है, न अपनी स्थिति का। बस चलते रहना होता है। और चलते भी ऐसे रहना होता है कि क़दम लगता है कि तुम्हारे हैं, चलाने वाला कोई और होता है। उसमे तुम अगर ये माँग करने लग गए कि, "साहब आगे को तो मैं तभी चलूँगा जब पहले मुझे बता दो कि मैं कहाँ पहुँचा, मेरा समझना ज़रूरी है", तो तुम कहीं नहीं पहुँचने वाले।

शास्त्रों के साथ, आध्यात्मिकता में, गुरु के साथ यही तो गडबड़ हो जाती है। तुम कदम कदम पर जाँचना चाहते हो कि प्रगति हुई कि नहीं हुई। तुम समझना चाहते हो कि, "अभी तक क्या मेरे हाथ लगा?" जाँच तुम पाओगे ही नहीं कि प्रगति हुई कि नहीं हुई। तुम तोलना चाहते हो कि, "अभी तक मुझे क्या समझ में आया? अभी तक का मुनाफा कितना रहा?" तुम तोल ही नहीं पाओगे। और तुम तोल नहीं पाओगे तो तुम्हारी बुद्धि जानते हो तुम्हें क्या निष्कर्ष देती है? कि कुछ हाथ लगा ही नहीं और फिर तुम पीठ दिखा कर चल देते हो।

ये बहुतों के साथ होता है। तुम जब भी सीधे-सीधे नापना, तोलना, देखना चाहोगे कि, "मुझे क्या लाभ हुआ? मैं कहाँ तक पहुँचा? कितनी प्रगति हुई?" तुम्हें कुछ पता नहीं लगेगा और उससे तुम्हारी बुद्धि निर्णय यही निकालेगी कि, "जब कुछ लाभ हो ही नहीं रहा तो समय काहे ख़राब करना? चलो भाई दूसरे रास्ते चलते हैं।" यहाँ जो लाभ होता है वह तुम्हारे साधारण हिसाब से आगे का है। वह लाभ देख कर, सुन कर, नाप-तोल कर समझ नहीं आएगा। वह लाभ, जैसा मैंने कहा, कभी बाद में पता चलता हैं अपने प्रभावों से।

तुम खड़े होगे कहीं पर और माहौल होगा गरमा-गर्मी का और तुम पाओगे कि तुम में गर्माहट उठ ही नहीं रही है, तब अचानक से तुम्हें कौंधेगा कि, "ऐसे ही माहौल में, ऐसी ही स्थिति में पहले मैं गर्म हो जाता था, उत्तेजित जो जाता था और अब यहीं पर खड़ा हूँ, वही हालात हैं और मैं कैसे निष्क्रय हूँ, ठंडा, शीतल।" तब अचानक तुम्हें अनुग्रह कौंधेगा कि लाभ हुआ है, प्रमाण मिला। पर ये प्रमाण परोक्ष है, तुम प्रत्यक्ष प्रणाम चाहते हो, वह नहीं मिलेगा। ये प्रमाण तुम्हें बिना माँगे मिला हैं, तुम माँग-माँग कर प्रमाण चाहते हो वह नहीं मिलेगा। धैर्य है तुममें अगर और निष्ठा है, तो बाद में तो प्रमाणों की धारा लग जाएगी। एक के बाद एक प्रणाम आएँगे। तुम्हें ही नहीं, दुनिया को भी पता लग जाएगा कि तुम वही नहीं रहे जो तुम पहले थे। लेकिन ऐसे बैठे-बैठे समझना चाहोगे कि, "अनहद की थाप का अर्थ क्या हैं? मैं क्या समझूँ?" तो चूकोगे।

प्रश्नकर्ता: हमें इस चीज़ को समझना पहले पड़ता है कि हमें क्या सुनना हैं, किसको सुनना हैं किसको नहीं सुनना हैं, इसके लिए भी तो हमें समझना पड़ता हैं।

आचार्य: इसके लिए भी समझने इत्यादि की ज़रूरत नहीं होती है, क्योंकि तुम अगर इतने समझदार होते ही कि तुम ये चुनाव कर सकते कि किसको सुनना है, तो तुमने उसी समझ का उपयोग करके खुद को ही न सुन लिया होता? तुम कहते हो कि तुम अपनी समझ का उपयोग करके ये निर्णय करोगे, ये चुनाव करोगे कि इसको सुनना है कि उसको सुनना है कि उसको सुनना है। पहला गुरु कहाँ होता है? अपने अंदर। तुम इतने ही समझदार होते कि वास्तविक गुरु को बाहर चुन सकते, तो उससे पहले अपनी उसी समझ का उपयोग करके तुमने भीतर वाले गुरु को न सुन लिया होता?

गुरु तुम्हें तुम्हारे चुनने से नहीं मिलता। कल भी मैं समझा रहा था कि वह अकस्मात् मिलता है। तुम तो किसी और फेर में जाते हो और वह चुपचाप मिल जाता है, तुम्हारे चुनने से थोड़ी ही मिलता है पागल। तुम तो ऐसे ही चुनोगे कि, "कोक लूँ? कि पेप्सी लूँ? कि फेंटा लूँ?" यहाँ जा कर चुन लेना, इससे आगे तुम्हारा चुनाव नहीं चलता। तुमने इससे ऊपर का कभी कोई चुनाव किया है, "क्या समोसा खाना है, कि भेल पूरी खानी है, कि गुजिया"? और जितने चुनाव करें हैं वही भारी पड़े हैं तभी तो अब कह रहे हो कि राहत कैसे मिले, छूटे कैसे। अपने उन्हीं चुनावों का इस्तेमाल अब तुम गुरु के ऊपर भी कर देना चाहते हो। और सोचते हो की तुम्हारा चुनाव ठीक बैठेगा। ऐसा होगा?

तो इस झंझट में तुम पड़ो ही नहीं कि, "गुरु को कैसे चुने?" ये काम गुरु को ही करने दो वह तुम्हें चुन लेगा। असली गुरु को तो तुम चुन भी लोगे तो तुम्हें क्या पता कि वह तुम्हें चुने या न चुने? तुमने तो चुन लिया और पहुँच गए और वहाँ जूते पड़ गए तो? तुम्हें क्या लगता है वहाँ द्वार सबके लिए खुले हुए हैं? दुकान है क्या कि कोई भी अंदर आ जाए? तुम क्यों इस चक्कर में पड़ते हो कि, "मैं चुनूँगा", चुनने वाला तुम्हें चुनेगा। ये उसकी मर्जी है।

मेनी आर कॉल्ड बट फ्यू आर चूज़न किसका वक्तव्य है? जीसस का। ‘बुलाया बहुतों को जाता हैं, चुने कुछ ही जाते हैं।’ उसे तय करने दो कि तुम हो चुनिंदा कि नहीं। तुम क्या चुनोगे! तुमने तो चुन लिया परमात्मा को, तो मिल गया। तुम गुरु इत्यादि क्यों चुन रहे हो तुम सीधे मंज़िल ही चुन लो। तुम्हारी मंज़िल क्या है? परमात्मा, लो चुना, चुनो-चुनो अभी चुनो। मिल गया? तुम्हारे चुनाव से क्या होता है! तुम तो जिस परमात्मा को चुन रहे हो वह भी कोक और पेप्सी ही होगा। यही तो चुनते आए हो जीवन भर।

वह चुनेगा, तुम उसे अपनी विनम्रता दिखाओ, तुम उसे अपनी गंभीरता दिखाओ, तुम उसे अपनी प्यास और तड़प दिखाओ। तुम छोटे बच्चे की तरह चिल्लाओ, जिसे पता भी नहीं हैं कि माँ किस कमरे में है, कहाँ पर है। वह क्या करता है? बस वह पालने में पड़ा है और वह चिल्लाता है। माँ का काम है आना उसके पास, बच्चे का काम है सिर्फ़ चिल्लाना। वह ये थोड़ी ही करेगा कि उतर कर चला है कि, "ज़रा जा रहा हूँ गुरदासपुर माँ को ढूँढकर लाता हूँ।" उसको क्या पता! वह कितना बड़ा हैं? उसकी कितनी बुद्धि और कितने उसके पाँव और क्या सामर्थ्य!

तुम्हारी सामर्थ्य है कि तुम अपने पाँव जाकर परमात्मा ढूँढ लाओगे? तुम्हारी सामर्थ्य है कि तुम अपनी बुद्धि चला कर गुरु ढूँढ लाओगे? तुम ढूँढ तो लाते हो गुरु, देख नहीं रहे हो रोज़ टीवी पर उन गुरुओं का हाल? और वह लाखों के, बल्कि करोड़ों के गुरु थे। थे कि नहीं थे? अरबों के, और वो सब तुम्हारे जैसे ही लोग थे जिन्होंने उन्हें गुरु बना रखा था। पूरी भीड़ ने, पूरे बाज़ार ने बड़ा सम्प्रदाय ही खड़ा कर रखा था गुरु भक्ति का। चुन कर तो लाए थे इतने लोग कि, "ये हमारे गुरु हैं!" अब देख लो उन गुरुओं का हाल!

तुम मत चुनो। न तुम अच्छा चुनो, न तुम बुरा चुनो; तुम चुनने पर से अपना हक़ ही हटा दो। तुम कहो ,मैं" होता ही कौन हूँ चुनने वाला? तेरी अनुकम्पा होगी, तू भेज देगा।" और वह भेज देगा और वह ऐसे रूपों में भेजता है कि तुम पहचान पाओगे नहीं आसानी से।

मैं फिर कह रहा हूँ, जो असली है वह तो तुम्हें धोखे से ही मिलेगा। क्योंकि जब भी तुमने अपनी ओर से असली को चुना है तो धोखा खाया है। असली को तुम चुनोगे तो धोखा खाओगे और लेकिन असली तुम्हें जब भी मिलना होगा, धोखे से ही मिलेगा। क्योंकि तुम्हारी तो फ़ितरत है धोखे में जीना। तो असली भी आएगा तो धोखा देकर ही आएगा। (एक श्रोता को संबोधित करते हुए) क्या जुमला मारा था कल आपने? ‘नमाज पढ़ने गए थे, रोज़े गले लग गए।’ वैसे ही होगा।

प्र: मैं तो नमाज पढ़ने भी नहीं गया था, झाँका था मस्जिद में।

आचार्य: और ये बात तुम्हारी ही नहीं है, हमेशा ऐसा हुआ है। इतिहास भी ऐसे ही भरा हुआ है ऐसे ही दृष्टांतो से। कोई चुन कर थोड़े ही पाता है, वह ऐसे ही होता है। दादू का वक्तव्य है “गैब माँहि गुरुदेव मिल्या” अनायास, बिना माँगे, रस्ते में। जा कहीं और को रहे थे, रस्ते में किसी से टकरा गए।

रूमी को उनके गुरु कैसे मिले थे पढ़ना। अब रूमी गठीले, अमीर नौजवान घोड़े पर चले जा रहे हैं और सामने एक पगला आ जाता है और घोड़ा करीब-करीब चढ़ ही जाता है उसके ऊपर। रूमी चिल्लाते है उसके ऊपर “पागल हो गया है दिखाई नहीं देता!” सामने से आवाज़ आती है “तुझे दिखाई देता है?” बस इतना और खेल खत्म। अब कौन-सा घोड़ा और कौन राज-कुमार और कहाँ की अकड़? सब ख़तम। जैसे राह का भिखारी, परमात्मा ऐसे रूपों में उतरता है। तुम्हें नहीं पता चलेगा। शोर मचा कर थोड़े ही आता है कि, "गुरुदेव उतर रहे हैं, गुरुदेव उतर रहे हैं, गुरुदेव उतर रहे हैं!"

प्र: आचार्य जी जो अभी बात बोली आपने कि कुछ दिखाई देता है और वहीं पर खेल ख़तम, क्वांटम लीप (लंबी छलांग) हो जाता है। एक तरीके से तो इस कॉन्टेक्स्ट (प्रसंग) में अगर अपन देखे कि एक है जो प्रस्तुत होने के लिए तैयार भी नहीं था लेकिन वहाँ क्वांटम लीप हो गया और एक तरफ है कि प्रस्तुत होना चाह भी रहे हैं और नहीं हो रहा है। बस चारों तरफ घूम रहे हैं।

आचार्य: नहीं, ऐसा नहीं है। प्रस्तुत होने की तैयारी थी। बच्चा चिल्ला रहा था इसीलिए माँ उतरी है। तुम्हारा काम ऐसा नहीं है कि बिलकुल नहीं है। तुम्हें अपने किए नहीं मिलेगा, लेकिन तुम्हें बिना किए भी नहीं मिलेगा। तुम्हारे करने के कारण नहीं मिलेगा तुम्हें, पर अगर तुम नहीं करोगे तब तो बिलकुल ही नहीं मिलेगा। तो तुम्हें तो करना है अन्यथा साधना का क्या मोल? तपस्या फिर क्यों? तुम्हें तो करना है और तुम्हें पूरा ज़ोर लगाना है, लेकिन कभी भी इस गर्व में मत आ जाना कि तुम्हें तुम्हारे करने के कारण मिला।

तुम्हारा करना बस उसको (परमात्मा को) यह सबूत देता है कि बच्चा तड़प रहा है। अन्यथा तुम कितना भी रोये जाओ, रोने से थोड़े ही समाधि मिलती है। बुद्ध जंगल गए बारह-चौदह साल, कितने लोग बारह-चौदह साल जंगल जा सकते हैं, उससे थोड़े ही बुद्धत्व मिल जाना है।

जिन्होंने इतिहास में जो भी कुछ किया है, तुम वह सब दोहरा कर देख लो उससे थोड़े ही कुछ हो जाना है। वह कोई कारण थोड़े ही था, वह तो बस सबूत था कि बच्चा तैयार है, माँ अब दर्शन दे। बच्चा तड़प रहा है अब आजा। तो तुम्हें करना पड़ेगा, तुम्हें ख़ूब करना पड़ेगा। तुम्हें अपनी ओर से तैयारी पूरी रखनी पड़ेगी। पर याद रखना तुम्हारी तैयारी कितनी भी बड़ी हो, तुमसे बड़ी थोड़े ही हो सकती है, आड़ी-तिरछी होगी, छोटी होगी। ऊपर वाला जब भी आएगा, वह अपनी मर्जी से आएगा। वह उसका प्रसाद होगा।

मैं उदाहरण दिया करता हूँ कि जैसे कोई नन्हा बच्चा हो। अब उसको महँगी वाली चॉकलेट चाहिए—बार-बार चॉकलेट मेरे उदाहरणों में आ ही जाती है (सब हँसते हैं)—उसे महँगी वाली चॉकलेट चाहिए। वह कितने की है? वह हज़ार रूपए की है। अब वह इतना-सा है, तीन साल का। और उसने सिक्के-विक्के सब जमा करे हैं। और सिक्के कुल कितने जमा कर पाया है? बारह रूपए के। अब वह मुठ्ठी में सिक्के बाँधे चला गया है। दुकान में खड़ा हो गया है और दुकानदार उसको देख रहा है। नन्हा-सा है, ऐसे देख रहा है वह ललचाई नज़रो से चॉकलेट की ओर।

दूकानदार उससे कहता है, "क्या है तेरी मुठ्ठी में?" बोलता है, "हमने इतना जमा किया है, बड़ी मेहनत की हमारी कमाई है।" और ये बात ठीक है। नन्हे ने बड़ी मुश्किल से वह बारह रूपये जमा करे हैं। एक रुपया, दो रूपया, पाँच रुपया ऐसे-ऐसे जोड़ जोड़ कर दो महीना लगाया है उसने बारह रूपए जोड़ने में। दुकानदार बोलता है, "क्या चाहिए?" बोलता है, "वह चॉकलेट है दे दो।" अब उसको तो पता भी नहीं है कि उस चॉकलेट का मूल्य उसकी मुठ्ठी से अनंत गुना ज़्यादा है। तो दुकानदार मुस्कुराता है और कहता है, "कितना लाया है?" बोलता है, "ये है देखो।"

और बच्चे को क्या लग रहा है कि जो लाया है वह बहुत ज़्यादा है क्योंकि उसने तो बड़ी मेहनत से इकट्ठा करा है। तो दुकानदार कहता है, "अच्छा ऐसा है, मुठ्ठी में जितना कुछ है दे-दो मुझे।" तो बच्चा बोलता है, "ये सब लगेगा क्या? इतनी महँगी है?" बच्चा क्या बोल रहा है कि, "ये सब कुछ लगेगा क्या इतनी महँगी है?" बोलता है, "हाँ सब देगा, तो दूँगा चॉकलेट * ।" तो बच्चा ज़रा सकुचाते हुए, ज़रा संकोच में ये सोचते हुए कि, "कही लूटा तो नहीं जा रहा मैं! दो महीने की मेरी पूरी कमाई है, लिए ले रहा है", और दे देता है। दुकानदार बारह रूपये ले लेता है और फिर वह * चॉकलेट निकाल कर उसे दे देता है।

क्या ये बारह रुपय के कारण मिली है चॉकलेट ? नहीं, पर याद रखना ये बारह रूपये बच्चे ने न दिए होते तो दुकानदार चॉकलेट देता नहीं। चॉकलेट तो उसे मुफ्त ही मिली है। चॉकलेट तो प्रसाद जैसी मिली है। चॉकलेट तो उतरी है ऊपर से, अनुग्रह है। लेकिन वह बारह रूपये देना बहुत ज़रूरी था क्योंकि उससे प्रमाणित होता है कि तुम्हारी लालसा, तुम्हारी चाहत सच्ची है। बात समझ रहे हो?

तुम जितना भी कमाओगे वह परमात्मा का मूल्य नहीं हो सकता। वह हज़ार है और तुम दस से ज़्यादा क्या कमाओगे! लेकिन तुम दस कमाओ और दस तुम्हारे जीवन भर की जमा-पूँजी, तुम्हारे जीवन भर का श्रम होना चाहिए। और फिर उस दस को अर्पण कर दो और कहो कि, "इससे ज़्यादा मेरी हैसियत नहीं, मेरी इतनी ही हैसियत है, मैं इतना ही दे सकता हूँ, मुझे मालूम है ये कुछ भी नहीं, इससे तुझे थोड़े ही खरीदा जा सकता है लेकिन मेरी इतनी बिसात, मैं जो कुछ भी दे सकता था मैंने दिया आगे तेरी मर्जी।" समझ रहे हो बात को?

तुम दोनों ही भूलों से बचना। एक भूल होती है कुछ भी न करना; "जब परमात्मा का मूल्य अनंत है, जब परमात्मा अमूल्य है, जब सत्य और शांति अमूल्य है तो हम उनके लिए क्या मेहनत करें क्योंकि अमूल्य को तो हम कभी पाएँगे नहीं।" तो एक भूल ये होती है। और दूसरी भूल ये होती है ये सोचना कि, "मैं इतनी मेहनत करूँगा, इतनी मेहनत करूँगा कि मेहनत के द्वारा उनको पा लूँगा।" न, दोनों ही भूलों से बचना। मेहनत ज़रूरी है पर मेहनत से नहीं पाओगे। न किए बिना पाओगे, न कर-कर के पाओगे। तो तुम तो करो पर निष्काम होकर करो।

परमात्मा सब कुछ छीन लेता है तुम्हारा, बारह रूपए, अब ये बात डरने की है या हँसने की है। अगर ये देखोगे कि क्या छिना तो डरोगे और अगर ये देखोगे कि क्या मिला तो हँसोगे। क्योंकि छिन तो वह सब कुछ जाएगा जो तुम कीमती मानते हो। बच्चे की पूरी जमा पूँजी छिन गई। कितनी थी वो? बारह रूपए। तुम्हारी भी कुल जमा पूँजी बारह रूपये से ज़्यादा नहीं है। तुम्हें लगता होगा कि तुम करोड़ो अरबो के मालिक हो, वास्तव में तुम्हारे पास कुल बारह रूपए हैं। बड़े गरीब हो तुम। जीवन दरिद्रता में बीता है।

और अगर ये देखोगे कि क्या गँवाया, तो यही लगेगा कि बड़ा महँगा सौदा है। तुम ये देखो कि क्या पाया, जो पाया वह अमूल्य है। और अगर ये नहीं देखोगे कि क्या पाया तो चिड़चिड़े हो जाओगे, झुंझलाते रहोगे, गुरु का ही मुँह नोंच लोगे कि, "तूने बारह रूपए ले लिए!" और बारह रूपए तो उसने लिए हैं। कोई शक नहीं इसमें कि वह तुम्हारे बारह रूपए ले लेगा, पर बारह रूपये इसलिए नहीं लिए है कि तुम्हारे बारह रूपए बहुत ज़्यादा है। तुम्हारे बारह रूपए इसलिए लिए है ताकि उन बारह से तुम्हें आज़ाद करके हज़ार दिए जा सकें।

प्र२: जैसे आप कल शाम को हमसे पूछ रहे थे कि परमात्मा से हम सब क्या समझते हैं तो परमात्मा को हम क्या मानें और अंतिम लक्ष्य हमारे जीवन का क्या होना चाहिए, या क्या रास्ते होने चाहिए?

आचार्य: तुम वहीं अटके हुए हो न कि, "क्या माने? देखो मानना ज़रूरी है!" जो उसने पूछा यही तो पूछा था जो तुम पूछ रहे हो। आधे घंटे से यही तो समझा रहा हूँ कि, तुम्हारे मानने में समाएगा वो? पर तुम्हें चैन ही नहीं है माने बिना। तुमने मान लिया चुकंदर है परमात्मा, तो? परमात्मा चुकंदर तुम सिकंदर, गुरुदेव बन्दर, खेल ख़तम।

(श्रोतागण हँसते हैं)

मानने में आएगा वो? क्या मानोगे उसे? तुम्हारी बुद्धि ही तो मानती है। कितनी बड़ी है तुम्हारी बुद्धि? टोपी उतरो और नापो। (सिर को ऊपर से पकड़कर बताते हुए) अब देखो ऐसे नापो। ये देखो इतने में तो एक तरबूजा न आए, परमात्मा आ जाएगा? परमात्मा की औकात तरबूजे जितनी नहीं? "परमात्मा को क्या मानें?" क्या मानोगे? और जिनको तुमने माना है उन्होंने क्या हश्र किया है तुम्हारा! जानू को तो बहुत माना, अब?

क्यों इस खेल में पड़े हो? न मानो न जानो चुप हो जाओ, चुप हो जाओ। अपनी ढाई इंच की इस खोपड़ी को इतना बड़ा नहीं मानते। सर झुका दो बस। सर चलाओ नहीं, सर झुकाओ। सर झुकादो और फिर हाथ चलाओ। जैसे कल अनहद में चला रहे थे, सर नहीं चल रहा, बुद्धि नहीं चल रही, हाथ-पाँव चल रहे हैं। जीवन ऐसे ही जिओ।

परमात्मा को मानकर तो तुम अपने लिए बड़ी सुविधा इकठ्ठी कर लेते हो। "अब मान लिया!" हैं? मुरली बजैया हैं, उनको ले जाकर घर के एक कोने में खड़ा कर दो। अब मुरारी खड़े हो गए हैं घर के एक कोने में। तुमने मान लिया कि वह रहे तो परमात्मा। और बाक़ी घर में अब तुम धूम मचा रहे हो। जिस चीज़ को तुमने माना उसको तुमने सीमाएँ दे दी; परमात्मा असीम है, असीम को कुछ नहीं माना जाता।

(प्रश्नकर्ता को संबोधित करते हुए) देखो कैसी बेचारगी है अभी चेहरे पर, “थोड़ा-सा कुछ तो बता दो मानाने के लिए, सही रहेगा न।” एकदम ही कुछ नहीं मानेंगे तो छटपटाहट होती है कि, “अरे ऐसा क्या है? परवरदिगार है, सर्वव्यापी है, अंतर यामी है और उसको हम कुछ भी नहीं मान सकते? मालिक है सबका और हमें पाता भी नहीं कि मालिक कौन है?” तो भीतर से बड़ी अकुलाहट होती है न? कि गुलाम बने तो भी कम-से-कम पाता तो रहे कि मालिक वहाँ रहता है और वैसी-वैसी उसकी शक्ल है।

यहाँ तो गुलाम भी है और मालिक का भी कुछ पाता नहीं, बड़ी दिक्कत होती है। कल को मुकदमा करना पड़ा तो किसपर करेंगे? सम्मन (गवाही के लिए सन्देश) भेजने के लिए भी एड्रेस (पता) तो चाहिए। जिसका तुमने आकार नाप लिया, जिसका तुम्हें पता ज्ञात हो गया, उसको तुमने अपने तल पर गिरा लिया। मत करो उसको छूने की कोशिश, उसको ज़रा आज़ाद रहने दो क्योंकि अगर परमात्मा आज़ाद नहीं है तो तुम्हारे किसी काम का नहीं है।

हमें बंधक बनाने का इतना शौक है कि हम परमात्मा को भी अपने ज्ञान का बंधक बना लेना चाहते है। जो चीज़ तुम्हारे ज्ञान में समा गई वह ज्ञान का बंधक हो गई न, अब तुम उसका इस्तेमाल करोगे। देखा है न, जिस भी चीज़ के बारे में तुम जान जाते हो फिर उसका क्या करते हो? इस्तेमाल ही तो करते हो।

तुमने अणु को समझ लिया, तुमने अणु की ऊर्जा का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। कर दिया न? तुमने पानी को समझ लिया, तुमने पानी का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। विज्ञान जहाँ पहुँचता है, उसके पीछे-पीछे टेक्नोलॉजी चली आती है और तकनीक का क्या मतलब होता है? इस्तेमाल। विज्ञान माने जानना और तकनीक माने इस्तेमाल करना।

परमात्मा को भी अगर तुम जान गए तो क्या करोगे? इस्तेमाल करोगे। और किस चीज़ के लिए इसतेमाल करोगे? "जलेबी ला दो!" और तो तुम्हें कुछ चाहिए नहीं जीवन में। परमात्मा तुम्हारे लिए बोतल वाला जिन हो जाएगा; “कहिए मेरे आका क्या चाहिए?” सुने हो न वो? जिन लिए चलता था। और तुम्हें परमात्मा नहीं वह जिन ही चाहिए कि जो तुम्हारा हुकुम बजाए।

प्र३: आचार्य जी ये जो बारह रुपए वाली बात कही आपने ये सिर्फ़ पैसा ही है या और भी कुछ है?

आचार्य: जीवन में जो कुछ कमाया है, तुम्हारा अहंकार, तुम्हारे रिश्ते, तुम्हारे मान्यताएँ, तुम्हारा ज्ञान, धारणाएँ, तुम्हारी पूरी जीवन दृष्टि, ये हैं बारह रुपये। जो कुछ भी तुमने कमाया है, अर्जित किया है।

प्र४: परवरदिगार का मतलब क्या होता है?

आचार्य: यही, सबका मालिक।

प्र३: सब कुछ त्यागना पड़ेगा?

आचार्य: ये त्यागने की बात थोड़ी न है। बच्चा दुकान में क्या त्यागने गया था? पाने गया था। मैं तो पाने की बात करता हूँ तो पाओ न। और अमूल्य पाने के लिए ये दस बारह रूपये छोड़ने पड़े तो क्या बुराई है? त्यागना तो चीज़ ही अजीब है। बड़ा विचित्र लगता है, है कुछ नहीं हमारे पास और भाषा हमारी है त्यागने की। है क्या तुम्हारे पास? कोई दो रुपया, कोई चार रुपया, कोई बारह रुपया, यही तो है। इसको त्यागने की क्या बात कर रहे हो?

प्र५: अमूल्य का स्वाद कैसे लगे?

आचार्य: लगा हुआ है तभी तो परेशान हो कि मिल नहीं रहा। उसका तुम्हें बिलकुल स्वाद नहीं होता तो तुम मजे में घूम रहे होते। तुम्हें उसका स्वाद है लेकिन तुम उसे जी नहीं पा रहे इसीलिए तो परेशान हो। जीवन की सारी चिड़चिड़ाहट और क्यों है? हम क्यों ख़फा-ख़फा से घूमते हैं? हमारे क्यों त्योरियाँ चढ़ी रहती है? क्योंकि हमें उसका पता है, गहराई में उसका पता है पर जीवन में वह मिल नहीं रहा तो इसीलिए बड़े रुष्ट हैं हम, अपने से, दुनिया से।

प्र६: पहले आचार्य जी जब मैं यहाँ आया नहीं था और मुझे कुछ भी पता नहीं था तब सबके साथ एकदम मस्त था। अभी भी उन्हीं के बीच में हूँ, पूरा यहाँ आया नहीं हूँ, लेकिन जैसा कि आप कह रहे हैं कि वह चिड़चिड़ाहट अंदर बनी रहती है, तो मुझे भी वह चिड़चिड़ाहट बनी ही रहती है।

आचार्य: वह चिड़चिड़ाहट बुरी भी है और शुभ भी है। शुभ इसीलिए है कि तुम्हें बार-बार प्रेरित करेगी तुम्हारी मंज़िल तक पहुँचने के लिए और बुरी इसीलिए है कि तुम उसी में फँसे रह गए तो फिर तुम चिड़चिड़ाहट के जो तात्कालिक कारण होंगे तुम बस उनका निवारण करते रहोगे। तुम कहोगे, "चिड़चिड़ाहट मुझे इसिलए है क्योंकि ये जो है गोलू ये मुझे सता रहा है", तो तुम गोलू का इलाज़ कर दोगे। और वास्तव में तुम चिड़चिड़ाये हुए हो अपने-आपसे। अपना इलाज नहीं करोगे। तुम कहोगे, "पंखा आज ठीक नहीं चल रहा है, एसी आवाज़ कर रहा है इसलिए मैं झुंझलाया हुआ हूँ।"

बात वह है ही नहीं। तुम न पंखे पर नाराज हो, न एसी पर, न गाड़ी पर, न बीवी पर। तुम नाराज़ अपने आप से हो, बस।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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