यस्मात्परं नापरमस्ति किंचिद्दस्मान्नाणीयो न ज्यायोस्ति कश्चित। वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम्॥
जिससे श्रेष्ठ दूसरा कुछ भी नहीं, जिससे कोई भी न तो सूक्ष्म है और न ही बड़ा। जो अकेला ही वृक्ष की भाँति निश्चल आकाश में स्थित है, उस परम पुरुष से यह सम्पूर्ण विश्व संव्याप्त है।
~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (अध्याय ३, श्लोक ९)
ततो यदुत्तरतरं तदरूपमनामयम्। य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्त्यथेतरे दुःखमेवापियन्ति॥
जो उस (हिरण्यगर्भ रूप) से श्रेष्ठ है, वह परब्रह्म परमात्मा रूप है और दुखों से परे है, जो विद्वान उसे जानते हैं, वे अमर हो जाते हैं, इस ज्ञान से रहित अन्यान्य लोग दुःख को प्राप्त होते हैं।
~श्वेताश्वतर उपनिषद् (अध्याय ३, श्लोक १०)
आचार्य प्रशांत: मूल बात आरंभ में ही पुनः स्मरण कर लेना आवश्यक है। ऋषियों का एक-एक शब्द सुनने वाले बेचैन मन की शांति हेतु ही है। यही एकमात्र उद्देश्य है उपनिषदों का। एक-एक बात जो कही जा रही है, वो किसी अवस्था विशेष से कही जा रही है।
सत्य, अनवलंबित सत्य, निरुद्देश्य सत्य, निष्प्रयोजन सत्य कहा ही नहीं जा सकता। जो कुछ कहा जाता है वो सदा किसी सीमित इकाई के लाभ हेतु कहा जाता है। असीम सत्य को शब्दों में वर्णित करने का कोई उपाय नहीं है। उपनिषदों में भी जो कहा गया है वो मन के लाभार्थ कहा गया है, वैसे ही उसको देखना होगा।
कहते हैं, "जिससे श्रेष्ठ दूसरा कुछ भी नहीं।" इस कथन में सत्यता मत ढूँढिएगा, उपयोगिता देखिएगा। सत्य या ब्रह्म से श्रेष्ठ दूसरा कोई नहीं, यह वाक्य बहुत औचित्यपूर्ण नहीं होगा, क्योंकि सत्य और ब्रह्म के अतिरिक्त दूसरा कोई है ही नहीं। जब दूसरा कोई है ही नहीं तो दूसरा कोई श्रेष्ठ या हीन कैसे हो सकता है?
तो ये बात इसीलिए किसी पूर्ण या मुक्त संदर्भ में नहीं कही गई है, यह बात मन के सीमित संदर्भ में कही गई है। मन ही है जिसको बहुत सारे दिखाई देते हैं, जिसके लिए वैविध्यपूर्ण संसार है, जिसके सामने हज़ारों-करोड़ों भिन्न-भिन्न इकाइयाँ हैं, और उन इकाइयों में वो किसी को श्रेष्ठ समझता है और किसी को हीन।
तो जब कहा जा रहा है कि ब्रह्म से श्रेष्ठ कोई दूसरा नहीं, तो उसको कैसे पढ़ना है? उसको ऐसे पढ़ना है, “तुम्हारे लिए ब्रह्म से श्रेष्ठ कोई दूसरा नहीं।" ऐब्सल्यूट (सम्पूर्ण) अर्थ में मत पढ़ने लगिएगा कि ब्रह्म से श्रेष्ठ कोई दूसरा नहीं, क्योंकि अगर वैसे पढ़ेंगे तो बात बेतुकी हो जाएगी। ब्रह्म से श्रेष्ठ कोई दूसरा कैसे हो जाएगा? सब कुछ तो ब्रह्म के भीतर है।
जो पूर्ण है उससे श्रेष्ठ अंश कैसे हो जाएगा? पूर्ण की तुलना आप किससे करेंगे? जिस तुला पर आप पूर्ण को नापेंगे-जोखेंगे, उसका मूल्य या वज़न करेंगे, वो तुला भी पूर्ण के अंदर ही है। पूर्ण का अर्थ ही है जिसमें सब कुछ समाहित हो। तो तुलना का कोई उपाय नहीं।
पर अगर हम बहुत सावधान होकर के इस बात को नहीं समझेंगे तो हमारे मन में जानते हैं छवि कैसी आएगी? हमारे मन में छवि आएगी कि बहुत सारी इकाइयाँ हैं इस संसार में, ब्रह्म भी उनमें से कोई एक इकाई है; थोड़ी खास इकाई है, उच्च इकाई है, श्रेष्ठ इकाई है, श्रेष्ठतम इकाई है, लेकिन है तो इसी संसार की एक इकाई ही ब्रह्म। ऐसी हमारे मन में भावना-धारणा आएगी।
अगर हमने ये सोचा कि ऋषि कह रहे हैं कि बात ब्रह्म की, संसार की दूसरी इकाइयों से तुलना की है, नहीं, संसार की दूसरी इकाइयों से ब्रह्म की तुलना नहीं की जा रही, क्योंकि ब्रह्म संसार की कोई इकाई है ही नहीं। तो इसको कैसे पढ़ना है? ऐसे नहीं कहना है कि ब्रह्म सर्वश्रेष्ठ है, ऐसे नहीं पढ़ना है कि ब्रह्म से श्रेष्ठ कोई अन्य नहीं। इसको पढ़ना है 'मेरे लिए ब्रह्म से श्रेष्ठ कोई अन्य नहीं', क्योंकि सारी बात किससे कही गई है? तुमसे।
मुझे मालूम है, ये बात मैं इतनी बार दोहराता हूँ, आप इससे ऊब भी सकते हो। पर तुम्हारा ऊब जाना कम नुकसान की बात होगी, मूल संदर्भ को भूल जाना ज़्यादा नुकसान की बात होगी। तो मैं दोहराता रहूँगा।
हम हैं न जिनको बहुत सारे चौराहे मिलते हैं, चुनाव मिलते हैं, निर्णय करने पड़ते हैं। हम हैं जिन्हें तय करना पड़ता है, क्या ऊँचा, क्या नीचा, क्या दायाँ, क्या बायाँ, क्या श्रेष्ठ, क्या त्याज्य, क्या प्रिय, क्या अप्रिय, कहाँ हित है, कहाँ अपहित है; यह हमें तय करना है न। हमें तय इसलिए करना है क्योंकि हमें तमाम तरह के भेद, विभाग, विभाजन, अंतर लगातार दिखाई देते रहते हैं। तो हमारे लिए कोई भी दो चीज़ें एक तो नहीं होती न।
ये दो खंभे ही हैं। पर तुमसे कह दिया जाए इन दो खंभों में भी किसी एक को चुनो तो तुम कोई-न-कोई आधार लगा करके चुन लोगे। हमारे लिए तो सदा कुछ थोड़ा सा ऊँचा है, कुछ थोड़ा सा नीचा है। कोई भी दुनिया में दो वस्तुएँ, व्यक्ति या इकाइयाँ बता दो जिनके बारे में तुम पूरे तरीके से निष्पक्ष हो सकते हो। हो सकते हो क्या? तुम्हारे ही दो कपड़े होते हैं, तुम किसी एक पर उँगली रख देते हो। दोनों एक बराबर तो नहीं हो जाते न।
तो हम हैं जो निरंतर चुनाव की प्रक्रिया में रहते हैं। ऐसी हमारी संरचना है, यही हमें करना है। यही हमें करना है, यही हमारा बंधन है, इसी में हम फँसे हुए हैं; कुछ चुनो, कुछ चुनो, सदा कुछ चुनो। और इसी क्रिया में इस जाल से बाहर आने का उपाय भी है।
कौनसी क्रिया?
लगातार चुनाव करने की क्रिया। यह जो हम लगातार चुनाव करते रहते हैं न, वही हमारा बंधन है, कि हमारी चेतना में पूर्ण स्पष्टता नहीं है, हमारी चेतना इसीलिए उहापोह में रहती है। हमारी चेतना को, जैसा हमने कहा, चौराहे दिखाई देते हैं, वो फँस जाती है – सीधे जाएँ, दाएँ जाएँ, बाएँ जाएँ, क्या करें, रुक जाएँ, पीछे ही लौट जाएँ। तो यही हमारी त्रासदी है। इसी में हमारा दुःख है, संदेह है, संशय है। और मैं कह रहा हूँ, चुनाव की इसी क्रिया में और चुनाव के इसी अधिकार में हमारी मुक्ति की कुंजी भी है।
कैसे?
सही चुनाव करोगे तो हित होगा तुम्हारा, मुक्त हो जाओगे, स्वास्थ्य पाओगे, शुभता पाओगे। तो उपनिषद् हमें सही चुनाव करने का तरीका बता रहे हैं। क्या कह रहे हैं? तुम्हारे लिए ब्रह्म से श्रेष्ठ कोई दूसरा नहीं है; जब भी चुनना, ब्रह्म को चुनना। तो पूरा जो ये सूत्र है, उसकी सीख ये है – जब भी चुनना, ब्रह्म को चुनना।
अब फँस गए हम क्योंकि हमें तो जब चुनाव करना होता है उस चुनाव में ब्रह्म जैसा तो कोई विकल्प ही उपलब्ध नहीं होता। चुनाव क्या करना है? कि घर में खाना खाना है कि बाहर खाना खाना है, इसमें ब्रह्म कहाँ है? उपनिषद् ने कह दिया जब भी चुनाव सामने आए, किसको चुनना? ब्रह्म को चुनना। पर ब्रह्म उपलब्ध भी तो होना चाहिए न चुनने के लिए। या तो ऐसा होता कि घर में खाना है, बाहर खाना है या ब्रह्मलोक में खाना है, तो हम कहते कि चलो उपनिषदों का सहारा लेते हैं, उन्होंने कहा है ब्रह्म को चुनना तो हम चुन रहे हैं ब्रह्मलोक में खाना। पर ऐसा तो हमें चुनाव कोई देता ही नहीं करने को। तो क्या करें?
मतलब समझो। नकार की प्रक्रिया से आगे बढ़ो। वो सब नकारते चलो जिनमें ब्रह्म से विपरीत लक्षण हैं। अब समझे तुम कि ब्रह्म की कोई उपाधि नहीं हो सकती, गुण नहीं हो सकता, नाम नहीं हो सकता, छवि-छाया नहीं हो सकती, रंग नहीं हो सकता, जाति नहीं हो सकती। कुछ नहीं हो सकता लेकिन फिर भी ब्रह्म का भाँति-भाँति से क्यों निरूपण किया गया है, कभी ऐसे कहकर, कभी वैसे कह करके, ब्रह्म को क्यों इंगित किया गया है? क्यों किया गया है? तुम्हारी सहायता के लिए किया गया है।
जो कर रहे थे उनको भी पता था कि ब्रह्म के लिए कुछ भी बोलना तात्विक दृष्टि से ठीक नहीं है। बात थोड़ी सी भ्रष्ट हो जाती है जब हम नाम दे देते हैं उसको जो किसी भी नाम की सीमा में आ ही नहीं सकता। ये जानते हुए भी वो खतरा उठाते रहे और कुछ-न-कुछ बोलते ज़रूर रहे सत्य के बारे में। क्यों बोलते रहे? तुम्हारी मदद के लिए बोलते रहे।
कैसे है इसमें हमारी मदद?
ऐसे है कि जो-जो कुछ कहा गया है ब्रह्म के बारे में, वो उठा लो और देख लो कि तुम्हारे सामने चुनाव के लिए जो विकल्प हैं, उनमें से किस विकल्प पर वो सब कुछ लागू हो रहा है। या फिर वो सारे लक्षण, वो सारे वृतांत किस विकल्प के ज़्यादा निकट पता चलते हैं। जिस विकल्प के ज़्यादा निकट पता चलते हों, उसी को चुन लो।