बाहरी प्रभाव और मन || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

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बाहरी प्रभाव और मन || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

वक्ता: तो क्या बात उठाई है अरुण (श्रोता को इंगित करते हुए) ने? कि एक समय पर काम कर रहा होता हूँ, तो उसमें एक गति होती है, एक मोमेंटम होता है। फिर स्थिति बदल जाती है और वो जो पूरा उसमें वेग होता है काम के पीछे, वो जितना ज़ोर होता है, वो सब ख़त्म हो जाता है। क्या किया जाए? क्या किया जाए का सवाल तो बाद में आएगा, पहले तो अरुण, ये देख लें कि ये हो क्या रहा? फिर शायद स्पष्ट हो जाएगा कि क्या करना है।

मन कई तलों पर काम करता है। जो सबसे सतही तल होता है, वो विचार का तल होता है, और विचार के तल पर जो कुछ है, वो तुरंत आने जाने वाला है। बाहर की घटना से प्रभावित हो कर के तुरंत ही मन में कुछ ख्याल उठ सकता है। और जैसे ही जो घटना थी बाहर, वो नहीं रहेगी, तो वैसे ही वो विचार भी नहीं रहेगा। या ये कहें कि उस विचार की अपेक्षा कोई नया विचार आ जाएगा क्योंकि नई घटना आ जाएगी। ये मन का सबसे सतही तल है। इसको ऐसे समझ लो, जैसे समुद्र है। समुद्र की सतह पर बड़ी लहरें उठने लग जाती हैं, जब हवा चलती है। समुद्र की गहराई जानते हो खूब होती है। पर उसकी भी सतह हिलने लग जाती है, उसकी सतह पर तरंगे उठने लग जाती हैं, जब हवा चलती है। वैसे ही हमारा मन है, समुद्र की तरह। सबसे सतही तल है विचार का, बाहर कुछ बदला, बाहर की हवाएँ बदलीं और मन में तरंगें आ गई। इन तरंगों में कोई ख़ास ज़ोर नहीं होता। हवाएँ रुकेंगी या हवाओं की दिशा बदलेगी, तो ये तरंगे भी बदल जाएँगी। इनमें कोई ख़ास जान नहीं होती।

उन तरंगो से नीचे-नीचे समुद्र में तुम जानते होगे कि कर्रेंट्स चलती हैं। वो सतह पर ही नहीं होती हैं, वो गहराई पर भी चल रही होती हैं। सतह पर तो पता लगती ही हैं, पर मात्र सतह पर नहीं होती, वो गहराई पर चल रही होती हैं। उनमें ज़्यादा जान होती है। वो लगातार चलती रहती हैं और बाहरी प्रभावों से वो ज़्यादा प्रभावित नहीं होती। होती हैं, जब मौसम बदलता है, जब तापमान बदलते हैं, तो वो तरंगें भी बदल जाती हैं, कर्रेंट्स भी बदल जाती हैं। लेकिन उनमें एक स्थिरता होती है। उनके अपने प्राण होते हैं। बाहर दिन हो कि रात हो, सतह-सतह पर तुम पानी छप-छप कर लो, उससे सतह के नीचे जो धार बह रही है, जो कर्रेंट्स बह रही है, उस पर अंतर नहीं पड़ता है। सही बात तो ये है कि कई बार समुद्र ठंडा होता है और नीचे धार बह रही होती है, वो गर्म होती है। तुमने हॉट ओशियन कर्रेंट और *कोल्ड ओशन कर्रेंट*सुना होगा। समुद्र ठंडा है और नीचे , उसके भीतर जो धार बह रही है, वो गर्म है। लंदन का जो बंदरगाह है, वो काम ही इसलिए कर पाता है क्योंकि वहा पर एक गर्म धारा बह रही होती है नीचे। तो इस कारण जब चारों ओर बर्फ़ जमी होती है, तब भी लंदन के बंदरगाह पर बर्फ़ नहीं जमती। सोचो उस धारा में कितनी ताकत है कि चारों तरफ बर्फ़ ही बर्फ़ है, पर वो फिर भी गर्म है और ऐसी गर्म है कि वो बंदरगाह को जमने नहीं दे रही है। आ रही है बात समझ में?

फिर उससे भी नीचे, और नीचे, समुद्र ऐसा स्थिर होता है और उसमें इतनी ताकत होती है वहाँ पर कि, उसे कुछ हिला नहीं सकता। कुछ भी नहीं प्रभावित कर सकता। वहाँ तो इतनी गहराई होती है कि कई बार सूरज की रौशनी तक नहीं पहुँच सकती। तो दिन आता है या रात आता है, ये तक समुद्र को पता ही नहीं चलता। वो अपनी मौज में शांत बैठा है, उसे अंतर ही नहीं पड़ रहा समय के बीतने से भी और जो कुछ समय में है, वो उसको प्रभावित ही नहीं कर रहा। वक्त आ रहा है, जा रहा है, पल बीत रहे हैं, परिस्थितियाँ बदल रही हैं और वहाँ पर वो अडिग, अटल, मौन, नीरव, चुप बैठा हुआ है, अपनी ताकत में। ऐसा ही मन है।

सबसे सतह पर कहा कि विचार होते हैं। विचार ऐसे ही हैं कि बाहर की कोई हवा चली और विचार आ गया। उससे नीचे होती है वृत्तियाँ। वृत्तियाँ भी बाहरी ही होती हैं पर उन्होंने अब मन में जड़े जमा ली होती हैं, तो वो आसानी से बदलती नहीं है। उसको मन का तहखाना बोला जाता है। सबकॉन्शियस माइंड का नाम सुना होगा, वृत्ति वहाँ वास करती है। वो आसानी से नहीं बदलती। बड़ा ध्यान लगाना पड़ता है, उसको देखने के लिए कि क्या है वृत्ती? तुमने देखा होगा कि कई लोग गुस्सैल हो ही जाते हैं। परिस्थिति कैसी भी हो, उनके मुँह पर गुस्सा ही रहता है। ये वृत्ति हो गई है। इसका उस समय की परिस्थिति से कोई लेना देना नहीं है। इसका उनकी वृत्ति से लेना देना है। तुमने कुछ लोगों को देखा होगा कि हर समय हिले-डुले से रहते ही हैं। कितनी भी शान्ति हो, वो शांत नहीं रह पाते। ये उनकी वृत्ति ऐसी हो गई है। कामवासना वृत्ति है। तो इस तरह की वृत्तियाँ होती हैं जो, बैठ जाती हैं।

फिर उससे भी नीचे मन की गहराईयों में मन का स्रोत बैठा हुआ होता है, उसको कहते हैं दिल, उसको कहते है: ह्रदय। विचार से नीचे वृत्ति और वृत्ति से भी गहरा स्रोत। स्रोत वो जहाँ से सब निकलता है। जहाँ से वृत्ति निकलती है, जहाँ से विचार भी निकलता है पर वो स्रोत किसी से भी नहीं निकलता। आप समझ ही गए होंगे कि अगर मन विचारों की ही दुनिया में कैद है, तो बहुत जल्दी उसमे कंपन होता रहेगा क्योंकि विचार तो बदलते रहते हैं। उनमें कोई स्थायित्व नहीं हो सकता। अगर वृत्ति से काम कर रहे हो, तो थोड़ा ज़ोर रहेगा तुम्हारे काम में, लेकिन वो फिर भी अँधा काम ही होगा क्योंकि वृत्ति भी आई कहाँ से है? बाहर से ही आई हुई है और होगी ताकत वृत्ति में और वृत्तियाँ भी बदल जाती हैं। जो बाहर से आ सकती है वृत्ति, तो वो बाहरी प्रभाव से बदल भी सकती है। लेकिन अगर तुम्हारी गति, तुम्हारी पूरी ऊर्जा सीधे स्रोत से निकल रही है, सीधे ह्रदय से निकल रही है, तो फिर वो नहीं बदल पाएगी।

अब मैं तुमसे एक सवाल कर रहा हूँ, कि अरुण ने कहा कि मैं कुछ काम कर रहा होता हूँ, मान लो पढ़ रहा था और बिजली चली गई और फिर जब बिजली वापस आती है, तो मैं अपने आप को पढ़ने में असमर्थ पाता हूँ। एक स्थिति ले ली ऐसी। तो ये जो पढ़ना था, ये मन के किस तल से हो रहा था? विचार से, वृत्ति से या ह्रदय से ?

श्रोता: विचार से।

वक्ता: ठीक है। ये पूरे तरीके से बाहरी प्रभाव पर निर्भर था। पूरे तरीके से ये एक प्रकार का मूड था। मूड समझते हो? एक तात्कालिक सी चीज़ जो अभी है और अभी बदल गई। दो शब्द कान में पड़े और मूड अच्छा हो गया और दूसरे दो शब्द कान में पड़े तो विचार बदल गए, मूड बदल गया। तो ये तो ऐसी ही चीज़ थी, स्वाभाविक सी बात है जिसमें जान नहीं हो सकती, ताकत नहीं हो सकती। ये जो तुम्हारा दिया होगा इस स्थिति में, बड़ा कमजोर होगा। ज़रा से हवा चलेगी और वो बुझ जाएगा। समझ रहे हो बात को? तुम वहाँ पर रहो, तुम मन को वहाँ पर रखो जहाँ ह्रदय है, जहाँ स्रोत है और स्रोत का मतलब होता है कि जो हो रहा है, जो है वो मेरा अपना है; बाहर से नहीं आया है। तरंगो के होने में, बाहरी परिस्थितियों का पूरा पूरा हाथ है। धारा भी बाहरी परिस्थितियों के ज़ोरर से बहती है। पर जो स्रोत होता है वो बाहरी नहीं होता है, वो पूरी तरह अपना होता है।

वो जो पूरी तरह होता है ,वो है तुम्हारी अपनी समझ।

तुम यदि पढ़ोगे और इसलिए पढ़ोगे क्योंकि तुम्हें किसी ने पढ़ने के लिए कह दिया है, तो तुम कैसे पढ़ रहे हो? अपने स्रोत से पढ़ रहे हो या बाहरी प्रभाव से? जब भी कभी बाहरी प्रभाव से पढ़ोगे, तुम्हारे पढ़ने में कोई जान नहीं रहेगी क्योंकि प्रभाव बदल जाएँगे। तुम सतह-सतह पर जी रहे हो फिर, और सतह पर जीने में कोई मज़ा नहीं है। आ रही है बात समझ में? तुम तो और गहरे और गहरे जाओ। अपनी समझ से जीयो। एक बार तुम्हें ये दिखने ही लग गया कि, ‘’मुझे अभी ये करना है, ठीक अभी ये करना है, भवष्यि में नहीं। ये चीज़ इतनी महत्वपूर्ण है कि इसको अभी चाहिए। मैं निर्विकल्प हूँ कि इसके सिवा मैं कुछ सोच भी नहीं सकता। कोई लाख कुछ कहे, मैंने खुद जाना है खुद समझा है कि इस क्षण पर इस कर्म की महत्ता क्या है।‘’ एक बार तुमने ये जान लिया अपनी आँखों से देख लिया,उसके बाद बिजली आए या बिजली जाए, भूकम्प आये या तूफ़ान आये, कोई तुम्हें रोक नही सकता।

तुम्हें पता भी नहीं चलेगा। ये भी नहीं कि प्रतिरोध कर रहे होंगे कि परिस्थितियाँ अभी भी अनुकूल नहीं है, मैं फिर भी डटा हुआ हूँ। तुम डटे हुए भी नहीं होगे। इसमें कोई इच्छाशक्ति वाली बात भी नहीं होगी। तुम्हें पता ही नहीं लगेगा। जैसे कि सतह-सतह पर तरंगे रहती हैं, सतह के नीचे धाराएँ रहती हैं, क्या समुद्र के स्रोत को, क्या समुद्र के तल को उनका पता भी लगता है? चल रही होंगी ऊपर धाराएँ। क्या गहराई गहराई में उनका पता भी लगता है? तुम्हें पता भी नही लगेगा। तुम मौज में हो आनंदमग्न हो, अपने दिल के साथ हो और फिर पढ़ते-पढ़ते आँख उठाओगे और खिड़की से देखोगे और कहोगे कि, ‘’अरे! सुबह हो गई पता भी नहीं लगा।‘’ ऐसा नही था कि तुम व्रत लेकर बैठे थे कि आज मैं रात भर पढूंगा। तुम्हें पता ही नहीं लगा कि सुबह हो गई। ऐसा नहीं था कि तुम्हें नींद आ रही थी और तुम इच्छाशक्ति के ज़ोर पर जूझते रहे। ऐसा कुछ नही हुआ। तुम तो इतनी मौज में आ गए कि तुम्हें पता भी नहीं लगा कि समय कब बीत गया। मुड़ के देखोगे पीछे, तो खाना रखा होगा। कहोगे, ‘’अरे खाना नहीं खाया आज मैंने।‘’ तो ये नहीं था कि तुम भूख से लड़ रहे थे। तुम्हें भूख का पता ही नहीं लगा। ‘’अरे! आज तो खाना ही नहीं खाया, कोई बात नहीं ठीक।‘’ पर जब भूख का पता ही नहीं लगे, तो खाना खाएगा कैसे?

कभी देखा है, खेलने में इतना मस्त हो जाते हो कि उस दिन खाना ही नहीं खाते। ये क्या हुआ है? तुम बार बार अपने आप से कह रहे थे कि आज खाना नहीं खाना है, ऐसा तो नहीं था। तुम्हें इतनी मौज आई खेलने में, तुम इतना डूब गए खेलने में। तुम्हारा खेलना किसी के आदेशों पर नहीं हो रहा था, तुम्हारा खेलना क्यों हो रहा था? क्योंकि उसमें तुम्हारा अपना सुख था। तो अब किसको याद है कि समय कितना हो गया? और किसको याद है कि अब बाहर की परिस्थितियाँ कैसी है कि गर्मी है, ठण्ड है, पंखा चल रहा है या नहीं चल रहा है? इसकी परवाह किसको है? कानों में दो चार शब्द पड़ गए किसी के, किसी ने ताना मार दिया, किसी ने तारीफ़ कर दी, इसकी परवाह किसको है, ‘’हमे फ़र्क ही नहीं पड़ता।‘’ कोई आकर कहेगा कि तुम बड़े सहनशील हो, तुम कहोगे कि, ‘’हम कुछ नहीं सहते। हम तो मौज में रहते है, सह कौन रहा है?’’ बात आ रही है समझ में?

तुम्हारे भीतर समुद्र से भी ज़्यादा गहराई मौजूद है। समुद्र का जो मैंने उदाहरण लिया वो समझाने के लिए तो अच्छा है, पर वो तुमसे छोटा है क्योंकि तुम में इतनी गहराई है कि उससे हज़ार समुद्र निकलते हैं। सब कुछ तुम्हारी गहराई से ही तो निकलता है, वो परम स्रोत है जो तुम्हारे पास है। और जब तुम उसके साथ हो जाते हो तो बाहर क्या है, क्या नहीं है वो बहुत छोटी बात हो जाती है। फिर तुम्हें ये घटना याद भी नहीं रहेगी कि बिजली चली गई। किसको याद रखनी है?

अब बात ये उठती है कि वो समझ पाने की ताकत, वो जीवन को अपने नज़र से देख पाने की ताकत, अपना बोध, अपना ह्रदय, अपने पास ही है तो पता क्यों नही चलता? हम बहके-बहके से क्यों रहते है? बाहर के छोटे-मोटे धक्के, छोटे-मोटे थपेड़े भी हमें हिला क्यों जाते हैं? हिला इसलिए जाते है क्योंकि हमारी शिक्षा थोड़ी उलटी-पुल्टी हो गई है। मन को सिखा दिया गया है, व्यर्थ बातों को महत्व देना। जिनका कोई महत्व नहीं है, उनको महत्व देना सिखा दिया गया है। तो मैं तुमसे क्या कह रहा हूँ कि जिन चीजों को महत्व देते हो, कुछ समय के लिए, प्रयोग भर के लिए उनको महत्व देना छोड़ो। ये जो दूसरे के इशारों पर चलते हो, दूसरों की ही नजरों से दुनिया को देखते हो, बस थोड़े समय के लिए इसको छोड़ो। एक बार अपनी आँखें खोलकर देखो, ऐसा मज़ा आएगा कि फ़िर तुम्हारी तबियत ही नहीं होगी दुबारा किसी पर आश्रित हो जाने की। थोड़ा उसका स्वाद चख के देखो, ऐसा रस आएगा कि फिर तुम इधर-उधर का, बेकार का सामग्री छुओगे ही नहीं। कबीर का है कि:

पहले तो मन काग था, करता जीवन घात ,

अब मनवा हंसा भया, मोती चुन चुन खात “

वही मन पहले कौआ था और गन्दगी ख़ाता रहता था। गंदगी की तरफ़ ही आकर्षित रहता था। अब मन हंस हो गया है, उसको अब गंदगी अच्छी ही नहीं लगती। वो प्रभावित ही नहीं होता, गंदगी देख के। वो आकर्षित ही नहीं होता। अब तो वो बस मोती के पास जाकर बैठ जाता है। वही मोती ह्रदय है। वही मोती स्रोत है। वही मोती तुम्हारी असलियत है। वहीं जाकर के बैठो। लेकिन उसके लिए अपने आपको थोड़ा मौका देना पड़ेगा। जैसे जी रहे हो प्रयोग ही करने के लिए सही, इससे थोड़ा अलग होकर के देखना पड़ेगा। एक बार तो स्वाद लेना पड़ेगा। जिस चीज़ का कभी स्वाद ही नहीं लिया, उसके बारे में कैसे निर्णय कर पाओगे। समझ रहे हो?

श्रोता: सर, अगर हम ऐसा करेंगे तो लोग हमें घमंडी कहेंगे।

वक्ता: तुम इस बात से भी मतलब मत रखो कि लोग घमंडी कहेंगे।

श्रोता: सर, लेकिन वो सोच तो रहा है।

वक्ता: वो ये सोच रहा है। उसके ये सोचने का असर किस पर पड़ रहा है? महत्वपूर्ण बात क्या है कि वो सोच रहा है या तुम पर असर पड़ रहा है? तुम्हें परेशानी किस चीज़ से है उसके सोचने से या उसका असर पड़ जाता है इस चीज़ से?

श्रोता: असर पड़ रहा है इस चीज़ से।

वक्ता: तो असर मत पड़ने दो। क्यों असर पड़ने देते हो? इतना कुछ है दुनिया में, तुम उसका असर क्यों पड़ने देते हो? यही तो कह रहा हूँ कि एक कदम बढ़ा करके देखो, कुछ ऐसा मिलने लगेगा ऐसा आनंद आने लगेगा, ऐसी ताकत अनुभव होगी कि फिर तुम्हारा वापस लौटने का मन नहीं करेगा। पर एक कदम बढ़ा कर के तो देखो। थोड़ा सा साहस दिखाओ तो। ऐसे समझो एक उदाहरण लो। दूर कहीं रोशनी है। वो जहाँ तुम खड़े हो, वहाँ हल्की सी दिखाई दे रही है, उसकी बस एक झलक मिल रही है। तुम उसकी तरफ़ दो तीन कदम बढ़ाओ तो क्या होगा? वो रोशनी थोड़ी और तेज़ होगी। चार कदम और बढ़ाओगे तो क्या होगा? वो रोशनी और तेज़ होगी। पर उसकी ओर कदम बढ़ाना होगा और जैसे-जैसे कदम बढ़ाते जाओगे, वैसे-वैसे तुम्हें यकीन होता जाएगा कि, ‘’हाँ रौशनी सच्ची है।‘’ पर उसकी ओर कदम तो बढ़ाओ। एक कदम से अगले कदम की ताकत मिलेगी। पहला जो कदम है, वो तो डरते डरते ही रखना पड़ेगा क्योंकि रोशनी हल्की है, डरोगे। पहला जो कदम है, वो तो टटोल-टटोल के रखना पड़ेगा। लेकिन जैसे-जैसे कदम बढ़ाओगे, तुम पाओगे कि प्रकाश बढ़ता जा रहा है, तीव्र होता जा रहा है।

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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