जब महिला करे पुरुष का शोषण || (2021)

Acharya Prashant

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जब महिला करे पुरुष का शोषण || (2021)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कल एक रिकोर्डिंग देखी जिसमें एक महिला एक शांत दिखने वाले और एक गरीब आदमी को सरेआम पीट रही थी। कोई बीच-बचाव करने नहीं आया और शायद पुलिस भी उस आदमी को ही फँसा रही है। मेरे पुराने घाव उघड़ आए क्योंकि मैं भी झूठे दहेज के मामलों में अपनी पूर्व पत्नी से बहुत मानसिक, आर्थिक और कानूनी अत्याचार सह चुका हूँ। सर, आप अपनी शिक्षाओं में अक्सर महिलाओं का ही पक्ष लेते हैं और महिलाओं के सशक्तिकरण की कोशिश करते हैं और पुरुषों के शोषण के मामलों पर आप कुछ नहीं बोलते।

आचार्य प्रशांत: मैं महिला सशक्तिकरण की बात करता हूँ क्योंकि इस देश में अधिकांश महिलाएँ अभी भी ऐसी हैं जिन्हें सहारे की, समर्थन की बहुत ज़रूरत है। लेकिन मैं तुम्हारी बात से सहमत हूँ कि अब आधुनिक, पढ़ी-लिखी महिलाओं का एक वर्ग उभर कर आया है पिछले दस-बीस सालों में जहाँ रोल-रिवर्सल (भूमिका बदलाव) हो गया है। कि जहाँ पर पहले ये होता था कि पुरुष शोषक होता था और स्त्री पर शोषण होता था वहाँ पर अब स्त्री शोषक के किरदार में आ गई है। पर ऐसा कम है, ज़्यादा स्थिति अभी यही है कि महिलाएँ उत्पीड़ित हैं और उनको समर्थन मिलना चाहिए। लेकिन तुमने जो बात लिखी है उसको समझना भी ज़रूरी है।

महिलाएँ शोषक क्यों होती जा रही हैं?

मैं समझता हूँ तीन कारण हैं इसके, तीन तलों पर देखेंगे: पहला कल्चरल (सांस्कृतिक), दूसरा आर्थिक और तीसरा पर्सनल (व्यक्तिगत)।

क्या हैं कल्चरल कारण?

देखिए इस देश में एक सांस्कृतिक धारा हुआ करती थी जिसमें महिला के पास भी कुछ कर्तव्य थे, साथ में कुछ अधिकार थे और पुरुष के पास भी कुछ कर्तव्य थे और साथ में कुछ अधिकार थे। अब जो सतही किस्म के लिब्रलिज़्म के और फेमिनिज़्म के प्रभाव पड़े हैं भारत पर उनके कारण कुछ स्त्रियों ने ये मान लिया है कि उनके पास अब कर्तव्य नहीं रहे और पुरुषों के पास अब अधिकार नहीं रहे। और ये एक बड़ी अजीब हालत है, मैं इसको एक कल्चरल वैक्यूम का नाम दूँगा, सांस्कृतिक निर्वात, जिसमें आपके ऊपर परम्परागत रूप से जो कर्तव्य थे, जो ज़िम्मेदारियाँ थीं वो तो आपने छोड़ दी हैं। आपने कहा है कि “वो जिम्मेदारियाँ शोषण का दूसरा नाम थीं तो हम उन जिम्मेदारियों को नहीं मानते, हमारा कोई कर्तव्य नहीं है।”

इसी तरीके से पुरुषों के जो अधिकार थे उन अधिकारों को भी ठुकरा दिया गया है ये कहकर कि उन अधिकारों के कारण ही पुरुष वर्ग शोषण करता था। कुछ हद तक वो बात सही भी है लेकिन नए कर्तव्यों का और नए अधिकारों का कोई साफ फ्रेमवर्क सामने नहीं आया है तो जो पुरानी संस्कृति थी उसमें से बस एक हिस्सा हटा दिया गया है, कौन-सा हिस्सा है हटा दिया गया है? कि “हमारी अब ज़िम्मेदारी नहीं है, हमारे कर्तव्य नहीं हैं। लेकिन हमारे अधिकार जो हैं, एक नारी होने के नाते हमारे जो अधिकार हैं वो अधिकार अभी भी यथावत हैं, अधिकार वैसे ही चल रहे है।”

अब जैसे कि क्या अधिकार हैं? कि “मैं नारी हूँ तो मुझे सहायता मिलनी चाहिए सरकार की ओर से, समाज की ओर से मिलनी चाहिए। अगर मैं कहीं काम भी करती हूँ तो वहाँ मुझे कुछ विशेष अधिकार मिलने चाहिए।” वो सब यथावत हैं। इसी तरीके से पुरुषों के अधिकार हट गए हैं लेकिन उनके जो कर्तव्य हैं पुराने वो यथावत हैं।

कर्तव्य उनके पुराने क्या हैं? कि, "साहब आप तो आदमी हैं तो आपको नारियों की, औरतों की रक्षा करनी चाहिए। आपको उन पर हाथ नहीं उठाना चाहिए और आपको उनके प्रति उदार होना चाहिए जहाँ हो सके, जितना ज़्यादा हो सके। आपको बोझ अपने ऊपर ले लेना चाहिए।" तो पुरुष ये कर्तव्य अभी भी उठाए जा रहा है जबकि अधिकार जो हैं उसके वो छिन गए हैं। और नारी अपने कर्तव्यों को ठुकरा चुकी है लेकिन पुराने जो उसके अधिकार थे उन पुराने अधिकारों को उसने पकड़ रखा है।

जो नया कल्चर आया है उदारवादी, नारीवादी, लिबरल फेमिनिस्ट , उसकी वास्तव में गहाराई से ना स्त्रियों को समझ है, ना पुरुषों को समझ है। वो कल्चर आ ज़रूर गया है लेकिन उसको जानता कोई नहीं है। अभी मैं अगर लोगों से पूछूँ, आज के आधुनिक लोगों से भी पूछूँ कि कुछ प्रमुख नारीवादियों के नाम भी बता दो; मैं पूछूँ, "सावित्रीबाई फुले कौन? फातिमा शेख कौन? कामिनी रॉय कौन? पंडिता रमाबाई कौन?" तो लोगों को नहीं पता होगा।

या अंतराष्ट्रीय जाकर मैं पूछूँ कि, "बारबरा वाल्टर्स कौन है? या माया अंजुलु कौन है? एंजेला डेविस कौन है?" लोगों को नहीं पता होगा पर फेमिनिस्ट सब बने बैठे हैं।

मैं पूछूँ फेमिनिज़्म की द्वितीय लहर या प्रथम लहर बताओ तो आज जो सब फेमिनिस्ट बनी घूम रही हैं उन्हें कुछ नहीं पता होगा। लेकिन फेमिनिज़्म को पकड़ रखा है क्योंकि उससे कुछ अधिकार मिल जाते हैं। फेमिनिज़्म की समझ भले ही नहीं है। फेमिनिज़्म की जो फिलोसॉफी है, फेमिनिज़्म का जो पूरा दर्शन है और उसका जो पिलर्स (स्तम्भ) हैं उसकी समझ भले नहीं है लेकिन फेमिनिस्ट बनने के जो फायदे हैं वो लूट रहे हैं लोग, विशेषकर स्त्रियाँ। पुरुषों को भी नहीं पता फेमिनिज़्म के बारे में तो वो फेमिनिज़्म के नाम पर बहुत सारी उल्टी-सीधी बातें भी स्वीकार कर लेते हैं। तो एक विचित्र स्थिति बन गई है। मैं इसमें फिर कहूँगा कि जो अधिकार और कर्तव्य का संतुलन है वो बड़ा खराब हो गया है।

देखिए आदमी हो कि औरत हो इंसान सब हैं। अगर अधिकार चाहिए तो कर्तव्यों का भी पालन करना पड़ेगा। कर्तव्यों के बिना कोई अधिकार नहीं हो सकता लेकिन कर्तव्यों को हटा करके अधिकारों को पकड़े रहना बल्कि अपने अधिकारों में और इज़ाफा कर लेना ये कहीं से भी न्याय की बात है नहीं। तो पहली बात तो यही हुई कि पुराना चला गया है जो कल्चर था, नया कल्चर अभी पूरे तरीके से आया नहीं है। और जो नया आ भी रहा है वो बहुत अधकचरे तल पर आ रहा है, वो बहुत उथले तरीके से आ रहा है, सतही, और उसकी समझ नहीं है किसी को। लेकिन सब नाम से मॉडर्न , लिबरल हुए बैठे हैं। ये पहली बात हुई।

दूसरी बात हुई, मैंने कहा — आर्थिक। देखिए जब पैसा खुद कमाना पड़ता है न तो ज़िम्मेदारी अपने-आप आ जाती है। अधिकांश मामलों में जहाँ पर आज हम महिला को शोषक के तौर पर देख रहे हैं वहाँ बात ये है कि वो खुद कमा नहीं रही है। पैसा कमाने बाहर अगर निकलो, सड़क पर जाओ तो आँटे-दाल का भाव पता चल जाता है। लेकिन अगर आप किसी के पैसों पर, चाहे माँ-बाप के पैसों पर, चाहें पति के पैसों पर मज़े में अपना जीवनयापन कर रहे हैं तो फिर आपको बहुत सारी बेहूदा हरकतें करने का समय भी मिल जाता है, आपकी ऊर्जा भी बची रहती है कि चलो खाली समय पड़ा है और खाली एनर्जी (ऊर्जा) है तो इन्हीं सब में लगाते हैं। और आपमें विनम्रता की भी बहुत कमी हो जाती है क्योंकि जो पैसा कमाने निकलता है न उसको बड़ी लड़ाई करनी पड़ती है, बड़ा संघर्ष करना पड़ता है। वो संघर्ष फिर उसे विनम्र बना देता है। वो जानता है कि किन उलझनों को पार करके कुछ पैसा आता है।

लेकिन हिंदुस्तान में अगर हम देखें तो जो लेबर पार्टिपेशन रेट है महिलाओं का, वो पिछले दस-बीस साल में जब से फेमिनिज़्म बढ़ा है, भारत में वो लेबर पार्टिपेशन रेट बढ़ने की जगह घट और गया है और वो घटा भी विशेषकर कहाँ है? बड़े शहरों में घटा है। ये बात आपको बहुत ताज्जुब की लगेगी, आप कहोगे कि, "भाई नारियाँ मॉडर्न और एडवांस होती जा रही हैं तो उनको और ज़्यादा काम करना चाहिए न, वर्कप्लेस पर उनको और ज़्यादा नज़र आना चाहिए।" साहब, चीज़ उल्टी हो रही है। मॉडर्निटी के साथ और लिबरल एटीट्यूड के साथ महिलाओं का घर से बाहर निकलकर के खुद्दारी के साथ, ईमानदारी, स्वालंबन, स्वाभिमान के साथ खुद पैसा कमाना और कम होता जा रहा है क्योंकि उन्हें पैसा कमाने की ज़रूरत नहीं है, क्यों? क्योंकि अर्थव्यवस्था आगे बढ़ रही है घर में पैसा अपने-आप आ जा रहा है। वो कौन ला रहा है? वो पति ला रहा है, वो पिता ला रहा है। तो महिला घर में बैठी हुई है।

संस्कारिक रूप से उसने अपने-आप को बहुत सारे अधिकार दे दिए हैं, पुरानी जो उस पर जिम्मेदारियाँ थी उसने उसका त्याग कर दिया है। और उसे बाहर जाकर के पैसा कमाना नहीं है क्योंकि पैसा कहीं बाहर से आए जा रहा है। ये बात सोचिए कितने अचंभे की है कि अस्सी और नब्बे के दशक में तुलनात्मक रूप से महिलाएँ ज़्यादा काम कर रही थीं, ज़्यादा उनका पार्टिपेशन था लेबर फोर्स में, आज वो कम होता जा रहा है। तो दूसरी वजह हुई — आर्थिक।

जो तीसरी वजह है, वो भी बहुत महत्वपूर्ण है। तीसरी वजह है व्यक्तिगत, पर्सनल और वो वजह है पुरुष की कामवासना। देखो पुरुष में कामवासना स्त्री की अपेक्षा ज़्यादा हमेशा से रही है जैविक रूप से। उसके शरीर का निर्माण ही ऐसा है और पिछले कुछ दशकों से मिडिया ने पुरुष की वासना को ज़बरदस्त तरीके से भड़काया है। तो हर पुरुष घूम रहा है इस वक़्त अपने भीतर वासना की आग लेकर के। और वो वासना कौन पूरी कर सकता है? वो स्त्री ही पूरी कर सकती है। तो पुरुष जाता है उसके सामने झुक जाता है।

आप टीवी देखते हैं वहाँ आपकी वासना को भड़काया जा रहा है, आप सोशल मीडिया पर जाते हैं वहाँ आपको भड़काया जा रहा है, आप सड़क पर निकलते हैं वहाँ आपको उत्तेजित किया जा रहा है। और आपकी उत्तेजना का जो इलाज है वो तो एक नारी के पास ही है। तो आप फिर जाते हो और उस नारी के सामने सिर झुका देते हो। फिर वो कोई भी आपके साथ अनाप-शनाप व्यवहार करे आप उसको झेलने को राज़ी हो जाते हो क्योंकि गरज आपकी है। आप कहते हो, “अगर मैं सर नहीं झुकाऊँगा तो मेरा जो वासना का स्वार्थ है उस महिला से, वो पूरा कैसे होगा?” और वो महिला भी इस बात को पकड़ चुकी है कि “मैं इससे कितनी भी बदतमीज़ी कर लूँ, दुर्व्यवहार कर लूँ, इसका शोषण कर लूँ, ये लौट-लौट कर मेरे ही पास आएगा क्योंकि इसकी जो स्थिति है वो कामुक कुत्ते जैसी है, ये लार टपकाता पीछे-पीछे मेरे आ ही जाएगा।” तो इसकी वजह से अगर कोई महिला ठीक-ठाक भी होती है तो उसको बिगाड़ने का काम उसका पति या उसका प्रेमी कर देता है।

देखिए महिला को सम्मान मिलना चाहिए उसके ज्ञान से, उसके गुणों से, उसकी आंतरिक शक्ति से लेकिन आप जब उस महिला को महत्व देना शुरू कर देते हो इस वजह से कि उसका तन आकर्षक है और वो दिखने में बड़ी कामुक, कामिनी-सी है तो आपने उस महिला को ज़बरदस्ती ऐसा अधिकार दे दिया जिसकी वो पात्र नहीं थी, उसे मिलना नहीं चाहिए था। लेकिन आज बहुत ज़्यादा ऐसा हो रहा है कि बहुत सारी महिलाओं को बहुत ज़्यादा सम्मान और प्रसिद्धि सिर्फ इस बात पर मिली जा रही है कि उन्होंने अपने तन को एक आकर्षक तरीके से सहेज कर रखा है और वो अपने तन की नुमाइश लगाने को भी तैयार हैं। और उनके पास वो बुद्धि है, वो व्यापारिक बुद्धि है जो जानती है कि शरीर का इस्तेमाल करके किस तरीके से अपने हितों की पूर्ति कर लेनी है।

तो ये तीन कारण हैं जिसकी वजह से आज अब हमें कुछ मामलों में ऐसा देखने को मिल रहा है कि महिला भी शोषक बनी जा रही है। बहुत हद तक जो उसका ज़िम्मेदार है वो स्वयं पुरुष है‌।

हमने तीन कारण कहें न? हमने कहा कल्चरल कारण, हमने कहा फाइनेंशियल कारण, हमने कहा पर्सनल कारण, व्यक्तिगत। अब तुम देखो जो सांस्कृतिक असाक्षरता है वो अगर महिला में है तो पुरुष में भी है। पुरुष को अगर फेमिनिज़्म वास्तव में पता हो कि क्या है तो वो महिला से पलट कर कहेगा न कि, “बिलकुल ठीक बात है कि तेरे ऊपर जो पुरानी जिम्मेदारियाँ थीं अब वो नहीं हैं लेकिन अब तुझे नई जिम्मेदारियाँ भी तो लेनी पड़ेंगी। तेरी नई जिम्मेदारियाँ कहाँ हैं? और तेरी ड्यूटीज़ , तेरे कर्तव्य कहाँ हैं नए? वो बता।” लेकिन पुरुषों को खुद नहीं पता तो वो महिला से ऐसी कोई बात कह नहीं पाता। वो चुप रहकर दबा-सहमा बैठा रहता है।

जो दूसरी बात है — पैसा देने वाली। आप क्यों एक इस तरह का माहौल बनाते हो जिसमें आपकी बहन या आपकी पत्नी या जो भी है वो घर पर बैठे हुए हैं और आप जाकर के उनको बहुत सारा पैसा दिए दे रहे हो कि “जाओ तुम शॉपिंग करो, जैसे करना हो करो।” नब्बे-प्रतिशत मामलों में ऐसा नहीं हो रहा है लेकिन अभी हम बात उन दस-प्रतिशत मामलों की कर रहे हैं जहाँ ऐसा हो रहा है क्योंकि वही मुद्दा है।

आपने स्त्री को घर पर बैठा दिया है और आप कह रहे हैं, “तू तो फूल-कुमारी है, तू सुकुमारी है, तू घर पर बैठ, तू बाहर निकलेगी तूझे धूप लग जाएगी। और मैं ला-लाकर के तुझे पैसा दिए दे रहा हूँ।” वो जो तुम उसे पैसा दिए दे रहे हो वो तुम्हारे ही दिए हुए पैसे का इस्तेमाल करके तुम्हारा शोषण करेगी। क्योंकि ये जो मुफ्त का पैसा होता है, बिना मेहनत के कमाया हुआ पैसा, ये इंसान को कहीं का नहीं छोड़ता, ये इंसान को भीतर से खराब कर देता है।

अगर किसी महिला के हाथ में तुम जाकर के पैसा रखे दे रहे हो—मैं थोड़े बहुत पैसे की बात नहीं कर रहा हूँ पर आज बहुत सारे ऐसे घर हैं जहाँ अनाप-शनाप पैसा अनर्जित तरीके से, अयोग्य तरीके से लोगों के हाथ में पहुँच रहा है, विशेषकर महिलाओं के हाथों में पहुँच रहा है। तुम ये सब करोगे उसके बाद वो खुद ही तुम्हें परेशान करेगी। उन्हें ताक़त दो, उन्हें ज्ञान दो, उन्हें बल दो, उन्हें बुद्धि दो, उन्हें सहायता दो कि वो बाहर निकलें, स्वाभिमानी बनें, अपना पैसा खुद कमाएँ। उन्हें फिर पता चलेगा कि वास्तव में उनकी योग्यता कितनी है, इतना ही नहीं उनकी योग्यता फिर बढ़ेगी भी। घर में स्त्री को रखकर के तुम अपनी ही परेशानी का सामान तैयार कर रहे हो।

और जो तीसरी चीज़ है, क्या? बिलकुल बेहद कामवासना, जिसकी कोई सीमा ही नहीं है। एक बार महिला को ये पता चल गया कि ये इंसान मेरे शरीर के लिए मेरे सामने कितना भी झुकने को तैयार है उसके बाद मुझे बताओ वो तुम्हारे सर पर अपना पाँव क्यों नहीं रखेगी? क्योंकि तुम तो खुद ही उसके सामने अपना सर झुका करके बैठ गए हो।

तो ये सब चल रहा है, ये वजहें हैं। ये वजहें पुरषों के लिए जितनी घातक हैं, जहाँ पुरुषों का शोषण हो रहा है, ये चीज़ें स्त्रियों के लिए भी उतनी ही घातक हैं। इसका इलाज है उन्हीं पुरानी चीज़ों से बचना जिनके ख़िलाफ अध्यात्म ने, वेदांत ने हमें बार-बार चेताया है। जब तक आदमी के जीवन में गहराई नहीं आएगी वो या तो शोषण करता रहेगा या शोषण सहता रहेगा। आदमी हो चाहे औरत, ज़िंदगी में गहराई, समझ में ऊँचाई और अध्यात्म का ज्ञान दोनों के लिए बराबर ज़रूरी है। ना शोषक होना सही है ना शोषण सहना सही है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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