उसे आकाश जैसा क्यों कहा गया है? || आचार्य प्रशांत, अवधूत गीता पर (2020)

Acharya Prashant

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उसे आकाश जैसा क्यों कहा गया है? || आचार्य प्रशांत, अवधूत गीता पर (2020)

अन्तर्हितच्क्ष स्थिरजड़्गमेषु ब्रह्मात्मभावेन समन्वयेन। व्यप्त्याअव्यवच्छेदमसड़्गमात्मनो मुनिनर्भस्त्वं विततस्य भावयेत्।।

(अध्याय १, श्लोक ४२)

राजन, जितने भी घट-मठ आदि पदार्थ हैं वो चाहे चल हों, अचल हों, उनके कारण भिन्न-भिन्न प्रतीत होने पर भी वास्तव में आकाश ‘एक और अपरिछिन्न है’। वैसे ही चर-अचर जितने भी सूक्ष्म-स्थूल शरीर हैं उनमें आत्मा रूप से सर्वत्र स्थित होने के कारण ब्रह्म सभी में है। साधक को चाहिए कि सूत के मणियों में व्याप्त सूत के समान आत्मा को अखण्ड और असंग रूप से देखे। वह इतना विस्तृत है कि उसकी तुलना कुछ-कुछ आकाश से ही की जा सकती है। इसलिए साधक को आत्मा की आकाशरूपता की भावना करनी चाहिए।

प्रश्नकर्ता: सर जैसे टाइम के बारे में आपने भी काफ़ी बताया है, दूसरों ने भी बताया कि, समय देह के साथ स्टार्ट होता है, थॉट, विचार से स्टार्ट होता है, वैसे स्पेस या आकाश जो है उसके बारे में कुछ थोड़ी समझ चाहिए थी कि जो अध्यात्म के रास्ते में थोड़ी मदद करे।

आचार्य प्रशांत: ना ना ना ना ;जो समय देह के साथ शुरू होता है, उस समय का संगी तो ये पार्थिव आकाश है, समझ रहे हो? आकाश, संसार और समय एक हैं। संसार माने वस्तुएँ ऑब्जेक्ट्स। ठीक है?

दो चीज़ें हो नहीं सकतीं अगर आकाश न हो,आकाश माने स्पेस। दो चीज़ें नहीं हो सकतीं है न अगर स्पेस न हो! तो वस्तु का होना और आकाश का होना एक ही बात है। वस्तुएँ न हों तो आकाश भी नहीं हो सकता, और आकाश न हो तो वस्तुएँ नहीं हो सकतीं । तो ये एक पारस्परिक द्वैत का सम्बन्ध है इनमें, समझना! अगर दुनिया में कहीं कुछ न हो तो क्या स्पेस यानी आकाश भी होगा? फिर स्थान भी नहीं होगा न; स्थान है, ये भी कैसे पता चलता है? चीज़ें हैं; तभी तो स्थान का भी अस्तित्व है न, वरना वो भी नहीं है।

बड़ा कमरा है, कब बोलोगे? जब कम-से-कम दीवारें तो हों, नहीं तो ये कैसे कहोगे कि बहुत स्थान है यहाँ; ये भी नहीं कह पाओगे है न। कुछ चाहिए जो स्थान को बांधता हो तभी स्थान अस्तित्व में आता है, तो ये भौतिक चीज़ें हैं, और इसी तरह से समय है जो इन दोनों से संबंधित है। जहाँ कहीं भी कोई भी वस्तु है, वहाँ उस वस्तु का बदलाव है।

वास्तव में वस्तु का अस्तित्व ही निरंतर परिवर्तनशील है। असल में कोई चीज़ है ही नहीं, कोई चीज़ तो तब हो न जब वो चीज़ टिकती हो। जो चीज़ हर पल बदल रही है उसको अधिक-से-अधिक हम एक प्रक्रिया कह सकते हैं न, एक बहाव कह सकतें हैं, एक फ्लक्स (प्रवाह) कह सकते हैं, ठीक है? तो ये सब एक हैं– दुनिया, स्पेस , टाइम , स्थान, समय ये क्या हैं? ये एक हैं।

आत्मा को जब ‘आकाश’ की उपमा दी जाती है, तो वो दूसरा आकाश है। वो पूर्ण आकाश है, ठीक है? ये जिस आकाश की बात हो रही है, मटेरियल स्पेस (भौतिक आकाश), ठीक है? ये दूसरा आकाश है।

आकाश के भी कई तल होते हैं। महत आकाश अलग है, चिदाकाश अलग है, चिदाकाश क्या हुआ? वो जो मन में आप इतनी कल्पनायें करते रहते हो, यहाँ ये हो रहा है, वहाँ ये हो रहा है; वो सब कहाँ हो रहा है, बताओ? वो सब जहाँ हो रहा होता है, उसे चिदाकाश बोलते हैं। वो चिदाकाश है।

आत्मा को जब आकाश की उपमा दी जाती है तो आत्मा महत आकाश है, वो ये वाला आकाश नहीं जिसमें चाँद-तारे हैं’ और यहाँ पर भी यही कहा गया है कि आत्मा इतनी विस्तृत है कि उसकी तुलना कुछ-कुछ आकाश से ही की जा सकती है। ये नहीं कहा गया है कि आत्मा आकाश ही है। चूँकि हमारी सीमित इन्द्रियाँ अनंतता और वैराट्य का सबसे बड़ा जो उदाहरण है उसे आकाश ही जानती हैं,

आपसे कहा जाये जो आपने सबसे व्यापक चीज़ देखी है, वो क्या है? तो आप क्या बोलोगे, क्या बोलोगे? आकाश ही तो बोलोगे न। जब आप बोलते हो ‘ब्रह्मांड’ माने ’यूनिवर्स’ तो जिसको आप यूनिवर्स बोलते हो वो भी निन्यानबे दशमलव नौ प्रतिशत खाली ही है। वहाँ भी फिर क्या है? आकाश है। तो जो हम सबसे बड़ी चीज़ जानते हैं, वो आकाश है, ठीक है? आत्मा, ऋषिजन हमें बताना चाहते हैं कि अनंत है, अब कैसे बतायें की अनंत है? क्यों, अनंतता तो मन की समझ में आती नहीं।

तो ऐसे फिर उदाहरण देकर बोल दिया कि आत्मा ‘आकाशवत’ है, आत्मा आकाशवत है,आकाश नहीं है, आत्मा आकाशवत है। इसीलिए कहा है कि आत्मा की तुलना कुछ-कुछ आकाश से की जा सकती है, आकाशवत है, बहुत बड़ी है। बड़ी है ,किस आशय में बड़ी है ये भी समझना, अब क्योंकि मन कल्पना करने लगता है बहुत बड़ी आत्मा घूम रही है, पता नहीं क्या है!

आत्मा बड़ी सिर्फ़ इस आशय में है कि हम छोटे हैं, हम छोटे हैं माने क्या? अहम् हमेशा छुटपन, छुद्रता में ही जीता है। छुद्रता माने क्या? कि वो हमेशा सीमा बनायेगा, सीमा बनायेगा, सीमा कैसी? ये मेरा कमरा है भाई, बाहर गंदगी है तो पड़ी रहे ये मेरा कमरा है, ये अहम् का काम है। जब कहा जाता है आत्मा अनंत है, तो माने आत्मा के लिए कुछ भी पराया या बेगाना नहीं है, आत्मा कोई अपने लिए सीमा नहीं खींचती। उसका कोई दायरा कभी रेखांकित नहीं हो सकता। तो नकार की भाषा में सुनना इस बात को कि आत्मा अनंत है आत्मा अनंत है क्योंकि अहम् शाँत है, शाँत माने ‘स अंत’। अहम् हमेशा वो है जो कभी इधर रुक जाता है, कभी उधर रुक जाता है, उसका जल्दी से अंत आ जाता है क्योंकि अहम् का अंत आ जाता है,तो इसीलिए अहम् को नकारने भर के लिए कहा जाता है कि आत्मा अनंत है। अब चूँकि आत्मा को अनंत कह दिया गया तो अनंतता का उदाहरण देने के लिए कह दिया जाता है कि आत्मा आकाशवत है।

लेकिन इस पूरे ख़ेल में कुल मिला-जुला करके जिस चीज़ पर ज़ोर है वो ये है कि अहम् छोटा है, छुद्र है, बताया ये जा रहा है। तो न आत्मा में उलझ जाना, न आकाश में उलझ जाना, दृष्टि रखना, ध्यान रखना सिर्फ़ अहम् पर, अहम् मेरा कितना छोटा है! ठीक है?

अहम् की छुद्रता पर ध्यान दो, आत्मा की अनंतता अपनेआप मिल जायेगी। उसके लिए कुलबुलाने की कोई ज़रूरत नहीं, ठीक है?

“अहम् की छुद्रता पर ध्यान दो, आत्मा की अनंतता अपने आप मिल जायेगी” “आत्मा बड़ी सिर्फ़ इस आशय में है कि हम छोटे हैं”

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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