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मुक्ति क्या है? || (2016)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: मुक्ति क्या है? एक तो ये नज़रिया हो सकता है मुक्ति का कि जैसे हम लोग कैम्प में आए हैं, तो यहाँ पर एक पैटर्न है, एक रूटीन है। तो वो रूटीन एक बंधन की तरह लगता है। उससे निकल कर कहीं और कुछ और हम लोगों को कुछ आकर्षित किया और उसको जानने करने का मन किया, तो वो मेरा मन है; तो वो गोइंग विथ द फ्लो हो गया। तो क्या ये फ्रीडम (मुक्ति) है या नहीं है? जैसे इसमें लिखा है कि " गो विद दि फ़्रीडम "। तो मेरा जो मन है वो फ्रीडम को कैसे जानेगा कि सही में फ्रीडम है?

आचार्य प्रशांत: मन कैसे जानेगा (प्रश्नकर्ता से पुनः प्रश्न स्पष्ट करने के लिए)।

प्र: मन कैसे जानेगा कि फ्रीडम सही में क्या है? क्योंकि जैसे हम लोग कैम्प कर रहे हैं वो फ्रीडम के लिए कर रहे हैं, पर एक जो रूटीन बंध गया है वो बंधन जैसा लगता है।

आचार्य: मन नाम किसका है? मन सीमाओं का नाम है। मन उन सीमाओं का नाम है जो आप पर स्थितियाँ, संस्कार, शिक्षा, अनुभव थोप देते हैं। तो मन का नाम ही बंधन है। मन का ही दूसरा नाम क्या है?

प्र: बंधन।

आचार्य: बंधन। मन माने?

श्रोतागण: बंधन।

आचार्य: बंधन। तो मन को अगर मुक्ति की ओर जाना है, बंधन को अगर मुक्ति की ओर जाना है तो उसे क्या करना होगा?

श्रोतागण: बंधन काटने पड़ेंगे।

आचार्य: मन माने बंधन, मन कह रहा है, "मुझे मुक्ति चाहिए", तो अब मन को क्या करना पड़ेगा?

प्र: तोड़ना पड़ेगा।

आचार्य: और बंधन माने तो मन, तो बंधन तोड़ने पड़ेंगे माने क्या तोड़ना पड़ेगा?

श्रोतागण: ख़ुद को तोड़ना पड़ेगा।

आचार्य: ख़ुद को तोड़ना पड़ेगा। तो मन को अगर मुक्ति चाहिए तो सबसे पहले तो मन को वो करना छोड़ना पड़ेगा जो उसका मन करता है। मन की मुक्ति इसी में है कि वो ना करें जो करने का मन करे, क्योंकि जो करने का मन कर रहा है वही तो क्या है?

श्रोतागण: बंधन।

आचार्य: बंधन। मन पर चलने को मुक्ति नहीं कहते हैं। अभी मेरा मन कर रहा है बर्गर खाने का तो उठो और यहाँ से हरिद्वार चले जाओ। 'मेरा मन कर रहा था, मेरी फ्रीडम की बात है।' यहाँ तो बर्गर कहीं मिल नहीं रहा है तो चलो बर्गर खाने चलते हैं, ये मुक्ति नहीं है, ये तो बड़ी दासता है। तुम्हें पता भी नहीं चलता कि अचानक कैसे स्थितियाँ हावी हो जाती हैं तुम पर। तुम्हें पता भी नहीं चलता कि अचानक कैसे कोई भीतर लहर उठती है और तुम्हें पूरी तरह से शिकंजे में ले लेती है और तुम बह जाते हो।

ये जो शब्द है 'बहना' ये भी समझने जैसा है। पहले दिन के सत्र में हम ने कई बार बात करी थी बहाव की, कि बहो। बहता तो पानी की सतह पर पड़ा एक तिनका भी है, पर उसका बहाव एक निर्जीव बहाव है, उसका बहाव एक प्राणहीन बहाव है, उसका अपना कुछ नहीं। जिधर हवाएँ ले जा रही हैं, जिधर स्थितियाँ ले जा रही हैं उधर को चला जा रहा है। ये दासता है, ये संस्कारों का बहाव है।

आपकी चेतना इतनी लुप्त हो चुकी है; उसकी ज्योति इतनी मद्धम हो चुकी है, चेतना में इतना दूषण आ चुका है कि उसका अपना कुछ बचा नहीं। चेतना में अब कोई निजता नहीं है। कॉन्शियसनेस (चेतना) पूरे तरीके से बॉरोड (उधार की) और करप्टेड (भ्रष्ट) हो चुकी है—उधार की; भ्रष्ट, विकारयुक्त।

एक दूसरा बहाव भी होता है; वो बहाव आत्मा का होता है। उस बहाव के पीछे स्थितियाँ नहीं होतीं, उस बहाव के पीछे कुछ भी नहीं होता क्योंकि वो अकारण होता है। लेकिन, मन भले ही उस बहाव के कारणों को ना जान पाए, उसके पीछे एक आदि-महत कारण बैठा होता है। इन दोनों बहावों में अंतर करना बहुत ज़रूरी है, मैं इसको कहा करता हूँ ' एक्सिडेंटल फ़्लो ' और ' एसेंशियल फ़्लो '।

एक संत भी अपनी जीवन यात्रा में बहता है, और एक मुर्दा पीला तिनका भी नदी की सतह पर बहता है। तिनका बड़ी गुस्ताख़ी करेगा अगर वो कहेगा कि उसका बहाव भी संत समान ही है। अरे, संत बह रहा है आत्मा से एकाकार हो करके और तुम बह रहे हो सतह पर। संत का बहाव है गहराईयों में, संत उसके आदेश पर बह रहा है जो असली है, तुम उसके आदेश पर बह रहे हो जो सतही है।

मालिक तुमने भी बनाए हैं मालिक संत ने भी बनाया है पर तुम्हारे मालिक बदलते रहेंगे। अभी तुम बह रहे हो पानी की सतह पर—थोड़ी देर में कोई बच्चा आएगा तुमको पानी की सतह से उठा लेगा हवा में उछाल देगा—अब तुम बहोगे हवाओं के आदेश पर। थोड़ी देर में कई तिनकों को इकट्ठा करके कुछ बच्चे एक खिलौना, कोई गेंद बना लेंगे, उस गेंद को वो लातों से मारेंगे—अब तुम बहोगे लातों के आदेश पर। जो चाहेगा तुम्हें आदेशित कर लेगा, जो चाहेगा वो तुम्हारा हुक्मरान बन जाएगा।

संत भी बहता है, पर उसके बहाव में बड़ा विद्रोह है। वो कहता है, "बह तो रहा हूँ पर मेरा आक़ा एक है। उसका आदेश होगा तो बहूँगा, बाकी कोई कुछ भी कहता रहे, हम मानते नहीं।"

तुम्हारे बहाव में तुम्हारे ऊपर हज़ार ताक़तें काम करती हैं तुम्हें पता भी नहीं चलता। मन बहका, तुम बह लिए; ज़बान बहकी, तुम बह लिए; कोई दोस्त-यार आ गया, तुम बह लिए; कहीं कोई खबर पढ़ ली, तुम बह लिए; कहीं कोई आवाज़ उठी, तुम बह लिए; स्थितियाँ बदली, तुम बह लिए; नींद आई, तुम बह लिए; भूख लगी तुम बह लिए; भाव उठा, तुम बह लिए; विचार उठा, तुम बह लिए।

संत ऐसे नहीं बहता, वहाँ एसेंशियल फ़्लो है, आत्मिक बहाव। वो भी बहता है, बहने का अर्थ होता है घर्षण के बिना गति करना। बहने का अर्थ समझ रहे हैं? घर्षण के बिना, विरोध के बिना गति करने को कहते हैं बहना।

संत भी निर्विरोध बहता है पर वो किसका विरोध नहीं करता? मात्र सत्य का। उसके अलावा उसकी किसी से रज़ामंदी नहीं है। उसका और किसी से कोई ख़ास विरोध भी नहीं है, उसका वास्तव में किसी और से कोई लेना ही देना नहीं है क्योंकि सत्य के अलावा संत को कुछ दिखाई ही नहीं देता। जब और कुछ दिखाई नहीं देता तो किसी और से लेना-देना कैसे हो सकता है? वो तो कहता है, "जित देखूँ तित तू", जब वही-वही दिखाई देता है तो स्वभाविक-सी बात है मात्र उसी के आदेशों का पालन होता है। और जो सांयोगिक बहाव होता है— एक्सिडेंटल फ़्लो , उसमें आपको पता भी नहीं होता कि संयोगों ने आपको बहा दिया।

एक कहावत है - "आए थे हरिभजन को ओटन लगे कपास"। कुछ जुलाहे थे, बड़ी कोशिश करके उनको बुलाया गया कि आओ, आओ, हरिभजन करेंगे। पर जुलाहे-तो-जुलाहे, वो बहने लगे और बह कर क्या करने लगे? कपास ओटनी शुरू कर दी। कह रहे हैं, "हम तो वही हैं।" अब इनको तुम रोको कि, "भाई, हरिभजन को आए थे। हरिभजन छोड़ कर ये क्या शुरू कर दिया?" तो वो कहते हैं, "तुम हमारी फ्रीडम में बाधा बन रहे हो।"

ये मूर्खता भर नहीं ध्रष्टता भी है, ये बदतहज़ीबी भर नहीं बदनियती भी है। तुमसे सिर्फ़ चूक नहीं हुई है, तुम्हारी नियत ही ख़राब है। तुम जानते नहीं क्या कि हरिभजन को आए हो? पर कपास की आदत लगी हुई है, भटकाव की आदत लगी हुई है, यूँ ही इधर-उधर घूमने विचरने की आदत लगी हुई है। अनुपस्थित हो जाने की, मौक़े से चूक जाने की, अवसर गँवा देने की आदत लगी हुई है—खेद की बात है न, कितने अफसोस की! "आए थे हरिभजन को ओटन लगे कपास"।

समर्पण एक मात्र मुक्ति है। मनचले हो जाने को मुक्त हो जाना नहीं कहते। फ्रीडम शब्द का हमने बड़ा दुरूपयोग किया है; अब्यूज्ड वर्ड (अपमानित शब्द) है। एक मात्र स्वतंत्रता, एक मात्र मुक्ति होती है आत्मा की, उसके अलावा जो कुछ है सब बंधन है। और हमने तो शुरुआत ही यह कह कर करी है कि मन माने बंधन। मन पर चलने को कभी ना कहिएगा कि, "ये तो मेरी पर्सनल फ्रीडम है, व्यक्तिगत स्वतंत्रता"; पागलपन है। मन जब झुके तब मुक्ति जानना और मन जब मिटे तब मोक्ष मानना।

आइंदा इस ख़्याल को कभी ऊर्जा, कभी तवज्जो मत देना कि, "मेरा जो मन आएगा सो करूँगा क्योंकि मुक्ति का मामला है।" मन में कहाँ कभी कुछ अपना आता है, भूलते क्यों हो? जुलाहे के मन में क्या आएगा? 'कपास ओटनी है।' ये कोई उसका अपना विचार है? इसमें कोई उसकी अपनी स्वतंत्रता है? अरे, जीवन-भर यही किया है तो यही विचार घूम-फिरकर के फ़िर आ जाता है—ये उसका अपना कैसे हुआ, इसमें उसकी क्या निजता? जीवन-भर जो करा है वही आदत बन कर, ढर्रा बन कर बार-बार पकड़ता है तुमको और तुम कहो, "ये तो मेरी अपनी बात है।" अरे, अपना क्या रे इसमें?

अपना तो सिर्फ़ एक होता है - सत्य। जहाँ सत्य हो वहाँ सर झुकाओ, और फ़िर जरा भी ना डिगो। फ़िर ये अभद्रता करो ही मत कि ज़रा दाएँ-बाएँ भी झाँक लें। प्रेमी से गले मिले होते हो तो दाएँ-बाएँ झाँक रहे होते हो? फ़िर तो भला है गले मिलो नहीं, गला मिलते-मिलते गला ही दबाओगे तुम। बड़े ख़तरनाक प्रेमी हो।

गले तो जब मिला जाता है तो दाएँ-बाएँ दिखता ही नहीं क्योंकि आँखें ही बंद हो जाती हैं। आँखों के बंद होने का बड़ा सांकेतिक महत्व है जानते हो? प्रेम में गले मिलो, चाहे किसी को चूमो आँखे बंद हो जाती हैं, उसका अर्थ समझते हो? कि अब और कुछ नहीं बचा, संसार लुप्त हो गया, ना अब कुछ दिखाई देता है, ना सुनाई देता है। मंज़िल मिल गई। जब मंज़िल मिल गई तो अब संसार का क्या ख़्याल। अब और कहीं जाना ही नहीं है, आँख बंद करो।

तुम मंज़िल पर आकर भी आँखें खोले रक्खे हो, तुम्हें अभी बर्गर खाना है। तुम्हारी चटोरी ज़बान, तुम्हें इधर-उधर भागना है। पगलाए हो, हैं? कभी नहीं गले मिले, इतने अभागे हो कि किसी ने नहीं चूमा तुम्हें? तुम्हें मीठे और गहरे चुम्बनों की ज़रूरत है ताकि तुम इश्क़ का कुछ कायदा सीख सको। कोई चाहिए जो तुमको बाहों में बिलकुल जकड़ ले ताकि प्यार की रवायत जान सको। उसके बिना नहीं ठहरोगे, उसके बिना तो चंचल मना भटकते ही रहोगे। उसी की तलाश में भटक रहे हो, सच्चाई तो ये है।

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