आचार्य प्रशांत: महाशिवरात्रि का समय है और आपकी बहुत-सी जिज्ञासाएँ आयी हैं। आपने कहा कि जैसे अभी पूरी बात समझायी आपने कि ईश्वर माने क्या, आत्मा माने क्या, माया माने क्या, चार राम कौन से होते हैं — और श्री कृष्ण की गीता पर तो लंबे और पूरे व्याख्यान होते ही रहते हैं — तो वैसे ही अलग-अलग शब्दों में आपने कहा है कि अब महाशिवरात्री के समय पर, शिव पर भी पूरी बात करी जाए, शिव कौन हैं।
तो मैंने सोचा कि शिव पर तो मैं इतना बोल चुका हूँ, इतनी बार बात कर चुका हूँ, पूरी हमारी एक पुस्तक ही है शिव पर 'शिवोऽहम्' नाम से और अगर आप विडियोज़ ढूँढ़ रहे होंगे, तो सैकड़ों नहीं तो दर्ज़नों विडियो तो होंगे ही शिव पर। तो अपनी बात तो मैं भरपूर कर ही चुका हूँ।
आज क्यों न शिव को उनके ही माध्यम से आप तक लाया जाए, जिन्होंने शिवत्व को समझा है। तो आज आचार्य शंकर, आदिशंकराचार्य का ‘निर्वाण षट्कम', ‘अवधूत गीता', लाल देद माने लल्लेश्वरी देवी के कुछ वाक्, अक्का महादेवी के कुछ वचन और इसके अलावा अगर संभव हुआ तो कुछ शैव उपनिषदों से कुछ श्लोक लेंगे। जिससे यह बिलकुल स्पष्ट हो जाएगा कि शिव कौन हैं।
आपने जो प्रश्न भेजे हैं, जो जिज्ञासाएँ करी हैं, वो सीधे-सीधे यही नहीं हैं कि शिव कौन हैं। यह तो मैं चाहता हूँ कि मैं आपसे बात करूँ कि शिव माने क्या। आपके प्रश्न बहुत तरीक़े के हैं। उदाहरण के लिए आपने पूछा है कि 'क्या कैलाश पर्वत पर कुछ पारलौकिक शक्तियों का वास है?' आपने पूछा है कि 'डमरू का क्या महत्व है?' आपने पूछा है कि 'शिव के जो हमें अनेक रूप बताए जाते हैं, वो सब क्या हैं?'
तो मैंने सोचा कि शिव के विषय में जो इतनी बातें हैं जिनमें से अधिकांश मात्र भ्रांतियाँ हैं, उन बातों को लूँ और उनमें से एक-एक का परिक्षण करूँ और फिर उनको नकारूँ, उससे कहीं बेहतर है कि जो एक मूल बात है — ठीक, सीधी, साफ़, सच्ची — वो आपसे कर दी जाए।
आप जान जाएँगे एक बार कि शिव हैं कौन, तो फिर शिवत्व से सम्बन्धित जितनी भी आज प्रचलित भ्रांतियाँ हैं, इनको तो फिर आप ख़ुद-ब-ख़ुद ही नकार देंगे न। फिर आपको आवश्यकता नहीं पड़ेगी कि हर छोटी बात में मुझसे या किसी से पूछना पड़े कि इसका अर्थ बताओ, उसका अर्थ बताओ।
और हमने राम, कृष्ण, शिव, ये तीन जो मुझे बहुत प्रिय हैं और पूज्य हैं, हमने इन तीनों के साथ ही कुछ अच्छा व्यवहार नहीं करा है। तीनों की ही बात को हमने समझने से इंकार करा है और तीनों के ही अर्थ को हमारे अहंकार ने ख़ूब विकृत करा है। और इन विकृत अर्थों को ही अब हम यूँ मानने लगे हैं और प्रचारित भी करने लगे हैं जैसे सत्य हो।
तो बहुत सारे हैं विकृत अर्थ, और वो बहुत-बहुत जगहों से प्रचारित हो रहे हैं। कुछ तो जो विकृतियाँ हैं, वो पारंपरिक रही हैं, अतीत से चली आ रही हैं। और बहुत सारी ऐसी हैं जो एकदम नयी-ताज़ी हैं, हालिया हैं। पिछले दस-बीस सालों में ही वो ज़्यादा पनपी हैं और ज़्यादा प्रचलित हुई हैं, और बहुत जगहों से दुष्प्रचार हुआ है।
तो उतनी सारी चीज़ों की, उतनी सारी भ्राँतियों और विकृतियों की मैं क्या बात करूँगा, है न? उससे कहीं बेहतर है कि जो शिवत्व का वास्तिवक अर्थ है, हम वो समझ लें। वो अर्थ समझने के बाद भी आप भ्रांतियों में विश्वास रखना चाहते हैं, तो वो आपकी मर्ज़ी है। और उसका तो फिर कुछ करा नहीं जा सकता।
लेकिन हम जो असली मतलब है शिवत्व का, आज उसको समझने का प्रयास करेंगे। ठीक है? तो बात लंबी चलेगी, दूर तक जाएगी, और गहराई पकड़ेगी। जिनमें शिवत्व के प्रति जिज्ञासा हो, संयम हो, और श्रद्धा हो वही मेरे साथ रह पाएँगे।
तो हम आरंभ करते हैं शंकराचार्य के 'निर्वाण षट्कम' से। इसकी पृष्ठभूमि तो आपको पता ही होगी न। तो बालक से थे, किशोर भी नहीं हुए थे शंकराचार्य। तो वो अपने गुरु के पास गए और गुरु के बारे में प्रसिद्ध था कि वो आसानी से शिष्य किसी को स्वीकार करते नहीं थे। तो गुरु ने इनको देखा और कम उनकी उम्र बहुत, तो बोलते हैं, 'अच्छा, ज़रा परिचय देना अपना, हो कौन तुम?'
तो बालक शंकर ने अपना परिचय ही इस अंदाज़ से दिया कि गुरु को महा आश्चर्यचकित होकर और प्रेमविह्वल होकर शंकर को शिष्य स्वीकारना ही पड़ा। तो यह जो हमारे सामने आ रहा है 'निवार्ण षट्कम', यह वास्तव में आदि शंकराचार्य ने अपना परिचय दिया है। और अपना परिचय देते हुए बोले, 'मेरे बारे में, बाकी सब बातें मैं बताऊँ क्या आपको श्रीमान। बाकी सब बातें बताने लायक नहीं हैं, मेरे बारे में। जो भी है, एक ही चीज़ है, मेरे बारे में बताने लायक — शिवोऽहम्, मैं शिव हूँ।'
तो इसमें बिलकुल रस्सी पर चलते हैं आचार्य शंकर। एक ओर तो वो सबकुछ जो किसी के बारे में भी महत्वपूर्ण माना जाता है, जिन चीज़ों को हम अपनी पहचान बताते हैं, उनको काटते चलते हैं और जैसे-जैसे काटते जाते हैं, साथ में बोलते हैं, ‘चिदानंदरूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम्।' मैं वो सब नहीं हूँ और वो सब यदि नहीं हूँ तो मैं कौन हूँ? मैं यह हूँ — मैं विशुद्ध सतत चेतना मात्र हूँ। मैं आनंदमयी चेतनामात्र हूँ, और उसका नाम शिव है।
अब देखिए, मैंने क्यों चुना है आज 'निर्वाण षटकम्' को, आपसे शिव का परिचय कराने के लिए? इसलिए चुना है, क्योंकि जिन्होंने शिव को जाना — शंकराचार्य — वो जिन-जिन चीज़ों को नकार कर, काट कर, कह रहे हैं, 'यह सब मैं नहीं हूँ।' माने यह सब शिव नहीं हैं। 'मैं कौन हूँ?' अपनेआप को बोलते हैं 'शिवोऽहम्।' और जिन-जिन चीज़ों को कहते हैं, 'मैं नहीं हूँ', उन चीज़ों के बारे में यही तो कह दिया न कि वो सब बातें शिव से सम्बन्धित नहीं हैं क्योंकि 'मैं कौन हूँ?' मैं बराबर शिव।
तो जितनी बातों को वो कह रहे हैं, मैं नहीं हूँ, उतनी बातों को वो यही कह रहे हैं कि वो सब बातें शिव से कोई रिश्ता नहीं रखतीं। तो मैंने निर्वाण षटकम् इसलिए चुना है, क्योंकि जिन-जिन बातों को हमें आचार्य शंकर बता रहे हैं कि शिव से कोई सम्बन्ध नहीं रखतीं, हमने आज शिव का सम्बन्ध उन्हीं सब बातों से जोड़ दिया। और मात्र, उन्हीं सब बातों से जोड़ दिया है।
अब यह तो एक अजीब विडंबना हो गई न भाई कि जो करने के लिए हमको मना कर गए ज्ञानी, हम ठीक वही कर रहे हैं। गज़ब माया है! ऐसा भी नहीं कि थोड़ी बहुत ग़लती कर दी है। शत प्रतिशत ग़लती, जैसे कि बिलकुल हिसाब लगाकर के गलती करी गई हो। जैसे कि कोई पूछ रहा हो, 'अच्छा बताओ, क्या क्या नहीं करना है?' और जो नहीं करना है वही सब करा हो। और कह रहा हो, 'नहीं-नहीं पहले बता दो, क्या-क्या नहीं करना है, ताकि हम जान जाएँ कि वही सबकुछ तो हमें करना है।'
तो जो कुछ हमें यहाँ पर आचार्य शंकर मना कर रहे हैं — शिव के विषय में सोचने को — हमने शिव के विषय में वही सबकुछ सोच रखा है। और महाशिवरात्रि जैसे पर्व को भी हम बड़ा कलुषित कर देते हैं, जब हमारी शिव की धारणा ही इतनी विकृत होती है। तो कह रहे हैं आचार्य शंकर —
मनोबुद्ध्यहङ्कार चित्तानि नाहं, न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे। न च व्योमभूमि- र्न तेजो न वायुः चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥१॥
मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, अंत:करण के हिस्से होते हैं, ये सब, ये चार, शास्त्रीय तौर पर। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार। बोल रहे हैं, 'इनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं।' माने इनसे शिव का कोई सम्बन्ध नहीं। क्योंकि मैं कौन हूँ? मैं शिव हूँ। तो जिन चीज़ों से मेरा सम्बन्ध नहीं, उनसे शिव का भी सम्बन्ध नहीं। तो इन चीज़ो से शिव का कोई सम्बन्ध नहीं — मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार।
और शिव वो नहीं हैं जो इंद्रियों की पकड़ में आ सकें। श्रोत्र माने? कान। जिह्वा माने? जीभ। घ्राण माने? नाक। नेत्र माने? आँख।
मन, बुद्धि, अहंकार, स्मृति इनका उपयोग करके शिव को सोचने मत लग जाना। और न शिव को कोई ऐसा रूप दे देना जिसे आँखें देख सकती हों। न शिव के बारे में कोई ऐसी बात कह देना जिसे कान सुन सकते हों। शिव को जिसने रूप दे दिया — हमको आचार्य शंकर समझा रहे हैं — उसने शिव को खो दिया। क्योंकि सब रूप तो मानसिक ही होते हैं न। सब रूपों को हम अपने ही रूप से ढालते हैं। हैं न? जैसा हमारा रूप होता है, वैसा ही या उससे सम्बन्धित। हम किसी को भी कोई रूप दे देते हैं।
तो कह रहे हैं, 'तुम्हारे मन से शिव की जो भी धारणा निकलेगी, गलत होगी। तुम्हारी बुद्धि से शिव के विषय में जो भी विचार निकलेगा, वो भी गलत होगा, एकदम गलत होगा — छोट-मोटा नहीं।' इसका क्या यह अर्थ है कि एक विचार ग़लत हो सकता है शिव के विषय में, दूसरा विचार सही हो सकता है? नहीं। तुम जो भी विचार करोगे, वो उठ तो तुम्हारे ही अहंकार के केन्द्र से रहा है न, तो वह भी सब ग़लत होगा।
शिव के विषय में तुमने जो कुछ भी कह दिया, वो गलत। शिव के विषय में तुमने जो कुछ भी सुन लिया, वो गलत। जिह्वा ने कुछ कह दिया शिव के विषय में, गलत। बुद्धि ने कुछ अनुमान लगा लिया शिव के विषय में, कोई भी कहानी बना ली तुमने शिव के विषय में — शिव के विषय में कहानी छोड़ो, एक शब्द भी अगर तुमने कह दिया, तो तुम शिव से बहुत दूर हो गए। वाणी उनका वर्णन नहीं कर सकती, नेत्र उनका दर्शन नहीं कर सकते, कान उनका श्रवण नहीं कर सकते।
और हम क्या करते हैं? कहानियाँ-ही-कहानियाँ। 'वो यहाँ बैठे हैं, फिर यह कर रहे हैं, फिर उन्होंने यह करा, फिर कुपित हो गए, फिर ऐसा हो गया, वैसा हो गया।' इनमें से कुछ कहानियाँ हैं जो किताबों से आ रही हैं, और कुछ कहानियाँ हैं जो आजकल बहुत फैला दी गई हैं।
देखिए, आज जो फैला दी गई हैं कहानियाँ, उनके बारे में तो बात करना व्यर्थ ही है; क्योंकि कोई कुछ भी फैला सकता है, उसमें क्या रखा है। लेकिन लोग अटक जाते हैं जब उनको दिखता है कि बहुत सारी कहानियाँ तो आ रही हैं उन किताबों से जिनको हम थोड़ा सम्मान की दृष्टि से देखते हैं — धार्मिक क्षेत्र की किताबें, पुराण, वगैरह।
कुछ बात समझनी पड़ेगी। वो ये है कि जिसको आप धार्मिक साहित्य कहते हैं वो एक बड़ा विस्तृत और विराट संकलन होता है। खासकर भारत में ऐसा ही रहा है। यहाँ ऐसा नहीं रहा है कि धर्म की कोई एक ही किताब हो। यहाँ धर्म से सम्बन्धित बहुत-बहुत सारी किताबें रही हैं और उसी वजह से बड़ी गड़बड़ हो गई है।
बात मात्र इतनी ही होती कि बहुत सारी भी अगर धार्मिक पुस्तकें हैं, तो भी कोई हानि नहीं होती। लेकिन हानि तब बहुत हो जाती है जब बहुत सारी धार्मिक पुस्तक हों और उनमें भी लोगों को यह ज्ञान न हो कि कौन-सी पुस्तक केन्द्रीय है या सर्वोच्च है। तो जिसके जो मन में आता है वो अपने अनुसार उस पुस्तक को उठा करके उसी को श्रेष्ठ मान लेता है। और ज़ाहिर-सी बात है, आप वही पुस्तक उठाएँगे जो आपके अहंकार के अनुकूल होगी।
तो जो आपकी केन्द्रीय पुस्तक है, उसका नाम तो आप जानते ही होंगे? उसको वेद बोलते हैं। और वेदों का जो दर्शन है, उसको वेदांत बोलते हैं। और वेदांत के दर्शन में जो आख़िरी सत्य है उसको आत्मा बोलते हैं।
तो शिव कौन हैं? शिव वेदांत की आत्मा हैं। (दोहराते हुए) शिव कौन हैं? शिव वेदांत की आत्मा हैं। जितनी बातें यहाँ पर आचार्य शंकर अपने बारे में या शिव के बारे में बोल रहे हैं, वो सारी बातें वास्तव में आत्मा के बारे में बोल रहे हैं। वो यही कह रहे हैं कि 'मैं आत्मा हूँ, और शिव आत्मा का दूसरा नाम है, और आत्मा इंद्रियों से अतीत होती है; मन से उसका चिंतन नहीं हो सकता, अनुभव में वो आती नहीं, स्मृति में वो बैठती नहीं।'
समझ आ रही है बात?
और यह जो बात है, यह उच्चतम बात है शिव के बारे में। अब अगर आपको शिव के बारे में और बहुत सारी बातें मिलती हैं — अन्य पस्तकों में — जो इस बात के विपरीत जाती हैं, तो उसमें कोई हमें संशय नहीं होना चाहिए, कोई विचार की ज़रूरत नहीं पड़नी चाहिए। जो वेदांत की बात है वही मान्य होगी। बाकी सब बातों का कोई महत्व नहीं है।
एक बार उपनिषदों ने यह कह दिया कि शिव के विषय में कोई कल्पना न करो, उन्हें कोई रूप-रंग, आकार देने का प्रयास न करो। उनके बारे में कोई किस्से-कहानी सोचना ही धृष्टता है, तो उसके बाद और कहीं भी आपको बताया जा रहा हो कि लो शिव के बारे में यह कथा ले लो, यह कहानी ले लो, आपको उन सब कथाओं को तुरंत अस्वीकार कर देना चाहिए न?
मैं कहा करता हूँ कि वेदांत सनातन धर्म का सुप्रीम कोर्ट है। जो बात वेदांत ने बोल दी वो नीचे के सब न्यायालयों की बात पर भारी पड़नी है। नीचे के जो न्यायालय हैं — बाकी सब किताबें हैं, जो हिन्दु धर्म में चलती हैं — तो नीचे के जो न्यायालय हैं उनकी बात भी सुनी जा सकती है, पर मात्र तब तक सुनी जा सकती है, जब तक उनकी बात उच्चतम न्यायालय की बात का खंडन न करती हो या उच्चतम न्यायालय की बात के विपरीत न जाती हो।
इतनी सारी किताबें हैं, ठीक है। उनमें भी मूल्य है, उनमें भी बहुत कुछ ऐसा है जो लाभप्रद है। पर उन किताबों का महत्व मात्र उस सीमा तक है, जिस सीमा तक वो वेदांत के विरुद्ध नहीं चली जातीं। जहाँ पर किसी भी पुस्तक में और वेदांत में ज़रा भी टकराव आएगा, वहाँ पर हमें विचार नहीं करना चाहिए कि किस पुस्तक को मानना है, बिलकुल स्पष्ट होना चाहिए। कहीं पर भी वेदांत विरुद्ध कोई बात हो रही है, तो वो बात ख़ारिज। भले ही वो बात किसी तथाकथित धार्मिक पुस्तक में ही क्यों न हो रही हो। वो बात आपको ख़ारिज करनी पड़ेगी।
न व्योम (अर्थात्) आकाश, आसमान, न भूमि, न तेज, न वायु — किसी से कोई प्रयोजन नहीं। पूरी प्रकृति समा जाती है न, ज़मीन और आसमान के बीच में? पूरी प्रकृति में ही जो कुछ है, मैं वो नहीं हूँ, वो आत्मा नहीं है, वो शिव नहीं है — यह मेरा परिचय है, यही शिवत्व का परिचय है। 'चिदानन्दरूप:' — चेतना मात्र। विशुद्ध चेतना को ही शिव कहते हैं।
शिव कोई व्यक्ति नहीं हैं, शिव का कोई व्यक्तित्व नहीं हो सकता। शिव कोई रूप-रंग, नाम, आकार नहीं हैं। शिव कोई मनुष्य नहीं हैं, जो कभी हुआ था। शिव कोई इंसान नहीं हैं, जो किसी घर में रहता है या किसी जगह पर रहता है। विशुद्ध चेतना को ही शिव कहते हैं। 'चिदानंदरूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम्' — विशुद्ध चेतना मात्र को ही शिव कहते हैं।
और चेतना के दूषण कौन होते हैं? वही सब जिनको अभी-अभी नकारा गया है। कौन? पृथ्वी से लेकर के आकाश के बीच में जो कुछ है, वो दूषण है। और वो आगे दूषित किसको करता है? इन्हीं को — मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार को दूषित करता है। किसके माध्यम से वो मन तक पहुँचता है? अरे! यही भाई — जिह्वा, नेत्र, घ्राण। जिह्वा, नेत्र, घ्राण इनके माध्यम से कौन प्रवेश करता है आपमें? वो जो व्योम से लेकर भूमि तक है। और वो प्रवेश करके किसको कलुषित कर देता है? मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार को।
तो पूरी जो दूषण की प्रक्रिया है, 'निर्वाण षट्कम' माने छह बातें कहेंगे इसमें। वो छह बातों में पहली ही बात में वो पूरी दूषण की प्रकिया है, मिलावट का जो खेल है, उसको आचार्य शंकर ने साफ़ कर दिया है। बोल रहे हैं, 'ज़मीन से आसमान तक जो कुछ है, नहीं हैं शिव! वो जो ज़मीन से लेकर आसमान तक है, वो आपमें जिस रास्ते से प्रवेश करता है, वो भी नहीं हैं शिव। और वो जहाँ जाकर बैठ जाता है, वो भी नहीं हैं शिव।' क्योंकि यह सारी प्रक्रिया ही दूषण की, माने मिश्रण की, मिलावट की है न?
शिव क्या हैं? 'चिदानंदरूप:' माने जहाँ कोई मिलावट नहीं है, विशुद्ध चैतन्य मात्र है। माने चेतना से यह सब चीज़ें, जो प्राकृतिक हैं, जब हट जाती हैं तो चेतना का जो विशुद्ध नृत्य होता है, चेतना का जो अकलुषित प्रकाश होता है उसको शिव कहते हैं।
चेतना का दूषण किसको बोलते हैं? चेतना का विषय ही चेतना का दूषण होता है। आप जिस चीज़ को पकड़े हुए हो — चाहे सोच रहे हो उसके बारे में, चाहे आपकी कोई भावना है, चाहे आप उसको बचाना चाहते हो, चाहे आप उससे बचना चाहते हो — जिस भी चीज़ को आप पकड़े हुए हो, वही चेतना का विषय है और वही चेतना का दूषण है। चेतना जिस चीज़ से संप्रक्त है, आसक्त है, वही चीज़ चेतना को गंदी कर देती है।
शिव कौन हैं? वो चेतना जो ज़मीन से लेकर आसमान तक किसी भी चीज़ को इतना मूल्यवान नहीं मानती कि उसको…। कुछ नहीं है इतना मूल्यवान कि हम उसको पकड़ें भाई! और आपमें भी फिर जब शिवत्व उदित होता है, तो ऐसी बेपरवाही आती है, आप में! 'क्या है, बहुत बड़ी चीज़ है? कहाँ की है? ज़मीन की होगी नहीं तो आसमान की होगी। ज़मीन से लेकर आसमान तक कुछ इतना बड़ा नहीं है कि हमको व्यग्र कर जाए।' जिसकी चेतना ऐसी होने लग जाती है, जान लीजिए कि उसमें शिव के प्रति प्रेम है।
और यही शिव के प्रति प्रेम का प्रमाण होता है, चेतना में एक उन्मुक्तता का उतर आना। आप एक शिवालय बना लें या आप जाकर के चित्र की या मूर्ति की पूजा कर लें, इतने से नहीं कुछ प्रमाणित होता। शिव शिवालय में कहाँ हैं? जितनो ने जाना हैं, उन्होंने बार-बार पूछा है, 'शिवालय में हैं क्या शिव?' अनंत को तुमने एक घर में रख दिया, कैसे कर लिया?
शिव जहाँ हो सकते हैं, उनको वहाँ होने दो न। शिव मात्र विशुद्ध चेतना में हो सकते हैं। और वहाँ तुम उनको होने नहीं देते, अहंकार गवारा नहीं करता। तो उनके लिए तुमने बहुत सारी चीज़ें बना लीं। उनके लिए एक विशिष्ट दिन बना लिया, उनके लिए एक विशिष्ट जगह बना दी, उनको एक विशिष्ट पर्वत भी दे दिया। और उनके बारे में न जाने कितने तरह की क्या-क्या बातें कह डालीं — उनमें से किसी में भी शिव नहीं हैं। सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम्हारी साफ़ चेतना का ही नाम शिव है।
न च प्राणसंज्ञो न वै पञ्चवायुः न वा सप्तधातु- र्न वा पञ्चकोशः। न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायू चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥२॥
ये जितनी बातें यहाँ बोली गई हैं, देखिएगा कि क्या हैं वो सब; क्योंकि आचार्य बहुत सारी चीज़ों को नकारते हैं निर्वाण षट्कम में। वो जिन-जिन को नकार रहे हैं, उनमें खो जाना आसान है। पर आप देख लें कि उनका साझा नाम क्या है, तो खोएँगे नहीं और बात एकदम स्पष्ट होकर उभरेगी।
'प्राण, वायु, धातु, कोष, वाक्, पाणि, पाद।' वाक् — तालू, पाणि — हथैली, पाद — पैर। चौपस्थपायू — जो आपकी उत्सर्जन की इंद्रियाँ होती हैं। तो आपकी जो कर्मेंद्रियाँ हैं, वो भी नहीं हैं। जो पंचवायु आप अपने शरीर के भीतर रखते हो, वो भी नहीं है। सप्तधातु नहीं। वो जो पंचकोष होते हैं, जिनसे जीव के अस्तित्व का हम पूरा विवरण ही दे देते हैं न, वो भी नहीं हैं।
आत्मा और अनात्मा के परित: हम पाँच कोष बनाकर कहते हैं — यह जीव है, और ये जो पाँचों कोष हैं, जब वो छिलके की तरह उतार दिए जाते हैं तो उनके मध्य में जो आत्मा है, वही मात्र सच्चाई है। तो यह जो पाँच कोष हैं, ये तो मिथ्या ही हैं। कह रहे हैं, 'इनमें से कुछ भी नहीं।' ये सब बातें प्रकृति के अंतर्गत आती हैं, शिव इनमें से कुछ भी नहीं हैं।
और अब अपनेआप से आप पूछिएगा कि आपने शिव की जो धारणा बना रखी है, क्या वो इन सबसे मुक्त है एकदम? और अगर नहीं मुक्त है, तो वो धारणा बना करके आप शिव के निकट जा रहे हैं, या शिव से एकदम दूर कर दे रही है आपको आपकी ही धारणा?
हम धारणाओं को ही सत्य मान लेते हैं। हम परंपराओं, मान्यताओं को ही सत्य मानकर उनमें जीना शुरू कर देते हैं। हम कहते हैं, 'सिर्फ़ इसलिए कि कोई काम होता आ रहा है वो ठीक ही होगा न। सिर्फ़ इसलिए कि कोई बात मानी जाती आ रही है, तो वो ठीक ही होगी न।' अरे! थोड़ा उनसे भी तो सुन लो, जिन्होंने जाना है। यह भी अगर कहते हो कि अतीत में ही सत्य है तो अतीत में आचार्य शंकर भी तो हैं, उनकी बात सुनने में क्या इतनी बाधा है भई?
न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ, मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः। न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षः, चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्॥३॥
आत्मा, मैं, शिव, इन तीनों के बारे में साझी बात — इनमें न द्वेष है, न राग है। 'न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ'। न लोभ है, न मोह है। किसके प्रति? द्वेष और राग हमेशा किसके प्रति होते हैं? प्रकृति के प्रति। प्रकृति में कोई विषय होता है न, उसके प्रति कभी द्वेष हो जाता है, कभी अनुराग हो जाता है, कभी लोभ लगता है, कभी भय लगता है, कभी मोह हो जाता है।
ये जितनी भी बातें हैं, ये सम्बन्ध को इंगित कर रही हैं न कि एक सम्बन्ध स्थापित कर लिया। आपके सामने कोई वस्तु है, उससे आपने क्या स्थापित किया? सम्बन्ध। सम्बन्ध का नाम हो सकता है — द्वेष, राग, लोभ, मोह, भय, मद, मात्सर्य। तो इन सबको सिरे से नकारे दे रहे हैं। आदि से अंत तक नकारे दे रहे हैं आचार्य। कह रहे हैं आचार्य —
न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ, मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः। न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षः, चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्॥३॥
मद माने चेतना का गिर जाना, अहंकार और सघन हो जाना, नशा। ईर्ष्या भी आपको सदा किसके प्रति होती है? कोई प्रकृतिगत विषय होता है। आप भी अपनेआप को प्रकृति का ही विषय समझते हो; वो जो सामने विषय है, वह आपको अपनेआप से बड़ा लगता है, तो आपमें ईर्ष्या उठ आती है।
मद भी आप पर चढ़े, इसके लिए चेतना का आच्छादित होना ज़रूरी है। किससे? प्रकृति के ही किसी विषय से। जब प्रकृति का कोई विषय चेतना पर एकदम छा जाता है, तो नशा हो जाता है, मनुष्य विवेक खो देता है। तो ये सारी बातें किसको संबोधित करके कही गई हैं? प्रकृति को। और प्रकृति से क्या कहा गया है? 'नहीं बाबा! तुमसे मेरा नहीं कोई रिश्ता है।' जिसका प्रकृति से कोई सम्बन्ध न हो, उसको शिव कहते हैं।
किसी भी तरह कोई सम्बन्ध न हो — लोभ का नहीं, मोह का नहीं, राग का नहीं, द्वेष का नहीं, भय का नहीं, मद का नहीं, मात्सर्य का नहीं, हर्ष का नहीं, शोक का नहीं, लाभ का नहीं, हानि का नहीं। जो प्रकृति को इतना जान गया है, इतना जान गया है कि उसके लिए अब संभव ही नहीं रह गया है प्रकृति पर हाथ डालना, उसे शिव कहते हैं।
वो चेतना है एक, व्यक्ति नहीं है। फिर से, जल्दी से कोई छवि न खड़ी कर लीजिएगा। जो चेतना प्रकृति को इतना समझ गई है कि अब वो चाहकर भी प्रकृति से बंध नहीं सकती, उसको शिव कहते हैं। और प्रकृति को उतना समझा कैसे जाता है? प्रकृति के निकट आकर के। बिना निकटता के कुछ समझ में नहीं आएगा। बहुत दूरी बनाना तो द्वेष का लक्षण होता है न। और निकट आने का मतलब आसक्ति हो आवश्यक नहीं है।
जब मैं कह रहा हूँ, निकट आना, तो मेरा अर्थ है, निकट आना अवलोकन करने के लिए, जानने के लिए क़रीब आना; आसक्त होने के लिए, आबद्ध होने के लिए नहीं, जानने के लिए निकट आना। तो प्रकृति से ऐसी निकटता रखी है, ऐसी खोजी दृष्टि से, ऐसी निष्पक्ष दृष्टि से तलाशा है प्रकृति को।
मैं यहाँ तक कह सकता हूँ, इतने प्रेम से सम्बन्ध बनाया है प्रकृति से कि प्रकृति ने अपने सारे रहस्य ही खोल कर रख दिए हैं। ऐसी चेतना जो प्रकृति को पूरा-पूरा जान गई है, वो ऐसे देख रही है, वो पूरा सब समझ गई और वो मुस्कुराती है। उसे प्रकृति से अब कोई समस्या नहीं है।
ऐसा कुछ नहीं है कि उसने कहा है कि प्रकृति पाप है, दूर रहना है। ऐसा कुछ नहीं है! प्रकृति बहुत अच्छी है, प्यारी है। पूरा उसको जानते हैं, इसीलिए उसका शोषण नहीं करते। प्रेम है उससे, इसलिए उसका शोषण नहीं करते। लेकिन चूँकि उसको पूरा जानते हैं, इसीलिए यह भी नहीं कर पाएँगे कि उसमें बंध जाएँ। चूँकि उसमें हम बंधेंगे नहीं, इसलिए भाई देह नहीं हो पाएँगे। जो देह होने से इंकार कर दे चेतना, उसको शिव कहते हैं।
हमने क्या ख़ुराफ़ात कर दी? हमने शिव को ही देह पहना दी! जो चेतना देह होने को अस्वीकार कर दे, उसको शिव कहते हैं। और हमने इतना बड़ा अनर्थ कर दिया कि हमने शिव को ही देह पहना दी।
साधारणतया, जो आम धर्मावलंबी होता है वो कहता है, 'चार पुरुषार्थ होते हैं, यही — धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।' (आचार्य शंकर) कह रहे हैं, 'यह साधारण चेतना के लिए होते होंगे!' जिसकी चेतना को न धर्म चाहिए, न अर्थ चाहिए, न काम, न मोक्ष चाहिए वो शिव है।
ये बातें निचले स्तर की होती हैं। ये बातें बिलकुल आम आदमी के लिए होती हैं, जो आम ही रहना चाहता हो। कि उसको बोल दिया जाता है कि देखो, ये सब जीवन के लक्ष्य हैं, इनको पुरूषार्थ कहते हैं, ये सब तुमको हासिल करना है। और यह जो बात है, यह बहुत ही साधारण-सी बात है। बहुत औसत दर्ज़े की बात है कि धर्म है, अर्थ है, काम है, मोक्ष है। 'अरे! ये क्या चार बातें बता रहे हो। जो आखिरी बात है, वो पर्याप्त है, मुक्ति।' और काम, जो काम में उलझ गया वो कैसे जाएगा मुक्ति की ओर? और अगर धर्म पहली बात है, तो धर्म तो अर्थ नहीं परमार्थ समझा देगा। तो धर्म के बाद अर्थ का पीछा कैसे कर लोगे भाई?
अगर धर्म प्रथम है, तो धर्म से तो सीधा बायपास जाएगा मोक्ष की ओर। ये बीच में अर्थ और काम नाम के पड़ाव तो फिर आएँगे ही नहीं। तो चूँकि ये बहुत साधारण तल की बात है, तो कह रहे हैं, वो चेतना शिव है जो ऐसी बातों के परे जा चुकी है, ऐसी बातों से अब प्रयोजन नहीं रखती। ऐसी बातों पर मुस्कुरा मात्र देती है।
तो आम संसारी जैसा मन रखता है, जैसे विचार, जैसे लक्ष्य, जैसी चेतना रखता है, वो शिव से बहुत दूर है। आपको अगर आम संसारी बने रहना है तो शिव की अपेक्षा नहीं करें। आप कहें कि मुझे अपना साधारण जीवन ही चलाना है और साल में एकाध-दो दिन में जाकर के शिव के नाम पर कुछ उत्सव कर लूँगा — जिनमें अधिकांशत: हुड़दंग मात्र होता है। तो उससे आपको शिव की निकटता नहीं मिल जाने वाली है। जिनको अभी अर्थ, काम और ऐसी चीज़ों में और सस्ती बातों में बहुत अभी रुचि हो, प्रयोजन हो, उनके लिए शिव नहीं हैं।
'चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्'
जो मुक्ति को लक्ष्य भी बनाये हुए हैं, शिव उसके लिए भी नहीं हैं। कब तक लक्ष्य बनाये रहोगे? एक बार जान गये कि बंधन में हो, तो बंधन को छोड़ दो न। ये लक्ष्य क्या होता है? लक्ष्य का तो मतलब यही होता है, अभी नहीं छोड़ूँगा भविष्य में छोड़ूँगा, क्योंकि लक्ष्यों की पूर्ति तो सदा भविष्य में होती है न। तो लक्ष्य क्या है? इसीलिए आचार्य बड़े विवेक से कह रहे हैं कि धर्म, अर्थ, काम यह सब तो हटाओ; मोक्ष भी जिसका लक्ष्य है वो मैं नहीं।
जानने को जीना बनाने में एक पल का भी विलंब क्यों भाई! यदि जान गए हो बंधन में हो, बंधन एक पल भी और क्यों ढो रहे हो। अगर ढो रहे हो, तो ढो सकते हो, मर्ज़ी है। फिर यह न कहो कि शिव से बड़ा प्रेम है।
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखम् न मन्त्रो न तीर्थ न वेदा न यज्ञाः।
अब देखिए, यहाँ किन बातों को नकारा जा रहा है। देखिए कि इशारे जा किधर को रहे हैं। जो आम संसारी है, वो जिन-जिन चीज़ों को महत्व देता है, हर उस चीज़ को कहा जा रहा है, जबतक ये चीज़ तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण है, तब तक शिव के तुम आसपास भी नहीं भटक रहे भाई! ये पाप और पूण्य, यह साधारण धार्मिकता।
यूँ ही नहीं अभी कहा था — 'न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षः'। ये सब बातें हम धर्म के अंतर्गत मान लेते हैं न कि भाई पाप से बचना है, पुण्य कर्म करना है। कह रह हैं, 'जब तक तुम्हें अभी यह पाप-पूण्य वगैरह चल रहा है, तब तक तुम शिव से बहुत दूर हो।' क्योंकि पाप और पूण्य दोनों में ही क्या बैठी हुई है? कामना।
पुण्य करना है, ताकि पुण्य करके कुछ लाभ मिले, या पूण्य करना है, ताकि पुराने पाप कटे। पाप से बचना है, क्योंकि दुख की कामना नहीं है, दुख से भय है। तो जो अभी सकामता में जी रहा है, जिसके पास कामनाएँ हैं, माने वो अभी अहंकार के चलाये चल रहा है। सब कामनाएँ अहंकार की होती है न। तो पाप-पुण्य पर चलने वाला कौन होता है? अहंकार होता है। इसीलिए आगे कह दिया है — 'न सौख्यं न दुःखम्।' पाप का संबंध होता है दुख से, और पुण्य का संबंध होता है सुख से।
कह रहे हैं, अभी जो सुख-दुख के खेल में है, और सुख बढ़ जाए इसके लिए वो पूण्य इत्यादि का भी पालन कर लेता है, शिव उसके लिए नहीं हैं। और यह सब जो आम धार्मिक लोग हैं, उनके ऊपर बड़ा प्रहार है। प्रहार ही नहीं, वज्रपात है।
कहते हैं — 'न मन्त्रो न तीर्थ न वेदा न यज्ञाः।' जो शिव को लेकर के मंत्रोच्चारण कर रहे हों, वो सब दूर हटें। उनके लिए शिव नहीं हैं। तुमको क्यों लग रहा है कि शिव मंत्रों में बैठे हैं? मंत्रों को लेकर के तो आजकल बड़ा बाज़ार है। यह तो छोड़ो कि मंत्रों में जो बात लिखी है, उससे शिव मिल सकतें हैं कि नहीं, अभी तो बाज़ार में यह है कि मंत्रों में जो बात लिखी है वो पता होनी भी ज़रूरी नहीं है।
मंत्रों की ध्वनि में ही कुछ खास ऐसे स्पंदन होते हैं, ऐसे वायब्रेशन होते हैं कि आपको लाभ हो जाता है। और यह बात बड़े-बड़े मंचों से प्रचारित की जा रही है। कह रहे हैं, 'मंत्र समझने की भी ज़रूरत नहीं है, मंत्र सुन भर लो। उससे ऐसी पाज़िटिव वाइब्ज़ (सकारात्मक अनुभूति) आएँगी कि तुम्हारा फ़ायदा हो जाएगा।'
और यहाँ जो आपके शीर्ष दार्शनिक हुए हैं, वेदांत के सर्वोच्च ज्ञानी हुए हैं, वो आपसे कह रहे हैं कि यह तो छोड़ दो कि किसी तरह का स्पदंन या लहर मंत्र से निकलेगा और तुम्हें लाभ दे देगा; जो मंत्र के शब्द भी हैं शिव उनमें भी नहीं हैं। नहीं होने वाला! क्योंकि यह सब बातें भी अगर समझो तो हैं प्रकृति के अतंर्गत न। तीन गुण हैं प्रकृति में। हो सकता है यह सब सतोगुणी बातें हों, लेकिन सतोगुणी भी है तो प्रकृति का ही। और शिव नहीं हैं प्रकृति में। सतोगुण में भी शिव नहीं हैं।
'न मन्त्रो न तीर्थ न वेदा न यज्ञाः।' यह जितने तुम काम करते हो, ये सब तुम अपनी बुद्धि से करते हो, अपना विचार लगाकर करते हो और इन सब कामों में तुम्हारी कामनाएँ छुपी होती हैं — चेतना की कामना का नाम शिव नहीं है। चेतना जिसकी इच्छा कर सके, उसका नाम शिव नहीं है। चेतना जिसकी छवि बना सके, उसका नाम शिव नहीं है। चेतना जिसके बारे में कोई गुण बता सके, उसका नाम भी शिव नहीं है। क्योंकि गुण बताया माने क्या बता दिया? प्रकृति बता दी। और शिव तो वही हैं न — अभी हमने क्या कहा था उनके बारे में? 'जो प्रकृति को इतना जान गया है, जो बोध स्वरूप ही हो गया है कि अब वो प्रकृति का मात्र निष्पक्ष दृष्टा हो सकता है, साक्षी भर हो सकता है। वो प्रकृति का कभी आलिंगन करता भी पाया जा सकता है, लेकिन कभी आसक्त नहीं होने वाला।'
अब क्या करें, वेदों में भी नहीं हैं शिव। आशय क्या है? वेद माने ज्ञान। नहीं, ज्ञान में भी नहीं हैं शिव। ज्ञान में भी नहीं! कितना भी तुमने ज्ञान इकठ्ठा कर लिया हो, सब ज्ञान प्रकृति के क्षेत्र में ही आता है। सब ज्ञान मन में ही तो जाकर समाता है। क्या बिना स्मृति के ज्ञान है? तो अतंत: सारा ज्ञान जाकर स्मृति में ही तो बैठ जाता है। तुम्हारी स्मृति साफ़ कर दी जाए, बताओ ज्ञान का क्या होगा?
तो यज्ञ से क्या आशय है? कर्मकांड। तुम सोचो कि तमाम तरह की पूजा-अर्चना और धार्मिक अनुष्ठान, और फ़लानी क्रियाएँ कर के शिव के निकट आ जाओगे, या शिव से कोई संबंध बना लोगे; तो दूर हट। ये सब बातें किसी अज्ञानी के सामने कर लेना, वहाँ चल जाएँगी। शंकराचार्य के सामने ये सब बातें कहोगे, कहेंगे — 'हट!' ये सब नहीं कि यज्ञ इत्यादि से शिव का कोई सम्बन्ध है। बोले तुम सौ यज्ञ कर लो, शिव से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। किसी तरह के कर्मकांड, क्रिया या अनुष्ठान से शिव का कोई संबंध नहीं है।
सतर्क रहिएगा! आपने पूछा कि महाशिवरात्रि आ रही है, तो कुछ बोल दीजिए, तो मैं बोल रहा हूँ। लेकिन अब मेरे बोलने के बाद आपकी धाराणाओं का और आपकी मान्यताओं का क्या होगा, वो आप जानिए।
क्योंकि मुझे पता है कि जिन-जिन तरीक़ो से आप महाशिवरात्रि मनाते हो, उनमें से हर एक तरीक़ों का ज्ञानियों ने ज़ोर देकर खंडन किया हुआ है। 'अरे! ये मत करो। ये कर के शिव के निकट नहीं जा रहे हो, तुम शिव से और दूर हुए जा रहे हो।' तो अब आप इस बात का करेंगे क्या, यह आपके ऊपर है। पर आपने पूछा तो मैं बताए दे रहा हूँ। किसी तरह की टूट-फूट के लिए मैं नहीं ज़िम्मेदार।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता, चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्॥४॥
'अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता'। न मैं वो हूँ जो भोग सकता है, न मैं भोगे जाने वाला विषय हूँ। ये दोनों प्रकृति में ही आते हैं न। एक होता है अहंकार जो अपनेआप को क्या बोलता है? भोक्ता। और सामने उसके तमाम विषय होते हैं, जिनको वो भोग रहा होता है। तो ये तीनों चीज़ें होती हैं — भोग्य वस्तु, भोक्ता और भोग। जो इन दोनों के बीच में सम्बन्ध होता है, वस्तु और अहंकार के बीच में भोग का सम्बन्ध, कह रहे हैं, 'इनसे हमारा कोई लेना-देना नहीं।'
प्रकृति में जो कुछ भी होता है, उससे मेरा लेना-देना नहीं। न मैं किसी को भोगने वाला हूँ, न मुझे किसी का भोग बनना है। न मैं यह सोचता हूँ कि प्रकृति में कुछ भी ऐसा है जो मुझमें जुड़ जाए, तो मैं पूर्ण हो जाऊँगा। न मैं सोचता हूँ कि मुझमें वो अपूर्णता है जिसको अपेक्षा है, तलाश है, दरकार है कि कुछ मिल जाए बाहर से। यह सब होता रहता है। मैं जान रहा होता हूँ कि यह सब हो रहा है। लेकिन यह जो कुछ भी हो रहा है उसमें मैं नहीं हूँ।
माने जब तक प्रकृति के प्रति अज्ञान है, और प्रकृति के विषय को लेकर कामना है, तब तक आपके पास शिव चेतना नहीं है। ऐसी चेतना जो अभी दुनिया से कुछ हासिल ही करने की उधेड़बुन में, फ़िराक में लगी हुई है, उसमें शिवत्व नहीं है।
न मे मृत्युशंका न मे जातिभेदः, पिता नैव मे नैव माता न जन्मः। न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्य:, चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्॥५॥
मर सकता नहीं मैं, तो मुझमें मृत्यु की शंका कैसे होगी। अब बताइए वो कितना बड़ा भक्त हुआ शिव का जो शिव से आकर के कहे कि 'हे महाकाल, काल को मुझसे दूर रखना।' (दोहराते हुए) 'हे महाकाल, काल को मुझसे दूर रखना।' इसको क्या है? इसको मृत्युशंका है।
और यहाँ पर हमें बताया जा रह है — 'न मे मृत्युशंका न मे जातिभेदः।' फिर कोई बड़ा मंदिर हो शिव का जिसमें यह प्रथा चलती हो कि विशेषकर महाशिवरात्रि के दिन ब्राह्मण इत्यादि आकर के शिवलिंग का अभिषेक करेंगे। किसी चीज़ से? मान लीजिए दूध से, तो उस मंदिर का, उस प्रथा का शिव से कोई सम्बन्ध हुआ?
वो तो बोल रहे हैं — 'न मे जातिभेदः।' जहाँ जाति भेद है, वहाँ मैं नहीं। मुझमें कोई जाति भेद नहीं है। अजात चेतना को शिव कहते हैं, उसमें जाति कहाँ से आ गई? उसमें यह शरीर कहाँ से आ गया? जो अभी ये शरीरधर्मा है उसका शिव से क्या लेना-देना। जहाँ अभी यही सब बातें चल रही हैं कि जाति विशेष, व्यक्ति विशेष, वर्ण विशेष, देह विशेष वहाँ शिव से क्या? कुछ नहीं।
'पिता नैव मे नैव माता न जन्मः'। जन्मा मैं नहीं हूँ, मुझसे कोई जन्मता नहीं। एकमात्र सत्य हूँ मैं। न मेरे कुछ ऊपर है, न मेरे कुछ नीचे है। ऊपर और नीचे का जो तुमको पता चलता है, इसी का नाम माया है। उसी को प्रकृति कहते हैं। ये शिव हैं।
अब यह भी समझ आ रहा होगा कि क्यों यह जो शिव नाम है, जो शिव संदेश है, वो इतिहास में इतने पीछे से चला आकर के आज भी प्रासंगिक है। वजह समझिए। एक बार को ज़रा धार्मिक स्त्रोतों को एक तरफ़ रख दें, तो हमें इतिहासविद् बताते हैं कि शिव का पूजन तो आर्यों से भी बहुत पहले से हो रहा था।
बहुत पुराने हैं शिव। बाकी जितने देवी-देवता को आप जानते हैं, उन सबसे पुराने हैं शिव। कभी पशुपति नाम से सामने आते हैं, कभी रूद्र नाम से सामने आते हैं। और शिव की जो अवधारणा है, वो काल के प्रवाह में बदलती भी रही है। बदलती रही है, लेकिन बनी रही है — यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि बदलती रही।
शिव में बाक़ी बहुत सारे देवता आकर के समाते रहे हैं। आपको शायद सुनकर आश्चर्य होगा, लेकिन अभी मैंने रूद्र का तो नाम लिया ही, पशुपति का नाम लिया, लेकिन जानने वालों ने कहा है कि इंद्र, सूर्य और अग्नि, ये भी आकर के शिव में ही समा गए हैं।
इंद्र, ऋगवेद के प्रमुख देव हैं, लेकिन आज आपको इंद्र का शायद ही कोई नामलेवा मिलेगा। कोई मंदिर आपको मिलता है, इंद्र के नाम का? इंद्र के बारे में जो कुछ भी था वो आकर के शिव के महत् प्रवाह में मिल गया, विलीन हो गया।
वही हाल अग्नि का हुआ, वही हाल सूर्य का हुआ। कुछ तो बात है न कि सब देवी-देवता आते-जाते रहे हैं, शिव अपनी जगह बने हुए हैं, सबसे पुराने और आजतक बने हुए हैं। उसकी वजह यही है। शिव जिस उच्चतम के प्रतिनिधि हैं, वो कालातीत है। शिव आत्मा हैं। इंद्र आत्मा है, आपसे कोई नहीं बोलेगा। सुना कभी, इंद्र आत्मा है? नहीं।
शिव आत्मा हैं, और आत्मा ही वैदिक सत्य है। और आत्मा चूँकि कालातीत होती है, इसलिए शिव भी कालातीत हो गए। आत्मा मिट नहीं सकती, इसीलिए शिव नहीं मिटते। और जब हम आत्मा कह रहे हैं यहाँ पर तो जो प्रचलित है भूत, प्रेत, पिशाच वाली आत्मा उसकी बात नहीं कर रहे हैं।
कहीं यह ग़जब न कर लीजिएगा कि मैं दो घंटे बोलूँ, आप कहें कि शिव माने आत्मा और आत्मा माने वो जो फुर्र से देह से उड़ करके पीपल के पेड़ पर बैठ जाती है। और फिर जब बैठ जाती है पीपल के पेड़ पर तो फिर भूत भगाने वाले बाबा उसको वश में करते हैं। आत्मा से वो आशय नहीं है। वो आत्मा शब्द का बहुत बड़ा दुरूपयोग है।
आत्मा माने कालातीत सत्य। आत्मा माने मन की विशुद्ध अवस्था। उसको आत्मा कहते हैं। आत्मा माने आपकी असली पहचान। उसका नाम आत्मा है। आत्मा माने कोई ऐसी चीज़ नहीं, जो शरीर के भीतर वास करती है।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्य: चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्॥५॥
जितनी भी आप कल्पनाएँ कर सकते हैं, जितने भी तरह के आपके रिश्ते हो सकते हैं, ठोस वैदिक परिपाटी में आचार्य शंकर सबकी नेति नेति किए दे रहे हैं। माता-पिता को हटा दिया, फिर बन्धु को हटा दिया, फिर मित्र को हटा दिया, फिर गुरु को भी हटा दिया, फिर शिष्य को भी हटा दिया। ऐसा लग रहा जैसे कृष्ण याद आ गए। अर्जुन से बोल रहे हों, इन्हीं सबको तो हटाना है — माता-पिता, बन्धु, मित्र, गुरु-शिष्य।
कुछ याद आ रहा है? 'अर्जुन उठो, हटाओ इन सबको।'
यह देखो! अब फिर यह कोई संयोग की बात नहीं है कि आज श्रीमद्भगवद्गीता का जो स्थान है, उसको वो स्थान दिलाने में आचार्य शंकर का बड़ा योगदान रहा है।
भगवद्गीता को महाभारत से इतर अपनेआप में एक ग्रंथ की तरह स्थापित करना, यह काम आचार्य शंकर ने करा था। उन्होंने ने ही कहा था — जो वेदांत के तीन स्तंभ हैं, या जिसको हम प्रस्थानत्रयी बोलते हैं उसमें गीता का विशिष्ट स्थान रहेगा। तो देख लो कृष्ण हों कि शंकाराचार्य हों, आत्मा तो एक ही है न।
चेतना जब शुद्ध हो जाती है, तो निर्वैयक्तिक हो जाती है। फिर उसे कोई भी नाम दे दो, बात एक ही करती है वो। उसको नाम कभी कृष्ण का दे सकते हो, तो कभी नाम उसे शंकर का दे सकते हो — बात एक ही करेगी। एकदम जो बात कृष्ण कर रहे हैं गीता में, वही बात यहाँ पर शंकर कर रहे हैं — 'चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।'
अहं निर्विकल्पो निराकाररूप: विभुर्व्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्। सदा मे समत्वं न मुक्तिर्न बन्ध: चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥६॥
सब नकारने के बाद, नकार में ही एक-दो बातें बता दिए हैं, अपने बारे में, आत्मा के, शिव के बारे में — 'अहं निर्विकल्पो निराकाररूप:।' चेतना की वो स्थिति जिसमें उसके लिए बहुत सारे संकल्प-विकल्प बचते नहीं, उसको शिवत्व कहते हैं। शिव से नहीं सम्बन्ध रखें। अगर मुझसे पूछें, क्या सीखें इस महाशिवरात्रि पर, तो मैं कहूँगा शिवत्व पर ध्यान दें, शिव पर नहीं। क्योंकि जब आप शिव पर ध्यान देने लगते हैं तो आप शिव को एक व्यक्तित्व बना देते हैं।
आप शिव को अपने मानसिक मकड़जाल का एक पात्र बना लेते हैं। यह शिव के प्रति अन्याय है, अपमान है — मत करिए! और शिवत्व का अर्थ होता है — शुद्ध चेतना। आपका प्रयोजन शिवत्व से होना चाहिए। शिव किसी विषय का, व्यक्ति का, वस्तु का नाम-सा प्रतीत होता है, इसीलिए बहुत उपयोगी नहीं।
अहं निर्विकल्पो निराकाररूप: विभुर्व्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।।
जो सर्वत्र है, जो किसी भी इंद्रिय के पकड़ में नहीं आ सकता, लेकिन जिससे सब इंद्रियों का अस्तित्व है, उसको शिव कहते हैं।
'सदा मे समत्वं न मुक्तिर्न बन्ध:'। जिसके लिए न मुक्ति है, न बंधन है, जिसके लिए प्रकृति बस प्रकृति मात्र है, जो समता में जीता है, जिसके लिए ममत्व नहीं है, ऐसी चेतना को शिवत्व कहते हैं। 'चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्'।
'निराकाररूप:।' अब आप बताइए, आप कौनसा रूप पूजने जा रहे हैं? 'निराकाररूप:' — अरूप हैं और निराकार हैं।
ऐसी चेतना जो सब रूपों को भलीभाँति समझ लें, वो शिव चेतना है। ऐसी चेतना जो सब आकारों का रहस्य जान ले, वो शिव चेतना है। ऐसी चेतना जिसको बहुत सारे विकल्प दिखाई ही नहीं देते हों, वो शिव चेतना है। बहुत सारे विकल्पों का दिखाई देना, माने अज्ञान का मौजूद होना। बहुत सारे विकल्पों का दिखाई देना, माने कामना का मौजूद होना। 'इस रास्ते कामना पूरी होगी, उस रास्ते पूरी होगी। इधर ज़्यादा संभावना है, पर उधर क़ीमत देनी पड़ रही है।'
निर्विकल्प होने का अर्थ है — एक ही तो है जो रास्ता चला जा सकता है, और एक ही तो काम है जो करा जा सकता है। एक ही द्वार है जिसमें प्रवेश हो सकता है, बाकी द्वार मुझे दिखाई देते नहीं। बाकी रास्ते भी मुझे दिखाई देते नहीं, तो मैं उनको ठुकराऊँ भी कैसे! यह निर्विकल्पता है।
तुम्हें सौ विकल्प दिखते होंगे तो तुम्हें निन्यानवे काटने-ठुकराने पड़ते होंगे; मुझे सौ दिखता नहीं, मुझे तो एक ही दिखता है; इसको निर्विकल्पता कहते हैं। ऐसी चेतना जिसकी हो जाए, जिसको व्यर्थ, फ़िजूल चीज़ें दिखाई देनी ही बंद हो जाए वो शिव चेतना है।
जो किसी एक स्थान से बहुत प्रयोजन न रखे, सर्वव्यापक जिसकी चेतना हो जाए; जो सर्वत्रता से मतलब रखे, स्थानीयता से नहीं। जो किसी एक जगह को विशेष न माने। किसी एक जगह को विशेष मानना, क्या है यह? यह एक स्थानीय चेतना है, *लोकली कान्सन्ट्रैटेड कान्शसियस*। जो बोल रही है, 'फ़लानी जगह जो है वो बड़ी पवित्र है। और जो फ़लानी जगह जाएगा, वहाँ से वो बड़े वरदान पाकर के आएगा। फ़लानी जगह को अभिमंत्रित किया गया है, विशेषकर उसको पवित्र या कान्सिक्रेट किया गया है।' जहाँ ऐसी बात हो रही हो, समझ लो उस जगह का शिव से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं।
सर्वत्रता, स्थानीयता नहीं। क्योंकि स्थान तो प्रकृति में एक छोटा-सा कोना होता है भाई! समूची प्रकृति में नहीं समाते शिव, एक स्थान में कैसे जाकर बैठ जाएँगे? लेकिन अहंकार विशिष्ट जगहों को, व्यक्तियों को, विशिष्ट कालों को ही महत्व देता है। यह अहंकार की पहचान होती है। उसमें समता नहीं होती है। 'ये सदा मे समत्वं'। उसमें समत्व नहीं होता। उसमें क्या होता है? वैशिष्ट होता है।
वो कहता है, 'एक जगह ख़ास है, दूसरी नहीं। एक व्यक्ति ख़ास है दूसरा नहीं। एक पल, एक दिन, एक क्षण विशेष है, दूसरा नहीं।' जिसकी चेतना अभी ऐसी है जो एक जगह को विशेष समझे, एक दिन को विशेष समझे, समझ लो शिव से बहुत दूर है अभी। शिव से अभी विशेष दूर है।
समझ आ रही है बात?
तो यह आपका शिव से परिचय हुआ निर्वाण षट्कम के माध्यम से। देखता हूँ और क्या साम्रगी है। अब अवधूत गीता जो कि ज्ञानियों को एक बड़ा प्रिय ग्रंथ रहा है, उससे एकाध-दो श्लोक लेकर देख लेते हैं कि शिव और शिवत्व से आशय क्या है।
तो अवधूत गीता के पहले अध्याय से दूसरा श्लोक है —
येनेदं पूरितं सर्वमात्मनैवात्मनात्मनि। निराकारं कथं वन्दे ह्यभिन्नं शिवमव्ययम्।।
यह दृश्यमान सम्पूर्ण जगत जिस आत्मा द्वारा आत्मा से आत्मा में ही पूर्ण हो रहा है उस निराकार शिव का मैं किस प्रकार वन्दन करूँ। क्योंकि वह (जीव से) अभिन्न है, कल्याण स्वरूप है, (तथा) अव्यय है।
क्या कहा जा रहा है? कहा यह जा रहा है कि अगर मैं शिव की उपासना कर रहा हूँ, तो माने मैं शिव को स्वयं से भिन्न समझता हूँ। मैं शिव को स्वयं से भिन्न समझता हूँ तो मैं शिव नहीं और अगर मैं शिव नहीं तो मुझे बोध नहीं। अगर मैं शिव नहीं तो मुझे बोध नहीं, क्योंकि शिव माने क्या? बोधवान, पूर्ण, शुद्ध चेतना को ही शिव कहते हैं।
तो अगर मैं शिव की उपासना कर रहा हूँ, तो मैं स्वयं को शिव से भिन्न समझ रहा हूँ। मैं अलग शिव अलग; शिव मेरे उपास्य, मेरे पूज्य। तो मैं तो शिव नहीं। मैं शिव नहीं तो माने मुझे समझ नहीं। अगर मुझे समझ नहीं तो फिर मैं जिनकी पूजा कर रहा हूँ, मैं उनको भी क्या समझ रहा हूँ? मैं न जाने किस चीज़ की पूजा कर रहा हूँ, उसको शिव समझ कर के।
तो देखिए, कितनी शुद्धता की बात यहाँ अवधूत गीता में की जा रही है। वो कह रहे हैं कि वो चेतना जो शिव को जान गई वो शिव ही हो गई। अब वो शिव का वंदन किस प्रकार करेगी! कैसे वंदना हो पाएगी शिव की, किसको प्रणाम करें, किसको नमन करें! और जब तक प्रणाम और नमन कर रहे हैं, तब तो अपनी ही किसी छवि को कर रहे हैं। अपनी ही किसी कृति, किसी कल्पना की हम पूजा कर रहे हैं। तो पूजा हमारे किस काम आएगी?
देखिए, जल्दी से कोई निष्कर्ष निकाल करके मुझ पर न क्रुद्ध हो जाइए, न दोष देने लग जाइए। यह न समझ लीजिएगा कि मैं आपको शिव की उपासना करने से रोक रहा हूँ। मैं आपको बस यह बता रहा हूँ कि यह जो हमारे आर्ष ग्रंथ हैं वो क्या कहते हैं। और वो जो बात कह रहे हैं, वो कितनी सुदंर है, कितनी ऊँची है।
मैं वो बात फिर से दोहराए देता हूँ — आप अगर अभी शिव की उपासना कर रहे हैं, तो आप स्वयं को शिव से भिन्न समझ रहे हैं। माने शिव की उपासना कर रहे हैं, आप शिव नहीं हैं। आप शिव नहीं हैं तो आप फिर बेहोश हैं। क्योंकि शिव का ही नाम होश है, शिव का ही नाम बोध है, शिव का ही नाम सत्य है। यूँ ही तो नहीं कहते आप, सत्यम शिवम सुंदरम।
तो शिव अगर आप नहीं हैं तो इसका मतलब आप मद में हैं, आप भ्रम में हैं। तो फिर आप जिसकी उपासना कर हैं, उसको भी आपने क्या ही पहचाना होगा। यूँ ही आपने उपासना के नाम पर कुछ क्रिया करना शुरू कर दिया। कहीं नाचना शुरू कर दिया, किसी जगह जाकर के, कुछ पूजना शुरू कर दिया। उससे क्या लाभ होगा? ऋषि आपसे पूछ रहे हैं इस श्लोक में कि 'आपको क्या लाभ होगा यह सब कर के?'
शिवत्व तो तब है, जब आप बाहर किसी विषय, किसी वस्तु को पूज्य मानने से पहले अपनी चेतना को इस लायक बना दें कि उसकी पूजा की जा सके। शिव का वास्तविक भक्त, वास्तविक अनुरागी वो है जो अपनी ही चेतना को इतना शुद्ध कर ले कि वो स्वयं को ही नमन कर सके; 'मुझको ही नमस्कार है।'
जैसे अष्टावक्र कहते हैं न, अष्टावक्र गीता में, 'और नहीं है कोई यहाँ नमस्कार करने लायक, मुझको ही नमस्कार है।' जो ऐसा हो जाए, वो जानिए कि शिव का भक्त हुआ। शिव का भक्त वही है जो शिव ही हो गया। 'जिससे ये संपूर्ण जगत प्रकाशित है, उसको मैं इस जगत में कैसे खोजने लग जाऊँ? जिससे सारे आकार हैं, उसको मैं किसी आकार में कैसे बाँधने लग जाऊँ?'
फिर आगे पहले ही अध्याय का चौदहवाँ श्लोक —
सबाह्याभ्यन्तरोऽसि त्वं शिवः सर्वत्र सर्वदा । इतस्ततः कथं भ्रान्तः प्रधावसि पिशाचवत्॥१४॥
जो शिव (आत्मा) बाहर और भीतर सर्वत्र एवं सदा से ही विद्यमान रहते हैं तथा कल्याण रूप हैं, वह तू ही है। फिर तू भ्रांत होकर इधर-उधर पिशाच की तरह क्यों दौड़ता फिरता है?
और यही जानना महाशिवरात्रि के पर्व की सार्थकता होगी। स्वयं को इस लायक तो बनाओ कि शिव को उच्चारित कर पाओ। शिव का अर्थ होता है — शुभ। और शुभता तो मात्र बोध में है। जो नासमझ है, जो मद में है, जो भ्रम में है, वो क्या अपना शुभ करेगा, क्या किसी का करेगा। शुभता तो बोध में है।
तो शिव की उपासना भी इसी में है कि स्वयं को ऐसा बना लो कि प्रकृति का कोई भी विषय, प्रकृति की कोई भी वस्तु तुम्हारे लिए एक रहस्य न रह जाए। तुम्हारे लिए अनजानी न रह जाए। जिस चीज़ को तुम जानोगे नहीं वही चीज़ तुम्हें अपने पाश में बाँध लेगी। जिस चीज़ को जान लिया, उससे मुक्त हो जाते हो। चेतना को ऐसा शुद्ध कर लो, दर्पण की तरह साफ़ कर लो कि उसमें सब दिखने लगे। प्रकृति खुली किताब बन जाए। यही महाशिवरात्री की सार्थकता होगी।
जो शिव बाहर और भीतर सर्वत्र तथा सदैव हैं, वह तू ही है। और फिर आगे, जैसे ज्ञानियों का लहजा होता है कि 'फिर तू क्यों पागल भ्रांत होकर के पिशाच की तरह इधर-उधर दौड़ रहा है, फिर रहा है। कहाँ दौड़-भाग लगा रहा है, और कूद-फाँद मचा रहा है, शिव के नाम पर।' ऐसे लोग जो इधर-उधर दौड़-भाग रहे हैं न शिव खोजने, उनके लिए यहाँ नाम दिया है, बड़ा प्यारा सा नाम है — पिशाच!
कह रहे हैं शिव अगर कहीं मिलेंगे तो तुझे अपने ही शुद्ध अत:करण में मिलेंगे। तेरी ही चेतना की स्पष्टता का नाम शिव है। कहाँ तू प्रकृति के क्षेत्र में कूद-फाँद मचा रहा है, दौड़ रहा है, नाच रहा है, टाँग उठा रहा है, गिर रहा है — क्या कर रहा है।
मुझे अच्छा लगता है कि मैं अकेला नहीं हूँ, जिसको ऐसों को देखकर थोड़ी खीज उठती है। दत्तात्रेय भी मेरे साथ हैं। अच्छी संगति है मेरी। जो भाव मुझे उठता है, शिव के नाम पर कूद-फाँद मचाने वालों को देख कर के ठीक वही भाव मैं यहाँ ऋषिवर में प्रकट होता हुआ देख रहा हूँ।
अब कोई मैंने नहीं यहाँ पर जोड़ दिया है, 'इतस्ततः कथं भ्रान्तः प्रधावसि पिशाचवत्।' इतस्ततः माने इधर-उधर, कथं माने कहाँ, भ्रांत — पागलों की तरह, प्रधावसि — भाग रहा है, पिशाचवत् — पिशाच बनकर।
शिव कहाँ हैं? अरे! वहाँ नहीं हैं कि भागा जा रहा है कि उधर कहीं मिलेंगे। 'एक विशेष जगह है, वहाँ मिलते हैं।' कहीं नहीं। न विशेष कूँए में मिलेंगे, न विशेष पोखर में, न विशेष पर्वत में, न विशेष मंदिर में। कहीं नहीं किसी विशेष जगह पर मिलेंगे। निर्विशेष हैं वो। किसी विशेष जगह पर कहाँ से मिल जाएँगे भाई? पिशाच! पिशाच माने जिसे चैन न मिल रहा हो, अतृप्त।
तुमने अपनी अतृप्तियों की छायाओं को शिव का नाम दे दिया। तुम्हारी अतृप्ति की छाया सौ आकार ले लेती है। तुम उन आकारों को शिव बोलना शुरू देते हो। वाह! तृप्ति की कोई छाया नहीं होती। जब छाया नहीं होती तो तृप्ति का कोई आकार नहीं होता, तृप्ति निराकार हो जाती है। अतृप्तियों के सौ आकार होते हैं। और उन आकारों को ही पूजना शुरू कर देते हैं। ऋषि यहाँ कहते हैं, पिशाच। इधर-उधर कूदता है और फिर कहता है, 'शिव भक्त हूँ।'
फिर वही प्रश्न कि पूजा करूँ तो कैसे करूँ, मैं प्रकृति में किसी वस्तु की, चित्र की, मुर्ति की। तीसरे अध्याय के दूसरे श्लोक में खड़ा हो जाता है। कहते हैं–
श्वेतादिवर्णरहितो नियतं शिवश्र्व, कार्य हि कारणमिदं हि परं शिवश्र्च। एवं विकल्परहितोऽहमलं शिवश्र्च स्वात्मानमात्मनि सुमित्र कथं नमामि।।
जो श्वेत आदि वर्णों से रहित नित्य एवं शिव रूप है, यही कारण एवं कार्य है, श्रेष्ठ व शिव ही है। तथा विकल्परहित परिपूर्ण शिव रूप ही है। हे सुमित्र! फिर मैं अपनी आत्मा को आत्मा में किस प्रकार नमस्कार करूँ?
"जो श्वेत आदि वर्णों से रहित है माने हर प्रकार की सीमाओं से, वर्णों से परे है, और नित्य है, और शिव है। कार्य भी है, और कारण भी है। श्रेष्ठ है, विकल्प रहित है, परिपूर्ण है। वो तो आत्मा ही हुआ है तो फिर हे मित्र! हे सुमित्र! मैं अपनी आत्मा को आत्मा में किस तरह नमस्कार करूँ?"
शिव लेकर के जो सार्थक बात है, उसको ऋषि उठाते हैं और कहते हैं, 'ये जितनी बातें हैं, अगर इनका नाम शिव है, तो शिव तो फिर आत्मा हुए सीधे-सीधे। तो अब बताओ कि शिव भी आत्मा, मैं भी आत्मा, आत्मा को आत्मा से कैसे नमन करूँ? आत्मा को दो कैसे बना दूँ? आत्मा के खंड कैसे कर दूँ? कैसे बना दूँ, एक पूजने वाली आत्मा और एक पूज्य आत्मा?'
समझ में आ रही बात?
पूजा से मना नहीं करा जा रहा है। बस यह कहा जा रहा है कि सावधानी से देख लेना कि कहीं तुम अपनी छाया की ही तो पूजा नहीं कर रहे हो। यह देख लेना बस। कहीं तुम अपनी ही मानसिक कल्पनाओं की पूजा तो नहीं कर रहे हो। और अपनी कल्पना की पूजा करोगे, तो शिव से बहुत दूर हो जाओगे। शिव तुम्हारी कल्पनाओं की चीज़ थोड़े ही हैं।
जो हमारी छाया होती है न, उससे हमारे दो तरह के रिश्ते होते हैं। एक तो यही कि जैसे अभी यहाँ कहा कि छाया को खोज रहे हैं, पिशाचवत। और दूसरा भी एक रिश्ता होता है कि अपनी ही छाया से डरकर भाग रहे हैं। और इतनी ज़ोर से भागे कि अपनी ही पदचाप खूब सुनाई दे, उसकी गूँज भी सुनाई दे। तो अब डरने को दो-दो चीज़ें हो गईं। पहले भागे किससे डरकर? छाया से। छाया दिखाई दी उससे भागे। और फिर सुनाई क्या दी? और जितनी ज़ोर से भागे, पदचाप उतनी तीव्र हो गई। तो और ज़ोर से भागे।
देखिए, अज्ञानी और ज्ञानी में अतंर यही होता है। अज्ञानी को हर चीज़ बाहरी लगती है। और ज्ञान का अर्थ ही होता है जानना कि वो सबकुछ जो तुम्हारे भीतर चल रहा है। भाई यह तुम्हारे मन की बात है, तुम दुनिया में क्यों सोच रहे हो? अज्ञानी को कोई चीज़ देखकर डर लगेगा तो वो बोलेगा, 'वो चीज़ डरावनी है।' और ज्ञानी कहेगा, 'मेरे भीतर कुछ है जिसको उससे डर लग रहा है। उस चीज़ में थोड़े ही कुछ रखा है।' एक ही चीज़ है जो किसी को डरावनी लगती है, और किसी को डरावनी नहीं लगती है। इसका मतलब चीज़ में थोड़े ही कुछ रखा है। मेरे भीतर कुछ है जिसको उस चीज़ से डर लग रहा है। अज्ञानी कहेगा वो चीज़ डरावनी है। ज्ञानी कहेगा चीज़ में कुछ नहीं है, मैं डरा हुआ हूँ — बस यह छोटा-सा अंतर है।
जिसने यह विवके साध लिया कि अपने अनुभवों को वो अनुभोक्ता से जोड़कर देखने लग गया, अनुभोग्य वस्तु से नहीं, वो जीवन में बहुत आगे निकल जाता है।
समझ में आ रही बात?
आपको एक व्यक्ति दिखाई दिया, उस व्यक्ति को देखते ही आपके भीतर बड़ा द्वेष-सा उठा, घृणा-सी उठी, तो एक तो तरीक़ा यह है कि आप बोल दें कि वह व्यक्ति आ रहा है, वह व्यक्ति ही ख़राब है, निगेटिव वाइब्ज़ (नकारात्मक माहौल) देता है! एक तो यह तरीका हो गया। दूसरा आप कहें कि नहीं वो व्यक्ति तो व्यक्ति है, मेरे भीतर कुछ है जो उस व्यक्ति को पसंद नहीं कर रहा है। और यह एक बहुत मेरी अपनी निजी बात है, सबजेक्टिव बात है। उसका उस व्यक्ति से थोड़े ताल्लुक है।
वही व्यक्ति किसी और को बहुत पसंद आ जाएगा तो बोल देगा कि पाज़िटिव वाइब्ज़ हैं। उस व्यक्ति में कोई वाइब्स नहीं हैं। वो व्यक्ति जैसा भी है बस व्यक्ति है। मुझे देखना है, मेरे भीतर ऐसा क्या है। तो ऐसे लोग फिर दुनिया को महत्व नहीं देते। अगर दुनिया को महत्व नहीं देते, तो दुनिया को न तो बहुत श्रेय देते हैं, न दोष देते हैं।
न तो यह कहते हैं कि दुनिया में कोई चीज़ ऐसी है जो बहुत ज़बरदस्त है, मुझे मिल जाए तो मेरा…। दुनिया में तो चीज़ें बस ज़बरदस्त तुमको लग रही हैं, चीज़ें थोड़े ही ज़बरदस्त हैं। तो दुनिया को बहुत श्रेय भी नहीं देते। फिर दुनिया को दोष भी नहीं देते, यह भी नहीं कहते कि बहुत भयानक, कुत्सित इरादों वाली कोई चीज़ आ गई उसने मुझे हानि कर दी। बोलते हैं, 'नहीं, दुनिया में कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसने आकर तुम्हें अपना शिकार बना लिया। तुम अगर शिकार बने हो किसी चीज़ से, तुमने अगर कहीं चोट खायी है, तो तुम्हारे भीतर कुछ है जो चोट खाने को तैयार बैठा हुआ था।' ये लोग बहुत आगे जाते हैं।
ये लोग बहुत आगे जाते हैं, क्योंकि अब इनकी तीसरी आँख खुल गई है। तीसरी आँख क्या चीज़ होती है? बाहर जो कुछ है उसको भस्म कर देती है। माने बाहर जो कुछ है उसको महत्व देना बंद कर देती है। यह शिव के तीसरे नेत्र का अर्थ होता है। तीसरा नेत्र जब खुलता है तो आप क्या बोलते हो? कि जो कुछ था सब भस्म हो गया। भस्म हो गया माने नकार दिया गया। उसका महत्व शून्य कर दिया गया। भस्म कर दिया, नहीं है।
तीसरा नेत्र खुला माने बाहर का जो कुछ है मिट गया। तो व्यक्ति किधर को देखने लगा? माने तीसरा नेत्र किधर को देखता है? भीतर को। ये जो नेत्र हैं बाहर को देखते हैं, तीसरा नेत्र भीतर को देखता है। तीसरा नेत्र, बाहर की ओर जो दृष्टि जाती थी उसको भस्मीभूत कर देता है।
समझ आ रही है बात यह?
जो बाहर को महत्व देना बंद कर देता है, जो अपने सब अनुभवों को स्वयं से ही उपजा हुआ जान लेता है, वो फिर मुक्ति के बहुत निकट पहुँच जाता है। सातवाँ अध्याय, तेरहवाँ श्लोक —
इंद्रजालमिदं सर्वं यथा मरूमरीचिका। अखण्डितमनाकारो वर्तते केवल: शिव:।।
यह सम्पूर्ण जगत इंद्रजाल के समान है तथा मरुस्थल में मरीचिका के समान है। इसमें केवल घनाकार के रूप में अखंडित कल्याण स्वरूप शिव ही वर्तते हैं।
~ अवधूत गीता, अध्याय ७, श्लोक १३
सम्पूर्ण जगत इंद्रजाल ही तो है। मरुस्थल में मरीचिका जैसा। मरुस्थल, रेगिस्तान। मरिचिका माने जो लगता है पानी है, पानी होता नहीं। मृग मरीचिका बोलते हैं। मृग भागता रहता है। मृग होता नहीं है वहाँ पर रेगिस्तान में, पर मुहावरा है। तो मरीचिका माने, लगता है पानी है, पानी है नहीं।
लगता है कुछ ऐसा जो प्यास को बुझा देगा। वहाँ है नहीं कुछ, भागकर जाओगे तो पाओगे कि और प्यासे हो गये। भागकर आये उस जगह तक, तो प्यास और बढ़ गई और पानी मिला नहीं, उतनी देर में लगेगा कि कहीं और पानी है, भागकर जाओगे, मर जाओगे। मरीचिका का काम ही यही होता है कि पानी की आस दिखाकर के प्यासा मारे। पानी की आस दिखायी और मारा प्यास से। भागे पानी की आस से और बाबू मरे…?
प्र: प्यास से।
आचार्य: ये मरीचिका है। ये, ये जगत का इंद्रजाल है। कह रहे हैं, 'यह जगत इंद्रजाल है और मरुस्थल में मरीचिका जैसा है। इसमें केवल घनाकार के रूप में अखण्डित शिव ही सत्य हैं।' बाकी तुम्हें जो कुछ दिखाई देता है, अगर अभी उसमें तुम्हारी प्रीति है तो तुम्हें शिव नहीं मिलने वाले। मरीचिका तुम्हें अगर अभी बहुत भाती है, आकर्षित करती है, तो तुम्हें शिव नहीं मिलने वाले। जो यह जान ले कि जगत इंद्रजाल है या जो कुछ है वो मरीचिका है तो शिव उसके लिए हैं।
तो आप अगर अभी दुनिया से बड़ा नेह रखते हैं, बड़ा ममत्व रखते हैं — ये मेरा, ये मेरा, ऐसा-वैसा — शिव आपके लिए नहीं हैं। ऐसी चेतना चाहिए जो जगत को धो-पोंछ चुकी हो अपनेआप से।
ज़ेन में चलता है कि एक शिष्य था वो गुरु को बार-बार पूछे, 'मुझे कोई खास सूत्र बताइए, खास सूत्र बताइए।' ज़ेन में वैसे ही बातचीत बहुत कम की जाती है। नहीं की जाती ज़्यादा बात, कुछ नहीं! लेकिन वो दो-चार बार बोल चुका है खास सूत्र, तो गुरु एक दिन जाते हैं, वहाँ वो बैठा अपना, अपने कटोरे में चावल खा रहा होता है — चावल खाते हैं जापान में — तो चावल खा रहा होता है। तो गुरु पूछते हैं, 'खा लिया?' तो कहता है, 'हाँ।' बोलते हैं, 'धो-पोंछ देना।' आगे बढ़ जाते हैं। (दोहराते हुए) 'खा लिया?' 'हाँ।' 'धो-पोंछ देना।'
'मन कटोरा है, चावल उसका विषय है, साफ़ कर देना, बचना कुछ नहीं चाहिए।' चेतना जिसकी सांसारिक विषयों से इतनी साफ़ हो गई है शिव बस उसके लिए हैं। मन के कटोरे में चावल का एक दाना भी बचे नहीं। खा लो खाना है तो, मन में नहीं रखना। पेट में रखना, मन में नहीं रखना। जो कुछ था — यह नहीं कि अभी छोड़कर रखा हुआ है। एक दाना भी दिखाई न दे। यह चेतना चाहिए।
यह चेतना चाहिए! जिसकी यह चेतना नहीं है, जिसके मन में सौ चीज़ें चलती हैं, भले ही उन सौ चीज़ों में पाँच चीज़ों का सम्बन्ध शिव से ही लगा रखा है, उसको कहाँ से शिव मिलेंगे! शिव कोई तुम्हारी चेतना में घूमने वाला विचार या विषय थोड़े ही है। 'जो मन से न उतरे माया कहिए सोय।'
माया माया सब कहै, माया लखै न कोय। जो मन से न उतरे माया कहिए सोय।। ~ कबीर साहब
तो मन में शिव को भी खूब चला लो, तो वो माया ही बन गए। तो यह अवधूत गीता से हमें शिव का परिचय मिलता है।
एकाध-दो जगह से और देख लेते हैं कि शिवत्व के विषय में क्या कहा गया है। कैवल्य उपनिषद है, जो शैव उपनिषदों में प्रमुख है। इसका अठाहरवाँ श्लोक है, जहाँ बहुत साफ़-साफ़ पता चल जाता है कि शैव उपनिषद् भी शिव को कैसे देखते हैं, कैसे जानते हैं।
त्रिषु धामसु यद्भोग्यं भोक्ता भोगश्च यद्भवेत तेभ्यो विलक्षणः साक्षी चिन्मात्रोऽहं सदाशिव:॥
तीनों अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति) में जो कुछ भी भोक्ता, भोग्य और भोग के रूप में है, उनसे विलक्षण, साक्षीरूप, चिन्मय स्वरूप, वह सदाशिव स्वयं मैं ही हूँ।
~ कैवल्य उपनिषद्, श्लोक १८
तीनों धामों में, माने चेतना के तीनों अवस्था में वो सबकुछ जो भोग, भोक्ता और भोग्य के अतंर्गत आता है, उससे विलक्षण माने उससे अनूठा, माने उससे अलग जो साक्षी मात्र है, जो साक्षी चेतना मात्र है 'साक्षी चिन्मात्रोऽहं', जो साक्षी चेतना मात्र है, उसका नाम सदाशिव है।
प्रकृति के अंतर्गत जो भी कुछ आता है, तीनों धाम माने चेतना की जो तीनों प्राकृतिक अवस्थाएँ होती हैं — ठीक है न — जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति, तो प्रकृति में जितना भी कुछ आ सकता है प्रकृति की तीनों अवस्थाओं में या फिर जो भोग्य, भोक्ता और भोग के अतंर्गत आ सकता है, उन सबसे जो अलग है उस साक्षी चेतना को शिव कहते हैं। यह शिव की पहचान हुई।
साक्षी चेतना को शिव कहते हैं। प्रकृति में जो कुछ भी है उससे जो निराला है, अनूठा है, उसको शिव कहते हैं। उससे जो विलक्षण है, उसको शिव कहते हैं।
अब आप लोग देख लीजिएगा कि आपके किस्से, कहानियों और मान्यताओं को शास्त्र स्वीकार करते हैं कि नहीं, आप शिव के विषय में जो भी धारणाएँ बनाए हुए हैं वो शास्त्र सम्मत हैं कि नहीं। यह अब आपको तय करना है।
लल्लेश्वरी देवी का नाम, मैं उम्मीद करता हूँ कि आपने सुना हुआ होगा। पर हम जैसी दुनिया में रह रहे हैं और भारत के जैसे हालात हैं, और धर्म के नाम पर जो दुर्गति चल रही है, उसमें मुझे आश्चर्य नहीं होगा अगर आप कह दें, 'लल्लेश्वरी कौन?'
तो कश्मीर से जो सबसे बड़ा नाम ज्ञान और भक्ति में एक साथ उठकर के आता है, उसका नाम है लाल देद या लल्लेश्वरी देवी। और बहुत सुंदर और बड़ा रोचक इनका रचित है। आप पढ़िएगा। भारत में ज्ञान के क्षेत्र में महिलाएँ कम ही रही हैं। तो लल्लेश्वरी एक बड़ा उज्जवल अपवाद हैं। और इनको जो एक और चीज़ विशिष्ट बनाती है कि इन्होंने वस्त्रों का पूर्ण परित्याग कर दिया था। ऐसा काम जो करते हुए पुरुष भी सकुचाते हैं, वो इन्होंने करा था।
किसी ने पूछा था कि क्यों करा ऐसा, तो बोलीं कि एक बार मैंने अपने गुरु से पूछा कि कोई एक बात बता दीजिए जो आखिरी हो। तो गुरु ने कहा कि जैसी भीतर हो वैसे ही बाहर से रहना। लल्लेश्वरी बोलती हैं, 'भीतर तो मैं आत्मा हूँ, तो बाहर से प्रकृति बनकर क्यों रहूँ। और आत्मा तो वो है जो अपने ऊपर कोई कोष ओढ़ना स्वीकार करती नहीं। आत्मा तो वो है जो आवरण को पसंद करती नहीं, फिर मैं बाहर भी अपने ऊपर कोई आवरण डालूँगी नहीं। अपनेआप को किसी कोष में बाधूँगी नहीं।'
तो लल्लेश्वरी! अद्भुत लल्लेश्वरी! क्या कहती हैं शिव के बारे में —
सर्वत्र व्याप्त है शिव बारीक जाल बिछाये कैसे रच-पच गया है सबके शरीर में उसे जीते जी नहीं देखेगा तो क्या मरकर देखेगा? विवेक और मार्गचिंतन से काम ले और ढूँढ़ निकाल उसे अपने ही अंदर।
~ लल्लेश्वरी देवी
वो तुम्हारी जो चेतना है न, उसी में शिव हैं, पर तब तक दिखेंगे नहीं जब तक वो गंदी है। जब तक उसे झूठ से बड़ा मोह है, तब तक शिव दिखेंगे नहीं। चिंतन का काम ही यही है, विचार का काम ही यही है। अगर विचार का काम ही यही है, अगर विचार सार्थक है, तो वो भीतर को मुड़ेगा और देखना चाहेगा कि चल क्या रहा है मन में। मन से मूर्खताओं को हटाना ही शिवत्व का अनुष्ठान है।
सर्वत्र व्याप्त हैं शिव बारीक जाल बिछाये
माने यह जो सब तुम्हें दिखाई दे रहा है न — सर्वत्रता — यह शिव से ही है। यह शिव की प्रकृति है। बारीक जाल बिछाये। बारीक जाल को ही माया कहते हैं, उसी को प्रकृति कहते हैं, उसी को देवी कहते हैं, उसी को शक्ति कहते हैं, उसी को शिवा कहते हैं। माया का ही एक नाम है शिवा। देवी का ही एक नाम शिवा। शक्ति को ही शिवा भी कहते हैं। तो शिव हैं आत्मा और शिवा हैं प्रकृति।
तुम्हें तय करना है कि प्रकृति में खो जाना है, या शिव को पाना है। भारत ने तो शिवा की उपासना करी है। क्यों करी है? इसलिए करी है क्योंकि शिवा से यदि सही सम्बन्ध रखोगे तो शिवा ही शिव का द्वार बन जाती हैं। लेकिन उसके लिए शिवा से आप उल-जुलूल ऊटपटाँग सम्बन्ध नहीं रख सकते।
शिवा से आपको बोध का संबध रखना पड़ेगा। जो प्रकृति को पहचान गया, उसकी चेतना प्रकृति से मुक्त हो गई — यही शिव की प्राप्ति है। जो प्रकृति को पहचान गया, माने जो शिवा को पहचान गया, उसकी चेतना प्रकृति से मुक्त हो जाती है। यही शिव की प्राप्ति है। इस तरह शिवा, शिव का द्वार बनती हैं।
उसे जीते जी नहीं देखेगा तो क्या मरकर देखेगा?
ज्ञानियों ने बार-बार बोला है, 'अरे! मरने के बाद कुछ नहीं है।' तुम कहाँ किसी दूसरे जनम की आस में बैठे हो। यही पल तुम्हारा अवसर है, इसी पल में अपने सब क्रियाकलापों को देखो, अपनी सब मानसिक गतिविधि के दृष्टा बनो। झूठ कट जाता है, मर जाता है, जैसे ही दिख जाता है। उसको देख लोगे तो उससे मुक्त हो जाओगे। यह तो जीते जी होगा न। यह जो तुम कर रहे हो, दिन-प्रतिदिन के काम उसी में देखो कि क्या कर रहे हो। ठहर जाओ, इतने प्रवाह में न रहो। बहने मत दो चीज़ों को, रुको, देखो, क्या हुआ अभी-अभी।
ढूँढ़ निकाल उसे अपने ही अंदर से
शिव आतंरिक हैं, शिव भीतर हैं। यह शायद आज चालीसवीं बार बोल रहा हूँ — मन की शुद्धता को ही शिवत्व कहते हैं। वैसे तो इस वक्त मेरे पास पूरी की पूरी पुस्तिका ही रखी हुई है, लल्लेश्वरी जी की। और यहाँ जो कुछ है सब शिव को समर्पित है, पर अब यह मैं आप लोगों पर छोड़ता हूँ कि आप खुद जाएँ लाल देद के पास और कुछ सीख कर आएँ।
मेरा काम परिचय देना है, तो संक्षेप में मैंने दिया। अब आप खुद आगे बढ़िए, अगर आप महाशिवरात्रि को लल्लेश्वरी देवी के साथ मना पाएँ तो इससे अधिक शुभ कुछ नहीं होगा। शुभ को ही शिव कहते हैं न। यह होगा महाशिवरात्रि मनाने का बड़ा सुंदर तरीका कि बैठें आप अक्का महादेवी के साथ, लल्लेश्वरी के साथ।
अक्का महादेवी क्या कह रही हैं? अक्का महादेवी हैं। लल्लेश्वरी जैसे एकदम उत्तर से, कश्मीर से, वैसे ही अक्का महादेवी धुर दक्षिण से। और उतनी ही ओजस्विनी जितनी लल्लेश्वरी देवी। तो अब यह तो आपकी रुचि पर है कश्मीर या कर्नाटक। लेकिन जहाँ भी जाएँगे, शिव को ही पाएँगे। कह रही हैं —
भूख के लिए गाँव से मिला भिक्षा का अन्न। प्यास के लिए नदियाँ, तालाब, कुएँ सोने के लिए मंदिरों के खंडहर आत्मा के संग को तुम मेरे पास ओ मल्लिकार्जुन! चिंगारी उड़ेगी अगर तो समझ लूँगी मिट गई है मेरी भूख प्यास। फटेगा अगर आसमान समझ लूँगी मेरे नहाने को है बह आया फिसल पड़ेगी अगर पहाड़ी मुझ पर समझ लूँगी मेरे बालों का फूल है वह जिस दिन गिरेगा मेरा सिर कंधों से छिटक कर समझूँगी तुम्हारी भेंट चढ़ा, ओ मल्लिकार्जुन!
~ अक्का महादेवी
'भूख के लिए गाँव से मिला भिक्षा का अन्न।' यह प्रकृति के प्रति एक उदासीनता, उपेक्षा और समता का भाव है। भूख के लिए — अभी उपनिषद् में हमने क्या पढ़ा कि भोग्य वस्तु, भोक्ता और भोग इन तीनों से जो निराला है, वो शिव है। वही भाव हमको यहाँ अक्का महादेवी में देखने को मिल रहा है। ठीक है। भूख माने? भोक्ता। भिक्षा का अन्न माने? भोग्य वस्तु। कह रही हैं, 'चलेगा।' इन दोनों से ही निराली है मेरी अवस्था। इन दोनों से ही अनूठा है मेरा प्रेम।
तो भूख के लिए गाँव से मिला भिक्षा का अन्न। और प्यास लगे हैं तो इतनी नदियाँ, तालाब, कुएँ, (कुछ नहीं विशेष चाहिए।) सोने के लिए (पलंग कौन माँग रहा है!) मंदिरों के खंडहर चलेंगे। (आत्मा चाहिए, आत्मा का संग चाहिए) तुम मेरे पास मेरे मल्लिकार्जुन!
बाकी तो प्रकृति की चीज़ है, मिले तो मिले नहीं मिले तो न मिले, जैसी मिले वैसी चल जाएगी, देह का क्या है, कुछ खिलाओ, चलती रहेगी। सो लेंगे, खा लेंगे, चल लेंगे, लेकिन जिससे प्रीत लगी है, वो प्राकृतिक नहीं है। मल्लिकार्जुन यहाँ शिव को संबोधित करके कह रही हैं।
पाँच तरह का प्यार नहीं हो सकता। यह बँटी हुई प्रीत नहीं चलेगी। अध्यात्म कहता है वो एक मल्लिकाजुर्न, वो शिव, वो सत्य, आत्मा। उसी के प्रति तुम्हारा अनुराग हो। 'मामेकं शरण् वज्र'।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:।।
~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १८, श्लोक ६६
एक, एक। कृष्ण आ जाते हैं बीच-बीच में। शायद 'एक' का ही एक नाम होंगे कृष्ण। शिव को याद कर रहा हूँ और याद आ जाते हैं कृष्ण।
समझ में आ रही है बात?
ये होती है शिव के निकट की अवस्था और ऐसे होते हैं उद्गार — 'खाने के लिए कुछ मिल गया, पीने के लिए भी कुछ मिल गया। सोने के लिए भी कुछ, आत्मा में तो तुम ही हो न शिव। आत्मा में तुम नहीं हो, आत्मा ही तुम हो न शिव। ओ मल्लिकार्जुन मेरे।'
अक्का महादेवी। थोड़ा इनके साथ बैठिएगा वो शिव के साथ बैठी हैं। उनके साथ बैठने से आप शिव के साथ हो जाएँगे। या अवधूत गीता का पाठ कर लीजिएगा। यह हुई महाशिवरात्रि। और उसके बाद भी जिज्ञासाएँ बचेंगी, प्रश्न बचेंगे, तो पूछिएगा। अभी महोत्सव है, इसी माह के अंत में। बहुत अगर भीतर कौतुहल उठ रहा हो, तो आमने-सामने ही आकर पूछ लीजिएगा।
चिंगारी उड़ेगी अगर तो समझ लूँगी मिट गई है मेरी भूख प्यास।
चूल्हे से चिंगारी उठती है। चिंगारी उड़ेगी इतना ही काफ़ी है, चूल्हे से कुछ पककर, बनकर आए, पेट में जाए, ज़रूरी नहीं है। चिंगारी उड़ेगी, इतने में ही मान लूँगी, मिट गई है मेरी भूख प्यास।
फटेगा आसमान तो समझ लूँगी मेरे नहाने को है बह आया गिर पड़ेगी अगर पहाड़ी मुझ पर कह दूँगी मेरे बालों का फूल है वह जिस दिन गिरेगा मेरा सिर कंधों से छिटक कर समझूँगी तुम्हारी भेंट चढ़ा, मेरे मल्लिकार्जुन!
~ अक्का महादेवी
प्रकृति में जो भी कुछ चल रहा होगा, अरे! कौन परवाह करता है उसकी। जीना तो अपने साथ है न। जीते तो हम अपनी चेतना में हैं न। बाहर तो जो भी कुछ होता है, वो चेतना का विषय होता है। वो चेतना से सम्बन्धित होता है। वो चेतना नहीं होता है। जीते तो हम अपनी चेतना में हैं। भीतर से सब बढ़िया होना चाहिए। बाहर जो हो रहा होगा, वो बाद की बात है।
और देखा यह गया है कि जो लोग भीतर से सही जी रहे होते हैं, बाहर से उनका जीवन अपनेआप बड़े किसी अद्भुत तरीक़े से संगीतमय-सा हो जाता है, हारमोनियस हो जाता है। उसमें एक लय आ जाती है, माधुर्य आ जाता है। भीतर से ठीक हो जाओ, बाहर सब अपनेआप ठीक हो जाता है।
बाहर को लेकर के ऐसी ही बेपरवाही, बड़ी एक उदासीनता, बेरुखी। 'चिंगारी उड़ी', दिल भरा हुआ है न, पेट भर गया बहुत अच्छी बात, नहीं भरा तो भी ठीक है। 'फट गया आसमान', अरे! आसमान नहीं फटा है, हमें स्नान कराया जा रहा है। बड़ी बारिश हो रही है, परेशानी की बात है? नहीं भाई! नहाना था। पत्थर आकर के गिर गए ऊपर से, पत्थर थोड़े ही आकर गिरे, फूल गिरा। पेड़ के नीचे से निकलते हो तो कई बार फूल ऊपर से नहीं ज़रा सा…। अच्छा लगता है न?
और जब मृत्यु ही आ जाए तो भी कोई बात नहीं। शरीर है, शरीर का काम है। एक दिन तो जाना है। उससे जाने से पहले मल्लिकार्जुन शिव को पा लिया, यह पर्याप्त है। कहाँ पा लिया? अदंर ही पा लिया और नहीं कहीं पाओगे।
अपनी आतंरिक सफ़ाई करने के अलावा कोई उपाय नहीं है। देखिए, धर्म इसी का नाम है। बाहर दौड़-धूप करने से नहीं बात बनेगी। क्या कह रहे थे, निर्वाण षट्कम में? 'न तीर्थ, न वेद ,न मंत्र, न यज्ञ'।
ये बाहरी चीज़ें, जितने दुनिया भर के विषय हैं, इनसे नहीं बात बनेगी। आप कितना भी बच लो, सीधी-सपाट सच्चाई से, बात तो बस इतनी-सी है कि मन ठीक करो; ठीक मन को ही शिव कहते हैं। मन जितनी चीज़ों से चिपका हुआ है उनसे उसको मुक्त करो, आज़ाद करो, यही शिवत्व है। बस इतना ही।
आपकी महाशिवरात्रि शिवमय हो!