प्रश्नकर्ता: गुरूजी, मेरे पास सबकुछ है, लेकिन जो भी मैं हासिल करना चाहता हूँ वो मिल नहीं पाता और मिलता है तो बहुत देर से।
आचार्य प्रशांत: खुलकर बताइए, क्या है? क्या हासिल करना है?
प्र: गुरूजी, जैसे शुरू में मेरे भाई की नौकरी लगी, वो बैंक में मैनेजर बना और उसके बैंक में कुछ घपला हुआ तो वो निलम्बित हुआ। फिर उसने दूसरी नौकरी के लिए प्रयत्न किया वो भी लगी, लेकिन पिछली नौकरी में जो हुआ उसके कारण वह भी चली गयी तो अभी वो घर पर है। ऐसे ही पत्नी की भी नौकरी लगी, अब वो भी घर पर है। मिलता है, लेकिन बहुत देर हो जाती है। वैसे खुश हूँ।
आचार्य: ज़िन्दगी के आम उतार-चढ़ाव हैं। प्रश्न यह नहीं है कि ज़िन्दगी की सामान्य गति में, सामान्य उतार-चढ़ाव क्यों आ रहे हैं। प्रश्न यह है कि आपके पास इन छोटे-छोटे उतार-चढ़ावों से कहीं ज़्यादा बड़ा कुछ क्यों नहीं है।
मन को तो कुछ चाहिए उलझने के लिए। मन को मुद्दा चाहिए; बिना मुद्दे के नहीं जी सकता मन। शास्त्रों की भाषा में कहें तो मन वो विषयेता है, जिसको सदैव एक विषय वस्तु चाहिए। उसी को मैं आम भाषा में कह रहा हूँ कि हमें उलझने के लिए हमेशा एक मुद्दा चाहिए। मुद्दा तो चाहिए; बिना मुद्दे के आप हो नहीं सकते। यह नियम बना हुआ है, यह किसका नियम है? यह किसका नियम है? कल किसी ने ध्यान से सुना होगा तो बता देगा। यह नियम है…? (श्रोताओं से)
श्रोता: प्रकृति।
आचार्य: हाँ, और साफ़ करके बोलो! या प्रकृति से और आगे बढ़ो तो देह का। देह कभी होती है बिना किसी विषय के? पहला विषय तो वायु है। जब आप धरती के गुरुत्वाकर्षण से भी दूर निकल जाते हैं — आप मान लीजिए एस्ट्रोनॉट (अन्तरिक्ष यात्री) वगैरह हैं कुछ, बाह्य अन्तरिक्ष में निकल गये जहाँ गुरुत्वाकर्षण नहीं है, लेकिन वहाँ पर भी आपको क्या चाहिए? वायु चाहिए। तो इसको एक विषय चाहिए न हमेशा? — तो विषय दिखायी देता है भूमि। देह बिना भूमि के हो सकती है क्या? कभी-कभार हो सकती है।
आप मंगल ग्रह पर पहुँच जाएँ, आप अभी अन्तरिक्ष यात्रा ही कर रहे हैं, लेकिन वहाँ पर भी क्या चाहिए? साँस। तो यह देह का नियम है कि आपको हमेशा कुछ चाहिए अपने से बाहर का और आप उससे लिप्त रहेंगें। उसी को मैं कह रहा हूँ, उलझने के लिए मुद्दा चाहिए।
प्रश्न यह है कि आप छोटे मुद्दों में क्यों उलझे हैं? यह तो जीवन के सामान्य छोटे-छोटे उतार-चढ़ाव हैं। इन्हीं में उलझकर रह जाना है क्या? यहाँ कौन ऐसा बैठा है जो कभी भी बेरोज़गार नहीं था? नहीं, मैं आपके छात्र जीवन की बात नहीं कर रहा हूँ। डिग्री इत्यादि ले लेने के बाद, नौकरी के बाज़ार में उतरने के बाद भी कौन ऐसा है जो कभी भी बेरोज़गार नहीं बैठा?
अच्छा अब हाथ उठवाता हूँ! कितने लोग हैं जो अपने जीवन में कभी-न-कभी कम-से-कम एक महीने बेरोज़गार बैठे हैं? ख़ूब, उठा दीजिए! अभी देखिए, कितने लोग हैं जो अपने जीवन में कुल-मिलाकर के छह महीने भी बेरोज़गार बैठ चुके हैं, अगर एक बार में नहीं तो बार-बार का मिला करके? देखिए, कितने लोग हैं। (मुस्कुराते हुए) (संख्या बढ़ चुकी थी)
श्रोता: बात बेरोज़गारी की नहीं है।
आचार्य: आप कह रहे हैं कि बात बेरोज़गारी की नहीं है, बात इस प्रक्रिया की है कि बड़े दुर्भाग्यपूर्ण तरीक़े से उनको बैठना पड़ा। बड़ी विचित्र परिस्थितियों में उनको घर बैठना पड़ा बेरोज़गार होकर। ऐसा कौन है, जो घर बैठने को सौभाग्य मानता है? जो ही घर बैठा है उसी को लगता है कि मेरा बड़ा दुर्भाग्य है। आपके भाई, आपकी पत्नी घर बैठे हैं, तो आपको यही लगेगा कि यह सब काम तो बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों में हो रहा है।
कौन है भाई जो कहेगा कि मैं घर बैठा हूँ, बेरोज़गार हूँ, और यह मेरी बड़ी ऊँची किस्मत की बात है, कोई कहेगा? और कोई किसी वजह से बेरोज़गार होता है, कोई किसी वजह से बेरोज़गार होता है। आदमी तीस-पैंतीस साल काम करता है, अगर आप नौकरी इत्यादि कह रहे हैं तो। सेवानिवृत्ति साठ के आस-पास होगी, पच्चीस के आस-पास आदमी नौकरी में उतरता है। तीस-पैंतीस साल आदमी काम करता है। और कहीं अगर अपना धन्धा है तो फिर पचास साल भी।
सत्तर के हो गये हो जाते रहो दुकान पर कौन रोक रहा है, फैक्ट्री-मिल जो भी है। इतने लम्बे समय में, इस दीर्घ अवधि में, ऐसा तो बहुत बार होगा न कि आपको लगेगा कि स्थितियाँ प्रतिकूल हो गयी हैं, दुर्भाग्य आ गया है। कभी नौकरी छूटती दिखायी देगी, कभी नौकरी छूट ही जाएगी, कभी व्यवसाय मन्दा पड़ जाएगा, ऐसा बहुत बार होगा न?
सवाल यह है कि यह बात मन में इतनी महत्वपूर्ण कैसे हो गयी? और कुछ नहीं है क्या ज़िन्दगी में? निश्चितरूप से और कुछ नहीं है ज़िन्दगी में। जब और कुछ नहीं होता ज़िन्दगी में तो हर छोटी चीज़ बहुत बड़ी हो जाती है।
मन को क्या चाहिए? मुद्दा। बड़ा मुद्दा नहीं दोगे तो वो छोटे मुद्दे को बड़ा बना लेगा। अब समझ में आया कि क्यों कहते हो कि फ़लाना तो तिल का ताड़ कर देता है। यह जो तिल का ताड़ कर रहा है वो इसलिए कर रहा है, क्योंकि उसके पास ताड़ वृक्ष जैसा कुछ है नहीं। हम सबको ताड़ चाहिए, ताड़ जानते हो क्या? ताड़ क्या होता है?
श्रोता: बड़ा पेड़।
आचार्य: हम सबको कुछ बड़ा चाहिए। जब बड़ा नहीं मिलेगा तो जीवन में जो छोटी-छोटी चीज़े हैं, तुम उन्हीं को दीर्घाकार कर लोगे, एम्पिलीफाई। जिसके पास कुछ बड़ा नहीं होगा यह उसकी सज़ा है कि वो हर छोटी चीज़ को बहुत बड़ी समस्या बना लेगा। तो मैं कहता हूँ, जो बहुत बड़ी समस्या है उसको स्वयं ही आमन्त्रित कर लो न!
जब ज़िन्दगी में बड़ी समस्या चाहिए ही है तो नक़ली बड़ी समस्या क्यों बुलायें, असली बड़ी समस्या बुला लो। असली बड़ी समस्या का नाम होता है ‘सच्चाई, आज़ादी।' उस लक्ष्य से उलझ जाओ न, वो अभियान उठा लो न उसके बाद छोटी बातें हैरान-परेशान करेंगीं ही नहीं।
जिसने बड़ी समस्या पकड़ ली, उसको पुरस्कार मिलता है कि उसे अब छोटी समस्याएँ दिखायी नहीं पड़ेंगी। वो उनके आगे निकल गया, मुक्त हो गया। आप स्वयं भी जानते हैं कि जो आज नौकरी नहीं कर रहा, कल उसकी नौकरी लग ही जानी है। इतनी अच्छी किस्मत किसी की होती ही नहीं कि उसकी नौकरी कभी न लगे। यह तो थोड़ी-बहुत आपको बीच-बीच में झलक दी जाती है कि चलो पिछली नौकरी छूट गयी अब चार महीने बैठे रहें नौकरी नहीं है। उसके बाद फिर कोई आएगा, नोट दिखाएगा, आपको उठा ले जाएगा।
मन को डरना है; अरे! तो बड़े ख़तरे से डरो न। मन को लालच करना है; तो भाई! बड़ा लालच करो न, बेरोज़गारी से क्या डर रहे हो? बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था है, यहाँ अगर तुम उतारु ही हो जाओ कि तुमको बस पैसे कमाने हैं, तो कमा लोगे। हाँ, बस शर्त मत बाँधना, यह मत कह देना कि मुझे इसी तरह का काम करके कमाना है। अगर तुम तैयार हो कि मैं किसी भी तरह का काम कर सकता हूँ, जीवनयापन तो हो जाएगा। हो सकता है तुम लखपति-करोड़पति न बन पाओ, पर जीवनयापन तो हो जाएगा। यह कोई बड़ी समस्या है? हिंदुस्तान है, सोमालिया, इथूपिया थोड़े ही है।
बड़ी समस्या की हम बात नहीं करते। जो वास्तविक ख़तरा है, यह जो जीवन ही व्यर्थ बहा जा रहा है, यह जो मूल अवसर मिला था कुछ ऊँचा पा लेने का, वो गँवाये दे रहे हैं; उसकी हम बात ही नहीं करते। दुनिया में दो ही तरह के लोग होते हैं। एक, जिनके पास बहुत सारी समस्याएँ होतीं हैं और एक, जिनके पास बस एक ही समस्या होती है।
मौत तो आनी ही है, बोलो कैसे मरना चाहते हो? तुम्हें एक बन्द अन्धेरी, सीलन भरी काली गुफ़ा में डाल दिया जाए, जिसमें छह हज़ार मच्छर हों और दो हज़ार अन्य भाँति-भाँति के कीड़े-मकोड़े और तुम्हारे शरीर का कोई हिस्सा न हो जहाँ कोई मच्छर न बैठा हुआ हो — ऐसे मरना चाहते हो या कि खुले में किसी शेर से मुक़ाबला करके? मौत तो आनी है, बोलो कौनसी मौत चाहिए? अमर तो यहाँ कोई नहीं, कौनसी मौत चाहिए? छह हज़ार मच्छरों से लड़कर मरना है या एक शेर से?
श्रोता: एक शेर से।
आचार्य: हाँ, छह हज़ार मच्छरों से लड़ने में अहम् बचा रहता है। क्यों? क्योंकि छह हज़ार से लड़ोगे तो बीच में दो-चार को मार भी लोगे। बीच-बीच में तुम्हें लगेगा छोटी-मोटी जीत भी मिल गयी। हम सब ज़िन्दगी की छोटी-मोटी समस्यायों के सामने जीत भी तो जाते हैं न कि लो चार मच्छर मैंने भी मारे। शेर से मुक़ाबला करोगे तो वहाँ हार तो निश्चित है। बोलो, किससे हारना है? और अब ग़ौर से अपने जीवन को देखो, बताओ तुम्हारा मुक़ाबला शेर से चल रहा है या मच्छरों से चल रहा है? मरोगे दोनों ही हालतों में।
क्या हुँकारा दे रहे हैं, आपको भी बहुत समस्याएँ रहती हैं। (एक श्रोता को सम्बोधित करते हुए)
एक समस्या पकड़ो न, एक। जब दो शेर लड़ रहे होते हैं, तो मच्छरों का कोई काम ही नहीं, बीच में वो भी नहीं आते। वो भी दूर बैठ जाते हैं, ताली बजाते हैं बस। शेर से भिड़ जाओ, मच्छर अपनेआप भाग जाएँगे। और यही हमारी समस्याएँ हैं — बॉस ने डाँट दिया, पड़ोसी ने खाँस दिया, बीबी का बाल सफेद हो गया।
मुस्करा क्या रहे हो, उन मुद्दों को देखो जो मन पर छाये रहते हैं। क्या वो मुद्दे वाक़ई इन बातों से भिन्न हैं? वाक़ई? मैं कह रहा हूँ, तो मज़ाक की तरह ले रहे हो और जब ख़ुद इतने गम्भीर हो जाते हो, तो मज़ाक नहीं लगता? तब तो बड़े गम्भीर होकर घूमते हो, अरे! ऐसा हो गया, ऐसा हो गया।
वो टंडन को आठ प्रतिशत का मिला है अप्रेज़ल (मूल्यांकन), मुझे पौने आठ का। हफ़्ते भर से मुँह उतारे घूम रहे हैं। साली जितनी बार मिलने आती थी, इमरती लेकर आती थी, इस बार नहीं लायी, बात क्या है? कहीं भीतर-ही-भीतर कुछ योजना तो नहीं बना रही, जाकर अपनी बहन के सामने कुछ इधर-उधर की बातें तो नहीं कर देगी। इमरती क्यों नहीं आयी इस बार? ईमानदारी से बताना, इसी तल के मुद्दे खूब घूमते हैं न मन में?
एक बार सत्र हुआ, यहीं पर, उसके बाद सत्र के ही एक प्रतिभागी थे उनसे मुलाक़ात थी एमटीएम , तो उन्होंने कुछ पूछा। मैंने कहा, ‘आपको ज़रूरत ही नहीं थी एमटीएम की, आप जो पूछ रहे हो उसका उत्तर तो मैंने अभी-अभी दिया है सत्र में ही।' तो बोले, ‘आपके सामने बैठा हूँ तो झूठ नहीं बोलूँगा, सत्र में तो मैं कुछ सुन ही नहीं पाया।'
मैंने कहा, ‘काहे नहीं सुन पाये?’ बोले, ‘जूते नये खरीदे हैं।' तो? ‘वो आपके लोगों ने बाहर वहाँ उतरवा लिए, और धार्मिक जगहों का तो ख़ासतौर पर कुछ भरोसा नहीं होता, मंदिरों में जूते बहुत चोरी होते हैं।’ यही सब घूमता रहता है न? यहाँ बैठे हो, फोन बाहर है, न जाने किसकी कॉल आ रही हो? कौनसी मुक्ति, कौनसी सच्चाई, कौनसा बोध, हमारी ज़िन्दगी में तो यही मुद्दे चलते हैं।
थोड़ा गहरे उतरें! अपनेआप से पूछें, उम्र बीतती जा रही है, जितने साल बिता दिये, आगे उतने भी उपलब्ध हैं या नहीं, पता नहीं; ऐसे ही मर जाना है क्या? जीवन क्या इसीलिए मिला था कि चिन्ता में, उलझन में, उदासी में बिता दें? फिर तो धिक्कार है ऐसे जीवन पर अगर वो मिलता ही इसीलिए है कि उसे क्षुद्रता में और कष्ट में बिता दो।
मौत को याद करिए, कभी भी आ सकती है। फिर उस पर पूछिएगा अपनेआप से जीवन कहाँ गया? कहाँ खर्च कर दिये वो सारे पल जो मिले थे? कैसा लगेगा जब दिखायी देगा कि सब पल बस यूँही बर्बाद किये?
पर जब मौत की बात करते हैं तो ऐसा लगता है, हाँ, वो जो बगल में बैठा है वो शायद मर जाए। दायें वाला भी मर सकता है, बायें वाला भी मर सकता है। इस बात पर यक़ीन ही नहीं होता है कि कल और आज या अभी, मेरा भी बुलावा आ सकता है। यक़ीन ही नहीं होता। ज़िन्दगी की क्या क़ीमत है, किसी मरते हुए से पूछिए! और फिर अपनेआप से पूछिए कि मैं अपनी ज़िन्दगी किन कामों में व्यर्थ कर रहा हूँ।
दो ही वर्ष हुए हैं इस जगह पर सत्संग होते हुए और इन दो ही वर्षो में कुछ लोग अब ऐसे हैं जो यहाँ कभी थे, अब नहीं हैं। दो ही सालों में जो सामने है वो गुज़रा हुआ बन जाता है। कोई भरोसा है आपको, आज से दो साल बाद हम बात कर रहे हों तो आप सब हों या यह कुर्सी भरी हुई ही हो, कोई निश्चित है?
भाई की नौकरी लग चुकी होगी, पत्नी भी दफ़्तर जा रही होगी, सामने खड़ी होगी; आप नहीं होंगें। बच्चे भी खुश होंगे और जो बात आपको सबसे अखरेगी वो जानते हैं क्या है? जिन ज़रा-ज़रा सी बातों को महत्वपूर्ण और गंभीर बनाकर आपने ज़िन्दगी बर्बाद की; वो बातें किसी को याद भी नहीं रहेंगी।
आपने दिन, हफ़्ते, महीने, साल लगाये और आपके लिए यही बहुत बड़ा मुद्दा था कि टिंकू को नया जूता दिलाना है। वो जूता फट गया, टिंकू ने फेंक दिया और अब टिंकू को याद भी नहीं है कि उसके बाप ने अपनी ज़िन्दगी का बहुत बड़ा समय उसके जूते में लगाया था। आप हर तरफ़ से मारे जाएँगें। न टिंकू कोई श्रेय देगा, न भैंसे वाला।
एक दिन कोई पूछ रहा था, बोला कि जितनी भी आध्यात्मिक जगहें होती हैं, वहाँ कुछ प्रतीक होते हैं, कुछ मूर्तियाँ होती हैं, कुछ चित्र होते हैं, कुछ पता लगे कि आध्यात्मिक जगह है; यहाँ आपने कुछ कराया नहीं आचार्य जी?
मैंने कहा, ‘बात तो सही है।' बोले, ‘फिर क्या करें?' मैंने कहा, ‘मूर्ती लगवाओ!' बोले, ‘काहे की?’ मैंने कहा, ‘भैंसे की। एकदम निरा काला भैंसा। जो यहाँ घुसे, उसे सबसे पहले मौत याद आनी चाहिए। यमराज से ज़्यादा जीवनदायी कोई होता नहीं।’
यमराज याद रह गये तो जीना सीख जाओगे। भूल जाते हो न, तो फिर ज़िन्दगी छोटी-छोटी, मच्छर जैसी मौतों में बिताते हो।
अच्छा मुझ पर विश्वास मत करो, प्रयोग कर लो! ठीक है? दस साल पीछे जाना और देखना कि उस समय मन पर कौन से मुद्दे हावी थे, याद करो! कहाँ गये वो मुद्दे? और पीछे जाओ, और पीछे जाओ, अब तुम पन्द्रह साल के हो, याद करो मन पर कौन से मुद्दे हावी थे? कहाँ गये वो मुद्दे? बोलो! कहाँ गये वो मुद्दे? कहाँ गये? लेकिन जिस समय कोई मुद्दा उपस्थित होता है, वही ऐसा लगता है कि बहुत-बहुत बड़ा है।
कितने लोगों को दसवीं के बोर्ड के नंबर अभी तक याद हैं? मैं अभी पूछूँ कि बताना दसवीं के बोर्ड में हिन्दी में, अंग्रेज़ी मे, गणित में कितना-कितना मिला? कौन-कौन बता पाएगा ठीक-ठीक? कुछ लोग बता लेंगें, कुछ लोग भूल रहे होंगे। जो जवान हैं, जिन्होंने पाँच-दस साल पहले ही दिया है, उनको शायद थोड़ा याद हो। जो चालीस पार के हैं, उनको तक़लीफ आएगी याद करने में।
और वहीं जब दसवीं का, बारहवीं का परीक्षाफल घोषित होता है तो कितने लोग आत्महत्या कर लेते हैं। कर लेते हैं कि नहीं? वही बहुत बड़ी बात लगती है दसवीं में नंबर! और दस साल बाद, बीस साल बाद, तुम्हें याद भी नहीं रह जाता कि नम्बर कितने आये थे। याद रह जाता है? (दोहराते हुए) याद रह जाता है?
और, और पीछे चले जाओ तो तुम गुड्डे-गुड़िया पर रोये हो, तुम टॉफी-चॉकलेट पर रोये हो। तब वही जीवन-मरण का प्रश्न था न? इतनी बड़ी बात! कहाँ गयीं वो सारी बातें आज? और तब की बात आज अगर क्षुद्र लग रही है, हास्यास्पद लग रही है, तो आज की बात भी कल कैसी लगेगी?
श्रोता: हास्यास्पद!
आचार्य: तुम आज की बात पर कल हँसने वाले हो, आज ही क्यों नहीं हँस लेते? पीछे की बात पर तो आज कह देते हो, अरे! अरे! वो लड़कपन था। नहीं-नहीं, बात गम्भीर नहीं थी, हमने यूँही उसे महत्व दे दिया। साफ़ दिख नहीं रहा है कि आज भी जो मुद्दे तुमको बहुत बड़े लगते हैं, वो कल समझ में आएगा कि ओछे थे। कुछ रखा नहीं था, बस उन मुद्दों में उलझकर तुमने समय ख़राब कर दिया। दस साल पीछे आने की भी कोई ज़रूरत नहीं है, महीने भर भी पीछे चले जाओ तो तुम पाओगे कि महीने भर पीछे के भी जो मुद्दे थे वो सब गये।
हमारा क्या है, हमारे लिए कुछ भी बहुत बड़ा हो जाता है। अभी ख़बर थी, एक आदमी की रेलवे स्टेशन पर मौत हो गयी। क्यों? ट्रेन छूट रही थी उसकी। हृदय रोगी रहा होगा, तनाव बढ़ा रक्तचाप बढ़ा, ढेर! वो ट्रेन उसे मिल भी जाती तो कौनसा स्वर्ग मिल जाना था भाई? पर उसने इतनी बड़ी बात मानी कि दिल ही टूट गया। ऐसा तो दिल है हमारा जो बात-बात पर टूट जाता है।
एक बार कल्पना करो वो आदमी कैसा रहा होगा। हाँफ रहा है, पसीने आ रहे हैं, और ज़ोर-ज़ोर से भाग रहा है। साथ में कोई है, उस पर चिल्ला रहा है, उसे दोष दे रहा है; तेरी वजह से ट्रेन छूट रही है। भाग रहा है तो किसी से टकरा भी रहा है, शायद उसके हाथ में सामान रहा होगा, वो सामान भी गिर रहा है। यह सब चला होगा पाँच-दस मिनट या शायद आधे घण्टे से चल रहा हो। और इस पूरी गम्भीरता का, इस पूरे तनाव का कुल नतीजा क्या? ट्रेन तो क्या ही मिली, वहीं प्लेटफॉर्म पर मौत हो गयी।
यह खिसियाना, यह चिढ़चिढ़ाना, यह तनाव, यह खीझ, यह क्रोध, यह उदासी, यह सूनापन, यह भाव कि जीवन ने हमारे साथ अन्याय किया है, हम शोषित हैं, हम शिकार हैं यह क्या कर रहा है हमारे साथ? कहीं का छोड़ रहा है हमको? और क्या हम सब इसी भाव में नहीं जी रहे? कोई ऐसा बैठा है जिसे ज़िन्दगी से तक़लीफ और शिकायत न हो? सब अपनी-अपनी नज़रों में शोषण के शिकार हैं, शोषित हैं।
मुझे ताज्जुब होता है, सब शोषित हैं, तो शोषक कौन है? (मुस्कुराते हुए) सब बताते हैं कि हम तो शोषित हैं। सब शिकार हैं तो शिकारी कौन है? सब शोषित हैं तो शोषक कौन है? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम दोनों ही हैं, शिकार और शिकारी? कहीं ऐसा तो नहीं हम अपना ही शिकार कर रहे हैं?
बेपरवाह जियो और बुलंद जियो! ज़िन्दगी तुमको एक लगाये, तुम ज़िन्दगी को दो लगाओ। शेर है भई सामने, नतीजा क्या होना है हम जानते हैं। ज़िन्दगी खा तो सबको जाएगी, कोई है जो बचने वाला है? शेर सामने है। पैदा होने का मतलब है तुम्हें शेर के सामने छोड़ दिया गया है, बच लो जितने दिन बच सकते हो, अन्त में तो एक ही है चीज़। और वो शेर नहीं है, शेर की खाल पहने भैंसा है असल में, जो बड़ा माँसाहारी भैंसा है, पूरी दुनिया को खाता है।
बेखौफ़, बिंदास जियो न! क्या मुँह लटकाए इधर-उधर घूमते हो, डरे-डरे, सकुचाये-सकुचाये, सहमे, संकुचित, क्षीण, दुर्बल! हममें से अधिकांश लोगों की हालत यह हो जाती है कि हमें मुस्कुराने में मेहनत पड़ती है, और बड़ा कृत्रिम लगता है जब हम मुस्कुराते हैं। हीं! हीं! हीं! (चेहरे पर बनावटी मुस्कान लाते हुए) (सभी श्रोतागण हँसते हैं) अच्छे लग रहे हैं (श्रोता को संकेत करके), ऐसे ही रहा करिए!
इसका यह नहीं मतलब है कि जीवन सुख से परिपूर्ण है इसलिए मुस्कुराओ। ग़लत मत समझ लीजिएगा! ज़िन्दगी कमीनी है, किसी को नहीं छोड़ती इसलिए मुस्कुराओ! सुख इत्यादि झूठी बात, ढकोसला, यहाँ सुख किसको मिलना है, इसलिए मुस्कुराओ! यह ऐसी लड़ाई है जिसमें पिटोगे भी और मारे भी जाओगे, निश्चित है नतीजा, इसलिए मुस्कुराओ! यहाँ से कोई ज़िन्दा बाहर नहीं जाने वाला, इसलिए मुस्कुराओ! सामने जो खड़ा है उसने बड़ा अन्याय किया है, उसने शरीर में ही हमारे दुश्मन बैठा दिये हैं, इसलिए मुस्कुराओ।
उसको बोलो, तेरे अन्याय का एक ही जवाब है मेरे पास। क्या? मेरी मुस्कुराहट! तू जीत के भी नहीं जीतेगा। तूने बन्दोबस्त तो पूरा कर दिया था कि मैं दुख में रहूँ और रोता रहूँ। भीतर भी माया, बाहर भी माया; भीतर वृत्तियों का प्रसार, बाहर मायावी संसार। तूने तो पूरा पक्का प्रबन्ध कर दिया था कि मैं रोता ही रहूँ, लेकिन मैं मुस्कुराऊँगा। मुस्कुराने की मेरे पास कोई भी वजह नहीं है, दुख-ही-दुख है, लेकिन मैं मुस्कुराऊँगा। कोई वजह नहीं है, इसलिए मुस्कुराऊँगा।
तुम सिर्फ़ इसी तरीक़े से जीत सकते हो, और कोई तरीक़ा नहीं है तुम्हारे पास जीतने का। तुम सोचोगे तुम पैसा कमाकर जीत लोगे, पैसा मौत के सामने चलेगा? अरे! पैसा तो दुनिया के सामने भी नहीं चलता, मौत के सामने क्या चलेगा! दुनिया पैसा देती है, दुनिया ही पैसा छीन भी लेती है। तुम सोचते हो कि तुम बड़े रिश्ते बना लेते हो, बड़ा तुमने रिश्तों का जाल बना रखा है, सोशल नेटवर्किंग कर रखी है, कुछ काम आता है क्या? सही-सही बताना आपदा की घड़ी में यह सबकुछ चलता है? तुम सोचते हो इज़्ज़त कमा ली, वो तुम्हें और डर में धकेल देती है।
कोई तरीक़ा नहीं है जिससे तुम यह लड़ाई जीत सको। कोई हथियार काम नहीं आता, न पद, न प्रतिष्ठा, न पैसा। यह लड़ाई तो बस तुम अपनी बेखौफ़ मुस्कुराहट से ही जीत सकते हो। तुम कहते हो, तूने सबकुछ कर लिया जो तू कर सकती थी ज़िन्दगी, हमें बर्बाद करने में तूने कोई कसर नहीं छोड़ी है। और हम झूठ नहीं बोलेंगें, हम यह नहीं कहेंगें कि हम ज़िन्दगी से जीत गये, हम यह नहीं कहेंगें कि हम बड़े सुखी हैं; हम यह सब फ़रेब नहीं करेंगे।
हमें भली-भाँति पता है कि तूने हमें जी भरकर लूटा है। लूटा है, आगे भी लूटेगी और अन्त में मार देगी। तो तुझे देने के लिए हमारे पास एक ही वाजिब जवाब है। क्या? मुस्कुराहट! तू पीट हमें, तू लात मार हमें; हम बार-बार उठकर मुस्कुरा देंगें। और क्या करें? यह खुशी वाली मुस्कुराहट नहीं कह रहा हूँ मैं, यह मर्द वाली मुस्कुराहट कह रहा हूँ।
न! खुशी की बात नहीं कर रहा हूँ, मैं जिगर की बात कर रहा हूँ। मैं उस मुस्कुराहट की बात नहीं कर रहा जो नोट मिलने पर आती है या कोई खूबसूरत औरत दिख गयी तो उसको देखकर जो मुस्की छा जाती है; वो सब नहीं बात कर रहा। मैं उस मुस्कुराहट की बात कर रहा हूँ जो यह सुनने पर आती है कि आपको कैंसर है।
आपको अभी-अभी घोषित किया गया कि आपको कैंसर है और आप मुस्कुरा दिये। ज़िन्दगी ने बिलकुल खंजर मारा है अभी-अभी और ख़ून बह रहा है; आप मुस्कुरा दिये। सिर्फ़ उसी मुस्कुराहट के आगे भैंसे वाला बेबस है, यही तरीक़ा है उसको जीतने का; नहीं तो नहीं जीत सकते।
तुम जीतने के लिए पैदा ही नहीं हुए हो। कहा होगा किसी ने कि मानव जन्म सर्वश्रेठ है, सौभाग्य है; मानव जन्म दुख से परिपूर्ण है, दुख ही दुख है, तनाव ही तनाव है। यहाँ तुम जीत नहीं सकते, यहाँ बस तुम हार पर मुस्कुरा सकते हो, वही जीत है। जितने दर्द में मुस्करायेंगें, आपकी मुस्कान में उतनी जान होगी। और दर्द नहीं है और मुस्करा रहे हैं, तो थू है ऐसी मुस्कान पर!
मुस्कान वही है जो दर्द से निकले कि जितना गहरा दर्द, उतनी गहरी हमारी मुस्कुराहट। उस मुस्कुराहट की बात दूसरी है। उसको मैं कह रहा हूँ, मर्द की मुस्कुराहट। जिगर चाहिए मुस्कुराने के लिए।
कर्ण मुस्कुराया था वैसे, रथ का पहिया फँसा हुआ है, वो नीचे उतर गया है, पहिया निकालना चाह रहा है, अर्जुन ने गाण्डीव नीचे कर दिया है — युद्ध के नियमों, आदर्शों और धर्म के ख़िलाफ बात है कि सामने वाला योद्धा जब रथ से उतर गया हो तब वार किया जाए — और तभी कर्ण ने देखा कि कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं, ‘अर्जुन! कर्ण को अभी नहीं मार पाया तो कभी नहीं मार पाएगा।' कर्ण मुस्कुराया था!
ज़िन्दगी तू ऐसी ही है। (मुस्कुराते हुए) जीवन भर सूतपुत्र बना कर रखा। जिस युद्ध का बेताबी से इन्तज़ार था, उस युद्ध को लड़ने नहीं दिया। जब तक भीष्म थे उन्होंने कर्ण को मैदान में उतरने नहीं दिया। और अब उतरा हूँ तो यह पहिया। वाह रे कृष्ण! कर्ण मुस्कुराया था। उस मुस्कुराहट में सौन्दर्य होता है।
कोई न कहे कि हम तो बदक़िस्मत हैं, पहली बदक़िस्मती तो यही है कि पैदा हुए; अब कौन सी खुशक़िस्मती तलाश रहे हो भाई? पैदा हो गये हो न, तो मार खाने के लिए ही पैदा हुए हो। अब ताज्जुब मत किया करो, न शिकायत किया करो, पैदा हुए हो तो मार तो पड़ेगी। क्या सोचकर आये थे, संसार खुश होगा, शाबाशी देगा?
कर्ण की बात दूर की लगती है तो पास की बताये देता हूँ। अभी पाँच-दस साल पहले पिक्चर आयी थी रंग दे बसंती, उसमें एक चरित्र था — नाम वगैरह अब याद नहीं है मुझे — तो अन्त में उसे कोई गोली मारता है। अब गोली लगी है, खून बह रहा है, बोलता है, ‘धत्त यार! कुर्ता ख़राब कर दिया।' वो बात मुझे जँची। यह ठीक है! एक तो कुर्ते की बात कि कुर्ता मुझे पसन्द है, कुर्ता ख़राब नहीं होना चाहिए। ‘धत्त यार! कुर्ता ख़राब कर दिया।’ और मुस्कुराया था, गोली लग गयी है, प्राण तो अब जा ही रहे हैं।
समझ में आ रही है बात?
यह नहीं कि हाय! हाय! अरे! मार डाला रे! एम्बुलेंस बुलाओ रे! (श्रोताओं की हँसी) कहा, ‘धत्त यार! कुर्ता ख़राब कर दिया।' बस! “जस की तस धर दीनी चदरिया”। चदरिया नहीं ख़राब होनी चाहिए, प्राण तो जाने ही हैं, गोली लगने से नहीं जाते तो किसी और तरीक़े से जाते; कुर्ता नहीं ख़राब होना चाहिए। चदरिया जैसी लाये थे, वैसी ही वापस छोड़कर जाएँगे। “जस की तस धर दीनी चदरिया"।
तुम्हारी समस्याओं की वजह यह है कि तुम अपनेआप को अमर मानते हो, और जो अमर है उससे तुम्हारा कोई सम्पर्क नहीं है। दोनों तरफ़ ग़लती कर रहे हो। अपनी मृतता को भूले बैठे हो और सत्य की अमरता को भूले हुए हो — अब तक़लीफ तो होगी न।
अब ठीक है, इतना गूगल न करो, कुर्ता नहीं बोला होगा तो जैकेट बोला होगा। चदरिया तो चदरिया है, कुर्ता हो चाहे जैकेट हो (श्रोताओं की हँसी)। बात यह है कि गोली लगी तो मुस्कुराया। ऐसे ही जीना! ज़िन्दगी गोली मारेगी, तुम मुस्कुराना।