प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैंने अपने मन को बहुत टटोला, और पाया कि मेरा मन डरा हुआ है और अपने-आपको हीनता भरी निगाहों से देखता है। मुझे इतना जिस चीज़ ने गिराया है वो है मेरी कामुकता। इस कामुकता ने मुझसे बहुत ग़लत काम करवाए हैं, जिससे मैं अपने-आपको बहुत हीन महसूस करता हूँ। पर जबसे मैं इस शिविर में आया हूँ, मुझपर यह 'काम' हावी नहीं हो रहा है और मैं अच्छे से जी रहा हूँ। अन्यथा तो मुझे यही लगता रहता है कि मैंने इतना ग़लत कुछ किया है कि मेरी तो मौत भी दर्दनाक होगी, परमप्रभु से कुछ छिपा तो है नहीं। हालत मेरी ऐसी है कि मेरे साथ कुछ भी ग़लत हो रहा हो या मेरी तबीयत भी खराब हो, तो मेरे दिमाग में यही आता है कि ये इसलिए हो रहा है क्योंकि मैं दोषी हूँ। मुझे लगता है कि अब ये सब मेरे साथ नहीं तो और किसके साथ होगा। पिछले दो दिन से ऐसा नहीं हुआ। क्या मैं आज की तरह हर दिन जी सकता हूँ?
आचार्य प्रशांत: तुम्हें जो चीज़ खाए ले रही है वो 'प्राकृतिक काम' नहीं है। तुमने बड़ा ज़ोर दिया है शब्द 'कामुकता' पर, जैसे कि 'काम' दोषी हो। समझना बात को, तुममें अगर हीनभावना है, तुम ग्लानि से भरे रहते हो, लगातार दोषी अनुभव करते हो, तो इसका ज़िम्मेदार 'काम' नहीं है। इसका ज़िम्मेदार काम का सामाजिक संस्करण है।
एक तो होता है प्राकृतिक काम, जो प्रकृति में, पौधों में, पशुओं में, यहाँ तक कि नन्हें बालक-बालिकाओं में भी पाया जाता है। उसमें नदी-सा बहाव होता है, वो वैसी ही बात होती है कि जैसे वृक्ष पर पत्ते, फूल आ रहे हों, उसमें किसी ने क्या अपराध कर दिया? 'काम' उसका नाम है, और उसमें कोई दोष, कोई ग्लानि, कोई अपराध वाली बात नहीं है।
उसमें कोई दोष होता, कोई अपराध होता तो परमात्मा तुम्हारे शरीर पर जननांग बनाता ही क्यों, ज़रूरत क्या थी? आँख देता, कान देता, होंठ देता, खाल देता, यौनेन्द्रियाँ क्यों देता? पर परमात्मा ने जैसे तुमको हाथ दिए हैं, पाँव दिए हैं, आँख दिए हैं, कान दिए हैं, वैसे ही जननांग भी दिए हैं, तुम माँगने तो नहीं गए थे। और ना उसने तुमको कामेन्द्रियाँ इसलिए दीं कि तुम विशेष रूप से कुछ अपराधी हो, कि दोषी हो, कि लालसा से भरे हुए हो। ऐसा तो कोई पैदा होता नहीं कि जिसके आँख-कान हों और जननांग ना हों। ऐसा होता है कोई? ऐसा तो कोई होता नहीं।
परमात्मा जैसे ये बख़्श रहा है, हाथ, पाँव, आँख, कान, वैसे ही वो भी बख़्श रहा है। उसमें क्या तुमने गुनाह कर दिया? चूक दूसरी जगह हो रही है, उसपर तुम उंगली नहीं रख पा रहे, उसको समझो ज़रा।
समाज एक साथ तुम पर दो तरह के दबाव बना रहा है। पहले तो वो तुम्हारी वासना को उद्दीप्त कर रहा है, तुम्हारे भीतर काम की आग भड़का रहा है, हज़ार तरीकों से। काम की आग भड़काने का अर्थ यही नहीं होता कि स्त्री के सामने पुरुष के और पुरुष के सामने स्त्री के भड़काऊ, नंगे चित्र, आदि ला कर टाँग दिए गए, घुमा दिए गए, ना, वही बात नहीं होती।
काम का अर्थ होता है कि तुम पदार्थ में आत्मिक तृप्ति खोजने लगे, ये काम की परिभाषा है, समझना बात को। काम का अर्थ ये होता है कि तुम्हें ये लगने लग गया कि तुम्हें दिली-सुकून मिल जाएगा रुपए से, पैसे से, धंधे से, फ़र्नीचर से, सोने से, चाँदी से। और जब इतने तरीके के पदार्थों से तुम मानने लग जाते हो कि आत्मिक शांति मिल जाएगी तो पदार्थों की सूची में एक नाम और जुड़ना तय है, क्या? 'आदमी की देह'।
जब तुम दुनिया में भटक कर हर जगह तृप्ति तलाश रहे हो, भिखारी की तरह माँग रहे हो, “शांति दे दे बाबा, शांति दे दे बाबा।” खंभे से भी माँग रहे हो, कुर्सी से भी माँग रहे हो, कार से भी माँग रहे हो, व्यापार से भी माँग रहे हो, तो ज़ाहिर है कि आदमी की देह से भी माँगोगे-ही-माँगोगे।
एक कार गुज़रती है सामने से, तुम उसको देख कर लालायित हो। कार का दरवाज़ा खुलता है, उसमें से एक स्त्री उतरती है, तुम उसको भी देख कर लालायित हो। उस स्त्री ने सोने के गहने पहन रखे हैं, उन गहनों के प्रति भी तुम लालायित हो। उस स्त्री की समाज में कुछ इज़्ज़त है, उस इज़्ज़त के प्रति भी तुम लालायित हो। ग़ौर से देखना कि तुम मात्र स्त्री की देह के प्रति ही लालायित नहीं हो, तुम्हें उसकी कार, उसके गहने, उसकी इज़्ज़त, सब कुछ आकर्षक लगता है।
कामुकता अध्यात्म की दृष्टि में हर उस लालसा का नाम है जो तुम पदार्थ के प्रति रखते हो, देह भर की बात नहीं है। एकदम बुढ़ा जाओगे तो देह के प्रति आसक्ति खत्म भी हो सकती है, सत्तर के हो गए, अस्सी के हो गए, अब देह बहुत आकर्षक लगेगी नहीं। लेकिन सोना तो अभी भी आकर्षक लगेगा, कि नहीं लगेगा? पदवी, पद, प्रतिष्ठा, ये तो अभी भी आकर्षक लगेंगे। ये भी कामुकता है, इस आदमी को भी तुम काम-लोलुप ही जानना।
तो आदमी के भीतर की जो रिक्तता होती है वो कई रूपों में शांति तलाशती है, वो कई दरवाज़ों पर जा करके भीख माँगती है। इस पूरी प्रक्रिया को व्यापक तौर पर तुम काम का नाम देना। इतना ही नहीं कि जिसको आदमी की या औरत की देह का लालच है वही कामी है, वही भर कामी नहीं है, जिसको ज्ञान का बहुत लालच है वो भी कामी है, जिसे खाने का बहुत लालच है वो भी कामी है।
खोखलापन तो एक है न, तुमने उसको भरने के साधन अलग-अलग कर रखे हैं। कोई कहता है पैंट-शर्ट से भर दूँगा, कोई कहता है कुर्ते-पजामे से भर दूँगा। तुम एक को ही क्यों इल्ज़ाम देना चाहते हो? बात समझ में आ रही है?
यही कारण है कि बहुधा जो कामी आदमी होता है उसको सिर्फ़ देह का नहीं, पचास और चीज़ों का भी लालच होता है। सुनते ही होगे, लोग कहते हैं, “शराब, शबाब, कबाब, सब इकट्ठे चाहिए।" तो शबाब भर नहीं चाहिए, साथ में फिर शराब भी चाहिए और कबाब भी चाहिए, हर चीज़ का लालच है। और देखा नहीं है कि तुम्हें प्रियतमा तो भाती ही है पर अगर श्रृंगार और गहनों से लदी हुई प्रियतमा हो तो और ज़्यादा भाती है।
कभी किसी होर्डिंग पर किसी गहने की दुकान का विज्ञापन देख लेना। ये जो ज्वेलरी की दुकानें होती हैं इनका विज्ञापन कभी ग़ौर से देखना, सड़क किनारे होर्डिंग होते हैं। उनमें तुम्हें दो बातें दिखाई देंगी। एक — गहना, और दूसरी — एक इठलाती-मदमाती कामिनी, और कामिनी अर्धनग्न हो तो फिर बात ही क्या, गहनों की बिक्री चौगुनी हो जानी है। क्योंकि ये दोनों बातें एक साथ जाती हैं, क्योंकि ये दोनों बातें लालच से जुड़ी हुई हैं। तुम्हें इसका भी लालच है और तुम्हें उसका भी लालच है, लालच की बात करो।
तो समाज तुम पर दो-तरफ़ा प्रहार कर रहा है। परमात्मा ने तो तुम्हें जननेन्द्रियाँ भर दी हैं, उनका उत्पीड़न, उनका शोषण समाज कर रहा है दो-तरफ़ा प्रहार कर के। इस दो-तरफ़ा प्रहार को हम समझेंगे।
पहला ये है कि तुम्हारे भीतर लालच तमाम तरीकों से भड़काया जा रहा है। तुमसे कह रहा है, “ये हाँसिल कर लो, वो हाँसिल कर लो, तो जैसे परमात्मा मिल गया।" तुमसे कह रहा है, “तुम्हारे पास ये नहीं या वो नहीं तो तुम्हारी जैसे आत्मा में ही खोट है, छोटी-मोटी नहीं, बड़ी गहरी खोट है।" जैसे तुम जीने के काबिल ही नहीं।
तुम अभी चले जाओ, गली, बाज़ार, मोहल्ले, सड़क, और वहाँ जो मिले उससे कहो, “मुझे ना ज्ञान है, ना भाषा है, ना मेरे पास रिश्तेदारी है, ना पैसा है, ना नौकरी है, ना प्रतिष्ठा है, मेरे पास कुछ नहीं है।" फिर देखो कि तुम्हारी क्या हैसियत रहती है उस आदमी की नज़रों में। मानसिक प्रयोग ही करके देख लो अगर वास्तव में सड़क पर नहीं जाकर कर सकते तो।
मैंने कहा तुम मिलो किसी से, और हो सकता है कि जिससे तुम मिलो वो तुम्हारा कोई बड़ा प्यारा हो, पुराना परिचित हो, और उससे कहो कि "मेरे पास ज्ञान नहीं, पैसा नहीं, ओहदा नहीं, रिश्तेदारी नहीं।" और क्या-क्या चीज़ होते हैं भई? “घर नहीं, गाड़ी नहीं, और सुंदर बीवी नहीं कि पति नहीं।" और, बोलो, किन-किन चीज़ों पर फ़िदा रहते हो? “नौकरी नहीं, और डिग्री नहीं।" और? ये सब उसको बोल दो कि, "भाई यहाँ आना, और, मेरे पास ये-ये नहीं।" दस चीज़ें बता दो कि ये सब नहीं, फिर बताओ कि तुम उसकी नज़र में क्या रह जाओगे?
मज़ाक के तौर पर नहीं, अगर तुमने गंभीरता से ये बोल ही दिया कि ये सब नहीं मेरे पास, तो बताओ क्या बचोगे तुम उसकी दृष्टि में? बोलो जल्दी?
प्र: कुछ नहीं।
आचार्य: इसी से तुम समझ लो कि समाज तुमसे क्या चाहता है। समाज तुमसे चाहता है कि तुम लालची रहो, तुम चीज़ें जुटाओ, तुम संचित करो, तुम वस्तुओं के और संचय के और भोग के पीछे भागो। ठीक है?
अब ये समाज ने तुम्हें खूब सिखा दिया, और ये पैदा होते ही बता दिया, “ये हाँसिल करना, वो हाँसिल करना, पचास बातें हैं तुम्हारे पास जो होनी चाहिए।" और कहने को तुम्हें ये सब इसलिए बताया क्योंकि समाज तुम्हारा हितैषी है। समाज कहता है, “देखो तुम्हारे पास अगर ये सब नहीं है तो ज़िन्दगी जीने के काबिल नहीं रह जाएगी। तो जाओ और इकठ्ठा करो जल्दी से।" और तुम इकट्ठा ना करो तो पीछे से वो फिर चाभी भी भरेंगे, डंडा भी मारेंगे, भावुक हो कर के दलीलें और दुहाइयाँ भी देंगे कि, “हमारी ख़ातिर कुछ कर के दिखा दे बेटा, एक बार को हमें भी फ़क्र हो जाए कि हमारी औलाद है।"
तो एक तरफ तो तुम्हें खौलाया जा रहा है। तुम्हारे भीतर कामना और वासना भड़काई जा रही है, कि जाओ और हाँसिल करो। बच्चा छोटा सा है, माँ उससे बोल रही है, “तेरे लिए चाँद-सी राजकुमारी लाऊँगी।" अब वो इतना छोटा है, अभी उसको ये सब खयाल भी नहीं कि राजकुमार, कि राजकुमारी, कि राजकुमारी का चाँद-सा चेहरा, पर माँ खुद उसमें वासना उद्वेलित कर रही है। और पड़ोस में कहीं शादी हो रही है तो दादी बोल रही है, “मैं अपने छौने की भी ऐसे ही शादी करूँगी। सोने के उड़ने वाले घोड़े पर सवार हो कर आएगा मेरा बेटा अपनी दुल्हनिया उठाने।" बेटा ये सब सुन रहा है और ये सब सुनते-सुनते वो बड़ा भी हुआ जा रहा है।
तो तुम्हें आँच दी जा रही है, तुम्हें उत्तेजित किया जा रहा है। तुम फ़िल्म देखने जाते हो, फ़िल्म का निर्माता-निर्देशक बखूबी जानता है कि फ़िल्म चलानी कैसे है, तुम्हारी वासना को थोड़ा-सा भड़काना भर है और चल जाएगी। दो ही काम करने होते हैं, एक — तुम्हें उत्तेजित कर दिया जाए, दूसरा — तुम्हारे आँसू छलका दिए जाएँ, और जो ये तुम्हारे साथ कर सके, तुम उसके ग़ुलाम हो गए।
तुम दो के तुरंत ग़ुलाम हो जाते हो, पहला वो जो तुम्हें रुला दे, जिसके पास तुम्हारी भावुकता की चाभी हो, कि चाभी घुमाई नहीं और तुम रो पड़े। और दूसरा तुम उसके ग़ुलाम हो जाते हो जिसको देख कर तुममें उत्तेजना दौड़ जाए। और फ़िल्में देखने जाओ, फ़िल्मों में दोनों चीज़ रहती हैं, कभी खुशी, कभी ग़म। एक ओर तो तुम्हें रुलाया जा रहा है और दूसरी तरफ़ तुम्हें तपाया जा रहा है, दोनों काम हो रहे हैं एक साथ, अब तुम पकड़ में आ चुके हो, भागोगे कैसे?
टीवी खोलते हो, वहाँ विज्ञापन भी आ रहा है तो वो इसीलिए आ रहा है कि तुममें वासना भड़काए। पुरुषों के सेफ्टी रेज़र का विज्ञापन है, और उसको लेकर कौन घूम रही है? कमसिन हसीना, वो क्या करेगी उसका? और तुमने देखा नहीं और तुम भाग पड़ते हो बिलकुल, कि यही खरीद लें अभी।
ये पहला प्रभाव है समाज का — व्यक्ति को खौला दो, व्यक्ति में वासना का संचार कर दो, व्यक्ति को खूब लालच दे दो। एक तरफ तो इसमें नीयत ये है कि इससे व्यक्ति की तरक्की होगी और दूसरी तरफ नीयत इसमें ये भी है कि जिसको तुमने लालची बना दिया, वो तुम्हारे वश में आ गया। समझो बात को, जिस आदमी में लालच नहीं, वो किसी का ग़ुलाम नहीं हो सकता, और जिस आदमी के भीतर तुमने लालच दौड़ा दिया, अब वो बड़ी आसानी से तुम्हारे काबू में आ जाएगा।
समाज के पास ये दोनों ही प्रेरणाएँ हैं। जब उसकी नीयत भली होती है तो कहता है, “देखो इसको लालच देना ज़रूरी है, नहीं तो ये तरक़्क़ी ही नहीं करेगा।" और जब उसकी नीयत बुरी होती है तो कहता है, “देखो लालच देना ज़रूरी है, नहीं तो ये बस में नहीं आएगा।" और दोनों ही नीयतों से अभिप्रेरित होकर तुम्हें खौलाया जाता है, तुम्हें ताप दिया जाता है।
अब समाज ने ये कर तो दिया कि तुम्हें खौला दिया, लेकिन उसका नतीजा क्या होता है? उसका नतीजा होता है 'अराजकता'। अब सबको चाहिए खूब सारा पैसा, और पैसा ही अगर मंतव्य है तो मारामारी मच जाती है, खून-खच्चर हो जाता है। पैसा ही अगर चाहिए तो कैसे भी लाओ पैसा। सबको ही चाहिए रूपवती स्त्री, तो औरत के पीछे फ़िर क़त्ल हो जाते हैं।
ये पहले प्रभाव का नतीजा निकलता है। तो फिर समाज को तुम पर एक दूसरा प्रभाव लाना पड़ता है, वो प्रभाव क्या है? 'नैतिकता'। फिर समाज तुम्हें ये भी बताता है — क्या सही है, क्या ग़लत है।
पहले तो वो तुम्हें बताएगा कि, “जाओ, स्त्री हाँसिल करो।” हज़ार तरीकों से तुम्हें उत्तेजित करेगा, चाभी भरेगा, और फिर तुम्हें ये भी बताएगा, “देखो सिर्फ़ कुछ बँधे-बँधाए तरीके हैं जिनसे स्त्री को हाँसिल करना, ज़ोर-ज़बरदस्ती मत करना। जैसे हम तुम्हें ललचवा रहे हैं तुम भी उसे ललचाना, ताकि वो अपनी सहमति से आ जाए तुम्हारे पास।"
और फ़िर पचास और शर्तें लगाई जाती हैं तुम्हारे ऊपर। तुम उन शर्तों का पालन ना करो तो तुम अनैतिक घोषित हो जाते हो, तुम्हें कारावास भी हो सकता है। कारावास नहीं भी होगा तो तुम समाज की नज़रों से गिरोगे।
अब ये बड़ी अजीब हालत है तुम्हारी। तुम एक विद्यालय में पढ़ रहे हो जहाँ तुम्हें बताया जा रहा है, “शराब पीना बुरी बात है।" वो विद्यालय कौन संचालित कर रहा है? समाज। और ये सामाजिक मूल्य हैं जो विद्यालय के माध्यम से तुम तक पहुँच रहे हैं। समाज का ही शिक्षक है जो तुमको विद्यालय में पढ़ा रहा है "शराब पीना बुरी बात है।" और तुम अपनी शाला से बाहर निकलते हो, दो-चार किलोमीटर आगे बढ़ते हो, और तुम्हें दिखाई देते हैं शराब के ठेके। और उन शराब के ठेकों को भी कौन चलवा रहा है? समाज।
अब समाज तुम पर ये दो-तरफ़ा वार कर रहा है। एक तरफ़ तुममें आग लगाई जा रही है कि पियो और दूसरी तरफ तुम्हें पीने नहीं दिया जा रहा ये कह कर कि, “शराब पीना बुरी बात है।" अगर शराब पीना बुरी बात है, तो वो ठेका क्या कर रहा है सड़क पर? अगर कामवासना बुरी बात, तो टीवी पर वो सब इतराती, फुसलाती क्यों नाच रही हैं? वो ज्ञान तो नहीं दे रहीं, वो बोध या मुक्ति तो नहीं दे रहीं, वो प्रेमवश तो नहीं नृत्य कर रहीं। उनके नाचने का तो एक ही प्रयोजन है, क्या? कि तुम्हें पकड़ लें, तुममें वासना संचारित कर दें।
अब तुम फँसे, बच्चू तुम फँसे। तुम्हारी हालत अब हो गई है प्रेशर कुकर जैसी, नीचे से लगा दी गई है आग, और ऊपर से दे दिया गया है ढक्कन। आग भी लगातार है, तुम आग से बच कर नहीं भाग सकते। बाज़ार में जाओगे, वहाँ बाज़ार तुमको पकड़ कर रखे हुए है। घर में आओगे, टेलीविज़न , फ़ोन खोलोगे तो फ़ोन में भी वही घुसे हुए हैं, टीवी खोलोगे तो टीवी , गली-मोहल्ले को देखो, हर तरफ़ से तुमको आग दी जा रही है, और साथ-ही-साथ फिर पुजारी और पुलिस की गश्त भी है।
पुजारी सूक्ष्म बल का प्रयोग करके तुमको काबू में रखना चाहता है, आग को दबाना चाहता है। पुजारी तुमसे बोलता है, “ग़लत काम करोगे तो परमात्मा सज़ा देगा।" और पुलिस स्थूल बल का प्रयोग करके तुम्हें दबाए रखना चाहती है, पुलिस कहती है, “ग़लत काम करोगे तो कानून सज़ा देगा।" तुम्हें उत्तेजित किया जा रहा है एक काम करने को और फिर तुमसे कहा जा रहा है, “ये काम करोगे तो सज़ा मिलेगी।" तुम्हें पूरे तरीके से उत्तेजित किया जा रहा है कि ये काम करो।
टीवी खोलते हो, वहाँ आता है, 'करो' और जैसे करने निकलते हो तो मंदिर का घंटा सुनाई देता है और तुम काँप जाते हो, “अरे बाप रे, कैसे करें, सज़ा मिल जाएगी।” और फिर कहते हो, "भक, कोई परमात्मा-वरमात्मा होता नहीं, कोई नहीं देख रहा, कर ही डालते हैं आज।” तभी पुलिस की गाड़ी दिखाई देती है गश्त करती हुई, और फिर तुम काँप जाते हो कि “अरे कैसे करें भई?” और काँप कर फिर घर के अंदर घुसते हो, घर के अंदर फिर टीवी खोलते हो, वहाँ फिर रूपिणी अपने जाल फैलाए बैठी है तुमपर, और फिर तुम कहते हो, “अरे निकलते हैं आज कर ही डालते हैं।”
अब ये तुम्हारी हालत है, तपाए भी जा रहे हो और सीटी भी नहीं मार सकते। कूकर को तो वो सुविधा उपलब्ध है, तुम सीटी मारोगे तो जेल जाओगे कि, “छेड़ रहा था।" तो अब तुम्हारा क्या होगा? तुम्हारा यही होगा कि दबाव बढ़ता जाएगा, बढ़ता जाएगा, बढ़ता जाएगा और तुम फटोगे।
फटना भी दो किस्म का होता है। एक होता है स्थूल-किस्म का फटना, उस स्थूल-किस्म के फटने से बलात्कारी पैदा होते हैं। कि जिनको तुमने इतनी उत्तेजना दी, इतनी उत्तेजना दी कि वो सँभाल ही नहीं पाए और फट पड़े। ऐसा फटे, दूसरे को तो नर्क में ढकेला ही, आत्महंता भी बने। दूसरे को तो महा-दुःख दिया ही, अपना तो जीवन ही नष्ट कर लिया।
और एक होता है सूक्ष्म फटना। सूक्ष्म फटना ये होता है कि जैसे तुम्हारा मस्तिष्क भीतर से फट गया हो, बाहर से किसी को पता नहीं चलेगा, पर भीतर-ही-भीतर तुममें विस्फोट हुए जा रहे हैं। तुम पगला गए, तुम अवसाद में चले गए हो। तुम्हें पता भी नहीं है कि तुम उत्तेजित हो या अवसाद में हो। तुम कभी ऊपर जाते हो, कभी नीचे आते हो। कभी तुम्हारा मन करता है कि उठें ही ना, इसी बिस्तर पर कब्र बन जाए और कभी तुम्हारा मन करता है कि कोई मिल जाए तो आज बिस्तर ही तोड़ डालें। तुम्हें समझ में ही नहीं आता कि तुम्हारी हालत क्या है।
दोष इसमें 'नैसर्गिक काम' का नहीं है, दोष इसमें इस बात का है कि तुम होश में नहीं जी रहे हो। तुम होश में नहीं जी रहे हो, तुम किसी को भी अनुमति दे दे रहे हो कि आओ और मुझपर छाओ। कोई फ़िल्म रिलीज़ होती है, पाँच वेबसाइट पर उसका रिव्यू आ जाता है। कोई चार सितारे दे रहा है, कोई साढ़े-चार सितारे दे रहा है, कोई तीन दे रहा है, तुम भी कतार में लग जाते हो, “हम भी देखेंगे।” तुम क्यों पहुँच गए देखने? जबकि तुम भलीभाँति जानते हो कि जिन महानुभाव ने उस फ़िल्म का निर्माण किया है उनकी जाति क्या है। और जाति से मेरा अर्थ जन्मगत जाति नहीं है, मन की जाति है। तुम भलीभाँति जानते हो वो किस प्रकार के श्रीमान हैं, किस प्रकार के उत्पाद उनकी फैक्ट्री से निकलते हैं।
और तुम पहुँच गए, तुम पहुँच गए कि, “आ गया हूँ मैं, मुझे गंदा करो, मेरे मन को और कीचड़ से भर दो, मुझे ज़हर पिलाओ।" तुमसे किसने कहा ये करने को? हर घर में टीवी होता है तो तुम्हारे पास भी होना चाहिए, तो तुमने भी ला करके एक टाँग दिया, “ये लो, ये परमात्मा टाँग दिया दीवार पर।" और परमात्मा टँगे हैं तो उनकी रोज़ रात पूजा भी होगी, तो सात बजे से लेकर बारह बजे तक वो चलेगा भी। नित्यता इसी को तो कहते हैं कि जो कभी ख़त्म ना हो, नित्यता का दूसरा नाम है 'टेलीविजन ’, उसका कोई अंत नहीं होता।
एक तो है जिसका नाम ही है 'चौबीस-गुणे-सात', नित्य पूरा, परमात्मा की तरह अनंत। और तुम उसको देखे जा रहे हो, देखे जा रहे हो। जैसे कोई भक्त भगवान को देखता है, वैसे तुम टीवी देख रहे हो, 'अहाहा'। और वहाँ से हर प्रकार का मल बह रहा है और तुम उसको पी रहे हो, पी रहे हो, पी रहे हो। तुमसे किसने कहा ये करने को? फिर तुम उन्हीं के नक्शे कदम पर चल रहे हो, उन्हीं के इशारे पर नाच रहे हो। तुमसे किसने कहा कि तुम ये होने दो?
दुनिया जिनको अपना नेता मानती है, जिनको अपना आदर्श मानती है, तुमने भी उनको तुरंत अपना आदर्श बना लिया। “हाँ, फलाना बड़ी कंपनी का मालिक है, वो मेरा भी आदर्श हो गया। फलाने के यूट्यूब पर दस-लाख अनुयाई हैं तो मैं भी जल्दी से सब्सक्राइब दबा ही दूँ, मैं ना चूक जाऊँ कहीं।" यहाँ पर चूक रहे हो।
काम नहीं ग़लत है, मलिन काम ग़लत है, ग़ुलाम काम ग़लत है, बहका हुआ काम ग़लत है, शोषित काम ग़लत है, अंधा काम ग़लत है। और तुमने अपनी जो कहानी लिखी है उसमें दोनों तत्व मौजूद हैं, एक तरफ तो तुम्हारा घोड़ा बेलगाम है, पकड़ में ही नहीं आता। और दूसरी तरफ उस घोड़े को लेकर के तुममें घोर ग्लानि है, “मेरा घोड़ा ऐसा दौड़ा।” और ये सब लिखने के बाद ये ना सोचना कि लगाम कस पाओगे, उस घोड़े पर ऐसे नहीं कसी जाती लगाम, कि ज़िन्दगी जैसी चल रही है वैसी ही चलती रहे, बस कामुकता कम हो जाए, ये कभी नहीं होगा।
जिन्हें कामुकता की बीमारी हो, कि पगलाए हुए हैं, स्त्री देह के ऐसे अनुरागी हैं कि दिमाग से ही नहीं उतरती, हर समय आँखों के सामने बस वासना नाचती है, और बहुत हैं जिन्हें ये बीमारी है। उनको मैं उपचार बताए दे रहा हूँ - स्त्री से मत लड़ो, वासना से मत लड़ो, अपनी ग़ुलामी से लड़ो। तुम पैसे के जब तक ग़ुलाम हो, तुम सामाजिक संस्थाओं के जब तक ग़ुलाम हो, तब तक वो सब तुमसे ये नाच नचवाते ही रहेंगे।
यही कारण है कि जिन्हें ब्रह्म की उपलब्धि होती है, वो काम के भी मालिक बन जाते हैं। इसीलिए ये रिश्ता बैठा कि जो ब्रह्मचारी होता है उसे कामवासना, आदमी औरत की देह, खींच नहीं पाती। रिश्ता समझना अच्छे से, क्योंकि अब वो ब्रह्म में चर्या करता है, अब उसका मालिक बस एक है, अब दुनिया उसकी मालिक नहीं है। जब दुनिया उसकी मालिक नहीं है तो फिर दुनिया उसे तमाम तरीकों से ललचा और नचा नहीं पाएगी। ये है ब्रह्मचर्य का असली मतलब।
ब्रह्म को मालिक बना लो, दुनिया में जो तुमने हज़ार मालिक खड़े कर रखे हैं उनसे आज़ादी पाओ, अपने-आप जिस ग्लानि में पड़े हो वो ग्लानि हट जाएगी।
अभी तो अपनी हालत देखो न, तुम जिस औरत के पीछे भागते हो उसके प्रति तो तुममें प्रेम भी नहीं होता। प्रेम हो और प्रेमवश तुम किसी से जुड़े फिरो, आशिक़ी का नाता हो जाए किसी से, तो अच्छा है, बढ़िया है, क्या बुराई हो गई? लेकिन तुम्हारी तो कामुकता जिसको देख कर भड़कती है, उससे तो तुम्हें प्यार भी नहीं होता। कई बार तो कामुकता भड़काने वाला जानता है कि वो तुम्हारे पास आ ही इसीलिए रहा है कि तुमको भड़का दे, और तुम भड़क गए, और उसके पीछे-पीछे लग लिए। ये कामुकता कम है ग़ुलामी ज़्यादा है, देखो तो सही।
जैसे कोई भी तुम्हारा गियर बदलना जानता हो, पकड़ा और बदल दिया। इधर दबाओ क्लच , हाथ में लो गियर और 'खटक', और तुम चल पड़े। आदमी हो कि मशीन हो?
प्रेम हो जाए और प्रेमवश तुम खिंचे चले जाओ किसी की ओर, कुछ बुरा नहीं हो गया, बिलकुल बुरा नहीं हो गया। पर तुम तो जिसकी ओर जाते हो, देखो न कैसे जाते हो, घिनौनी बात होती है। घिनौना क्यों कह रहा हूँ, क्योंकि अगर तुम्हें वो नहीं मिला जो तुम चाहते हो तो तुम्हें तड़प होगी और क्रोध आएगा, और अगर तुम्हें वो मिल गया जो तुम चाहते हो तो तुम बस इस्तेमाल करके छोड़ दोगे। और तो कोई नाता है नहीं, भोगने ही तो जाते हो, प्रयोग करने ही तो जाते हो कि इस्तेमाल कर लें और फिर फेंक आएँ, इसलिए घिनौना है।
आदमी और औरत में स्वस्थ सम्बन्ध संभव है और स्वस्थ संबंधों का एक बहुत छोटा-सा हिस्सा होते हैं काम-संबंध भी, शारीरिक, दैहिक-संबंध भी। बहुत छोटा-सा हिस्सा, वैसे जैसे कोई अगर अच्छा खाना बनाना जानता हो तो उसमें फिर थोड़ा सा तेल और घी भी डालता है, और कोई तुम्हें ऐसा खाना खिला दे जो तेल-ही-तेल हो, तो? खाने के नाम पर सिर्फ़ तेल पी रहे हो, फिर? जियोगे कि मरोगे?
स्वस्थ संबंधों में 'काम' वैसे ही मौजूद रहता है जैसे कि स्वस्थ भोजन में, स्वास्थ्यप्रद भोजन में तेल, बस उतना सा, और फिर उसमें कोई बुराई नहीं। समझ रहे हो बात को?
सब्ज़ी पहले है, तरकारी पहले है फिर उसमें ज़रा सा तेल, और कई बार तेल ना हो तो भी काम चल जाता है, उबाल कर, भून कर खा लिया। उसका भी अपना मज़ा है। सब्ज़ी बिना तेल की हो तो चल जाएगी, तेल बिना सब्ज़ी का हुआ तो?
कहीं घर जाओ, पूछो, “आज क्या बना है?” और जवाब में आए 'तेल'। ऐसी तुम्हारी ख़ुराक है, क्या हालत होगी फिर? तेल-ही-तेल के आँसू आएँगे, कि रिश्ते का आधार ही 'काम' है। सब्ज़ी ही तेल की बनी है, फिर नाम के लिए उसमें आलू की एक फाँक डाल दी। तो ऐसे हमारे रिश्ते होते हैं कि उनका आधार है काम, और काम के कर्म में उद्यत होने से पहले ये भी बोल दिया, “डार्लिंग, आइ लव यू * ”, आलू तैरा दिया थोड़ा-सा। और कई बार तो वो भी बोलना भूल गए। औपचारिकता थी, क्या रखा है, असली चीज़ तो दूसरी है। “खोलो रे तेल का पीपा, * आई लव यू, आइ लव यू बेकार की बात।“ आ रही है बात समझ में?
होश भरी ज़िन्दगी जिओ। तुम्हारी ऊर्जा लगनी चाहिए किसी सत्कार्य में, तुम्हारी ऊर्जा बहनी चाहिए सत्य की ओर, परमात्मा की ओर। जब ऊर्जा उधर को नहीं बहती है तब ऊर्जा बेकाबू होकर के, पागल होकर के पचास अन्य दिशाओं में बहती है। यही वजह है कि तुमने लिखा है कि जब से शिविर में आए हो तब से कामुकता का हमला तुमपर ज़रा कम है। कामुकता का हमला तुमपर अभी भी उतना ही है, तुम अब कामुकता के लिए उपलब्ध नहीं हो, समझो बात को।
तुम उपलब्ध नहीं हो, तुम कहीं और चले गए हो, तुम्हारा ध्यान कहीं और चला गया है, तुम्हारी ऊर्जा किसी और को समर्पित हो गई है, किसको? (आसमान की ओर इशारा करते हुए) उसको। तो काम आकर दस्तक दे रहा है, तुम घर में हो ही नहीं, तुम घर में हो ही नहीं इसीलिए पकड़े नहीं जा रहे हो। तुम कहाँ हो? तुम (आसमान की ओर इशारा करते हुए) वहाँ हो।
जो वहाँ है उसको इनाम ही यही मिलता है कि नीचे के तमाम झंझटों से बच जाता है। काम आता है, दस्तक देता है, भीतर से जवाब आता ही नहीं, या बाहर तख़्ती लगी होती है, क्या? या तो 'डू नॉट डिस्टर्ब ' या फिर 'आउट '। होता है न, इन-आउट , अंदर-बाहर? तो आगंतुक को क्या दिखाई देता है? 'बाहर', 'ये हैं ही नहीं', वो निराश होकर लौटता है, कहता है, “भक, ये आजकल लगता है कोई और पेशा पा गया है, गायब ही रहता है।"
तुम गायब रहो, उसी अनुपस्थिति को आध्यात्मिकता कहते हैं। संसार के प्रति गायब रहो, वो आए दस्तक दे, तुम कहीं और थे, तुम मिले ही नहीं, पकड़े ही नहीं गए। यही तरीका है एकमात्र, नहीं तो दुनिया, बेटा नचा-नचा कर मारेगी। शोले देखी है न? बोतल तोड़ दी जाती है, काँच बिखरा दिया जाता है, और फिर कहते हैं, “नाच बसंती नाच।” दो-तरफ़ा प्रभाव है, पहले तो कहा जा रहा है 'नाच', और साथ-ही-साथ बिखरा दिए गए हैं काँच। यही हाल कर रहा है ज़माना तुम्हारा, भूलना मत।
ना तो वो तुमको रुकने देगा, ना काँच हटाएगा। नाचने से रुके अगर तो जय-वीरू गए, और काँच हटाए नहीं जाएँगे। अब तुम नाच भी रहे हो और घायल भी हो रहे हो, खून-ही-खून हो गया है, वही तुम्हारी हालत है, वो खून तुम्हारे लफ़्ज़ों में दिखाई दे रहा है।
तुम पकड़े ही मत जाओ, तुम बोलो, “चल धन्नो।” पकड़े गए तो वही होगा कि नाच और काँच। पकड़े जाओ ही मत, तुम अनुपस्थित रहो। जब आएँ गब्बर के दूत, तुम मिलो ही मत। बात आ रही है समझ में?
तुम मिलना मत, तुम (आसमान की ओर इशारा करते हुए) वहाँ रहना। वहाँ रहने के तरीके, वहाँ रहने के साधन, बहुत तुमको इसी शिविर में मिले जा रहे हैं। खाली बैठना मत।
तुम्हारी ऊर्जा, तुम्हारा समय, ये तुम्हारा नहीं है, इसको उसी की सेवा में लगाओ जिसने तुम्हें ये दिया है। एक-एक दिन जो तुम्हें मिला है, उसपर अपना व्यक्तिगत हक़ मत समझ लेना। वो तुम्हें इसलिए मिला है ताकि तुम उसे किसीकी सेवा में अर्पित कर सको। तुमने अगर उसे उसी की सेवा में अर्पित नहीं किया तो सज़ा मिलेगी, और सज़ा फिर वही है जो तुमने लिखी है अपनी हालत। तुम्हारी हालत ही वही सज़ा है।
दिन जिसने दिया, दिन को उसी की सेवा में गुज़ारो। हाथ जिसने दिए, हाथों को उसी के सामने जोड़ो। सर जिसने दिया, सर को उसी के सामने झुका दो। पाँव जिसने दिए, पाँवों से चल कर उसी की ओर जाओ। मन जिसने दिया, मन को मात्र उसी की ओर उन्मुख करो। यही शरीर का और मन का एकमात्र सदुपयोग है। ये नहीं करोगे तो सज़ा मिलेगी। ठीक है?
और सज़ा जिन्हें भी हो गई हो ज़िन्दगी, वो जान लें अच्छे से कि उन्होंने वही भूल करी है मैं जिसकी बात कर रहा हूँ। क्या भूल? कि हाथ मिले थे जोड़ने के लिए और तुमने हाथों का कुछ और इस्तेमाल कर लिया, पाँव मिले थे उस तक जाने के लिए और तुमने पाँवों का कुछ और इस्तेमाल कर लिया, होंठ मिले थे उसके गीत गाने के लिए और तुमने होंठो का कोई और इस्तेमाल कर लिया, बुद्धि मिली थी उसको गुनने के लिए और तुमने बुद्धि का कोई और इस्तेमाल कर लिया। नतीजा? ज़िन्दगी बन गई सज़ा। कोई भी अगर तुम्हें सज़ा मिली है ज़िन्दगी में तो यही कारण जान लो।
आसपास के लोग थे कुछ, मैंने देखा इनकी ज़ुबान से फ़िल्मी गीत उतर ही नहीं रहे हैं। तो फिर एक कार्यक्रम शुरू किया गया, 'स्टूडियो कबीर', उसमें हफ़्ते में दो-बार, तीन-बार लोग मिलते हैं, और कबीर-ही-कबीर गाते हैं, पूरे मन से गाते हैं। अब दो-चार महीने हो गए हैं इस उपक्रम को शुरू करे, और नतीजा ये निकला है कि फ़िल्मी गीत जो ज़बान पर चढ़े थे वो उतरने लगे हैं।
जो लोग नियमित हैं 'स्टूडियो कबीर' के सत्रों में, वो स्वयं ही कहते हैं कि “अब हम भजन ही गुनगुनाते रहते हैं। पहले जैसे फ़िल्मी धुन चढ़ी रहती थी, अब राम-धुन चढ़ी रहती है। उठते-बैठते, आते-जाते, कबीर, कबीर, कबीर।" और फिर कबीर के साथ बुल्लेशाह भी आ गए, मीरा भी आ गईं, बात आगे बढ़ गई है। बात समझ रहे हो?
तुम्हें यहाँ के गीतों ने घेर रखा था, बचने का एक ही तरीका था कि तुम (आसमान की ओर इशारा करते हुए) वहाँ के गीत गाने शुरू कर दो। अब यहाँ के गीत हटे, गए, और वहाँ के गीत तुमने गाने बंद किए नहीं कि नतीजा क्या निकलेगा, यहाँ के गीत गर्दन पकड़ लेंगे। तुम चाहो कि वहाँ के ना गाओ और यहाँ के छूट जाएँ, ऐसा होगा नहीं। यहाँ से छूटने का तो एक ही तरीका है, वहाँ के गाने शुरू कर दो।