गुणविगुणविभागो वर्तते नैव किञ्चित्
रतिविरतिविहीनं निर्मलं निष्प्रपञ्चम् ।
गुणविगुणविहीनं व्यापकं विश्वरूपं
कथमहमिह वन्दे व्योमरूपं शिवं वै ।।
-अवधूत गीता, तृतीयोऽध्याय, श्लोक १
अनुवाद:
गुण और अवगुण का विभाजन ब्रह्म में पूरी तरह से अनुपस्थित है। ब्रह्म शुद्ध, अव्यक्त और राग और वैराग्य से रहित है। मैं कैसे उस सर्वोच्च परमगति (व्योमरूपी शिव) की पूजा कर सकता हूँ जो कि गुण-अवगुण से विहीन है और सर्वव्यापी है?
The division of merit and demerit is completely absent in Brahm. Brahm is pure, unmanifested and devoid of passion and dispassion. How can I worship that infinite supreme beatitude which is neither with attributes nor without attributes and is all pervading and omnipresent?
वक्ता: ब्रह्म जहाँ कहीं भी कहा गया है, उसकी जगह तत् ही कह दिया जाए तो ज़्यादा अच्छा है।
श्रोता १: तत्?
वक्ता: तत् – इट (वह)।
ध्यान देना ब्रह्म शब्द का प्रयोग इसमें तो नहीं हुआ है। ठीक है? यह अनुवाद में तत् को ब्रह्म कर दिया गया है।
न गुण हैं वहाँ, न अवगुण हैं, न कुछ अच्छा है, न कुछ बुरा है। जो कुछ भी अच्छा कह सकते हो या बुरा कह सकते हो; जो कुछ भी अच्छा कह सकते हो या बुरा कह सकते हो, वो कहाँ है?
श्रोता: मन में।
वक्ता: वो मन में है। उसको कभी अच्छे का विपरीत या बुरे का विपरीत मत मान लेना कि बुरा-बुरा मन और अच्छा-अच्छा ब्रह्म। यह ख्याल बिल्कुल भी ना आ जाए। जो अशांत है, वो क्या है? मन। और ब्रह्म में क्या है? गहरी शांति। और यह बात बड़ी चलन में लगती है। सुनने में बढ़िया लगती है कि हाँ शायद ठीक ही होगी।
बंधन कहाँ है? मन में। और ब्रह्म का क्या स्वभाव है? मुक्त। द्वेष, कलह, नफ़रत, यह सब कहाँ हैं? मन में। और परम-प्रेम किसका स्वभाव है? आत्मन का, ब्रह्म का।
यह बातें सतही तौर पर सुनने में अच्छी लगती हैं, पर यह अवधूत गीता है। यह तलवार है। यह गहराई से काट करेगी। सिर्फ़ सतह पर खुजली नहीं करेगी। हमने यह भी सुना हुआ है, कहा हुआ है, कि जो हम हैं, इसको सेल्फ़ कह लो, आत्म कह लो। उसका स्वभाव है सत्-चित्त-आनंद; सत्य, मुक्ति, प्रेम। ठीक है? यह सब विशेषण, उपाधियाँ, मन के साथ तो संयुक्त की जा सकती हैं। किस मन के साथ? जो अपने स्रोत में डूबा हुआ है। यह मन का स्वभाव है। यह मन की उपाधियाँ हैं। यह उसकी नहीं हैं। उसकी मानें?
श्रोता: तत्, इट (वह)।
वक्ता: जो है, जो है। इट (वह), दैट (वह), जो भी बोलना चाहो। उसकी नहीं हैं यह उपाधियाँ। बात समझ में आ रही है? सेल्फ (आत्म) को माइंड (मन) का विपरीत मत समझ लेना। और हम समझते हैं। यह बात इसीलिए मैं दस बार बोलूँगा। कि मन अशांत रहता है और वहां पर गहरी शान्ति है। बंधन भी कहाँ है?
श्रोता: मन में।
वक्ता: और मुक्ति भी कहाँ है?
श्रोता: मन में।
वक्ता: वहाँ, न बंधन है, न मुक्ति है। हम कहते हैं कि सारे अवगुण मन में हैं और वही मन जब शुद्ध हो जाता है तो निर्मलता आ जाती है।
मल भी निर्मल होता है क्योंकि मन ही मलिन हो सकता है। मात्र मन ही निर्मल हो सकता है क्योंकि मन ही मलिन हो सकता है। वो जो है, न निर्मल है, न मलिन है।
श्रोता २: उसको वैक्यूम (शून्यक) बोल सकते हैं फिर?
वक्ता: वैक्यूम (शून्यक), तो कुछ होने का अभाव है। वैक्यूम (शून्यक) फिर निर्भर हो गया किसी पर। द्वैत के भीतर ही है। (दोहराते हुए) द्वैत के भीतर ही है। न आप यह कह सकते हैं कि वो कुछ नहीं है, न आप यह कह सकते हैं कि वो कुछ है। यहाँ पर सतही बातें बिलकुल नहीं चलेंगी कि कह दिया कि वो परम शून्य है। ना, न वो भरा हुआ है, न वो शून्य है। न वो भरा हुआ है, न वो शून्य है, क्योंकि, भरा हुआ होना और खाली होना – वोइड (शून्य) होना – यह दोनों तो एक दूसरे के परिपूरक हैं।
न भरा है, न खाली है।
जितना तुम उसके बारे में बात करते हो, जितना हमने समझा है, वो सिर्फ़ और सिर्फ़ कांसेपचुअलाईज़ेशन (संकल्पना) है। हम उसको विचार के दायरे में, कॉन्सेप्ट्स (अवधारणाओं) के दायरे में कैद करने की कोशिश करते हैं। उसको! जो दायरों में कैद किया जा नहीं सकता। जो न दायरों के अन्दर है, न बाहर है, इसीलिए न कैद किया जा सकता है, न कैद नहीं किया जा सकता है।
श्रोता ३: सर, इसको ऐसे कह सकते हैं जो उसमें था, केनोपनिषद में, कि मन के पीछे जो है, और आँख के पीछे जो है, उसमें भी हम यह ही कह रहे थे कि वो परिभाषाओं के परे है।
वक्ता: यह केन् से आगे जाएगी बात आज। वो मन के सिर्फ पीछे ही नहीं है, वो आँख के सिर्फ पीछे ही नहीं है, वो आँख में बैठा भी हुआ है।
श्रोता ३: आँख वही है।
वक्ता: वो ज़मीन के सिर्फ नीचे ही नहीं है, ज़मीन के ऊपर भी है। आँख के पीछे ही भर नहीं खड़ा है, वो आँख ही है।
श्रोता ४: सर, यही अंतर है तत् और ब्रह्म में? या एक सा ही है?
वक्ता: एक ही बात है। तत् ब्रह्म ही है। लेकिन जब तुम ब्रह्म कहते हो तो तुम उसकी भी एक छवि बना लेते हो। उसको भी तुम छवि के दायरे में, संकल्पना के दायरे में कैद कर ही लेते हो। समझ रहे हो बात को? अब जैसे केनोपनिषद हम कर रहे थे, तो केनोपनिषद ने कहा था – तदैव त्वं ब्रह्म विद्धि नादि यदिद्म उपासते। याद है? ‘उसको ही तुम ब्रह्म जानो, उसको नहीं जिसकी यह सब उपासना करते हैं’। अवधूत गीता उससे एक कदम और आगे खड़ी है। यह कह रही है किसी की भी उपासना की ही नहीं जा सकती, क्योंकि जिसकी भी तुम उपासना करोगे, वो झूठा ही होगा। कुछ न कुछ उपासना का तुम केंद्र बनाओगे और वो केंद्र झूठा ही होगा। मानसिक केंद्र होगा। और कोई केंद्र हो भी नहीं सकता।
(श्लोक पढ़ते हुए)
गुणविगुणविहीनं व्यापकं विश्वरूपं
कथमहमिह वन्दे व्योमरूपं शिवं वै ।।
मैं कैसे उस सर्वोच्च परमगति (व्योमरूपी शिव) की पूजा कर सकता हूँ जो कि गुण-अवगुण से विहीन है और सर्वव्यापी है?
How can I worship that infinite supreme beatitude which is neither with attributes nor without attributes and is all pervading and omnipresent?
कैसे पूजा हो सकती है? अवधूत गीता कहती है लानत है पूजा करने वालों पे! यह तो छोड़ ही दो कि नकली देवों की उपासना हो सकती है, ब्रह्म की भी उपासना नहीं हो सकती। क्योंकि जिसकी तुम उपासना कर रहे हो, वो ब्रह्म नहीं कोई देव ही बन जाएगा। समझ रहे हो बात को? तो यहाँ पर धार ज़रा और पैनी है। पूजा करना ही बेवकूफी है।
श्रोता २: सर, एक फिल्म थी ‘ओह माई गॉड!’ जिसमें वो जो हीरो होता है उसकी कृष्ण से बातचीत होती है और अंत में उनका रिंग उसके पास रह जाता है। लेकिन वो उसे बचाना चाहता है क्योंकि वो कृष्ण के लिए है और उसे महसूस हो जाता है, तो उसको आवाज़ आती है कि इसको भी फेंक दो अन्यथा तुम मुझे किसी चीज़ से पहचानोगे, जो सही नहीं है क्योंकि मैं सभी जीवित चीजों में उपस्थित हूँ।
वक्ता: यहाँ पर बात उससे भी आगे की हो रही है। जितना रखना उचित है, उतना ही फेंकना उचित है। जितना रखना अनुचित है, उतना ही फेंकना अनुचित है। और यह बात आसानी से पल्ले पढ़ती नहीं है। मन एक केंद्र बना लेना चाहता है, एक पक्ष बना लेना चाहता है। उचित-अनुचित का कुछ तो दायरा बना लेना चाहता है। और यहाँ पहली ही बात कही जा रही है कि ‘गुण-अवगुण के जो विभाग हैं वो आगे हैं उनसे’। न उसको रख के कुछ होना है। न उसे फेंक के कुछ होना है। उसे रखना भी एक छवि है कि रख के कुछ हो जाएगा, और उसे फेंक देंगे, तो भी कुछ हो जाएगा, वो भी एक छवि है। या कुछ नहीं हो जाएगा, वो भी एक छवि है। बात बहुत बारीक है, उसको बहुत गहरे ध्यान में ही समझा जा सकता है। मन इतने ज़बरदस्त खेल खेलता है कि अपने भीतर रहते हुए यह दावा करता है कि मैं बाहर आ गया। और यह मन का बिलकुल अकाट्य खेल है।
समझ रहे हो न? जैसे कहते हैं, सबसे गहरी, सबसे खतरनाक नींद वो है जिसमें सपना यह आ रहा हो कि तुम जगे हुए हो!
सबसे खतरनाक मानसिक कैद वो है जिसमें तुम्हें लग रहा है कि तुम आज़ाद हो।
तो जिसने वो अंगूठी रख ली, जिसकी आप चर्चा कर रही हैं, वो यह कहेगा कि ‘अरे! अरे! यह तो बेचारा कैद है।’ और जिसने फेंक दी उसके बारे में आप कहेंगे ‘आज़ाद है’। रखना, जितना मूढ़ता, फेंकना उतनी ही बड़ी मूढ़ता। न रखना, न फेंकना।
उस बच्चे को भूलिएगा नहीं। जो भी हो रहा है एक कमरे से दूसरे कमरे में ही जा रहा है।
अकेलेपन का अर्थ है – कुछ हो ही कहाँ रहा है। रखा, तो भी कहाँ कुछ हो गया, और फेंका, तो भी कहाँ कुछ हो गया। कुछ हो ही कहाँ रहा है? कुछ हो ही नहीं रहा है। यह है अकेलेपन का अर्थ। रख के भी क्या मिल जाएगा और फेंक के क्या घट जाएगा। जो है, बस है। और जो है, वो अपरिवर्तनशील है। सारे परिवर्तन जहाँ हो रहे हैं, वो कुछ और ही है, काल्पनिकता।
तो यहाँ पर सत्य की उपासना की भी बात नहीं हो रही है, क्योंकि जिसको भी तुम सत्य कहोगे वो कुछ झूठ ही होगा। सत्य माने क्या? सत्य माने क्या? अभी एक अवधूत यहाँ खड़ा हो, अघोरी, तो यह सब देख रहा होगा, तो हँसेगा। कहेगा – जो कुछ कह रहे हो वो शब्द हैं। तुम्हें पता भी है ‘कहा क्या और सुना क्या!’ वो तो बस एक बात जानता है – एक गहरा ध्यान। जो हर्निष है। किसी स्थिति में टूट नहीं सकता – चलते, खाते, उठते, बैठते, जो भी है। उसको फ़र्क ही नहीं पड़ता कि बाहर क्या चल रहा है – अच्छा-बुरा, हानि-लाभ, ऊँच-नीच। वो तो बस यह जानता है। कुछ यहाँ से कहा जाएगा, वो बोलेगा, ‘इसका माने क्या’? जो कह रहे हो, वो एक मानसिक छवि है।
श्वेतादिवर्णरहितो नियतं शिवश्च
कार्यं हि कारणमिदं हि परं शिवश्च ।
एवं विकल्परहितोऽहमलं शिवश्च
स्वात्मानमात्मनि सुमित्र कथं नमामि ।। ३.२ ।।
सर्वोच्च परमगति अनंत है और वर्ण जैसे कि सफ़ेद आदि से रहित है। *वास्तव में,* *यह कारण और प्रभाव दोनों है । मैं यथार्थ ही वो ब्रह्म हूँ जो विविधता से मुक्त है। मैं कैसे, स्वयं ही, स्वयं को नमन कर सकता हूँ?*
*The supreme beatitude is eternal and devoid of colours such as white, red and black. Truly, it is both cause and effect. I’m indeed that brahm which is free from diversity. O dear friend, how can I, the* *self ,* salute the self.
किसकी पूजा करनी है? किसकी पूजा करूँ? अपनी? जिस क्षण अपनी भी पूजा करूँगा तो अपनी कोई छवि बना रहा होऊंगा। तो अपनी भी नहीं की जा सकती। अपनी भी नहीं पूजा की जा सकती। पूजा करने को ‘दूसरा’ है कौन? सब मेरा ही विस्तार है,। केवल मैं हूँ। किसको अच्छा मानूँ कि पूजनीय है, और किसको बुरा मानूँ कि निंदनीय है? क्योंकि पूजा का अर्थ ही यही है कि द्वैत फिर आ गया। किसी का पूजन कर रहे हो न? तो कुछ पूजनीय है और कुछ अपूजनीय है।
नहीं समझे बात को? दीवार पर कैलेंडर टँगा है। कैलेंडर में एक चित्र है, उसकी पूजा कर रहे हो, दीवार की नहीं कर रहे, द्वैत आ गया न! कुछ पूजनीय है और कुछ अपूजनीय है। तुम द्वैत की पूजा कर रहे हो! तुम द्वैत की पूजा कर रहे हो! एक ख़ास दिन तुम पूजा करने जाते हो, उस दिन पूजा करनी है, और किसी और दिन?
श्रोता ३: नहीं करनी है।
वक्ता: तुम फिर द्वैत की पूजा कर रहे हो। और द्वैत माने – जो नकली, जो है नहीं। तुम भ्रम की पूजा कर रहे हो, तुम इग्नोरेंस (अज्ञान) की पूजा कर रहे हो! हाँ! ऐसे ही हैं हम और संसार इसी का नाम है।
संसार का अर्थ है – वो लोग जो भ्रम की पूजा करते हैं।
यह परिभाषा है संसार की। अच्छे से याद कर लो।
संसार का अर्थ है भ्रम की पूजा।
दुनिया में दो ही तरह के लोग होते हैं – एक वो, जो जानते हैं कि पूजने को कुछ है नहीं, और दूसरे वो जो भ्रम की पूजा करते हैं। इन दूसरे किस्म के लोगों का नाम है संसार।
संसार का अर्थ ही है: किसी न किसी तरह की ऊँच-नीच, किसी न किसी तरह की नैतिकता, अच्छा-बुरा, गुण-अवगुण, पूजनीय-अपूजनीय।
श्रोता ५: इसके एक स्टेप (पग) नीचे वो एक शेर था न कि ‘पीने दे शराब मुझे मस्जिद में या वो जगह बता दे जहाँ…’
वक्ता: समझ में आ रही है बात? सारी पूजा मात्र भ्रम की पूजा है, और काहे की भी पूजा हो नहीं सकती।
~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।