मुक्ति का उपभोग मत करो, मुक्ति का भोग बन जाओ || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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मुक्ति का उपभोग मत करो, मुक्ति का भोग बन जाओ || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। आपको सुनने के बाद जीवन में वेदान्त का विचार बना रहता है। बहुत शान्ति मिलती है। इच्छाओं का जैसे विलोपन हो गया है। तरह-तरह के संशय मिटे हैं। बस, मेरी एक ही अड़चन है। मुझे प्रतीत तो होता है कि मैं मुक्त हूँ परन्तु जीवन और देह का यथार्थ उपयोग नहीं हो पा रहा – यह भाव भी बना रहता है। लगता है आपकी बातों का उपयोग अहम् को पुष्ट कर लेने में ही कर ले रहा हूँ। आचार्ज जी, ऐसी मनोस्थिति में मैं कैसे प्रमाणित हूँ कि मेरी मुक्ति की ओर दशा और दिशा सही है? कृपया मार्गदर्शन करने की कृपा करें।

आचार्य प्रशांत: जब तक कोई ‘मैं’ है जो मुक्ति-मुक्ति चिल्ला रहा है तब तक वो मुक्ति जानते हो कौनसी पाएगा। ’मैं’ मुक्ति। ‘मैं’ है जिसको मुक्ति चाहिए तो उसे मुक्ति कौनसी मिलेगी? ‘मैं’ मुक्ति। उसे मुक्ति के साथ क्या मिलता रहेगा? ‘मैं।’ तो कौनसी मुक्ति मिली! मुक्ति का मतलब है कि तुम भूल ही जाओ कि तुम्हें क्या चाहिए। मुक्ति का मतलब है कि तुम अपनी व्यक्तिगत कामनाओं से मुक्त हो गये। किसी बहुत बड़ी ताक़त को तुमने अपने ऊपर वर्चस्व दे दिया – यह मुक्ति है।

‘मै’ तो जो मुक्ति चाहता है वो भी अपने लिए ही चाहता है। उस मुक्ति का नाम होता है ‘मैं’ मुक्ति। उस मुक्ति में भी ‘मैं’ बैठा हुआ है। तो कितना भी कहोगे, ’मुझे मुक्ति चाहिए, मुझे मुक्ति चाहिए।’ मुक्ति मिलेगी, मुक्ति के साथ पुछल्ला मिलेगा ‘मैं’। वो दुम की तरह साथ लगा हुआ है। मुक्ति तब है जब तुम किसी इतने ऊँचे अभियान में अपनेआप को झोंक दो कि व्यक्तिगत मुक्ति का ख़याल ही मिट जाए। व्यक्तिगत मुक्ति है तो व्यक्ति का उपक्रम ही न। तो बन्धन से क्या अलग है?

जो तुम बात कर रहे हो, उस पर सफ़ाई देते हुए, उसको समझाते हुए मैंने बहुत बार बोला है कि पर्सनल लिबरेशन इज़ ए मिथ (व्यक्तिगत मुक्ति एक भ्रम है); अपने लिए जो मुक्ति चाही जाती है और बड़ी कोशिश करी जाती है, मैं कैसे मुक्त हो जाऊँ! उसमें तुमको मिलती है मुक्ति जिसके साथ दुम की तरह लगा रहता है ‘मैं’।

अपनेआप को झोंकना पड़ता है, समर्पित करना पड़ता है। समर्पण का मतलब ही यही है – ‘मैं’ से मुक्ति। लोग भ्रमित रहते हैं। वो ‘मैं’ के लिए मुक्ति चाहते हैं। वो ऐसे ही है जैसे साहब के लिए बिरयानी ले आओ। ‘मैं’ के लिए मुक्ति माँगना वैसे ही है कि जैसे टंटू के लिए बिरयानी माँगना और वो बिरयानी खाकर टंटू क्या होगा? और मोटाएगा। तो इसी तरीक़े से आमतौर पर लोग जो मुक्ति माँगते हैं वो मुक्ति उनके उपभोग की चीज़ बन जाती है। टंटू की बिरयानी बन जाती है। वो मुक्ति उन्हें विगलित नहीं करती, और मोटाती है। वो मुक्ति उन्हें क्षीण नहीं करती, और भीमकाय करती है। कहे, ’अभी-अभी क्या किया है? मुक्ति का नाश्ता।‘ आह! टंटू की बिरयानी।

मुक्ति का उपभोग करने की मंशा मत बनाओ। तुम मुक्ति के ग्रास बन जाओ। अन्तर समझ रहे हो? तुम न कहो मुझे मुक्ति खानी है। तुम मुक्ति के निवाले बन जाओ, वो तुम्हें खा ले। इन दोनों बातों में ज़मीन-आसमान का अन्तर है।

अधिकांश आध्यात्मिक साधक मुक्ति का उपभोग करना चाहते हैं। वो मुक्ति को खाना चाहते हैं। ’स्वादिष्ट मुक्ति मिलेगी क्या? आचार्य जी! थोड़ी दीजिएगा एक प्लेट।’ हमें मुक्ति का बड़ा चस्का है। तो फिर मुक्ति मिली तो...आहा!हा! क्या ज़ायका है मुक्ति का। असली मुक्ति वो नहीं जिसको तुम चबा गये। असली मुक्ति वो जो तुम्हें निगल जाए। जब तुम्हें ही निगल गयी वो तो तुम बचोगे मुक्ति-मुक्ति चिल्लाने को?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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