प्रश्नकर्ता: प्रकृति और मनुष्य के बीच कैसा संबंध गलत है यह तो आपने हमेशा बताया है। आपने कहा है कि मनुष्य प्रकृति का शोषण आदि करता है, वह बात गलत है। तो आज फिर समझाएं कि मनुष्य और प्रकृति के बीच में सही और आदर्श संबंध कैसा होना चाहिए।
आचार्य प्रशांत: देखिए, जब आप प्रकृति कहते हैं तो वो कई अर्थ रखती है हमारे लिए। प्रकृति वह तो है ही जिसका हम साधारणतया प्रकृति से ताल्लुक बैठाते हैं। पेड़, पौधे, पर्यावरण, पशु उसी को हम आमतौर पर प्रकृति कहते हैं, प्रकृति वह तो है ही। उसके अतिरिक्त यह जो हमारा अपना शरीर है यह भी प्रकृति है।
आप जब पूछ रहे हैं कि प्रकृति और मनुष्य के बीच क्या संबंध होना चाहिए तो, आपको पूछना चाहिए कि प्रकृति और चेतना के बीच में क्या संबंध होना चाहिए, क्योंकि जब आप कहेंगे चेतना, तो उसमें फिर प्रश्न थोड़ा विस्तृत हो जाएगा। फिर प्रश्न में यह बात भी शामिल हो जाएगी कि आदमी का आदमी से ही क्या रिश्ता होना चाहिए? मनुष्य का मनुष्य से ही क्या रिश्ता होना चाहिए? माने मनुष्य की चेतना का मनुष्य के शरीर से क्या रिश्ता होना चाहिए? दोनों मनुष्य के भीतर की ही बातें हो गई न। मनुष्य का मनुष्य से संबंध माने आदमी की चेतना का आदमी की देह से संबंध। वो पूरा सवाल हो जाएगा।
पता होना चाहिए कि चेतना और प्रकृति दो अलग-अलग तलों की बातें हैं। पूरा एक अध्याय श्रीमद भागवत गीता में श्री कृष्ण ने इसी बात को समझाने को समर्पित कर दिया कि बेटा तुम चेतना और प्रकृति के अंतर को समझो। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग। वो पूरा अध्याय बस यही बात समझाता है कि क्षेत्र अलग है, क्षेत्रज्ञ अलग है। इन दोनों को एक मत जान लेना, इन दोनों के बीच तुम फँस मत जाना।
क्षेत्र क्या है? प्रकृति क्षेत्र है। क्षेत्रज्ञ क्या है? चेतना क्षेत्रज्ञ है। उसको कई और नामों से भी कहा गया है। उन नामों का उल्लेख में अन्यत्र कर चुका हूं, अभी उसकी जरूरत नहीं है।
प्रकृति में चेतना का कोई गुण नहीं पाया जाता। चेतना मात्र मुक्ति माँगती है। चेतना की कोई इच्छा नहीं है लिप्त होने की। चेतना को लिप्त नहीं मुक्त होना है। यह चेतना की बात हुई।
प्रकृति को मुक्ति चाहिए ही नहीं। वह त्रिगुण धर्मा है। उसको उन्हीं तीन गुणों के माध्यम से भांति-भांति के खेल खेलने हैं, नाच नाचने हैं, समय बढ़ाना है, आना है, जाना है, कभी जन्म करना है, कभी मृत्यु करनी है, सब बदलाव करने हैं, धूप-छाँव करने हैं। यह प्रकृति की बात हुई।
अब प्रकृति में और चेतना में कोई मेल हो ही नहीं सकता। चेतना वह जिसका इरादा बस एक है, यह सब जो मेरे चारों ओर खेल चल रहा है, यह सब मेरे चारों और जो समय का और स्थान का विस्तार है मुझे इससे परे रहकर मुक्त रहना है। यह चेतना की अभीप्सा है। मुक्ति चेतना का स्वभाव है।
प्रकृति का कोई स्वभाव होता ही नहीं, या कह लीजिए प्रकृति का स्वभाव प्रकृति मात्र है। प्रकृति के गुण होते हैं स्वभाव नहीं होता। प्रकृति का कोई केंद्र भी नहीं होता। कह लीजिए प्रकृति का केंद्र प्रकृति ही है। प्रकृति कुछ चाह रही ही नहीं है एक तरह से अपने आप में तृप्त है। उसको जो चाहिए वह उसको मिला हुआ है। कोई ऊँची माँग उसकी है ही नहीं। जड़ता से प्रकृति को कोई समस्या नहीं है। और चेतना, चेतना जड़ता को विजातीय मानती है। चेतना अपने अंदर की जड़ता से घबराती है। चेतना को जड़ता से ही मुक्ति चाहिए। दोनों में बड़ा अंतर है।
लेकिन चेतना की बात समझिएगा, जब हम कह रहे हैं चेतना को मुक्ति चाहिए, माने चेतना फिलहाल तो बंधन में ही है न। और मनुष्य की चेतना की यही स्थिति रहती है वह बंधन में ही रहती है चेतना का बंधन क्या है? अगर चेतना को मुक्ति चाहिए माने कुछ तो होगा जो उसको वर्तमान में बांधे हुए होगा तभी तो वह आगे मुक्ति की कामना रखती है।
क्या है जो उसे बांधे है? प्रकृति से चेतना की जो आसक्ति हो जाती है, उसी चेतना को पुरुष भी कहा गया है। प्रकृति से पुरुष की जो आसक्ति हो जाती है वही पुरुष का माने चेतना का बंधन है। चैतन्य मनुष्य को, मनुष्य की चेतना को प्रकृति का बस दृष्टा होना है। यही प्रकृति के साथ उसका सहज, स्वस्थ और आदर्श संबंध है। उसे सिर्फ देखना है कि यह सब क्या हो रहा है। लिपट नहीं जाना है। चिपक नहीं जाना है। रिश्ता नहीं बना लेना है। बहुत सम्मान पूर्वक, बहुत तटस्थ रह कर, ज़रा सी दूरी से प्रकृति का मात्र दर्शन करते रहना है।
यह भी नहीं करना है कि प्रकृति से भाग गए। मनुष्य की चेतना तो चारों ओर से प्रकृति से परिछिन्न है ही। भागने का कोई सवाल नहीं पैदा होता। और भूलिए मत, जब आप किसी चीज़ से भागते हैं तो आप उससे बड़ा मज़बूत रिश्ता बना लेते हैं। एक कुत्ता आपको दौड़ा रहा है, आप भाग रहे हैं। इस वक्त पर आपका सबसे मज़बूत रिश्ता किससे है? उसी कुत्ते से न?
तो आदमी का प्रकृति से ना तो यह रिश्ता है कि वह जाकर प्रकृति से लिपट जाए, आसक्त हो जाए, न उसका प्रकृति से यह रिश्ता है कि वह प्रकृति से दूर भागे। उसे बहुत गहराई से समझना होगा कि वह दोनों अलग-अलग हैं जो आपस में मिल नहीं सकते। सजातीय नहीं है दोनों की जाति अलग-अलग है। तेल और पानी है, उनका कोई मिश्रण नहीं हो सकता है आपस में।
जब आप यह जान जाते हो कि दोनों की जाति अलग-अलग है, तो फिर आप प्रकृति में चेतना ढूंढना बंद कर देते हो। आप अपने भीतर की जो चेतना है उसमें आप जड़ता को स्वीकार करना बंद कर देते हो, और जो बाहर प्रकृति है उसमें आप व्यर्थ ही, जबरदस्ती, बलात चेतना को प्रक्षेपित करना बंद कर देते हो।
उदाहरण के लिए आप यह सोचना बंद कर दोगे कि पत्थर में भी भावना होती है। पत्थर में भावना नहीं होती, भाई! उदाहरण के लिए आप यह कहना बंद कर दोगे कि किसी जानवर ने अगर आकर आपको खा लिया या डस लिया तो वो जानवर दुष्ट था।
प्रकृति में कोई दुष्ट नहीं होता, कोई भला नहीं होता, प्रकृति में कोई साधु नहीं होता, कोई शैतान नहीं होता। प्रकृति में बस तीन गुण होते हैं। लेकिन हम चूँकि प्रकृति को समझते नहीं, क्योंकि हम अपने आप को समझते नहीं, तो इसीलिए हम प्रकृति में चेतना को देखना शुरू कर देते हैं और चेतना में प्रकृति को देखना शुरू कर देते हैं।
हम ऐसे कहना शुरू कर देते हैं कि मेरा पालतू कुत्ता मुझसे बहुत प्यार करता है। प्रकृति में प्रेम नहीं होता। और हम ऐसे भी कहना शुरू कर देते हैं कि वह जो जंगल में भेड़िया है वो बहुत दुष्ट है। उसने किसी को मार दिया। प्रकृति न तो कोई मानवीय भावना रखती है, न उसमें कोई अहिंसक होता है, ना उसमें कोई हिंसक होता है।
फूल अपनी नज़रों में सुंदर नहीं होता, आपको सुंदर भले लगता हो। कोई कली लजा नहीं रही होती है। हाँ, आप ज़रूर बोल देते हैं कमसिन कली है वह लजाती है। मगरमच्छ खलनायक की तरह नहीं होता। बंदर विदूषक नहीं होता। वह वही हैं जो हैं। हाँ, आपको जब अपनी कहानियों में कोई हसोड़ पात्र चाहिए होता है तो उसको आप बंदर जैसा बना देते हो। आपको जब कहीं पर कुछ दृष्टाई दिखानी होती है तो वहाँ पर आप लिज-लिजे सांप भागते हुए दिखा देते हो। आपको जब कहीं पर कुछ भूतिया दिखाना होता है तो वहाँ पर आप कई तरह के चमगादड़ दिखा देते हो। सब प्रकृति है, भाई!
ना तो चमगादड़ का इरादा है कि आप को नुकसान पहुँचाए, ना ही किसी जानवर का इरादा है कि वह आपको बहुत लाभ पहुँचाए। फिर आप यह कहना बंद कर दोगे कि फलाना पशु है वह तो बहुत सीधा होता है और उसे आदमी के साथ ही रहना चाहिए, ना फिर आप यह कहोगे कि फलाना पशु है यह तो बहुत बेकार है।
प्रकृति के सब तत्व बस तीन गुणों की कीमियागिरी है। उनमें जो कुछ भी आपको आकर्षक-अनाकर्षक लग रहा है वह आपके भीतर की वृत्तियों का प्रक्षेपण है। वह चीज़ प्रकृति में नहीं है, वह आपके भीतर है। उदाहरण के लिए गाय बहुत लोगों को बहुत प्रिय होती है। उसकी वज़ह यह नहीं है कि गाय में वास्तव में कुछ विशिष्ट है। उसकी वजह यह है कि आपको उससे कई तरह के लाभ मिले हैं और वह पशु सीधा-साधा है।
इसी तरीके से कुछ पशुओं को हमने गाली जैसा बना लिया है। कोई बहुत चालाक होगा तो उसको लोमड़ी कह देंगे, भेड़िया कह देंगे। किसी को अपमानित करना होगा तो उसे गधा या खच्चर कह देंगे। यह सब आपके भीतर का प्रक्षेपण है। गधा जैसा है उसे अपने होने में कोई तकलीफ है क्या? गधे को गधा होने में बिल्कुल कोई तकलीफ़ नहीं है। खच्चर को होने में कोई तकलीफ़ नहीं है।
भेड़िया, भेड़िया होकर के जैसा है ठीक है। भेड़िया अपनी हस्ती में उतना ही विश्राम में है जितना हाथी अपनी हस्ती में। छोटी सी चींटी अपनी हस्ती में वैसे ही बैठी हुई है जैसे कोई बड़ी सी भैंस। कोई दोनों में अंतर नहीं है। हाँ, हमारे देखें भैंस में और चींटी में बहुत अंतर है। हम दोनों में कई तरीके की भावनाएँ प्रक्षेपित कर देते हैं कुछ कर देते हैं यह सब करके हम उनका शोषण ही करते हैं।
प्रकृति से दो हाथ की दूरी बना कर चलिए। जब आप प्रकृति से दो हाथ की दूरी बना पाएँगे तो फिर आप में क्षमता पैदा होगी कि आप स्वयं भी देह भाव से मुक्त हो पाएँ। अभी क्या होता है? अभी हमारे बाहर जो प्रकृति है हम उससे भी दूरी बना नहीं पाते। परिणाम, जो हमारी अपनी प्रकृति है यह देह, हम उससे भी कोई दूरी नहीं बना पाते।
बाहर जो कुछ हमें दिख रहा होता है प्राकृतिक हम उससे किसी ना किसी तरीके का कोई रिश्ता बना लेते हैं और वह रिश्ता गलत ही होता है। अज्ञान के सारे रिश्ते गलत होते हैं। वह रिश्ता दुःख का और शोषण का ही होता है। तो हम बाहर जो कुछ दिखा उसका रिश्ता बना लेंगे। खास तौर पर अगर पुरुष है तो बाहर एक स्त्री घूम रही है जो प्रकृति की दी हुई देह लेकर चल रही है। तुरंत उससे हमारा एक रिश्ता बन जाएगा। स्त्री है तो ऐसे ही पुरुष से उसका बन जाएगा। तो इस तरीके की रिश्तेदारियां स्थापित करने में करने में हम बड़े चंचल होते हैं।
श्रीकृष्ण यही समझा गए थे। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग। अंत में अर्जुन से कहते हैं, "इनका भेद समझ, इनको अलग अलग रख, भाई! जब इन दोनों का आपस में कोई मेल ही नहीं हो सकता, जैसे तेल और पानी का कोई मेल नहीं हो सकता, जैसे जड़ और चेतन का कोई मेल नहीं हो सकता, तो तू क्यों जबरदस्ती पत्थर में प्राण देख रहा है और प्राणों को पत्थर किए दे रहा है। यह मत कर।"
जब आप बाहर नहीं आसक्त होंगे किसी से तो फिर आप स्वयं से भी आसक्त नहीं होंगे। हमारी मूल आसक्ति देव भाव ही होता है न। जब मैं बाहर की किसी देह को देखकर के तुरंत झपट पड़ता हूँ, चंचल हो जाता हूँ, तो उससे पहले यह भी ज़रूर हुआ होगा कि मैं अपनी ही देह से बड़ी आसक्ति रखता हूँगा। भीतर ही भीतर बड़ा देह भाव रखता हूँगा।
चेतना का काम है जड़ पदार्थ को जड़ जानना ताकि वह अपनी जड़ता से मुक्त हो सके।
चेतना अगर जड़ पदार्थ को जड़ नहीं जानेगी, और यह जड़ पदार्थ है। यह जो है ना यह हड्डी-मांस यह जड़ पदार्थ ही है। इस शरीर से चेतना विलुप्त हो जाए तो बताना ज़रा इसमें और मिट्टी और पत्थर में कोई अंतर रह जाता है? तो यह जो पूरी खाल है, मांस है, यह सब हड्डी वगैरह यह सब जड़ पदार्थ ही है। हम जड़ को जड़ जानते नहीं, हम जड़ को कहने लग जाते हैं चेतन है। अरे वो चेतन नहीं है।
अध्यात्म का मतलब होता है चेतना की उपासना। चेतना की उपासना माने मुक्त चेतना के प्रति सम्मान का भाव। फिर तुम जड़ और चेतन का ज़बरदस्ती का मिश्रण नहीं करते। चेतना को जड़ता से ही तो मुक्ति चाहिए। फिर चेतना मुक्त हो जाती है और उसी में आनंद है वही जीवन का परम लक्ष्य है।
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