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क्रान्तिकारी भगत सिंह, और आज के युवा || आचार्य प्रशांत (2019)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्न: आचार्य जी, कल तेईस मार्च भारत में शहीदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, इनको फाँसी इस दिन मिली थी। तब भगत सिंह मात्र तेईस वर्ष के थे। तो युवाओं को इनसे क्या प्रेरणा लेनी चाहिए अपने जीवन में? आप कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: अब यहाँ जितने लोग बैठे हैं, उसमें से कम-से-कम आधे तो हैं हीं युवा-वर्ग से। तो ये जो प्रश्नों का, सवालों का, समस्याओं का गठ्ठर मेरे सामने आया है, इसमें से भी आधी या आधी से ज़्यादा समस्याएँ युवाओं की ही हैं। और युवा माने क्या? बीस से पैंतीस, या बहुत विस्तृत करके बोलोगे तो पंद्रह से चालीस। आदमी की कुल उम्र का एक बहुत छोटा-सा अंश—तीसरा हिस्सा, चौथा हिस्सा, पाँचवा हिस्सा। तो युवावस्था में समय बिताते हो अपनी कुल उम्र का एक चौथाई या उससे भी कम, लेकिन समस्याएँ आ रही हैं आधी।

देख रहे हो, हो क्या रहा है?

जो समय जीवन का शक्तिकाल, स्वर्णकाल होना चाहिए था, उसी समय में सबसे ज़्यादा समस्याओं से घिरे हुए हो, बतौर एक युवा। क्यों घिरे हुए हो? कारण सीधा है। जहाँ जितनी ज़्यादा संभावना है, वहाँ उतना ही अधिक ख़तरा भी होगा ही होगा। आकाश की संभावना कभी पाताल के ख़तरे के बिना नहीं आती। शक्ति मिली है, यौवन मिला है, समय मिला है, तो उसी के साथ-साथ ये अभिशाप भी मिला है कि अगर सही तरीक़े से नहीं बिताओगे उस समय को तो बहुत दुःख पाओगे, बहुत मार खाओगे, बहुत ज़्यादा समस्याओं से ग्रस्त रहोगे।

जब जवान होते हो तब सबसे ज़्यादा आकर्षण घेरते हैं तुम्हें, हर तरीक़े के। अहम् की तो मूल भावना होती ही यही है कि संसार भोग के लिए है। “मैं अतृप्त हूँ, और संसार को भोगकर मुझे तृप्ति मिल जाएगी,” यही नाम है अहम् का। ठीक? ये धारणा वो रखता जन्म के प्रथम-पल से आख़िरी-पल तक है: “अधूरा हूँ मैं, और दुनिया में कुछ खोजूँगा, कुछ पाऊँगा तो पूरा हो जाऊँगा।" लेकिन दुनिया में खोज पाने की शक्ति और दुनिया को भोग पाने की शक्ति सबसे ज़्यादा होती है युवावस्था में। तो इसीलिए भोग की लालसा भी सबसे ज़्यादा युवावस्था में ही होती है। सारा ध्यान, सारा समय, सारी ऊर्जा बह निकलती है संसार की ओर―“दुनिया में ये पा लूँ,” "ये कमा लूँ,” "ये हासिल कर लूँ”। किसके लिए? अपनी उस अतृप्ति के लिए, जो वास्तव में किसी भी उपलब्धि से मिटने वाली नहीं है।

कायर ही नहीं होते सब, मेहनत भी खूब की जाती है। तमाम तरह के संगठन, तमाम कंपनियाँ युवाओं को ही चुनती हैं काम कराने के लिए, मेहनत के लिए, उत्तरदायित्व देने के लिए। क्योंकि पता है कि मेहनत तो सबसे ज़्यादा कोई युवा ही करेगा। तो मेहनत ख़ूब की जाती है लेकिन अपनी अंधी तृष्णा को शांत-भर करने के लिए। नतीजा? ढाक के तीन पात! न सिर्फ़ तड़प बाकी रह जाती है, बल्कि तड़प सारी मेहनत के बाद भी बाकी रह जाती है। क्योंकि जो कर रहे हो ग़लत दिशा में, गलत उद्देश्य के लिए कर रहे हो। करोगे ख़ूब, पाओगे कुछ नहीं।

ये है कहानी जवानी की। ख़ूब दौड़े-धूपे, ख़ूब अरमान सजाए, सपने लिए, मेहनत कर-करके घरोंदे बनाए; सत्यता उसमें कुछ नहीं, पाया कुछ नहीं, स्थायित्व कुछ नहीं, नित्यता कुछ नहीं। क्योंकि जो किया, उसके लिए किया जो कभी तृप्त हो ही नहीं सकता—कितना भी तुम उसको भरते रहो, खिलाते रहो।

फिर कुछ होते हैं भगत सिंह जैसे जो कहते हैं कि जब श्रम करना ही है, जब कुछ बड़ा करना ही है, तो उसके लिए करें न जिसके लिए करने में सार्थकता है। किसके लिए करने में सार्थकता है? ये हटाओ अभी!

ये तो पक्का है कि अपने छोटे, निजी, व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए कुछ करने से कभी भीतर की तड़प शांत नहीं होती है, कितनी भी उपलब्धि खड़ी कर लो। तो समझदार होते हैं वो जो अपने प्रयत्नों को किसी ऊँचे उद्देश्य के लिए लगाते हैं। अपनी छोटी सत्ता से ज़्यादा बड़े, ज़्यादा विराट, किसी मिशन की सेवा में लगाते हैं।

व्यक्तिगत मुक्ति संभव नहीं है। व्यक्तित्व ही बंधन है, तो फिर व्यक्तिगत मुक्ति कैसी? मुक्ति सबको चाहिए, लेकिन जो अज्ञानी है वो सोचता है कि, "अकेले-अकेले मुझे मिल जाएगी"—पहली बात, पहली भूल। और दूसरी बात —अपने लिए धन, प्रतिष्ठा, सम्बन्ध, भोग इत्यादि इकट्ठा करके मुक्ति मिल जाएगी। दोनों तरह से भ्रम में है वो। पहली बात तो सोच रहा है कि अकेले-अकेले मुक्त हो जाएगा, और दूसरी बात सोच रहा है कि रूपए-पैसे से, या प्रतिष्ठा से, या सुख इकट्ठा करके मुक्त हो जाएगा। दोनों तरीक़े से वो भ्रम में है।

तो मैंने कहा कि समझदार हैं वो जो कहते हैं कि—"मुक्ति तो हमें चाहिए, पर हम गंभीर हैं मुक्ति के बारे में इसीलिए हम ये समझते हैं कि मुक्ति मिलेगी तो सबको मिलेगी, नहीं तो किसी को नहीं मिलेगी।" तो आम आदमी लगा रहता है अपनी निजी तृप्ति के लिए, और तृप्ति और मुक्ति एक ही बात है। ये सबसे क्षुद्र, सबसे संकीर्ण अवस्था है अहम् की, कि बस अपनी मुक्ति की कोशिश करेंगे।

जिसका अहम् थोड़ा विस्तार पाता है, वो कहता है, "अपने परिवार के लिए कुछ कर लूँगा।" इसको इतना तो समझ में आया है कि अकेले-अकेले नहीं होगा, दो-चार और साथ हैं, उनका भी हाथ पकड़ना पड़ेगा। स्वयं को अगर मुक्ति दिलानी है तो उनको भी दिलानी पड़ेगी। ये ज़रा-सा आगे बढ़ा, एक कदम। फिर अहम् अगर थोड़ा और बोधवान होता है, थोड़ी उसकी समझ और गहराती है, तो वो कहता है, "परिवार-भर से भी नहीं होगा, समुदाय के लिए कुछ करना पड़ेगा।" तो फिर वो अपने वर्ग के लिए, अपने समुदाय के लिए, थोड़ी और ज़्यादा बड़ी किसी सत्ता के लिए काम करता है।

फिर आप समझ ही रहे होंगे कि जिसका अहम् और विस्तार पाएगा—और अहम् के विस्तार में ही अहम् की मुक्ति है; जिसको आप 'अहम्-शून्यता' कहते हैं, वो दूसरे शब्दों में अहम् का अनंत विस्तार ही है—तो जिसका अहम् थोड़ा और विस्तार पाएगा, वो फिर कहेगा कि, "अपने समुदाय, अपने वर्ग, अपने पंथ, या अपने धर्म, या अपनी जाति-भर के लोगों के लिए काम करके भी बात नहीं बनेगी, और विस्तृत होना पड़ेगा।" तो फिर वो देश के लिए काम करता है।

ये बड़ा मुश्किल होता है कि तुम अपने-आपको भुला दो, अपने परिवार को भुला दो, अपने गाँव, शहर, मोहल्ले, अपने धर्म, अपने पंथ को भुला दो और तुम कहो कि, "मैं करोड़ो लोगों की ख़ातिर काम कर रहा हूँ। मेरा अहम् अब इतना विस्तृत हो गया है कि करोड़ो को अब वो अपने साथ लिए है, करोड़ो को स्वयं में समेटे हुए है।"

और फिर और आगे जाती है जिनकी चेतना, और दीर्घता पाता है जिनका अहम्, वो फिर सम्पूर्ण मानवता के लिए काम करता है। और आगे बढ़ाइए, समझ जाएँगे कि फिर मानवता से आगे भी जाया जा सकता है। व्यक्ति जीवों की, जंतुओं की, कीटों की, पतंगों की, पशुओं की, पक्षियों की, सबकी मुक्ति का ख़याल करने लगेगा। ये अहम् की और ज़्यादा विस्तृत अवस्था है। यही विस्तार 'ब्रह्मता' कहलाता है।

वैश्विक हो जाती है चेतना, तब आपका तादात्म्य पूरे विश्व के साथ हो जाता है। और विश्व से भी आगे जब चली जाती है चेतना, तो आपका तादात्म्य फिर ब्रह्म के साथ ही हो जाता है। ब्रह्म का अर्थ है—अनंत विस्तार। और फिर आप अधिकारी हो जाते हो कहने के कि, “अहम् ब्रह्मास्मि”। ब्रह्मास्मि कह दिया माने—अब आपकी व्यक्तिगत सत्ता बिल्कुल मिट गई। जो कुछ है और जो कुछ नहीं है, सबके साथ आप एकाकार हो गए, तादात्म्य हो गया आपका।

अब समझोगे कि भगत सिंह ने पूरे देश की आज़ादी के लिए संघर्ष क्यों किया। क्योंकि अकेले-अकेले आज़ादी तो वैसे भी नहीं मिलने की। ये वास्तव में कोई सामाजिक या राजनैतिक पहल नहीं थी। ये किसी बर्बर, विदेशी शासन के प्रति आक्रोश या क्रांति मात्र नहीं था। मूलतः ये आध्यात्मिक मुक्ति का अभियान था। एक ऐसी मुक्ति जिसमें तुम कहते हो - "मेरे शरीर की बहुत कीमत नहीं है। बाईस-तेईस साल का हूँ, फाँसी चढ़ जाऊँ, क्या फ़र्क़ पड़ता है? शरीर के साथ मेरा तादात्म्य वैसे भी नहीं है। मैंने तो अब पहचान बना ली है बहुत बड़ी सत्ता के साथ।" भगत सिंह के जीवन में वो बहुत बड़ी सत्ता थी - भारत देश। समझ में आ रही है बात?

इसलिए मिलती है जवानी। इसलिए नहीं कि शरीर को ही ख़ुराक देते जाओ और शरीर की माँगों को मानते जाओ, और कामनाओं को पोषण देते जाओ। जवानी मिलती है ताकि उसका उत्सर्ग हो सके, ताकि वो न्योछावर हो सके। जिस उम्र में हम अपने-आपको, बहुत लोग, दुधमुँहा बच्चा ही समझते हैं, उस उम्र में वो चढ़ गए फाँसी पर।

और ये कोई किशोरावस्था का साधारण उद्वेग नहीं था। भगत सिंह का ज्ञान गहरा था। दुनियाभर के तमाम साहित्य का अध्ययन किया था उन्होंने, खासतौर पर समकालीन क्रांतिकारी साहित्य का। समाजवाद, साम्यवाद—इनकी तरफ झुकाव था उनका। ख़ूब  जानते थे, समझते थे। किसी बहके हुए युवा की नारेबाज़ी नहीं थी भगत सिंह की क्रांति में; गहरा बोध था। और वो बोध, मैं कह रहा हूँ, मूलतः आध्यात्मिक ही था। अन्यथा जीव में देहाभिमान इतना गहरा होता है कि यूँ ही कोई शरीर नहीं त्याग सकता।

जब कोई आम युवा जीवन की चकाचौंध और रंगीनियों के ख़्वाब देखता है, उस समय भगत सिंह अपने जीवन की निजी माँगों से बहुत दूर, बहुत आगे जा चुके थे। तेईस साल, पच्चीस साल, सत्ताईस साल का आम-नौजवान देखता है कि किस तरीक़े से घर बसा लूँ, कोई स्त्री मिल जाए। और भगत सिंह से, कहते हैं, एक दफ़े उनकी माता जी ने विवाह का प्रसंग छेड़ा कि, "बेटा, शादी?," तो भगत सिंह बोले, "हो चुकी। शादी हो चुकी। आज़ादी दुल्हन है मेरी। उसी के साथ हो गया अब गठबंधन। अब किसी स्त्री वगैरह के लिए कहाँ जगह है?"

ये क्या है? ये आध्यात्मिक समर्पण है मुक्ति के प्रति, कि और कुछ मायने नहीं रखता; न देह क़ीमत रखती है, न सामाजिक परंपरा क़ीमत रखती है, न मन की कामनाएँ क़ीमत रखती हैं; मुक्ति मात्र क़ीमत रखती है, उसी को समर्पित हो चुके हैं, उसी से मिलन हो चुका है।

यही योग है।

जवान हो, तो जीने का एक ही तरीक़ा है: किसी बहुत-बहुत ऊँचे लक्ष्य को, उद्देश्य को, मिशन को समर्पित हो जाओ। नहीं तो जवानी माने फिर यही—समस्याएँ-समस्याएँ, उलझाव, समय की बर्बादी, मन का गंदा रहना, लफड़े-झगड़े, अतृप्तियाँ, वासनाएँ, और फिर निराशाएँ।

ऐसे न जीना हो, तो फिर उनकी ओर देखो, सादर देखो, सप्रेम देखो, जिन्होंने अपने से आगे के किसी काम के लिए अपने-आपको आहुति बना दिया। और तरीक़ा कोई नहीं जीने का।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जो भगत सिंह थे, उनमें और हम में जो भेद है वो ये है कि उनके पास वो शक्ति थी कि इतने सारे डिसट्रैकशनस (विकर्षण) होते हुए भी वो सही दिशा में चलते रहे। हमारे जीवन में जो माया आती है, वो समझ भी आती है, पर हम उसके सामने झुक जाते हैं। वो नहीं झुके हैं। तो पहले से ही एक इतना बड़ा डिफरेंस (भेद) था ही।

वो स्ट्रेंथ (ताक़त) मुझे तो ख़ुद में दिखाई नहीं देती। जब आती है माया समझ, उसके सामने हार भी मान रहे हैं, ये भी समझ आ जाता है, और उसके बाद का पछतावा भी समझ आ जाता है। और कभी-कभी माया के प्रभाव से बच भी जाते हैं। जब बच जाते हैं तो अच्छा भी लगता है। बहुत एम्पॉवरिंग  (सामर्थ्यवान) सा लगता है, स्ट्रेंथ आती है। लेकिन जब उसके सामने हार जाते हैं, उस बात का पछतावा, वो भी समझ में आता है। और ऐसा लगता है कि ये चलता ही चला जा रहा।

आचार्य प्रशांत: ताक़त नहीं चाहिए, चुनाव चाहिए। अंतर को गौर से समझो।

ताक़त चाहिए होती है कार्य में सफलता के लिए। तुम कहो, “ताक़त नहीं थी, इसीलिए असफल हो गए,” तो तुम्हारी बात जायज़ होगी। ताक़त तब चाहिए जब तुम्हारा लक्ष्य हो सफलता। चुनाव चाहिए। चुनाव तो कर ही सकते हो न सही काम करने का? ताक़त नहीं होगी तो अधिक-से-अधिक क्या होगा? असफल हो जाओगे! पर चुनाव तो कर ही सकते हो।

भगत सिंह भी, अगर तुम देखो, तो देश को आज़ादी दिलाने के लक्ष्य में सफल कहाँ रहे? हुआ क्या? एक छोटी-सी उम्र में ही शारीरिक जीवन तो ख़त्म ही हो गया उनका। ताक़त बहुत कहाँ थी? ताक़त तो अंग्रेज़ों के पास थी। ताक़त न होते हुए भी उन्होंने सही चुनाव किया। सही चुनाव किया, बिना ये चिंता करे कि नतीजा क्या होगा। ताक़त की माँग तो तुम तब करते हो जब तुम नतीजे को लेकर के बहुत शंकित रहते हो। तब तुम कहते हो कि, “अभी इतनी ताक़त नहीं है कि इस कार्य में प्रवेश कर सकूँ,” यही कहते हो न? तुम कहते हो, “काम बहुत बड़ा है और अभी मुझमें ताक़त नहीं है कि मैं उस काम में प्रवेश कर सकूँ।"

ऐसा तुम कहते हो क्योंकि तुम प्रवेश करने के ऊपर एक शर्त बाँध देते हो। कहते हो, “हम काम में प्रवेश ही तब ही करेंगे जब सफलता की आश्वस्ति हो जाए। जब दिखाई देने लगे कि सफलता की संभावना अच्छी है, कोई आश्वस्त कर दे, कुछ गारंटी मिल जाए, तो हम काम में प्रवेश करेंगे।" फिर तुम ताक़त माँगते हो। जैसे कि कोई कहे कि, “अब बाज़ार क्या जाएँ, जेब में पैसे नहीं हैं!” क्योंकि तुम चाह रहे हो कि तुम जाओ तो तुम ख़रीद ही पाओ। तुम सिर्फ़ जाना नहीं चाहते, तुम वहाँ जाकर के सफलता भी चाहते हो। इसलिए तुम ताक़त की माँग करते हो। कहते हो, “जब जेब में ताक़त होगी तब काम शुरू करेंगे!”

वास्तव में काम शुरू करने के लिए तो कोई ताक़त नहीं चाहिए। काम शुरू करने के लिए सिर्फ़ चुनाव चाहिए। ताक़त क्या थी भगत सिंह के पास, कि राजगुरु के पास, कि किसी क्रान्तिकारी के पास? ताक़त क्या थी वर्धमान महावीर के पास, या सिद्धार्थ गौतम के पास, या जीसस के पास? ताक़त क्या थी किसी विवेकानंद के पास?

हाँ, एक इमानदारी थी कि —"चुनाव तो सत्य का ही करूँगा, नतीजा चाहे जो हो। मेरे बस में इतना ही है कि मैं सही चुनाव करूँ। सही चुनाव करने के बाद मिशन को आगे बढ़ाने की, लक्ष्य को पूरा करने की ताक़त सत्य ही देगा। मैं सत्य का चुनाव करूँगा, मेरे बस में इतना ही है। और एक बार मैंने सत्य का चुनाव कर लिया तो आगे की सत्य जाने। हमने राम को चुन लिया, आगे की राम जाने। ताक़त भी वहीं से आएगी। उसे देनी होगी ताक़त तो दे देगा, और नहीं देनी होगी ताक़त तो न दे, काम तो उसी का है। हमने तो अपना काम कर दिया।"

हमारा क्या काम था? सही चुनाव करना।

पर तुम सही चुनाव नहीं करते क्योंकि तुम डरे हुए हो। तुम डरे हुए भी हो, और तुम कामनाग्रस्त भी हो। तुम कहते हो कि, "हम सही चुनाव भी तब ही करेंगे जब पहले कोई लिखित में दे दे कि सफलता मिलेगी ही मिलेगी।" या कि, "पहले हम आश्वस्त हो जाएँ कि हमारे पास इतना धन, इतने संसाधन, इतनी ताक़त है कि हमें सफलता निश्चित हो जाए।"

अब काम जितना बड़ा होगा, उसके लिए ताक़त उतनी ज़्यादा चाहिए, तुम्हारी गणना के अनुसार। काम जितना बड़ा होगा, उसके लिए ताक़त उतनी ज़्यादा चाहिए। और वो ताक़त तुम्हारे पास होगी नहीं क्योंकि बहुत सारी ताक़त चाहिए। उतनी तो होगी नहीं। तो ले देकर तुरंत नतीजा एक ही निकलेगा, क्या? कि तुम किसी बड़े काम में हाथ डालोगे ही नहीं। क्योंकि काम अगर बड़ा है तो तुम्हें साफ़ दिखाई देगा कि इसमें तो बहुत श्रम, बहुत समय, बहुत धैर्य लगना है। बहुत संसाधन लगने हैं। और तुम कहोगे कि, "इतने तो मेरे पास है नहीं! इतने मेरे पास है नहीं, बढ़िया हुआ! बड़े काम को करने के झंझट से ही छूटे!” और फिर तुम्हारी सज़ा ये होगी कि तुम्हें वही काम मिल जाएगा जो काम करने की तुम में ताक़त है। और ताक़त तुम में है कितनी? छोटी-सी। तो इस ताक़त को आधार बनाकर तुम काम भी क्या चुन लोगे? छोटा-सा। और ज़िंदगी भर किसी छोटे काम में ही लिप्त रहोगे।

ऐसे नहीं चलते!

पहले ताक़त नहीं आती, पहले आता है चुनाव। सही चुनाव कर लो, उसके बाद ताक़त जहाँ से आनी होगी, आएगी। ताक़त इकट्ठा करने के फेर में मत पड़े रह जाना कि अभी गिन रहे हैं कि ताक़त आ जाए, ताक़त आ जाए, फिर काम शुरू करेंगे।

बहुत लोग होते हैं ऐसे, और वो आकर के यही याचना करते हैं, यही बहाना देते हैं। कहते हैं कि, “काम नहीं हो रहा, ताक़त नहीं है!” न, न! काम इसलिए नहीं हो रहा क्योंकि तुम ताक़त को आधार बना रहे हो। जैसे ही तुमने ताक़त की परवाह करनी छोड़ी, और अपने-आपको समूचा झोंक दिया, वैसे ही तुम्हें तुमसे आगे की कोई बहुत बड़ी ताक़त उपलब्ध हो जाती है।

जब तक तुम चुनाव ही करोगे अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं के पक्ष में, तब तक उन व्यक्तिगत इच्छाओं को पूरा करने के लिए तुम्हें ताक़त भी व्यक्तिगत जितनी ही उपलब्ध होगी। और तुम्हारी व्यक्तिगत ताक़त है बहुत अल्प। अगर इच्छा व्यक्तिगत है, तो उसे पूरी करने के लिए ताक़त भी तुम्हें मिलेगी व्यक्तिगत जितनी ही। और तुम्हारी व्यक्तिगत ताक़त बहुत छोटी है। लेकिन अगर तुमने लक्ष्य व्यक्तिगत से कहीं आगे का बनाया है, तो उसे पूरा करने के लिए ताक़त भी कहीं आगे से आ जाती है, उतर आती है। कह लो कि अनुकम्पा होती है। चाहो तो मान लो कि—जादू होता है।

बड़े लक्ष्य को लेकर गणना नहीं की जाती। बड़े लक्ष्य के सामने बस समर्पित हो जाते हैं, अपने-आपको झोंक देते हैं, कहते है, “अब जो होगा देखा जाएगा!” पहले से ही हिसाब-किताब लगाओगे, तो जीवन-भर हिसाब-किताब लगाते रह जाना; करोड़ों लोग यही करते हैं। उनसे पूछो कि, “ये सब तुम्हारा दुकान-दफ्तर, ये तो चलता ही रह गया, कुछ अलग, कुछ ऊँचा कब करोगे?” तो कहेंगे, “बस अब तीन साल और रुक जाओ। तीन साल में कुछ संसाधन जोड़ लें, कुछ ज़िम्मेदारियाँ निपटा दें, उसके बाद शुरू करेंगे।” ये वही लोग हैं जो ताक़त की गणना कर रहे हैं, संसाधनों को, और व्यक्तिगत सामर्थ्य को आधार बना रहे हैं।

तुम्हारी व्यक्तिगत सामर्थ्य आधार नहीं हो सकती, क्योंकि व्यक्तिगत सामर्थ्य है ही (हाथ से छोटे का इंगित करते हुए) इतनी-सी। आधार सामर्थ्य नहीं, समर्पण है। बहुत सामर्थ्य होगा, तो भी किसी काम का नहीं। असली चीज़ है समर्पण। सही चुनाव करो, ताक़त का देखा जाएगा।

बुरे-से-बुरा क्या होगा? फाँसी लग जाएगी, ठीक है! क्या हो जाएगा बुरे-से-बुरा? ताक़त नहीं थी तो सूली चढ़ गए, ठीक है।

प्रश्नकर्ता: भगत सिंह के जीवन में जो क्रांति घटी, और कबीर साहब के जीवन में जो क्रांति घटी, बुल्ले शाह के, रूमी के जीवन में, इन सब क्रांतियों में कोई भेद नहीं है? ये सब एक ही हैं? क्योंकि ऊपर से देखने में सबकी विचारधारा अलग थी।

आचार्य प्रशांत: एक ही हैं।

प्रश्नकर्ता: भगत सिंह भौतिकवादी थे।

आचार्य प्रशांत: सब एक हैं। मुक्ति कोई भौतिक चीज़ होती है? भगत सिंह अगर पदार्थवादी होते तो किसी पदार्थ के पीछे भागते न। आज़ादी थोड़े ही पदार्थ है। ये किसने पढ़ा दिया कि भगत सिंह तो मटीरीअलिस्ट (पदार्थवादी) थे? भगत सिंह किसी ईश्वर में विश्वास नहीं रखते थे, इसका मतलब ये नहीं हो गया कि पदार्थवादी थे।

इश्वर में तो मैं भी नहीं विश्वास नहीं रखता, तो?

प्रश्नकर्ता: पर वो जिनको मानते थे, उन्होंने डायलेकटिकल मटीरीअलिस्म (द्वंदात्मक भौतिकवाद) को परिभाषित किया है।

आचार्य प्रशांत: बिल्कुल मान सकते हैं कि डायलेकटिकल मटीरीअलिस्म (द्वंदात्मक भौतिकवाद) है। पर कहाँ? मटेरियल वर्ल्ड (भौतिक जगत) में है। मटेरियल वर्ल्ड (भौतिक जगत) में जो भी घटना घट रही है उसकी डायलेकटिक्स तुमको बता दीं, ऐसे होता है, ऐसे होता है, फिर ऐसे होता है, थीसिस होती है, एंटी-थीसिस है, फिर उससे कुछ और आगे निकल आता है, उसको बोल देते हो *सिंथेसिस*। तो ठीक है। ये सब कहाँ हो रहा है? दुनिया में हो रहा है न? तो दुनिया में ठीक है। दुनिया में इस तरह का सिद्धांत दिया जा सकता है कि दुनिया में जो घटनाएँ घट रही हैं वो इस प्रकार घट रही हैं।

मार्क्स ने ये सिद्धांत दिया, और भगत सिंह ने मान लिया। ठीक है। कोई बुराई नहीं है। पर इस सिद्धांत का क्षेत्र क्या है? इस सिद्धांत की पूरी उपयोगिता, एप्लीकेबिलिटी कहाँ है? दुनिया में ही है न? और भगत सिंह जिसको तलाश रहे थे, उसका क्या नाम था? आज़ादी! बताओ दुनिया में कहाँ है वो? और भगत सिंह जिस आज़ादी की बात कर रहे थे वो मात्र राजनैतिक आज़ादी ही नहीं थी, कि एक झंडा हटाकर दूसरा झंडा लगा दिया। गहरी आज़ादी की माँग कर रहे थे। वो कोई पदार्थ नहीं होती।

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