वास्तविक मुक्ति, और आत्मा का विचार || आचार्य प्रशांत, अवधूत गीता पर (2017)

Acharya Prashant

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वास्तविक मुक्ति, और आत्मा का विचार || आचार्य प्रशांत, अवधूत गीता पर (2017)

आचार्य प्रशांत: दत्तात्रेय कह रहे हैं कि जो व्याप्य और व्यापक दोनों से मुक्त है, उस एक — बस एक कहा है — उस एक के प्रति यदि तुम सफल हो, तो फिर तुम कैसे कहोगे कि आत्मा प्रत्यक्ष है कि परोक्ष है।

बात मीठी है और बात इतनी–सी ही है कि आत्मा के बारे में कुछ भी कहने की लालसा, प्रेरणा, इच्छा तुम्हें बस तब तक ही रहती है जब तक तुम आत्मस्थ नहीं हुए। वो मिला नहीं है तो उसके बारे में सौ बातें बोलना चाहोगे। वो मिल गया तो तुम्हारी सौ बातों में उसकी खुशबू रहेगी, पर उसके बारे में बहुत बात करने का मन नहीं करेगा। जिनको वो मिला नहीं होता है, वो उसके बारे में खूब कयास लगाते हैं, अनुमान — ऐसा है, नहीं तो ऐसा है।

वेदों का जो मंत्र भाग है, तुम उसको लो, मंत्रखण्ड, और वेदों का ही जो ज्ञानखण्ड है, उपनिषद, वेदांत, तुम उनको लो; अंतर देख लो। आरंभ हो रहा है इंद्र से, वरुण से और उनके बारे में कैसी–कैसी बातें! ‘तुम आके हमारी गायों की रक्षा करना और वरुण! तुम ऐसा कर देना कि गायों के दूध ख़ूब आये।’ ये सब बातें। यहाँ से शुरुआत होती है और अंत आते–आते — ‘कौन इंद्र, कौन वरुण, कहाँ अग्नि! अरे, ब्रह्मा भी कौन!’

वेद जहाँ से शुरू होते हैं, अपना अंत आते–आते मानो स्वयं से ही आगे बढ़ गये हों। जैसे वेद स्वयं भी एक यात्रा पर हों। जब यात्रा अपने मुकाम की ओर पहुँचने लगती है, सफल होने लगती है, कामिल होने लगती है, तो तुक्के मारने की आदत छूट जाती है। कल्पना करने की वृत्ति खत्म हो जाती है। आप शांत हो जाते हैं। उसके बाद आप रोटी, कपड़ा, पानी तो तलाश सकते हो; सत्य नहीं तलाश सकते। उसके बाद ये कहोगे कि प्यास लगी है तो पानी पिऊँगा। आप पानी में परमात्मा नहीं खोजोगे।

हमारी विडंबना ये है कि हम पानी में परमात्मा खोजते हैं और फिर इसीलिए पानी के लिए बड़ी कीमत अदा करते हैं। वो कीमत तुम पानी के लिए थोड़े ही अदा कर रहे हो; वो तो तुम परमात्मा के लिए अदा कर रहे हो, पर परमात्मा उस पानी में मिलने से रहा।

तुम अनुमान लगाते हो कि क्या पता यहाँ मिल जाए, क्या पता वहाँ मिल जाए, क्या पता प्रत्यक्ष में मिल जाए। और प्रत्यक्ष क्या है? मान लो कोई चीज़, कोई शरीर, कोई आदमी। ‘आहा! बड़ा बढ़िया आदमी है! इसमें हो सकता है परमात्मा मिल जाए।’ तो कहने को आदमी के पास जा रहे हो, खोज किसकी है? परमात्मा की। आदमी में मिलेगा नहीं। आदमी के पास जाने में कोई बुराई नहीं है, अगर आदमी के ही पास जा रहे हो। रोटी के पास जाने में कोई बुराई नहीं है, अगर तुम रोटी के पास जा रहे हो। तुम रोटी के पास थोड़े ही जाते हो, तुम रेस्तराँ के पास जाते हो। कभी गौर किया है?

श्रोता: नहीं।

आचार्य: रेस्तराँ में कुछ ऐसा है जो रोटी से आगे का है। तुम्हें रोटी से आगे का कुछ चाहिए। पर रेस्तराँ परमात्मा थोड़े ही हो पाएगा। तुम्हें रोटी ही चाहिए होती तो तुम पाँच हज़ार का बिल थोड़े ही देकर आते। रोटी की उतनी कीमत नहीं है।

गये हैं दो लोग खाने और पाँच हज़ार देकर आए हैं। रोटी के लिए देकर आए हो कोई? ये तुम किसके लिए देकर आए हो? रेस्तराँ के लिए। तुम्हें रोटी से आगे का कुछ चाहिए। जब भी तुम्हें आगे का कुछ चाहिए, तुम समझ लो कि तुम्हें परमात्मा चाहिए। रिश्ते हमारे हमें इतने महँगे पड़ते हैं। पड़ते हैं कि नहीं? एक स्त्री घर ले आते हो या किसी पुरुष के घर चली जाती है कोई औरत, और कितनी बड़ी कीमत अदा करते हो! इतनी कीमत उस स्त्री की या उस पुरुष की थोड़े ही है‌। ये तो तुम उसमें परमात्मा खोज रहे थे। अब दिये जा रहे हो, दिये जा रहे हो, दिये जा रहे हो! दो, और दो पर जिसके लिए दे रहे हो, वो मिलेगा भी नहीं। बस दिये जाओ, दिये जाओ!

रोटी खोजो, रेस्तराँ नहीं; कपड़ा माँगो, ब्रांड नहीं। ब्रांड परोक्ष परमात्मा है। किसी ने आज तक ब्रांड को पकड़ा है क्या? छुआ है ब्रांड को? पर लगता है कुछ है बड़ी चीज़। वो मिल जाएगी तो तृप्त हो जाएँगे। तो ब्रांड के माध्यम से तुम परोक्ष परमात्मा को पकड़ना चाहते हो। दत्तात्रेय कह रहे हैं, ‘कभी रोटी में ढूँढते हो, कभी ब्रांड में ढूँढते हो।’

काम करने थोड़े ही जाते हो तुम, काम तो घटिया है; तुम तो उस बड़ी इमारत में जाते हो, चमचमाती हुई। काम देखो, इमारत नहीं। इमारत तुम्हें लगता है कि वो परमात्मा का घर है। वो इमारत हटा दी जाए, ईमानदारी से बताना कितने लोग जाओगे काम करने? जो काम तुम कर रहे हो, उसके साथ जो इमारत जुड़ी हुई है, वो हटा दो; जो ब्रांड जुड़ा हुआ है, वो हटा दो, फिर जाओगे काम करने?

दत्तात्रेय कह रहे हैं, ‘काम की जगह जो नाम को और इमारत को देखता है, वो असफल है। रोटी की जगह जो रेस्तराँ को देखता है, वो असफल है। अकेलेपन से घबराकर आदमी और औरत में जो तृप्ति ढूँढता है, वो असफल है।’

जो व्यापक है और जो व्याप्य है। कटोरा और चाय। संसार व्यापता है और कहाँ व्यापता है? तुम्हारे कटोरे में (मस्तिष्क की ओर इशारा करते हुए)।

जो बाहर के झंझटों से भी मुक्त है और जो भीतर के झंझटों से भी मुक्त है, सो आत्मस्थ हुआ, सो सफल है। जो चाय और कटोरे, दोनों से मुक्त है, सो सफल हुआ। इसका मतलब ये नहीं कि वो चाय नहीं पियेगा। वो चाय पियेगा पर चाय में अमृत नहीं तलाशेगा। तुम चाय में अमृत तलाशते हो। इसीलिए तो इतनी बार पीते हो। चाय को चाय की तरह पियो, अमृत की तरह नहीं। और तुम इस पात्र को (मन को) सीमित थोड़े ही जानते हो, तुम तो इसमें महासागर भर लेना चाहते हो। छोटे–से कटोरे को, नन्हे–से प्याले को नन्हा जानो, अनंत नहीं। तुम इस खोपड़े को अनंत समझते हो, तभी तो समझते हो कि अनंत इसमें समा जायेगा। देखते नहीं हो, अनंत के बारे में कितना विचार करते हो।

चाय के दो प्याले समंदर किनारे बैठकर क्या कर रहे थे?

श्रोता: समंदर नाप रहे थे।

आचार्य: समंदर नाप रहे थे। दोनों खुश थे क्योंकि दोनों को एक–दूसरे की संगत थी। अकेला, लोनली नहीं अनुभव कर रहे थे। दोनों को कभी–कभार ये एहसास होता था, ‘शायद हममें उतनी व्यापकता नहीं है कि सागर को भर लें, पर दो मिल गए तो अब तो पूरा विश्वास है। अकेले कम थे भाई, अब तो जोड़ा है! अब तो सफलता निश्चित है। ये बच्चू यूँ ही लहराता है, बचके जायेगा कहाँ? अभी पकड़ लेंगे इसको। मैं और मेरा जोड़ीदार!’

अरे, जोड़ीदार के साथ हो जाते हो जब, तो यही तो कहते हो न कि आनंद आ गया। ये और क्या कह रहे हो तुम? कि हम दोनों मिल गये, तो समुंदर पूरा पकड़ लिया हमने। समंदर का ही तो नाम आनंद है। यही तो कहते हो कि ‘तेरे आ जाने से आ जाती है बहार’। पर दोनों कटोरे फूटे हुए हैं। दो फूटे कटोरे मिलकर सोच रहे हैं कि महापात्र बन जाएगा।

अब बबीता को मज़ा आया (एक श्रोता को संबोधित करते हुए)। इतनी देर में जुल्फ़ें छोड़ीं। जब आत्मा का नाम आता है न, तभी जुल्फ़ों से ध्यान हटता है। नहीं तो कोई जोड़ीदार पकड़ लो, ध्यान नथनी में, कर्णफूल में और काजल में, इन्हीं में रह जायेगा।

आ रही है बात समझ में?

जो ये (भगवान दत्तात्रेय) देंगे तुम्हें, वो कोई पुरुष नहीं देने वाला। फालतू बौराओ मत! इनके साथ रहो।

(उन्हीं श्रोता से पूछते हुए) अभी कुछ याद है? थोड़ी देर पहले ये, वो, पता नहीं क्या (बाल संभालने का अभिनय करते हुए)! यहाँ पर लैक्मे, रैवेलाॅन सब शुरू हो गया था। क्या कहते हैं खुसरो? ‘जो छवि देखी पीयू की, मैं अपनी भूल गयी’। अपने नैन–नक्श और अपनी देह से ध्यान तभी हटेगा, जब वो परम–सुंदर सामने आ जायेगा। ‘अपनी छवि बनाय के, मैं पीयू के पास गयी’। हम तो लगे रहते हैं कि अपनी ही पात्रता ऐसी कर लें कि पिया को समा लें। ‘जो छवि देखी पीयू की’?

श्रोता: ‘अपनी छवि भूल गयी’।

आचार्य: ‘मैं अपनी भूल गयी’। फिर भूल जाते हो। ‘अरे! कहाँ गया सारा साज–श्रृंगार! कहाँ गयी सारी सेल्फ़ कॉन्शियसनेस, सारा आत्मसंवाद!’ मौन हो गया।

ये जो आत्मकेंद्रित चेतना थी, अहम्–केन्द्रित चेतना थी, विलुप्त! कुछ इतना बड़ा मिल गया कि हक्के–बक्के रह गये। अब कौन अपना ख्याल करे! मुँह बाए खड़े हैं! पता ही नहीं है कि हम हैं कौन। जैसे आर्कमिडीज दौड़ पड़ा हो – ‘यूरेका, यूरेका!’ नंगा! कुछ इतना बड़ा मिल गया है कि कौन फ़िक्र करे अपने शरीर की।

जब तक अपने शरीर की बहुत फ़िक्र है, समझ लो तुम्हें अभी बहुत बड़ा कुछ मिला नहीं। अपने शरीर माने अपने घट की, अपनी हस्ती की। शरीर माने यही नहीं कि शरीर, अपने होने की। जब तक अपनी बहुत फ़िक्र है, समझ लो अभी कुछ बड़ा मिला नहीं। जब अपने से बड़ा कुछ मिल जाता है, तब खाने–पीने, सजने–सँवरने, नहाने–धोने सबका होश गुल हो जाता है। फिर जो कुछ भी करते हो, ‘उसके’ लिए करते हो। खाते भी हो तो इसलिए कि उसकी सेवा करनी है। इसलिए नहीं खाते हो कि (आचार्य जी संकेत से बात पूरी करते हैं)।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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