डांसिंग ब्वाय वगैरह छोड़ो, असली बात बताओ || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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डांसिंग ब्वाय वगैरह छोड़ो, असली बात बताओ || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम, आचार्य जी मुझे असफलता से बहुत डर लगता है। मैं प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहा हूँ। मन पढ़ते-पढ़ते परिणाम के बारे में सोचने लगता है और फिर बिल्कुल जम जाता है, डर लगता है आगे बढ़ने में। मैं डांसिंग ब्वाय कैसे बनूँ जिससे पढ़ाई भी हो और सफलता और असफलता का डर भी न रहे? डर की वजह से पूरी ऊर्जा भी सही से नहीं लग पा रही है। कृपया मार्ग दर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: किनका है? ये क्या लिखा था, डांसिंग ब्वाय क्या था?

प्र: आचार्य जी प्रणाम, डांसिंग ब्वाय मतलब आचार्य जी मैंने अद्वैत पढ़ी थी, पुस्तक अद्वैत, अद्वैत पुस्तक पढ़ी थी।

आचार्य: अद्वैत कौन-सी पुस्तक है?

प्र: अब आपके द्वारा प्रकाशित। ‘अद्वैत इन एवरी डे लाइफ़’। उसमें था कि आप कह रहे थे कि मुझे बात तो उस बच्चे की करनी है जिसको अचीवमेंट (उपलब्धि) चाहिए ही नहीं, हम जो सफलता और असफलता के पीछे जो बच्चे भाग रहे हैं, तो उनकी बात हम करेंगे ही नहीं।

आचार्य: मैं बच्चा कभी नहीं बोलता चौबीस साल वालों को।

प्र: हाँ तो..

आचार्य: सबसे पहले ये समझो। क्या?

प्र: बच्चा चौबीस साल का (श्रोतागण हँसते हैं)। तो हम उस व्यक्ति की बात करेंगे जिसको सफलता और असफलता से कोई मतलब नहीं है तो उसको मैं डांसिंग ब्वाय कह रहा था कि जिसको अपनी ज़िन्दगी जो आनन्द में है जो अब चल रहा है वो उसमें स्थित है और वो सफलता और असफलता के पीछे नहीं है।

आचार्य: ऐसा कोई होता होगा तुम्हें ये क्यों चाहिए?

प्र: तो आचार्य जी, मैं मतलब ये कह रहा था कि मैंने पढ़ा।

आचार्य: क्या पढ़ा?

प्र: यहीं कि सफलता और असफलता के पीछे नहीं भागना हैं तो ये मन तो बार-बार उठकर वहीं बैठ रहा है क्योंकि पढ़ाई हो रही है तो उससे परिणाम मतलब चाहिए, इसीलिए मतलब ये है कि वो डर आ रहा है कि फेल हो गये तो क्या करेंगे?

आचार्य: तो सही बात है, फेल हो गये तो क्या करेंगे?

प्र: और दूसरा कि यहाँ मन नहीं लग रहा तो किसी कार्य को भी उठाएँगे तो किसी में मन नहीं लगेगा।

आचार्य: सारे कार्य एक जैसे हैं, एक ही तरह से करते हो, एक ही जगह से करते हो, तो कैसे मन लगेगा?

प्र: आचार्य जी, तो वो ऊर्जा जो है वो डर की ऊर्जा है तो वो फ्रिज़ कर रही है, तो न किसी से हम सामने वाले से व्यक्त कर सकते हैं, अगर व्यक्त कर दें तो मन तो भाग ही रहा है।

आचार्य: कर तो रहे हो व्यक्त यहाँ पर।

प्र: माँ-बाप से जैसे हम कहना चाहें तो।

आचार्य: क्यों कहना है उनसे? उनसे क्यों कहना है कि मुझे डर लग रहा है या जो भी बात है, क्यों कहनी है?

प्र: ताकि क्लेरिटी (स्पष्टता) तो मिले कि न हम उधर हम बार-बार भागे नहीं परिणाम की तरफ़ न भागें।

आचार्य: नहीं, अगर तुम्हें क्लेरिटी मिल गई है तो क्यों भाग रहे हो? माँ-बाप का इसमें क्या किरदार है?

प्र: माँ-बाप का किरदार जुड़ा हुआ है नौकरी से।

आचार्य: कैसे? वो इन्टरव्यू पैनल में बैठेंगे?

प्र: नहीं-नहीं। मतलब मेरी नौकरी सही होगी तो कहीं-न-कहीं उनके लिए भी जीवन में आगे ठीक-ठाक परिस्थिति रहेगी।

आचार्य: कैसे?

प्र: जैसे बेसिक नसेसिटीज़ (बुनियादी आवश्यकताएँ)।

आचार्य: अभी नहीं पूरी हो रही?

प्र: अभी हो रही है।

आचार्य: तो उसमें तुम्हारी नौकरी का क्या योगदान है?

प्र: नौकरी का तो मतलब ये है कि अपेक्षा तो कुल मिलाकर ये है कि जीवन में कुछ तो करेंगे, कोई कार्य नहीं करेंगे तो...

आचार्य: इसमें माँ-बाप कहाँ हैं? जो कह रहे हो न, ‘डर लगता है माँ-बाप से नहीं अभिव्यक्त कर पाता,’ माँ-बाप कहा हैं? तुम्हारी कुल बात ये है, ‘मैं पढ़ रहा हूँ, पढ़ने में मन नहीं लगता और परिणाम को लेकर डर लगता है पर ये बात मैं माँ-बाप से नहीं कह पाता।’

थोड़ा अपने मन पर रोशनी डालो, ये पूरी कहानी क्या है? ज़रा देखो तार किस-किस च़ीज के किस्से जुड़े हुए हैं। तुम्हारी नौकरी का बताओ तुम्हारे माँ-बाप से क्या सम्बन्ध है?

झुठ बोल गये न, बेसिक नसेसिटीज़ इसकी तो बात ही नहीं है वो तो अभी-भी चल ही रही हैं, खाते-पीते लग रहे हो। घर बैठकर पढ़ाई कर रहे हो इसका मतलब घर में इतना भी है कि एक जवान आदमी को घर बैठाकर के उसको खिलाया-पिलाया जा रहा है कि तू तैयारी कर।

तो बेसिक नसेसिटीज़ , मूलभूत आवश्यकताओं का प्रश्न तो नहीं ही है। अब बताओ क्या बात है?

प्र: तो वो आचार्य जी मन बार-बार भाग रहा है कह रहा है कोई कार्य करें।

आचार्य: मन अगर भाग रहा है तो भाग ही क्यों नहीं जाते? क्यों कर रहे हो तैयारी?

प्र: आचार्य जी, कार्य कोई भी करेंगे तो उसमें भी तो बार-बार भाग ही।

आचार्य: तुम्हें कैसे पता, तुमने सब कार्य करके देखे या तुमने कोई कार्य किसी अलग केन्द्र से, किसी अलग मन से करके देखा?

प्र: नहीं, आचार्य जी।

आचार्य: तो तुम्हें कैसे पता कि कुछ भी करेंगे मन वहाँ से भागेगा ही? पूरी बात ये है कि पढ़ाई में तुम्हारा मन इसलिए नहीं लगता क्योंकि तुम्हें वो पढ़ाई करनी ही नहीं है। डरे तुम इसीलिए हुए हो क्योंकि वो पढ़ाई तुम माँ-बाप के दबाव में कर रहे हो और इसीलिए ये बात तुम माँ-बाप को जाकर कह नहीं पाते। जो यहाँ पर बड़ी आसानी से कह दे रहे हो।

कुल मिला-जुलाकर किस्सा ये है। पढ़ाई में मन नहीं लगता क्योंकि वो पढ़ाई तुम्हारे लिए शाय़द है ही नहीं। वो पढ़ाई तुम कर ही रहे हो उनके दबाव में जो तुमको एक तरह से स्पॉन्शर कर रहे है कि तू घर बैठ, तुझे रोटी-पानी की अभी फ़िक्र करने की कोई ज़रूरत नहीं, साल-दो-साल तू बैठ और तू तैयारी कर।

वो तैयारी तुम्हें करनी ही नहीं है सबका अपना व्यक्तित्व, अपना मन, अपना जीवन होता है सब को एक तरफ़ नहीं जाना होता। लेकिन ये बात साफ़-साफ़ माता-पिता से कह पाने का तुममें साहस नहीं है और प्रेम भी नहीं है। तो तुम बात को उलझा रहे हो कह रहे हो ये तो बेसिक नसेसिटीज़ का सवाल है और ये और वो। और उसमें तुम एक आध्यात्मिक रंग घुसेड़ रहे हो, अद्वैत की बात कर रहे हो। बात बहुत सीधी-सादी है, माँ-बाप के दबाव में हो और इतना साहस नहीं दिखा पा रहे हो कि उनसे सीधी-सीधी बात कर पाओ इसमें क्यों अध्यात्म बीच में ला रहे हो?

इस बात में इतनी गहराई ही नहीं है कि उसका कोई आध्यात्मिक पहलू निकाला जाए। ‘डांसिंग ब्वाय’ और जाने क्या-क्या सब इधर-उधर की बातें कर डाली। जो मूल बात थी सीधी-सादी कि मम्मी से डरता हूँ, वो नहीं बोल पा रहे हो। इतनी दूर तुम्हें आना पड़ा ये बात बोलने के लिए मुझसे। मुझसे बोलने की जगह ये बात अपने माँ-बाप से ही बोल दी होती।

सैकड़ों किलोमीटर चलकर यहाँ तक आये तुम, ये बात सीधे-सीधे माँ-बाप से बोल दो न, ये तुम्हारा दायित्व भी है भाई। समझो, तुम पर वो निवेश कर रहे हैं, तुम पर पैसा लगा रहे हैं। और तुम्हीं ने कहा है कि वो उपेक्षाएँ रख रहे हैं आगे के लिए। उनको बता तो दो कि तुम्हारे इरादे क्या है, तुम्हारा मन किधर को जा रहा है। नहीं उनको भी धोखा होगा। ये मैं निवेश की दृष्टि से बोल रहा हूँ, प्रेम की दृष्टि से बोलू तो भी यही बात है। अगर माँ-बाप और सन्तान में प्यार है वास्तव में तो वह एक-दूसरे से खुलकर के दिल की बात करेंगे या नहीं करेंगे?

ऐसे रिश्ते को हम क्या समझे जहाँ बेटा माँ-बाप से अपना हाल बता ही नहीं पा रहा। ये बात घर बैठकर के माँ-बाप से करो। देखो जिस भी तुम प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे हो आधे मन से तो सफलता उसमें भी तुम्हें मिलनी है नहीं।

हिन्दुस्तान में जानते हो न दस लाख लोग आवेदन भरते हैं और चयन होता है दो सौ का, ऐसा ही चलता है न, कितना प्रतिशत हुआ ये?

प्र: प्वॉइंट में आ गया ये, सर। एक प्रतिशत भी नहीं पहुँचा है।

आचार्य: कितना हुआ?

प्र: प्वॉइंट ज़ीरो ज़ीरो ज़ीरो टू में आएगा, सर।

आचार्य: तुम्हारा चयन नहीं होना बेटा (श्रोतागण हँसते हैं)। अभी से, कितना हुआ दो सो बट्टे दस लाख? प्वॉइंट ज़ीरो ज़ीरो ज़ीरो ज़ीरो ज़ीरो टू हुआ, अभी भी सिर हिला रहे हो। तुम्हें आध्यात्म नहीं, मैथ्स की ज़रूरत है। ऐसे नहीं किसी भी काम में सफलता मिलती है। सर्वस्व झोंकना पड़ता है आधे-अधूरे मन के साथ तुम क्या उखाड़ लोगे? होता है? पर ज़्यादातर लोग जो इन सरकारी नौकरियों के, सरकारी नौकरी है? क्या है?

प्र: सरकारी नौकरी है।

आचार्य: ज़्यादातर लोग जो इन सरकारी नौकरियों की तैयारी कर रहे होते हैं वो ऐसे ही कर रहे होते हैं, ‘परिवारिक दबाव है, सामाजिक रूझान है, माँ-बाप ने बोल दिया।’ तो क्या होगा? वास्तव में जो ये दो-सौ लोग सफल होते हैं न उनकी राह बहुत मुश्किल नहीं होती। क्योंकि पूरे दिल से तैयारी करने वाले लोग ही उन दस लाख में मुश्किल से एक हज़ार होते हैं। तो जो वास्तविक प्रतिस्पर्धा होती है वो होती ही कुल एक हज़ार लोगों में हैं। बाकी तो बस ऐसे ही खानापूर्ति करने के लिए फ़ॉर्म भरते रहते हैं‌।

घरवाले बोलते हैं, फ़ॉर्म भरते रहो तो वो भरते रहते हैं। अपना भरते रहते हैं तो ऐसा लगता है कि दस लाख लोग सिविल सेवा में चयनित होने के लिए आतुर हैं। वो आतुर हैं ही नहीं, उन्हें कुछ नहीं चाहिए। परीक्षा के दिन उनको अगर झंझोड़कर जगाया न जाए तो परीक्षा देने न जाएँ।

उनमें से तो कई ऐसे हैं जिनको तुम कह दो कि तेरा चयन हो गया है तो कहेंगे, ‘खबरदार, ये तू अपशगुन की बातें करते हो। उन्हें करना ही नहीं है ये सबकुछ। वो सिर्फ़ जवानी जला रहे है समय खराब कर रहे है।

हिन्दुस्तान में समय खराब करने का, युवा अवस्था को बिलकुल आग लगा देने का, अगर कोई तरीका है तो वह यही है। पाँच-सात साल सरकारी नौकरी की तैयारी करो। यही चलता है।

जो लोग ढंग से तैयारी करते हैं वो मुठ्ठी भर होते हैं उनमें से कुछ लोग चयनित हो जाते हैं। ये जो तुम कर रहे हो ये अपने साथ तो तुम बुरा कर रहे हो, माँ-बाप के साथ भी अन्याय कर रहे हो। माँ-बाप के साथ बैठो शान्ति और सद्भावना के माहौल में उनको अपनी मन की बात बताओ और कहो कि देखिए ऐसा-ऐसा है। हो सकता है वो शुरू-शुरू में बुरा माने, हो सकता है एक मर्तबा उनको झटका लगे, पर फिर बात को समझ जाएँगे, भई।

माँ-बाप हैं तुम्हारे, समझ जाएँगे। और फिर आगे कोई बेहतर सृजनात्मक रास्ता निकलेगा। तुम कर रहे हो ये सिर्फ़ अगले दो-चार साल खराब करने की तैयारी है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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