प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मैं प्राइमरी स्कूल की टीचर हूँ और जब मैं वहाँ देखती हूँ — प्राइमरी स्कूल की हालत, तो वहाँ बच्चे किताब से ज़्यादा कटोरी और प्लेट पर ध्यान देते हैं। मतलब प्लेट आनी ज़रूरी है, बुक्स, कॉपीज़, पेंसिल आए चाहें ना आए। तो वो जो गवर्नमेंट ने उनको मिड-डे मील के नाम पर कटोरा पकड़ा दिया है, तो वो बहुत ज़रूरी हो गया है। और ये मेरे साथ के जैसे झारखण्ड में हमारे साथ पढ़ाते हैं टीचर्स, उन्होंने भी वैसा ही बताया है। यू.पी., बिहार में तो यही चीज़ सेम है ही है। तो ये जो हैं, यही आगे जाके वोटर बनते हैं और जितना डेस्परेटली ये लोग वोट करते हैं, उतना तो जैसे दिल्ली और कानपूर, वग़ैरह में भी ऐसे वोट नहीं करने जाते, जितना ये लोग ध्यान से जाते हैं, हर एक चीज़ करने के लिए।
तो सर, इसे देख के बड़ा दुख होता है। लेकिन मैं अभी समझ नहीं पाई हूँ कि मैं क्या करूँ, इसको किस तरीक़े से मैं अपने लेवल पर कुछ करने की कोशिश करूँ?
आचार्य प्रशांत: थोड़ी देर पहले ही हमने उस शब्द को उठाया था — आत्मसम्मान। राज्य आप पर एहसान नहीं कर रहा है अगर आपको वो मिड-डे मील दे रहा है, खाना दे रहा है। आप डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ स्टेट पॉलिसी में जाइए, तो ये राज्य का कर्तव्य है। लीगली एनफ़ोर्सिबल नहीं है, लेकिन डायरेक्टिव प्रिंसिपल है। आपको इस सिद्धांत पर ये निर्देशिका है एक तरह की, आपको ऐसे इंगित कर रही है — करो। तो बच्चे के भीतर ये भाव होना चाहिए कि जो मुझे ये दे रहा है इसलिए दे रहा है, क्योंकि ये मेरा हक़ है। मुझे भीख नहीं दी जा रही है, हक़ दिया जा रहा है। और जैसे ही उसको ये आ जाएगा ना कि माई-बाप सरकार है। मेरे माई-बाप मुझे दाल-चावल नहीं दे पाए पर देखो, स्कूल आता हूँ, तो सरकार मुझे दाना-पानी दे देती है। तो फिर उसका सर झुक जाएगा। ये जो रीढ़ है ना, इसका सीधा रहना, तने रहना बहुत ज़रूरी होता है।
और वही प्रयास कर रहे हैं कि भारत दोबारा अपनी रीढ़ पा सके। सवाल पूछना जायज़ है, ग़लत बात को ना मानना जायज़ है — ये सिखाइए, आप टीचर हैं तो अपने बच्चों को। सज़ा उसको दीजिए जो सवाल नहीं पूछ रहा।
प्रश्नकर्ता: हम उनको ये सिखाएं कि मतलब ये जो तुम्हें मिल रहा है, ये तुम्हारा हक़ है।
आचार्य प्रशांत: हक़ है, बल्कि अगर तुम्हें ना मिले तो तुम आवाज़ उठाओ। 14 साल तक कंपल्सरी एजुकेशन सरकार को देनी पड़ेगी, संविधान कहता है। और कैसे देगी सरकार? अगर वो जो बच्चा है, उसके पास खाने को नहीं है, फिर वो खाने के लिए भागेगा। माँ-बाप कहेंगे, ‘तू कुछ कमा के ले आता, जितनी देर में स्कूल में बैठा है, इससे अच्छा कमाने चला जा। नहीं तो तू बस स्कूल में जाएगा और हम तुझे खाना खिलाएँगे।’ तो फिर ठीक है, स्कूल जा रहे हैं — सरकार कहती है, 'खाना भी देंगे।' भेजो, स्कूल खाना वहाँ मिल जाएगा।
तो हम उसको वो दे रहे हैं जो वो उसको मिलना ही चाहिए और कुछ नहीं दे रहे हैं। ये हमने क्या दे दिया उसको, जो थोड़ा सा उसको खाने को दे देते हैं। अगर आप सिर्फ़ जीडीपी के आधार पर देखें तो भारत अब कोई गरीब देश नहीं रहा। हम गरीब देश नहीं हैं, बहुत पैसा है। बस जो इनकम डिस्ट्रीब्यूशन है, वो बहुत स्क्यूड है, इनकम और वेल्थ दोनों बहुत स्क्यूड है।
जो टॉप 1% है और जो टॉप 5% है, वो सब कुछ दबा कर बैठा हुआ है, सब कुछ। तो बात ये नहीं है कि हम गरीब हैं, बात ये है कि एक पिरामिड है जिसका बेस बहुत बड़ा है, ज़्यादातर लोग नीचे ही नीचे हैं, उस पिरामिड में। और नीचे वाले में और वो जो चोटी पर बैठा है, उसमें बहुत फ़ासला हो गया है। सारा कंसंट्रेशन उसके पास है — पैसे का, वेल्थ का और पावर का भी, सत्ता का भी। तो आप अगर नीचे वालों को दाल-रोटी दे रहे हो तो कोई एहसान कर रहे हो? एहसान नहीं कर रहे, मैं बताता हूँ, क्या कर रहे हो? दाल-रोटी भी नहीं दोगे न तो क्रांति कर देंगे।
प्रश्नकर्ता: वो दाल-रोटी पे कंसंट्रेटेड हो गए, पढ़ाई हट गई है। पढ़ाई जो मेन होनी चाहिए थी मिड डे मील के माध्यम से, तो वो सिर्फ़ मिड-डे मील पे ही फ़ोकस्ड हो गया। पढ़ाई को गार्जियन ने पीछे कर दिया। गार्जियन भी नहीं पूछते और गवर्नमेंट भी उस हिसाब से बहुत फोकस्ड नहीं है कि हम पढ़ाएं, मिड-डे मील पर ज़्यादा फोकस्ड हैं।
आचार्य प्रशांत: हाँ, तो ये यही तो फिर टीचर का कर्तव्य है ना वहाँ पर, कि आप कहें कि तुम यहाँ रेस्टोरेंट आए हो? तुम यहाँ पढ़ने आए हो और खाना तुम्हें इसलिए मिल रहा है ताकि तुम पढ़ो और पढ़ाई से ऊँची बात कोई नहीं है दूसरी। राज्य ने तुम्हें दे दिया दाल-चावल बहुत अच्छा करा, चलो ठीक है, पर जो असली चीज़ है वो तो पढ़ाई है।
पढ़ाई के लिए, जानने के लिए, ज्ञान के लिए, जिज्ञासा के प्रति जहाँ ललक नहीं जागृत की जा रही, वो जगह स्कूल नहीं कहला सकती।
वो राष्ट्र कभी आगे नहीं बढ़ पाएगा, वो गुलाम बन जाएगा फिर से। पहले कुछ लोगों ने आकर के फ़िज़िकली घेर लिया था, ऑक्यूपाइ किया था। अब ज़रूरी नहीं है कि लोग यहाँ पर ज़मीन पर क़दम रख के आपको घेरें, आप पर राज करें। अब आर्थिक तरीक़े से आप पर कोई राज कर लेगा। आपकी इकॉनॉमी को कॉलोनाइज़ कर लेगा और राज कर लेगा। आज़ादी पहले यहाँ (अपने भीतर) होनी चाहिए और ज्ञान ही आज़ादी का दूसरा नाम है। जहाँ ज्ञान है, जहाँ समझदारी है, आज़ादी सिर्फ़ वहाँ टिक सकती है। बच्चों में शिक्षा के लिए प्यार जागृत करिए।
हर तरीक़े से कहिए — देखो, ये कोई किताब की बात नहीं है, ये तुम्हारी ज़िन्दगी की बात है। चलो समझते हैं, चलो खेलते हैं। खिलौने, ये क्या है? हम खेलने आए हैं। स्पोर्ट्स पीरियड, पीटी पीरियड अलग नहीं होगा, यही तुम्हारा स्पोर्ट्स है। मैथ्स ही स्पोर्ट्स है। आप क्या पढ़ाती हैं?
प्रश्नकर्ता: सर, मैं ऑल वो मैं फ़र्स्ट को पढ़ाती हूँ।
आचार्य प्रशांत: तो सब कुछ ही पढ़ाती हैं आप, तो आपके साथ तो लगातार रहते हैं वो। बोलो, ‘हम खेलने आए हैं, स्कूल नहीं है प्लेग्राउंड है तुम्हारा, आओ खेलते हैं।’ मैं तो गीता भी पढ़ता हूँ, तो इतनी बड़ी एक टोकरी रखता हूँ खिलौनों की। और इतने बड़े-बड़े लोग हैं, उन्हें ऐसा मज़ा आता है खिलौनों से। सब कुछ एक खिलौना होना चाहिए ना। आप अगर जाएँगे ऋषि अष्टावक्र के पास या रिभु के पास, वो बार-बार बोलते हैं — क्रीड़ा, बोलते हैं मुक्ति का एक बड़ा लक्षण क्या होता है? बोलते हैं, क्रीड़ा। जो जितना आज़ाद होता जाता है, उतना खिलंदड़ होता जाता है। उसको खेलने में बहुत मज़ा आता है क्योंकि अब वो दुनिया की किसी चीज़ को गंभीरता से लेता नहीं तो वो क्या करेगा फिर? वो खेलेगा। बच्चों के साथ खेलिए और खेलना माने दौड़-भाग ही नहीं होता। गणित में भी खेल सकते हो, हिंदी, अंग्रेज़ी में भी खेल सकते हो, मज़े लगाइए उनके।
भूलिए नहीं, चेतना का स्वभाव आनंद है और क्रीड़ा उसका बाहरी लक्षण है, मौज करती है।
मज़े आएँगे तो फिर वो खाना भी भूल जाएँगे। फिर एक दिन ऐसा आएगा कि आप कहेंगी, 'अरे! ये मिड डे मील के लिए आते थे, मिड-डे मील ही भूल गए। ये तो पढ़ने में इतना मौज आ रही है इन्हें।' आपने डिनर कर लिया? अभी जैसे अभी क्या बज रहा होगा? 9:30 बजने वाले। आमतौर पर कितने बजे खा लेती हैं?
प्रश्नकर्ता: सर मैं 7:30 बजे खा लेती हूँ।
आचार्य प्रशांत: जवाब मिल गया?
प्रश्नकर्ता: हाँ जी।
आचार्य प्रशांत: मिड-डे मील, मिड-इवनिंग मील, मिड-नाइट मील सब भूल जाता है आदमी। जब ये (परस्पर क्रिया) होता है, ये करिए।
प्रश्नकर्ता: थैंक यू।