वैवाहिक जीवन में झगड़ा और कलह || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

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वैवाहिक जीवन में झगड़ा और कलह || आचार्य प्रशांत (2018)

प्रश्नकर्ता: शादी को दो साल हुए हैं, झगड़े अब बहुत होते हैं, बात तलाक़ तक पहुँच गयी है, बहुत परेशान हूँ, क्या करूँ?

आचार्य प्रशांत: नहीं, इस पूरे खेल में मैं कहाँ से आ गया? और कब? मियाँ-बीवी और गुरु। क्यों भाई, शादी मुझसे पूछ के करी? झगड़ा मुझसे पूछ के करा? अब क्यों आये हो? और शायद शादी भी इसीलिए हुई कि पूछा नहीं। और फिर झगड़ा भी इसीलिए हुआ कि पूछा नहीं। तो यही समाधान है।

निदान भी बता दिया, समाधान भी बता दिया। गुरु के पास रहते तो संभवतः ऐसी शादी ही नहीं होती। चलो शादी के बाद भी आ जाते तो संभवतः ऐसे झगड़े नहीं होते — ये हुआ निदान, डायग्नोसिस ; और समाधान भी बता दिया। तुम कभी दूसरे से थोड़े ही झगड़ते हो। तुम कभी बीवी पर थोड़े ही खफ़ा होते हो। तुम कभी शौहर के बाल थोड़े ही खींचते हो। गुस्सा तुम्हारा स्वयं के प्रति रहता है, उतरता दूसरे पर है। और स्वयं से क्यों खफ़ा हो तुम? क्योंकि अपनेआप को वो दे नहीं पा रहे जो देना है।

देखा है, कोई लक्ष्य बनाओ और उसे न पाओ तो अपने पर कितना गुस्सा आता है। लोग अपने बाल खींच लेते हैं, अपनेआप को थप्पड़ मार लेते हैं। कई बार तो लक्ष्य बनाओ और पाओ नहीं तो आत्महत्या भी कर लेते हो। अपनेआप पर गुस्सा आता है कि नहीं? ‘मैं ये क्यों नहीं कर पाया?’

अभी कल भारत-इंग्लैंड का क्रिकेट मैच चल रहा था। टेस्ट मैच, पहला दिन। एक बल्लेबाज़ घटिया शॉट (मारने की क्रिया) मारकर आउट हुआ। लंच (दोपहर का भोजन) से पहले की आख़िरी गेंद थी, हुक शॉट मार दिया और फिर उसका गुस्सा देखते, अपने ही ऊपर — ‘ये मैंने क्या कर दिया!’

ये संजय (स्वयंसेवी को संबोधित करते हुए), ये बात-बात में बोलेगा, ’लूज़ शॉट’ । जो तुम चाहते हो करना, जब न कर पाओ, तो अपने ऊपर ही कैसा क्रोध उठता है। अब वो क्रोध तुम अपने ऊपर तो उतारोगे नहीं। इतनी ईमानदारी तो है नहीं। तो बाहर बीवी मैच देख रही होती है, रैकेट उसको मार दिया। और वो भी काहे को पीछे रहे; तुम्हारे पास रैकेट है उसके पास मूसल है।

गुरु के पास रहते हो तो तुम्हारा तुमसे परिचय करा दिया जाता है। तुम्हारी अपने प्रति क्रोधाग्नि शांत होती है, तुम जगत के प्रति शीतल हो जाते हो। तोड़-फोड़ करने की ज़रूरत नहीं रह जाती। अभी कुछ दिन पहले इसी कार्यक्रम में वो गाना बजा रहे थे न “बहुत दिनों से शिकायत नहीं ज़माने से”। क्यों भाई कमलेश, क्या था?

“ये आसमान, ये बादल, ये रास्ते, ये हवा, हर एक चीज़ है अपनी जगह ठिकाने पे” और “कई दिनों से शिकायत नहीं ज़माने से।” और ये सब कब होता है? जब “तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी में शामिल है, जहाँ भी जाऊँ ये लगता है तेरी महफ़िल है।”

फिर शिकायत नहीं रहती ज़माने से। भीतर ठीक तो बाहर ठीक। मन चंगा तो कठौती में गंगा। मन चंगा तो वहीं जाकर होता है। फिर नहीं लड़ोगे एक-दूसरे से। जहाँ तक है प्रेम विवाह किया होगा। शुरू में तो वही परी बड़ी प्यारी लगती थी और तुम भी तब सपनों के राजकुमार थे, घोड़े पर बैठ के आते थे। अब वो टट्टू निकला। परी, पिशाची हो गयी। पहले हँसती थी तो फूल झड़ते थे, अब हँसती है तो लगता है कि दाँत दिखा रही है, खून पिएगी।

“जो सुख में सुमिरन करे तो दुख काहे को होय”, पर तब तो झाड़ के पीछे छुपे थे। वहाँ चल रही थी गुटर गूँ कि कहीं गुरुदेव न देख लें। “छुप-छुप के, छुप-छुप के, चोरी से चोरी, बंटी की बबली हुई।” तब तो कोने-कतरे, कहीं झाड़, कहीं गोदाम, गैराज , छत; जहाँ पाया वहीं छुप-छुप के, छुप-छुप के। अब कह रहे हो कि झगड़ा बहुत होता है। इसीलिए पुराने लोगों ने परंपरा बनाई थी, किसी से दोस्ती हो तो पहले उसे बड़ों से मिलवा दो। और पालन भी होता था इसका।

और बड़े से तात्पर्य ये नहीं है कि कका और ताऊ के पास ले गये। वो बड़े नहीं हैं, वो अभी शिशु हैं। बड़ा माने जो वास्तव में जो बड़ा हो, ज़रा विराट, ज़रा आगे का। मिलवा दो। उसके बाद जाना। जिस झाड़ में घुसना हो, घुसना। पर तुम तो गाते हो, ‘चोरी में ही है मज़ा’। जब तक चोरी से नहीं किया तब तक मज़ा कहाँ आया। वो देखो संजय को, हँसी देखो। सुना रे पूरा गाना। सुना, सुना, अरे! सुना। तेरे ही देस का है। मदद कर दो, केवल।

चोरी में जो रस है वो सलीके में कहाँ!

कुछ नहीं बिगड़ा अभी भी। पत्नी प्रेतनी नहीं है, तुम्हारी ही तरह इंसान है। कोई वजह नहीं है कि उसके साथ सिर फोड़ो। और तुम भी कोई बहुत राक्षस आदमी नहीं हो। सामान्य, साधारण आदमी हो।

बात ये पति-पत्नी के मध्य की है ही नहीं। बात इसकी है कि दोनों की ही ज़िंदगी से सत्य नदारद है। उसको अपने जीवन में ले आओ, तुम दोनों की भी आपस में बनने लगेगी। जिन भी दो लोगों की ज़िंदगी से सच नदारद होगा, वो आपस में भी लड़ेंगे, भीतर-भीतर भी कुढ़ेंगे, पूरी दुनिया उन्हें अपने ख़िलाफ़ नज़र आएगी। इस तीसरे का होना बहुत ज़रूरी है किसी भी रिश्ते में। जो भी रिश्ता दो का होता है उसमें ये बम-पटाखे फटते ही रहते हैं।

आ रही है बात समझ में?

जब मिलने जाओ, डेट पर जाओ, आमने-सामने बैठो, तो बीच में अष्टावक्र गीता की एक प्रति रख लो, लड़ाई नहीं होगी। काहे को मुस्कुराते हो? कुछ और रखना है बीच में? मिल्स एंड बून्स ? रख लो। उसी को उठा के फोड़ देना सिर। हार्ड कॉपी लेकर जाना बिलकुल; हार्डबाउंड

आ रही है बात समझ में?

शयनकक्ष में तो ख़ासतौर पर, कृष्ण की, बुद्ध की, शिव की बड़ी प्रतिमा, मूर्ति, चित्र इत्यादि कुछ रखो। जहाँ-जहाँ तुम्हें पता हो कि तुम्हारा राक्षस जगेगा, तुम्हारी अतृप्तियाँ, तुम्हारी वासनाएँ, तुम्हारा अंधेरा हावी होगा, वहाँ उसको मौजूद रखो जिसका इशारा ही प्रकाश ले आ देता है। झाड़ में भी जाओ तो कम-से-कम स्मृति साथ लेकर जाओ। फिर नहीं लड़ोगे आपस में।

आ रही है बात समझ में?

पर हमारे तो रिवाज़ दूसरे हैं — पूजाकक्ष अलग होता है, शयनकक्ष अलग होता है। जब सारे गलीच काम कर लेते हो तब नहा धोकर पहुँच जाते हो पूजा करने। जैसे कि उन्होंने देखा ही न हो। महादेव न हुए, तुम्हारे चचिया ससुर हो गये कि जब तुम बिस्तर रौंद रहे थे, तो भांग का गोला लेकर बेहोश पड़े थे, उन्हें तो पता ही नहीं चला। सुबह उठकर के, नहा धोकर के बिलकुल अच्छे बच्चे बन के पहुँच जाते हो महादेव के समक्ष। ‘हम तो नन्हें-मुन्ने हैं, हमने कुछ किया थोड़े ही।’

महादेव को घर के हर कमरे में रखो। रसोई में भी रखो, खाना बेहतर पकेगा। जहाँ-जहाँ हो, वहाँ-वहाँ रखो। शयनकक्ष में शिव-शक्ति का चित्र अगर मौजूद है, तो तुम पर पागलपन ज़रा कम चढ़ेगा।

और बात कर रहे हो तलाक़ की! क्या सोचते हो — तलाक़ दे लोगे तो आज़ाद हो जाओगे? इस दीवार पर सिर नहीं फोड़ोगे तो उस दीवार पर फोड़ोगे। सिर तो तुम्हें फोड़ना ही है। पति-पत्नी के रिश्ते को तो इतना ज़लील बना देते हो कि पूछो मत।

गृहस्थी और संन्यास को तुमने अलग-अलग चीज़ कर रखा है, कि गृहस्थी अलग चीज़ है, संन्यास अलग चीज़ है। संन्यास माने पूजा का दीया और गृहस्थी माने वासना की लपट। ये क्या विभाजन है भाई?

संयम हो, प्रेम हो, तो तुम्हारे घर बेहतर नहीं चलेंगे क्या? बोलो। और घरों में कलह इसलिए होती है न क्योंकि दिल में अध्यात्म नहीं है। संयम तुमको संसार तो सिखाएगा नहीं, संयम तो अध्यात्म ही सिखाएगा। अब तुम्हारे पास संयम नहीं है अगर, सहिष्णुता नहीं है, सच्चाई नहीं जानते, प्रेम नहीं जानते, निष्पक्षता नहीं जानते, तो बीवी से भी लड़ोगे, बच्चों से भी लड़ोगे, माँ-बाप से लड़ोगे, चाचा का सिर फोड़ दोगे। पर तुमने खूब खेल रचा है।

तुम कहते हो — गृहस्थी चलानी हो तो अध्यात्म से दूर-दूर ही रहना, ये घर तुड़वा देते हैं। ठीक है, गुरुजन तो घर तुड़वा देते हैं, तुम गुरु को घर से निकाल के चला लो घर। मुझे दिखा दो कि जिस घर में गुरु न हो, वो घर कैसे चलेगा। दिखाओ।

कबीर साहब कह गये हैं, “मात पिता सुत बान्धवा, ये तो घर-घर होए। गुरु मिला तो सब मिला, नहीं तो मिला न कोय।” तुमने घर का मतलब यही समझ रखा है — मात पिता सुत बांधवा। इनसे नहीं घर बन जाता। अन्यत्र कहते हैं कबीर साहब कि जिस घर में राम न हों, उस घर को शमशान जानना।

तुम सोचते हो — नहीं, घर का मतलब होता है फ़र्नीचर । ‘सुनते हो जी, सेल लगी है।’ फर्नीचर ले आओ बहुत सारा और ट्यूबलाइट लगवा लो और पुताई करवा लो और नयी चादर बिछा दो, तो घर हो गया। इससे घर होता है? अब बाहर वो टाँग दो नींबू और मिर्ची, अपने दोस्त के मुँह के नीचे। मैं सोचता था ये बाहर नींबू-मिर्ची किसको खिलाया जा रहा है? ये फोटू किसकी टाँग रखी है? फिर समझ में आया ये अपना ही है।

जैसे बाहर अपना नाम लिख के नहीं टाँगते — चावलाज़ पैराडाइज़ (चावला का स्वर्ग), तो वैसे ही चावला जी अपनी फोटू भी टाँगते हैं, उसके दाँत निकले होते हैं ऐसे (राक्षस के दो बाहर निकले हुए नुकीले दाँतो को दर्शाते हैं) और उसके नीचे नींबू और मिर्च। कोई धोखे में न आ जाए। आई-कार्ड (परिचय पत्र) पर नाम लिखा होता है सिर्फ़! फोटो भी तो होती है। तो ये घर है हमारा। फोटू, नींबू, मिर्ची, घड़ा, दो दरवाज़े वाला फ्रिज, रस्सियाँ, उनपर चड्डियाँ सूख रही हैं। अब ये तो घर है! इसमें लड़ोगे नहीं तो क्या करोगे! किसको अच्छा लगेगा घर में घुस रहे हो और चड्डियाँ…।

और कई जगह तो बड़ी नैतिकता होती है, वो चड्डियाँ दिखाने से अधर्म हो जाएगा। तो चड्डियों के ऊपर पजामे डालते हैं सुखाने के लिए। पजामे सूख जाते हैं, चड्डी सूखी नहीं, वो बदबू मारती है। लोगों के घरों में जाना और कपड़े सूख रहे हों तो ध्यान से उतारना। तुम सोचोगे तुम कमीज़ उतार रहे हो, कमीज़ उतारोगे ब्रा (महिलाओं का अंतर्वस्त्र) गिर पड़ेगी कंधे पर। हमारे यहाँ धर्म का यही मतलब होता है कि खुले में ब्रा मत सुखाना।

घर में राम हो न हो, कोई फ़र्क नहीं पड़ता, पर धर्म का मतलब ये है कि कच्छा खुले में नहीं सूखना चाहिए। बढ़िया! बड़े धर्मी हो तुम! फिर बोलते हो तलाक़ की नौबत आ गयी है। कच्छा तो छुपा लिया न, तलाक़ होता हो तो हो!

काहे, ‘क्या हुआ, करवा चौथ तो रखा ही होगा। वो तो प्रेम का व्रत होता है न!’ अब तलाक़ क्यों हो रहा है, करवा चौथ तो रखा था? और गाने भी बहुत हैं। काजोल करवा चौथ का चाँद देख रही है, पीछे से शाहरुख ख़ान जाता है, कहता है, ‘प्रिये, तूने नहीं खाया, तो मैं भी प्यासा हूँ।’ आ हा हा। तुम्हें लगा ऐसे ही चल जाएगी गाड़ी, जैसे पिक्चर चल गयी थी। कोई पिक्चर तुम्हें कभी बताती ही नहीं कि गृहस्थी ऐसे नहीं चलती। ये तो तुम्हें किसी ने बताया ही नहीं, ये तो बहुत बाद में पता चलता है जब तक हानि हो चुकी होती है। तुम्हें लगता है, ऐसे ही होगा बिलकुल।

हमने घर छोड़ा है’ — आमिर ख़ान माधुरी दीक्षित गा रहे हैं — दूर कहीं जाएँगे नयी दुनिया बसाएँगे। और बस गयी नयी दुनिया। दोनों को एक दूसरे से बहुत प्यार है न! भली बात। उस गाने में महादेव का नाम तो कहीं था नहीं, तुम्हें लगा महादेव की ज़रूरत भी नहीं है। घर बसाने के लिए दो ही जने तो चाहिए — एक नर, एक मादा; बस, बस गया घर! अब चोंच मार रहे हो एक दूसरे को — नर-मादा।

और तुमने देखी है ‘कयामत से कयामत तक’! आमिर ख़ान जूही चावला अपने-अपने घर से भागे हैं और पहाड़ के ऊपर अब लकड़ी का घर बना रहे हैं। संजय, कितने दर्जन बार देखी है? (श्रोताओं की हँसी के फ़व्वारे फूट पड़े) इस पहाड़ी की बड़ी हसरत है कि मिले कोई ऐसी कि बिलकुल एकदम चोटी पर पहाड़ बनाऊँ। वहाँ से गिरेगा न तो इतनी लगेगी, इतनी लगेगी. . . और पिक्चर दिखाती है कि वो शाम को दिनभर की मेहनत के बाद थोड़ा सा आटा और थोड़ा सा चावल और नमक और हल्दी लाया है। और ये बना रही है। और तुमको लगा बस ऐसे ही तो होता है। अब कह रहे हो, ‘तलाक़ होने जा रहा है। पिक्चर में ये दिखाया ही नहीं था कि दोनों का तलाक़ भी होता है। पिक्चर तो वहीं पर ख़त्म हो गयी थी — जा सिमरन, जी ले अपनी ज़िंदगी। उसके बाद क्या हुआ, वो तो बताया ही नहीं। ट्रेन छूट तो गयी, आगे क्या हुआ उसका?’

एक्सीडेंट (दुर्घटना) हुआ था आगे। वो काट दिया एडिटर (संपादक) ने। जिस ट्रेन में उसको लेकर भगा था वो, वो ट्रेन आगे जा के दुर्घटनाग्रस्त हुई थी। पर ये बात तुम्हें पिक्चर वाले ने दिखाई नहीं और तुमने पूछा नहीं कि इस ट्रेन का आगे क्या हुआ।

क्यों हुई थी दुर्घटना? क्योंकि उस ट्रेन में सिर्फ़ दो थे। तीसरा अमरीश पुरी नहीं होता, डरो मत! तीसरा वो होता है। (ऊँगली से ऊपर की तरफ़ संकेत करते हैं) इस देश की तीन-चौथाई आबादी ऐसी ही पिक्चरों से निकली है। तीन-चौथाई कम बोल रहा हूँ, बहुत कम बोल रहा हूँ। सब-के-सब ऐसे ही पैदा होते हैं, जाते हैं, यही सब कहानियाँ . . . और फिर लगता है हमारा भी ऐसे ही हो जाएगा। अब हम सबमें पैदाइशी दोष हैं, तो ताज्जुब क्या!

मैं बिलकुल अतिश्योक्ति नहीं कर रहा हूँ। तुम पूछो अपनेआप से — प्रेम के बारे में तुम्हारी जो धारणा है, वो तुम्हें मिली कहाँ से? तुम हैरान हो जाओगे। जितना खोजोगे उतना पाओगे कि फिल्मों से ही मिली है, और कहीं से नहीं। फिल्मों से आगे बढ़ोगे तो टेलिविज़न धारावाहिकों से मिल गयी होगी, और कहीं से नहीं। इनको ज़िंदगी से निकाल दो, तुम्हें प्रेम का कुछ नहीं पता होगा; कम-से-कम वैसा तो नहीं ही पता होगा जैसा अभी पता है।

बड़ी अजीब हालत होती है। यही सब देख-देख के तुमको लगता है ऐसा ही होता है और तुम कर डालते हो। फिर कहते हो, ‘अब तो फँस गये।’ कल, ये आधी रात को यही कह रहा था, ‘अब तो फँस गये, अब क्या करें?’ ये भी तुम्हें इन्ही पिक्चरों ने सिखाया है कि अब तो फँस गये। फँस कैसे गये? मैं जानना चाहता हूँ। चिपक गये हो? गोंद लग गयी है? फँस कैसे गये हो? बताओ मुझे। कैसे फँस गये हो? ये भी तुम्हें इन पिक्चरों ने सिखा दिया है कि एक बार हो गया तो हो गया।

‘हम एक बार पैदा होते हैं, एक बार मरते हैं और ख़ुदाया एक ही बार हमें प्यार होता है।’ क्या रट लिया है भृगु? और कोई कल सुबह-सुबह बता तो रहा था, ‘ऊपरवाला हमें जोड़ों में भेजता है नीचे।’ जूते हो?

तुम न स्त्री हो न पुरुष हो, तुम करन जौहर की कहानी के किरदार हो। तुम कुछ हो ही नहीं। जो तुम्हें जो बनाना चाहता है बन जाते हो। सुनील शेट्टी थे, मैंने बहुत सुधारा तो इमरान हाशमी बन गये। अब ये सीरियल लवर हैं। पहले समर्पित थे एक को, जैसे सुनील शेट्टी होता था, ‘मैंने प्यार कर लिया है, अब तो प्यार हो गया है, इश्क़।’ (सुनील शेट्टी की आवाज़ का अभिनय करते हैं) तो बड़ी मेहनत से मैंने कहा — तू काहे सुनील शेट्टी बना हुआ है! बाहर आ। तो ये बाहर निकल के इमरान हाशमी में घुस गये हैं अब।

जैसे उसको इश्क़ सूफ़ियाना होता है, वैसे ही इनको हुआ करता है। वो कपड़े उतारते-उतारते गाता है ऐसे ‘तेरा इश्क सूफ़ियाना, मेरा इश्क़ सूफ़ियाना’। गाना बढ़ता जा रहा है, कपड़े उतरते जा रहे हैं। ये सूफ़ियाना इश्क़ है! रहोगे तुम परदे पर ही, बाहर नहीं आओगे, है न!

पर्दे से मुझे एक ही तकलीफ़ है कि पर्दे में दो ही होते हैं, तीसरा नहीं होता। जब तुमने शादी करी तब भी तुम दो ही थे और अब जब तलाक़ करने जा रहे हो तब भी तुम दो ही हो। उस तीसरे को लाओ न। उस तीसरे से ही तुम दोनों का वजूद है। उस तीसरे के बिना शांति नहीं पाओगे।

पूरा दोहा: गुरु मिला तो सब मिला, नहीं तो मिला न कोय। मात पिता सुत बान्धवा, ये तो घर-घर होए।।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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