स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

Acharya Prashant

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स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

इंद्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मन: । मनसस्तु परा बुद्धियों बुद्धे: परतस्तु स: ।।४२।।

इंद्रियों को स्थूल शरीर से श्रेष्ठ माना गया है, और इंद्रियों से मन श्रेष्ठतर है, मन से बुद्धि श्रेष्ठतर है, किन्तु जो बुद्धि के परे है वही आत्मा है।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ३, श्लोक ४२

आचार्य प्रशांत: ‘इंद्रियों को स्थूल शरीर से श्रेष्ठ माना गया है और इंद्रियों से मन श्रेष्ठतर है, मन से बुद्धि श्रेष्ठतर है, किन्तु जो बुद्धि के परे है, वही आत्मा है।‘

तो स्थूल से सूक्ष्म की और फिर सूक्ष्म में भी जो सूक्ष्मतम है, उसकी यहाँ पर यात्रा बताई गई है। क्यों बताई गई है? क्योंकि काम से इसका सम्बन्ध है। कामना हमेशा स्थूल की होती है। और जैसे-जैसे कामना का विषय सूक्ष्म होता जाता है, उसकी कामना करना कठिन होता जाता है। मुक्ति है सूक्ष्मतम कामना करने में, जो सूक्ष्मतम है उसे कामना का विषय बना लो।

अभी हमने थोड़ी देर पहले कहा था न कि व्यक्ति कैसा है उसकी पहचान उसके प्रेम से होती है, उसकी कामना से होती है; तुम चाह क्या रहे हो। तो क्या चाहना है, जैसे इसी की सलाह श्रीकृष्ण हमें इस श्लोक में दे रहे हैं। कह रहे हैं, ‘जो सबसे निचले तल की कामना होगी, वो होगी स्थूल शरीर की, स्थूल पदार्थ की। उससे ऊपर की कामना वो होगी जो थोड़ी सूक्ष्म है, जो आप तक इंद्रियाँ ही ला सकती हैं।‘ ऐसी चीज़ नहीं है कि स्थूल पदार्थ है तो आपने छू लिया, भोग लिया।

कोई विचार हो गया, कोई दृश्य हो गया, इनमें स्थूलता कम है। फिर कह रहे हैं, ‘और आगे बढ़ो, कामना का विषय बनाओ मन को।‘ मन में क्या आता है? मन में कल्पना आती है। जब मन की कामना एक कल्पना होती है, तो फिर तरह-तरह के आविष्कार और अनुसंधान होते हैं। ये बेहतर है उस पाशविक स्थिति से जहाँ पर आपकी कामना इतनी ही है कि मुझे कोई भोग्य पदार्थ मिल जाए। ठीक है?

और फिर उससे भी ऊपर है जब आपकी कामना का जो विषय है, वो बुद्धि द्वारा निर्धारित है। अब आपकी कामना ये भी नहीं कह रही है कि मुझे अपना कल्पित विषय चाहिए; अब विज्ञान आ गया है, अब बुद्धि बता रही है कि क्या माँगना ठीक है और क्या नहीं। और जब बुद्धि बताती है कि क्या माँगना ठीक है और क्या माँगना ठीक नहीं है, तो उसमें एक सीमा तक तो पूरे जगत का कल्याण निहित हो ही जाता है। उदाहरण देता हूँ, आज आपके भीतर का जो पशु है, वो बार-बार बोलता है – ये पदार्थ यहाँ है, ये वहाँ है, इसको भोग लो, उसको भोग लो। और इसका जो परिणाम है, भोगवाद का, वो है जो हम अपने चारों ओर ज़बरदस्त किस्म का वैश्विकतापन देख रहे हैं, जलवायु परिवर्तन देख रहे हैं।

अगर बुद्धि की भी सुनने लग जाए कामना, तो भी क्लाइमेट चेंज से लड़ने में बड़ी मदद मिल जाएगी, क्योंकि बुद्धि ही आपको बता देगी कि आपके हित में यही है कि आप कम भोगें। कम भोगें, संतानोत्पत्ति कम करें, जहाँ संभव हो सके वहाँ पर बेहतर तरीके की टेक्नोलोजी का उपयोग करें। तो इस तरह से कामना अगर बुद्धि की अनुगामी हो जाएगी – जो बात बुद्धि बता रही है, मुझे उसको चाहना है। मुझे उसको ही नहीं चाहना जो मुझे देखने में, सुनने में, सूंघने में, खाने में बेहतर लग रहा है या जिसको मेरा मन कह रहा है कि बेहतर है, मुझे उसकी ओर ही नहीं भागना है, मुझे उसकी ओर जाना है जो मेरी बुद्धि बता रही है कि बेहतर है – तो भी बड़ी प्रगति हो जाती है।

और अंतिम प्रगति किससे होती है? अंतिम प्रगति तब होती है जब प्रेम का विषय, काम का विषय बन जाती है आत्मा। और आत्मा का अर्थ है पूर्ण मुक्ति। पूर्ण मुक्ति की गवाही बुद्धि भी नहीं देगी, उसमें बुद्धि को भी पीछे छोड़ना पड़ता है। बुद्धि को पीछे छोड़कर कहना पड़ता है, ‘पीछे-पीछे चल!’ पीछे छोड़ने का अर्थ ये नहीं होता कि बुद्धि छोड़ ही दी और अब निर्बुद्धि हो गए। बुद्धि को पीछे छोड़ने का मतलब है, बुद्धि अनुगामिनी हो गई है, बुद्धि अब पीछे-पीछे चलेगी। तो वो सबसे ऊँचा प्रेम होता है। वो श्रेष्ठतम प्रेम है जब आपकी चाहत बन गई है आत्मा। आत्मा माने, ‘जो अंतिम शुद्धता है मन की, मुझे वही चाहिए। मन की शुद्धता, जीवन का उत्कर्ष, मुझे वो चाहिए।‘

इन सब श्लोकों का जो एक-एक शब्द है, वो वास्तव में प्रेमगीत है। ज्ञान और भक्ति, बोध और प्रेम कभी अलग-अलग चल सकते नहीं हैं; वो एक ही होते हैं। बस ज्ञान से प्रेम कर पाना बड़ा मुश्किल होता है। इसीलिए आप जगत में देखेंगे तो जगत का जो सारा प्रेम है, वो बहा जाता है जो सबसे मूढ़ लोग होते हैं, उनके प्रति। कृष्ण को, ज्ञान को, बुद्ध को, ज्ञानी को प्रेम कर पाना बड़ा मुश्किल होता है। वहाँ स्थूलता नहीं है न, वहाँ बात सूक्ष्म है, नाज़ुक है, बारीक़ है, हमारी पकड़ में नहीं आती। हम चाह भी नहीं पाते फिर।

गीत हम भी गाते हैं, पर हमारे गीत सब स्थूल पदार्थों की सेवा में होते हैं। गीत ऋषि भी गाते हैं, ऋषियों को वेदों में कवि भी कहा गया है। और जिसके बारे में वो बात कर रहे हैं, वास्तव में उसका वर्णन कविता में ही हो सकता है क्योंकि सीधे-सीधे उसके बारे में क्या बोलेंगे? गीत का, संगीत का, कविता का सही उपयोग भी यही है कि उसके द्वारा आत्मा की ओर इशारा किया जाए। पर हम उसका कुछ दुरुपयोग ही करे बैठे रहते हैं। गीत हमने सब अर्पित कर रखे हैं, एकदम जो अयोग्य और स्थूल विषय हैं, उनको।

केन उपनिषद् में ऋषि कहते हैं – 'श्रोत्रस्य श्रोत्रम, मानसो मनो।' मन का मन है, कान का कान है। कान उस तक नहीं जा सकते क्योंकि वो कान का कान है, क्योंकि वो मन का मन है। शब्द उसका वर्णन नहीं कर सकते क्योंकि वो शब्दों के पीछे का शब्द है, वाणी की वाणी है वो, वो आँखों की आँख है; ये भी एक बड़ा काव्यात्मक तरीका है आत्मा को इंगित करने का। आप आँख की आँख को कैसे देखेंगे अगर आँख बाहर स्थूल विषय को ही देखती रहेगी? आत्मा क्या है? कान का कान, आँख की आँख, मन का मन।

एवं बुद्धे: परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना । जहि शत्रु महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ।।४३।।

हे वीरश्रेष्ठ अर्जुन! इस प्रकार निश्चयात्मिका बुद्धि की सहायता से विपथगामी मन को निश्चल करके वासना रूप दुर्जय शत्रु को त्यागो।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ३, श्लोक ४३

‘हे वीरश्रेष्ठ! इस प्रकार निश्चयात्मक बुद्धि की सहायता से विपथगामी मन को निश्चल करके वासनारूप दुर्जय शत्रु को त्यागो।‘ मैं इसका अर्थ करता हूँ अभी, अनुवाद से आगे जाएँगे।

केन उपनिषद् और कहता है कुछ। कहता है, 'वो प्राणों का प्राण है।' आप जिसको अपना प्राण समझते हो, आत्मा उसका भी प्राण है। तो आपके प्राण की भी सुरक्षा इसी में है कि प्राण के प्राण की सुरक्षा कर लो न। नहीं? (उदाहरण के रूप में दो वस्तुओं की ओर इशारा करते हुए) ये मेरा प्राण है (वस्तु १) और इसका प्राण इसमें (वस्तु २) है, तो ज़्यादा सुरक्षा इसकी (वस्तु १) करूँ या इसकी (वस्तु २) करूँ? इसको (वस्तु १) बचा लिया, उसको (वस्तु २) खो दिया, तो क्या बचाया? ये (वस्तु २) बचा हुआ है, तो सब बचा रह जाएगा। स्थूल आँखें इसको (वस्तु १) ही देख पाती हैं, इसको (वस्तु २) देख ही नहीं पाती। इसको (वस्तु १) बचाती रह जाती हैं, इसको (वस्तु २) खो देती हैं; इसको (वस्तु १) बचाकर भी फिर कुछ मिलता नहीं। समझ में आ रही है बात?

अब ये जो तैरालीसवाँ श्लोक है, जो इस अध्याय का आख़िरी है, इसमें कुछ सूक्ष्मता है जिसको समझना पड़ेगा। कह रहे हैं – 'महाबाहो! हे वीरश्रेष्ठ! जो बुद्धि से परे है उसको जानो।' ये लगभग उसी कोटि की कविता है जैसे केन उपनिषद् में हमको मिलती है। जब कहते हैं, 'प्रणस्य प्राणः' – प्राणों का प्राण है वो। या 'श्रोत्रस्य श्रोत्रम' – कानों का कान है। वैसे ही यहाँ पर कह रहे हैं – 'बुद्धेः परम बुद्धवा' जो बुद्धि से परे है, उसका बोध करो। और इसी तरीके से जो आगे कहा है, वो बात तो और भी रोचक है। कह रहे हैं, 'आत्मनः आत्मानं संस्तभ्यः' आत्मा के द्वारा आत्मा को निश्चल करो। अब ये कौनसी आत्मा की बात हो रही है? ये बात गूढ़ है, समझनी पड़ेगी।

बहुत जल्दी से यहाँ पर आत्मा शब्द का कुछ भी अर्थ मत कर दीजिएगा। कह रहे हैं, ‘आत्मा के द्वारा आत्मा को निश्चल करो। जो बुद्धि से परे है उसका बोध करो और आत्मा के द्वारा आत्मा को निश्चल करो।‘ आत्मा के द्वारा आत्मा को निश्चल करो? आत्मा कर्ता कैसे हो गई? आत्मा करण कैसे हो गई? ये क्या हो रहा है? क्या हो रहा है, समझेंगे। यहाँ पर बात की जा रही है अर्जुन से, और साधारण व्यक्ति अहम् को ही क्या समझता है? आत्मा। तो वो मन को ही आत्मा जाने रहता है, ’मन-मन-मन! वो ही तो आत्मा है, वो ही तो मैं हूँ। जो मैं अपने-आपको सोचता हूँ, वो ही मैं हूँ’, तो अहम् को ही मान लिया कि आत्मा है। अगर अहम् ही आत्मा है, तो जीवन का उद्देश्य क्या है? जीवन का उद्देश्य तो यही है कि निचले अहम् से ऊँचे अहम् की ओर बढ़ना, अशुद्ध मन से शुद्ध मन की ओर बढ़ना।

तो निचले अहम् से ऊँचे अहम् की ओर जाना है या ऊँचे अहम् से निचले अहम् को संयत करना है, निश्चल करना है। मतलब वो जो बहुत इधर-उधर चलायमान रहता है, कूद-फाँद मचाता है, उसको कहना है, 'ज़रा शांत-शांत हो जा।' उसे कौन शांत करेगा? उसे जो ऊँचा अहम् है वही शांत करेगा। ऊँचे अहम् को भी यहाँ कह दिया आत्मा है, नीचे अहम् को भी कह दिया आत्मा है, क्योंकि तुम्हारी दृष्टि में तो दोनों वही आत्मा ही हैं न तुम्हारी। तो आत्मा से आत्मा को निश्चल करने का अर्थ ये है यहाँ पर – अपनी ही ऊँचाई से अपनी निचाई को ज़रा वश में रखो। ये बड़ा गहरा सूत्र है, भूलिएगा नहीं!

अपनी ही ऊँचाई से अपनी निचाई को वश में रखो। अपनी ही शक्ति से अपनी दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त करो। अपनी ही शुद्धता से अपनी अशुद्धियों को साफ़ करो।

समझ में आ रही है बात?

'आत्मन: आत्मानं संस्तभ्यः' – यहाँ पर आत्मा का और कोई अर्थ मत कर लीजिएगा। यहाँ आत्मा माने वो जिसको आप आत्मा समझते हैं, माने अहम्। अर्जुन से बात हो रही है न। वो जिसको आप आत्मा समझते हैं। यहाँ पर आत्मा का अर्थ वास्तविक आत्मा नहीं है, शास्त्रीय आत्मा नहीं है। उसकी बात तो अभी पिछले श्लोक में करी थी। पिछले श्लोक में क्या कहा था? कि शरीर से इंद्रियाँ श्रेष्ठ हैं, इंद्रियों से मन श्रेष्ठ है, मन से बुद्धि श्रेष्ठ है और बुद्धि से आत्मा श्रेष्ठ है। तो वो तो आख़िरी आत्मा थी, उसकी बात पिछले श्लोक में हो चुकी है। यहाँ उसकी बात हो रही है आम-आदमी जिसको आत्मा कहता है।

और जो तुम्हारा ऊँचे दर्जे का अहंकार है, जो एक ऊँचाई का अहंकार है, जो एक श्रेष्ठता, एक स्तर का अहंकार है, उसके द्वारा तुम निचले अहंकार को कैसे साफ़ कर लोगे या जीत लोगे? उसकी शक्ति आत्मा से आती है। वो जो अंतिम बिंदु है, वहाँ से आती है। कैसे समझाऊँ?

ऐसे समझो जैसे पर्वत का जो आधार है, उसकी जो तलहटी है वहाँ से उसके शिखर तक पहुँचना है। कहाँ तक पहुँचना है? शिखर तक। और शिखर तक पहुँचने की प्रेरणा, दिशा, प्रकाश, शक्ति, सब देने वाला वही है जो शिखर पर बैठा है। उसी का प्रेम है जो आपको शिखर पर खींच रहा है। आपको उससे प्रेम है और उससे आपको मिलता है प्रकाश और शक्ति। और आप जब वहाँ पहुँचते हो तो आप पाते हो कि आप और वो अलग-अलग नहीं हैं। आपकी ही उच्चतम संभावना आपको बुला रही थी तभी तो आपको प्रेम था, नहीं तो प्रेम काहे के लिए होता? आपकी ही उच्चतम संभावना आपको ऊपर आने के लिए आवाज़ दे रही थी। तो ऊपर से जब एक न्यौता-सा आता है ऊपर आने का, तो वास्तव में वो न्यौता उच्चतम का ही है।

मन के किसी भी स्तर पर, जीवन के किसी भी क्षण में जब आपको और बेहतर होने की प्रेरणा मिलती है, तो उच्चतम से ही मिल रही है; वो उसका प्रेम है। जैसे आप चाहते हो न ऊपर जाओ, वैसे ही जो ऊपर है वो चाहता है आप ऊपर आओ। बराबर का है, बल्कि कई जगह तो ऐसा कहा गया है कि आप एक कदम लो, वो दो कदम लेता है। आप थोड़ा-सा तो आगे बढ़ो, उसकी ओर से बहुत सहायता मिलती है। समझ में आ रही है बात?

तो अहम् के ही जो अलग-अलग स्तर हैं, उसमें से ऊपर वाले के पास इतनी शक्ति कहाँ से आ जाती है कि वो नीचे वाले की मदद कर दे? जो सबसे ऊपर बैठा है, वो जो उसके निकट है उसको ही शक्ति देता है। निकट वाले को ही क्यों देता है? नीचे वाले को क्यों नहीं देता? क्योंकि शक्ति प्रकाश की तरह है, ज़्यादा उसको मिलती है जो स्रोत के करीब होता है। एक प्रकाश स्रोत है, अब वो तो दे रहा है प्रकाश, पर प्रकाश मिलेगा किसको? जो उसके पास होगा। जो जितना दूर होगा, उसे उतना कम मिलेगा। लेकिन प्रकाश के पास आने की सुविधा भी आपको प्रकाश ही तो देता है न। नहीं तो आपको रास्ता कैसे पता चलेगा? जहाँ पर प्रकाश स्रोत है, उसके निकट आपको पहुँचना है, उसके निकट भी आप पहुँचोगे उसी प्रकश स्त्रोत के प्रकाश का प्रयोग करके। और जितना पास आते जाओगे, प्रकाश उतना साफ़ होता जाएगा। और जो जितना पास आ चुका है, वो पीछे वाले को उतनी ही सफ़ाई से इशारा दे सकता है, समझा सकता है, सिखा सकता है कि और पास कैसे आना है।

इसी बात को कृष्ण यहाँ कह रहे हैं कि आत्मा से आत्मा को निश्चल करो। अपने ही बेहतर रूप से अपने वर्तमान रूप को प्रेरित करो, सजाओ, सँवारो, शक्ति दो। तुम भीतर एक नहीं हो, तुम कई हो; एक तो आत्मा होती है। हम तो बँटे हुए हैं न? ये जो बँटे हुए हिस्से हैं, इनमें जो सबसे बेहतर हिस्सा हो, उसके साथ तादात्मय रखो। और जो सबसे नीचे वाला है, उसको नसीहत दो, उसको शिक्षण दो, उपदेश दो और हाथ पकड़कर उसको ऊपर खींचो। समझ में आ रही है बात?

तो आत्मा कैसे आती है आपकी मदद करने? वो आपके ही भीतर जो आपका उच्चतम हिस्सा है, उसके माध्यम से आपके शेष हिस्सों की मदद करती है। प्रकाश कैसे आता है आपकी मदद करने? प्रकाश ऐसा तो करेगा नहीं कि वो आपके लिए काम इत्यादि कुछ करेगा। हाँ, उसकी सहायता से आप काम कर पाते हो। वो यदि है तो आप काम कर पाते हो। तो आत्मा भी ऐसे ही आपकी सहायता करती है। वो आपके भीतर एक उच्चता का केंद्र बना देती है। वो केंद्र आपके बाकी सब केंद्रों से ऊपर का है और बाकी सब केंद्रों को फिर वो समझा सकता है, बुझा सकता है, उन्हें ज्ञान दे सकता है, उनका हाथ थाम सकता है। इसका अनुभव हुआ है कभी कि नहीं हुआ है? आपके ही कई हिस्से होते हैं, जिनमें एक हिस्सा बाकी हिस्सों से श्रेष्ठ होता है।

कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि जो तुम्हारा श्रेष्ठ हिस्सा है, तुम इसके साथ जुड़ो, तुम इसको शक्ति दो और इसकी सहायता से अपने बाकी हिस्सों को ऊपर खींच लो। अर्जुन के कई हिस्से हैं; कौनसे कई हिस्से हैं? एक हिस्सा है अर्जुन का जो कृष्ण को सुनता है और अन्दर के बाकी कई हिस्से हैं – एक हिस्सा है जो युधिष्ठिर को सुनेगा, एक हिस्सा है जो द्रौपदी की सुनेगा, एक हिस्सा है जो अतीत से बँधा हुआ है, एक हिस्सा है जो भय से बँधा है, एक मोह से बँधा हुआ है – ये तमाम हिस्से हैं। और एक हिस्सा है जो कृष्ण से बँधा हुआ है। वो जो कृष्ण वाला हिस्सा है, वो बाकि सारे हिस्सों का हाथ पकड़कर उनको ऊपर खींचे। जो कृष्ण वाला हिस्सा है, बाकि सब हिस्सों को आलोकित करे। ये कृष्ण की यहाँ पर सीख है। समझ में आ रही है बात?

तो आपको ही अपनी मदद करनी है। और आप अपनी मदद कर सकें इसके लिए आपको अनुमति देनी है कि आपका कम-से-कम एक हिस्सा कृष्ण के बहुत निकट रहे। जैसे आपका एक परिवार हो, परिवार में सब ऐसे ही हों, उलट-पुलट। ठीक? लेकिन आप परिवार के मुखिया हैं, परिवार में सब बीमार पड़े हुए हैं – हैं ही ऐसे की बीमार पड़ेंगे – आप परिवार के मुखिया हैं, आपने मित्रता कर रखी है किसी ऐसे से जो दवाएँ जानता है, तो आप क्या करते हो फिर? आप उसके पास जाते हो और घर-भर के लिए दवाएँ लेकर आ जाते हो और बाकी घर को भी ठीक कर देते हो फिर। कृष्ण कह रहे हैं – यही करो अर्जुन! आत्मा से आत्मा को निश्चल करो।

‘घर में हो सकता है सब ऐसे हों जो बहुत ज़्यादा चला-चली वाले, चंचल, उनको निश्चल करने के लिए तुमको क्या करना पड़ेगा? अपने उस अंश से जो मेरे निकटतम है, उनको आलोकित करो, शांत करो, निश्चल करो।‘ बात स्पष्ट हो रही है कुछ?

और ये करके फिर तुम ये जो कामरूपी शत्रु है, इसको त्याग पाओगे। कैसे त्याग पाओगे? क्योंकि इसको पूर्णता मिल जाएगी। ‘ये मुझे ही तो चाह रहा था’, अहम् की कामना यही तो है कि कृष्ण मिल जाएँ। काम का त्याग और काम की पूर्णता एक ही बात है। कृष्ण का मार्ग त्याग का है नहीं, कृष्ण का मार्ग पूर्णता का है। वो कहते हैं, ‘जो वास्तविक है, उसमें डूब जाओ। एक प्रेम रखो और उसको अपना जीवन दे दो।‘

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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