प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, रेफ़्रिजरेटर (प्रशीतक) पर आपका एक कोट (उद्धरण) मैंने लिखा हुआ देखा है। इफ़ यू कैन नॉट फाइट ऑन स्ट्रीट्स, देन स्प्रिचुअलिटी इस नॉट फॉर यू (अगर आप सड़क पर नहीं लड़ सकते, तो अध्यात्म आपके लिए नहीं है) क्या इसका मतलब डर है? वैसे इससे पहले आपने बड़े प्रोस्पेक्टिव (भावी) में जवाब दे दिया है, लेकिन अगर हम इंडिविजुएली (व्यक्तिगत रूप से) चलें, तो क्या यह डर है?
आचार्य प्रशांत: डर तो है। अब पूछिए किसका डर है। यह देह का डर है। आख़िरी डर जो है, वो देह का ही होता है। आप जो कुछ भी कर रहे होते हैं, कर आप देह के लिए ही रहे हैं, क्योंकि प्रकृति का और किसी चीज़ से कोई मतलब ही नहीं हैं। उसका मतलब बस इतने से है कि आपका डीएनए (गुणसूत्र) बचा रहे और इसका प्रचार-प्रसार होता रहे।
हम कहते हैं, “हम पैसा कमा रहे हैं, हम बहुत बड़ा घर बनाएँगे।” आप जानते है, प्रकृति की और डीएनए की भाषा में बड़े घर का क्या अर्थ होता है? क्या? देह को ज़्यादा सुरक्षा मिलेगी। तो आप जीवन भर काम इसलिए कर रहे हैं, ताकि आपका डीएनए बचा रहे। प्रकृति आपसे बहुत बड़ा काम कर रही है, करवा रही है।
आप किसी कटिंग ऐज टैक्नोलॉजी फर्म (अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी संस्थान) में काम कर रहे हैं। कितना बड़ा काम, कितना बड़ा काम! पर वो सब हो किसलिए रहा है? अंततः वो इसलिए हो रहा है, ताकि देह का प्रसार होता रहे। (अपने एक हाथ से दूसरे हाथ को छूकर बताते हुए) भैया, आप उस बड़े-से-बड़े काम को करके क्या पाएँगे? पैसा। उस पैसे से आप क्या करेंगे? देह की देखभाल।
आपको ज़िन्दगी में जितनी भी चीज़ें प्रिय हैं, अगर आप उनकी गहराई में जाएँगे, तो पाएँगे कि इसीलिए प्रिय हैं, क्योंकि वो किसी-न-किसी तरीक़े से देह को या तो सुरक्षा देती हैं या देह के प्रसार में सहायक बनती हैं। बताइए आपको क्या प्रिय है? जलेबी प्रिय है? जलेबी देह के लिए बहुत ज़रूरी है। पूछिए क्यों? क्योंकि प्रकृति को याद है कि अतीत में ऐसा खूब हुआ था कि आपको खाने के लाले पड़े थे।
आप आज ही नहीं हैं, आप बहुत-बहुत पुराने हैं न! दुर्भिक्ष पड़े थे, अकाल! उस समय क्या चाहिए होता है? उस समय आपको चाहिए होता है संचित भोजन, संचित वसा, स्टोर्ड फैट (संग्रहित वसा)। वो आपको ज़िंदा रखेगा। और वो आपको मिलता है– जलेबी में। जलेबी में तेल भी है और शक्कर भी और यह दोनों ही क्या देते हैं? यह दोनों ही आपदा के दिनों में आपको ज़िंदा रखने में सहायक होते हैं, इसलिए लोग मोटे होते हैं।
क्योंकि देह को पुरानी तकलीफें याद हैं। देह को याद है कि एक बार बिना खाए मरे थे। बिना खाए मरे थे आज से आठ सौ साल पहले। बिना खाए मरे थे एक बार! और वो पीड़ा इतनी गहरी थी कि वो डीएनए में बैठ गयी है कि बिना खाए मरे थे। इसीलिए देह आज भी भागती है, तले हुए खाने की ओर और शक्कर की ओर।
देह कहती है, 'प्रोटीन नहीं होगा कोई बात नहीं। सोडियम-पोटैशियम नहीं, कोई बात नहीं। विटामिन-मिनरल, कोई बात नहीं।' क्या चाहिए? फैट्स (वसा) और कार्बोहाइड्रेट (भोजन में पाया जाने वाला एक प्रकार का कार्बनिक यौगिक)। अंततः वो प्राण बचा देते हैं। प्राण बचा देते हैं! इसीलिए आम भाषा में कई बार यह नहीं कहा जाता– खाना खा लो। कहा जाता है–रोटी खा लो। रोटी ही क्यों? सब्ज़ी क्यों नहीं? क्योंकि सब्ज़ी नहीं भी होगी, तो जी जाओगे। रोटी नहीं होगी…..? (इशारे से बताते हुए की रोटी नहीं होगी, तो जी नहीं पाओगे)
तो इसीलिए खाने का मतलब ही बन गया……? और इसीलिए हम कहते हैं– 'मीठा बोल! मीठा बोल!' यह मीठा बोल का क्या मतलब है? क्योंकि मीठे का ताल्लुक प्रकृति से है। मीठे का ताल्लुक सुक्रोज़ (इक्षुशर्करा या चीनी) और ग्लूकोज़ (द्राक्ष शर्करा) से है। तो वो बात हमारी भाषा में भी आ गयी। 'वो बड़ा मीठा बोलता है।' अरे! मीठा ही क्यों? मिठास में ऐसा क्या है? नमकीन क्यों नहीं कह देते? क्योंकि 'नमक' आपको उतना चाहिए ही नहीं। सोडियम और क्लोरीन का शरीर के लिए बहुत ज़्यादा उपयोग नहीं है। शक्कर का है। तो फिर, 'तू बड़ी मीठी लगती है।' अरे! उसे खाओगे क्या?
समझ में आ रही है बात?
अंततः हर काम किसके लिए हो रहा है? देह के लिए हो रहा है। स्त्री को पुरुष अच्छा लगता है, पुरुष को स्त्री अच्छी लगती है, क्यों अच्छी लगती है? क्योंकि डीएनए कह रहा है, 'मुझे फैलना है, मुझे फैलना है।' पुरुष का डीएनए तभी फैलेगा, जब स्त्री मिलेगी। स्त्री का तभी फैलेगा जब पुरुष मिलेगा।
आदमी को औरत नहीं अच्छी लग रही, औरत को आदमी नहीं अच्छा लग रहा, प्रकृति को फैलना अच्छा लगता है। अगर आप कोई ऐसी व्यवस्था कर सकते कि आदमी-औरत मिले बिना ही, आप फैला दें अपना डीएनए , तो आपको न आदमी अच्छा लगता, न औरत अच्छी लगती। पर अभी आपको पता है कि यह आपकी कोशिकाएँ, यह आपका शरीर, आगे तभी फैलेगा, जब कोई मिलेगी। तो आप सब आतियों-जातियों के पीछे लगे रहते है। और आपको लगता है, आपको उनसे प्रेम हो गया है। प्रेम नहीं हो गया है, यह बात देह को बचाने की है। आप अपनी देह को बचाना चाहते हैं।
आम ज़ीवन में ही देख लो न! तुम कम कमाते हो, तो तुम बाइक (दो पहिया वाहन) पर चलते हो। तुम ज़्यादा कमाते हो, तो तुम ऐसी कार में चलते हो जिसमें पचास-साठ तरीक़े के सिक्यूरिटी सिस्टम (सुरक्षा प्रणाली) लगे हुए हैं। ब्रेक्स में एंटीस्किड (फिसलन रोधक) लगा हुआ है, दो दर्जन एयरबैग (सुरक्षा प्रणाली) हैं। और भी न जाने क्या-क्या! एंटीक्रैश यह,वो!
ले-दे के उस पैसे ने तुम्हारी क्या सहायता की? तुम्हारी देह की ही तो सुरक्षा करी है न! तो इसलिए मैंने कहा, 'इफ यू कैननॉट फाइट ऑन द स्ट्रीट्स, यू आर नॉट स्प्रिचुअल।' (अगर आप सड़क पर नहीं लड़ सकते तो आप धार्मिक नहीं हो)
आख़िरी डर यही है कि देह को कुछ हो न जाए। और सड़क पर खड़े होकर जब लड़ते हो, तो सीधा ख़तरा किसको आता है?
श्रोता: देह को।
आचार्य: देह को ही आता है। और सड़क पर खड़े होकर लड़ने से मेरा मतलब यह नहीं है कि चौराहे पर जाकर के भुट्टे के पीछे किसी से पंगे कर लिए। कहें, आचार्य जी ने कहा था, ‘फाइट ऑन द स्ट्रीट्स!’ वो उस तरह के स्ट्रीट्स फाइटर (सड़क का लड़ाकू) बहुत घूमते रहते हैं। कहीं भी निकल जाओ चार-पाँच किलोमीटर, कोई मिल जायहगा किसी से लड़ता हुआ। वो बात नहीं करी जा रही है।
जब भी कोई तुमको डराता है, धमकाता है, तो अंततः यही तो कहता है न! 'सड़क पर आ जाओगे' और डर जाते हो बिलकुल! अरे, बाप रे बाप! जब तुम्हें किसी की दुर्दशा बयान करनी होती है, तो कहते हो, 'अरे! ख़तम हो गया उनका सब कुछ, सड़क पर आ गए हैं।' यह तुम वास्तव में क्या बता रहे हो कि उनको अब कोई सुरक्षा नहीं है देह की। (अपने एक हाथ से दूसरे हाथ को छूकर बताते हुए)
तुम डरो ही मत इस बात से कि सड़क पर आ जाएँगे। और इस बात का डर ख़ासतौर पर स्त्रियों को बहुत होता है। 'कहीं सड़क पर न आ जाएँ!' तो फिर वो मकान की सुरक्षा के लिए कोई भी अन्याय, कोई भी अत्याचार झेले जाती हैं। उनके लिए यही धमकी मृत्यु समान होती है, किसी ने कह दिया,‘घर से निकाल देंगे।’ 'हाय! घर से निकल गए तो हमारा क्या होगा? सड़क पर तो भेड़िये घूम रहें हैं।'
सड़क पर निकलना सीखो! जो सड़क पर निकलना सीख गया, वो अब और बातों से नहीं डरेगा। क्योंकि आख़िरी डर तुम्हें सड़क का ही है। आख़िरी डर तुम्हें जंगल का ही है। आख़िरी डर मृत्यु का ही है।
जेनेटिक (अनुवांशिक) और इवॉल्यूशनरी (विकासवादी) दृष्टि से देखोगे, तो तुम्हें दिखाई देगा कि तुम प्यार और इज्ज़त भी देह की सुरक्षा के लिए ही कमाना चाहते हो। जिसको इज्ज़त मिलने लग गयी, उसकी देह की ज़्यादा देखभाल होती है। होती है न? और उसकी देह को कोई क्षति पहुँचाने भी नहीं आता। जो कोई कह दे कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ, वो तुम्हारी खूब मालिश-वालिश करेगा, अच्छा खाना देगा, देह के तमाम सुख देगा तुमको।
जिसको आप सम्मान कहते हो या प्रेम कहते हो, उसका भी ताल्लुक है– देह की सुरक्षा से ही। (अपने एक हाथ से दूसरे हाथ को छूकर बताते हुए) अच्छा, तुमको कोई बहुत प्यार करता है। कहे, 'बहुत प्यार करते हैं, बहुत प्यार करते हैं।' और रोज़ दो डंडा मारे, तो कह दोगे कि वो बहुत प्यारा है हमें?
'अरे! भाड़ में गया। सुबह उठते ही पटाक से मारता है!' और उसके प्यार में कोई कमी नहीं है। तुम्हारे लिए जान देने को तैयार है। तुम बता भर दो, कौन तुम्हें परेशान कर रहा है। तुरंत जाएगा, उससे भिड़ जाएगा— यह सब है! लेकिन दो डंडा मरता है रोज़ तुम्हें है! झेल लोगे? प्रेमी भी प्रेमी तभी तक है, जब तक वो देह को सुख दे और देह की सुरक्षा करे।
जब परम प्रेम में पड़ जाते हो, तब ऐसा होता है कि कहते हो, 'कोई मिल गया है, जो देह से ज़्यादा प्यारा है, जिसकी ख़ातिर जान दे सकते हैं।' जब वो परम प्रेम हो जाएगा, तो सड़कों पर उतरना भी सीख जाओगे। जब तक वो नहीं हैं, तब तक अपने आप को बचाए-बचाए घूमोगे।
जब परम प्रेम हो जाएगा, तो पैसा-रुपया, यश-कीर्ति, इज्ज़त-सुरक्षा यह सब फ़िर छोटी बातें लगेंगी। फ़िर यह सब भूल जाओगे कि लोग क्या कहेंगे, मेरा क्या होगा, कल क्या होगा? अब इश्क है! अब इज्ज़त गवाँ सकते हो। अब कोई भी क़ीमत चुका सकते हो। अब सड़क पर उतर सकते हो। अब मर सकते हो। अब जी सकते हो।
तो दो तरह के प्रेम होते हैं। एक वो जो शरीर की सुरक्षा के लिए होता है। जो आम आदमी-औरत का है। और दूसरा वो जिसमें शरीर की सुरक्षा कोई मायने ही नहीं रखती। तुम कहते हो, 'अरे! शरीर, दो कौड़ी, चल मार गोली।' तो जब मैं कह रहा हूँ, 'सड़क पर उतरो, लर्न टू फाइट ऑन द स्ट्रीट्स (सड़कों पर लड़ना सीखो) तो मैं परम प्रेम की बात कर रहा हूँ।'
साधारण प्रेम आपको कमरों में बंद कर देता है, बिस्तरों तक ले जाता है। परम प्रेम आपको दीवारों की कैद से मुक्ति दिलाता है, सड़क पर उतार देता है। चुन लो, कौन-सा चाहिए!