आचार्य प्रशांत: कह रहे हैं, ‘ये बात पढ़ ली।’ अठारहवाँ अध्याय, बत्तीसवाँ श्लोक है, जो कहता है कि ‘जो ज्ञानी है वो तो अपने केंद्र में स्थित हो जाता है, और जो मूढ़ है वो शंक-शंकाओं में ही घिरा रहता है।’ कह रहे हैं, ‘ये बात पढ़ ली; ठीक, अब क्या करें? अब क्या?’ समय की ओर देख रहे हैं, ‘अब क्या?’ पढ़ना स्पष्ट ही है कि दो तरह का होता है — एक तो वो जिसमें पढ़ने वाले की इच्छाओं की पूर्ति होती है। आपको कुछ चाहिए और उसके लिए आपने पढ़ा, बहुत स्पष्ट है कि उससे आपको क्या मिलेगा। क्या मिलेगा?
श्रोता: जो आप चाह रहे थे।
आचार्य: जो आप चाह रहे थे। जो चाहने वाला है वो पूरे तरीक़े से अपनी जगह पर स्थापित है, और उसकी चाहत की पूर्ति हो रही है पढ़ने से; तो निश्चित ही है कि पढ़ लेने से उसको क्या मिल जाएगा! ये बात भी, बताई जा सकती है, पहले से तय ही थी। इस पढ़ने में जो पढ़ने वाला है वो न सिर्फ़ क़ायम है, बल्कि उसकी इच्छाओं की पूर्ति और हो रही है। उसे कोई ख़तरा नहीं है किसी तरीक़े का। कोई समस्या नहीं है उसे, कैसी भी।
और एक दूसरा पढ़ना होता है जहाँ पढ़ने वाले की इच्छा की पूर्ति नहीं होती है, जहाँ पढ़ने वाला अपने होने को जानता है। और जब अपने होने को देखा जाता है तो उसमें दूध का दूध, पानी का पानी हो जाता है। उसमें जो कुछ भी नकली है, झूठ है, धोखा है, वो सामने आ जाता है। यहाँ पर पढ़ने वाला ही गलने लगता है; ये तो छोड़ ही दीजिए कि उसकी इच्छाओं की पूर्ति होती है।
ये पढ़ने के दो बड़े अलग-अलग आयाम हैं। पहले वाले में निश्चित रूप से प्रोजेक्ट किया जा सकता है कि पढ़कर आपको क्या मिलेगा, पर इस दूसरे वाले में तो जो पढ़ रहा है, उसकी ही जान को ख़तरा है। तो ये पढ़ना क्या है? ये पढना तो आत्मघात है एक तरीक़े का। आप समझ रहे हैं?
तो अब पढ़कर के क्या होगा? प्रश्न ये है, ‘किसके लिए होगा?’ जिसके लिए होना था वही बेचारा मिटा जाता है, तो अब किसके लिए क्या होगा? और अब किसको क्या करना है? प्रश्न उठना लाज़मी है कि ये पढ़ने से क्या मिलेगा, या ये पढ़ लिया अब क्या करें? मैं आपसे पूछ रहा हूँ, ‘ये पढ़ने से किसको क्या मिलेगा?’
जो पढ़ने बैठा था वही मिट रहा है तो किसको क्या मिलेगा? वही बदल रहा है, तो आप किसके लिए पूछ रहे हैं कि किसको क्या मिलेगा? जिसने पढ़ना शुरू करा था वो अपने स्वार्थ कहीं और देखता था, और पढ़ने के बाद जो शेष बचा है उसको अपना हित कहीं और दिखाई देता है।
जिसने पढ़ना शुरू करा था उसके लिए पूछ रहे हैं कि उसको क्या मिलेगा? उसको तो बस मुक्ति मिल गयी, वो तो गया। उसको इतना ही मिला कि वो था ही नहीं, वो हट गया। पढ़-पढ़कर जो सामने आ रहा है, वो बिलकुल नया है, वो बिलकुल साफ़ है। उसका जो हित है वो उसके होने में ही है; तो उसको चाहिए ही क्या है जो आप उसे दे देंगे?
जिसकी इच्छाओं की पूर्ति के लिए कोई भी, कुछ भी पढ़ता है या करता है, वो तो उस पढ़ने मात्र से ही हट गया; तो आप किसकी इच्छाएँ पूरी करोगे पढ़कर? अब आप किसके लिए पूछ रहे हो कि क्या मिलेगा? पढ़ने के बाद जो सामने आया है वो पहले से ही संतुष्ट है, उसे कुछ चाहिए नहीं। जिसे चाहिए था वो अब है नहीं; तो आप क्यों परेशान हो रहे हो? जिसे चाहिए था वो अब है ही नहीं! जो लगातार करना-करना पूछता था कि अगला कर्म क्या हो, जिसकी बड़ी रूचि थी कर्म में, बड़ी लिप्तता थी कर्म में, वो तो पढ़ने से ही बह गया न! वो अब बचा कहाँ?
जो लगातार समय की ओर देखता था, अपेक्षाएँ रखता था, जो अगर पढ़ता भी था तो इस दृष्टि से पढ़ता था कि इससे मुझे भविष्य में कोई फ़ायदा हो जाएगा, वो बचा कहाँ अब? अगर वाक़ई पढ़ा है, तो पढ़ने वाला ही मिट जाएगा। उसके जाने के बाद जो बचा है वो तो ख़ुद ही मस्त है। उसको आप क्या दे देंगे? उसके जाने के बाद जो बचा है वो तो बिलकुल ताज़ा-ताज़ा खिले फूल की तरह साफ़ है; उसे आप क्या दे देंगे?
लेकिन आदत थोड़ी मुश्किल से जाती है। तो वो जो पढ़ने के पहले वाले तरीक़े थे, वो जो पहले वाले व्यक्ति के गुण थे, उनकी स्मृति अभी भी बाक़ी है। सिर्फ़ स्मृति की बात है। आपको याद है कि पहले जब भी पढ़ते थे तो उससे कुछ मिल जाता था। मिल जाता था, अब मिट जाता है। जिसे मिलना था वही मिट गया। छोड़िए, क्या करना है!
आप बैसाखियाँ लेकर के किसी डॉक्टर के पास जाएँ, और वो आपको ठीक कर दे, आप पायें कि टाँगों में तो बड़ी जान है, और बड़ा मज़ा भी आ रहा हो अपनी टाँगों की ताक़त से ज़मीन पर दौड़ने में, लेकिन आदत कुछ ऐसी लग गयी हो कि दौड़ लिये, भाग लिये, बड़ा स्पन्दन सा हुआ पूरी टाँगों में, पूरे जिस्म में जान आ गयी, सब हो गया, मन में जो एक हीनता का भाव था कि कमज़ोर हूँ, टाँगों नहीं हैं, वो भाव भी जाता रहा; और फिर उसके बाद डॉक्टर से पूछते हैं, ‘ये बैसाखियाँ! इनका क्या करूँ? इनका क्या होगा? ये छोड़नी पड़ेंगी क्या?’ नहीं, सिर पर लेकर घूमो!
जिसे चाहिए थी बैसाखियाँ, जब वही नहीं रहा तो बैसाखियों का करोगे क्या? जो मन था, जो लगातार अपेक्षा में ही जीता था, पढ़ता था तो अपेक्षा के लिए, सम्बन्ध बनाता था तो कुछ पाने के लिए, जीता था तो कल की आस में, अरे, वो मन ही नहीं रहा! आप पूछ रहे थे, ‘अब क्या?’ 'अब क्या' से अर्थ ही भविष्य है।
'आगे क्या?', ये पूछा आपने। आगे देखने वाली आँख ही नहीं रही। कल कह रहे थे न कबीर, कि ‘नैनों को पलट ज़रा, साईं तो सम्मुख खड़ा।’ वो आँख, जो भविष्य की ओर देखा करती थी, अब जब वो साईं को देख रही है, तो ये सवाल ही कहाँ है कि अब आगे क्या! आगे जैसा कुछ बचा नहीं।
पर बात स्मृति की है, एक याद बैठी हुई है कि जब भी कुछ करते थे तो आगे कुछ मिल जाता था, अगला क़दम साफ़ हो जाता था। क्यों साफ़ करना है अगला क़दम? क्यों आपको सोचना है कि आगे क्या आने वाला है? जो आएगा सो आएगा। “नैया तेरी राम हवाले, लहर-लहर हरि आप संभाले।” आप क्यों पूछ रहे हैं, ‘आगे क्या?’ जो नाव चला रहा है उसको देखने दीजिए; लहर-लहर हरि आप संभालें।
प्र२: सर, ऐसी चीज़ें हमारे दिमाग में क्यों आती हैं — 'हम फूलिश या वाइज़ मैन हैं'? हम पढ़ते हैं तो लगता है कि उस स्थिति को पाना है। तब ये प्रश्न आता है कि अब क्या?
आचार्य: तो अष्टावक्र ने बड़ी बेईमानी कर दी है हमारे साथ, ये तो बता दिया है कि फूलिश मैन (मूर्ख) कैसा है और वाइज़ मैन (ज्ञानी) कैसा है, और ये बताया ही नहीं है कि फूलिश (मूर्ख) से वाइज़ (ज्ञानी) कैसे बनते हैं। (श्रोतागण हँसते हैं) जैसे किसी को चिढ़ाओ, कि दूर से लड्डू दिखाओ और पाने का रास्ता न बताओ। रास्ता कुछ बता नहीं रहे, बड़ा अन्याय करा है। फूलिश के बारे में वो जो-जो लिखते हैं, वो सब हम पाते हैं कि हममें है; और वाइज़ होने की कोई विधि बता नहीं रहे, ये तो ग़लत हो गया हमारे साथ!
या तो बताओ नहीं कि हम बेवकूफ़ हैं, और इतनी ज़ोर से अगर बता रहे हो कि हम बेवकूफ़ हैं, तो फिर ये भी बताओ कि वाइज़ कैसे हो जाएँ? अगर नहीं बता रहे हैं कि कैसे फूलिश से वाइज़ हुआ जाए, तो बात ज़ाहिर है न? क्या? या तो ये कि ‘तुम्हारा कुछ हो नहीं सकता’ या दूसरा ये है कि ‘जो होना था वो हो ही चुका है, कुछ होने के लिए शेष नहीं है, मैं तुम्हें क्या सलाह दूँगा!’
कह रहे हैं अष्टावक्र, ‘तुम्हें मैं क्या सलाह दूँ? और जो सलाह दी जा सकती है वो दे ही रहा हूँ। कुछ करने के लिए नहीं है, जानने के लिए है। जान लो, कहीं पहुँचना नहीं है, बस जानना है कि पहुँचे ही हुए हो।’
समझिएगा अंतर — कहीं पहुँचने की कोई विधि हो सकती है। अष्टावक्र कह रहे हैं, ‘पहुँचे ही हुए हो, बस बता रहा हूँ। तुम्हें मैंने कोई तरीक़ा अगर बता दिया कहीं पहुँचने का, तो तुम और इस भ्रम में गहरे चले जाओगे कि मैं दूर हूँ, अभी पहुँचा नहीं हूँ।’
तो इस कारण वो विधि देंगे ही नहीं। वो दुश्मन नहीं हैं आपके कि आपको रास्ते बताएँ, कि जप करो, कि तप करो, कि यम, कि नियम; वो कुछ नहीं कहेंगे। कुछ नकली है जो पकड़े बैठे हो, उसी का नाम फूलिशनेस (मूर्खता) है। ग़लत दिशा में देखते हो, उसी का नाम फूलिशनेस है। मूर्खतापूर्ण आस बाँध रखी है, उसी का नाम बेवकूफ़ी है।
कुछ करने को नहीं है, छोड़ने को है। कर-करके नहीं छोड़ा जाता, जानते ही छूट जाता है। कर-करके तो पकड़ा जाता है, छूटता तो जानने से है। वो कह रहे हैं, ‘जान जाओ, ज्ञानी ऐसा होता है।’ आप कह रहे हैं, ‘अब फिर? जानने के बाद?’
अरे! तुम जाने कहाँ? जानने के बाद तो ऐसे बोलते हो, जैसे जान ही गये!