प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मेरा सवाल गीता के दूसरे अध्याय से है। उसमें सत्रहवें श्लोक में श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि आत्मा से संसार संचालित होता है, अर्जुन को समझाते हैं।
आचार्य: कौनसा श्लोक कह रहे हैं? रुकिए, खोलने दीजिए।
प्र: सत्रहवाँ श्लोक है दूसरे अध्याय का।
आचार्य: ठीक है। ‘संचालित’ नहीं कहा है, ‘व्याप्त’ कहा है।
प्र: व्याप्त, ‘आत्मा से संसार व्याप्त है।‘ तो लेकिन जैसे कल भी हम बात कर रहे थे कि सारा खेल प्रकृति का और माया का है। तो माया संसार को चलाती है या फिर आत्मा से संसार चलता है, इसमें...
आचार्य: ‘मम् माया।’ माया किसकी है? दो सत्य थोड़े ही होते हैं! सारा संसार माया का है, और माया किसकी है, मायापति कौन है?
प्र: श्री कृष्ण।
आचार्य: तो माया संसार को चला रही है, इसी बात को शास्त्रीय तौर पर ऐसे भी कहा जा सकता है कि आत्मा संसार को चला रही है। पर वो बात पूरी तरह सही नहीं होगी, पूछो क्यों? क्योंकि संसार चल भी रहा है ये बात माया को ही प्रतीत होती है। आत्मा अचर है, और आत्मा अकर्ता है; तो आत्मा न चलती है, न चलाती है। आत्मा अचर है, माने आत्मा चलती नहीं, और आत्मा अकर्ता है, माने आत्मा कुछ चलाती नहीं; तो संसार को कहाँ से चला देगी! ये भ्रम कि आत्मा के अतिरिक्त भी कुछ है जिसका नाम संसार है, इसी को तो माया कहते हैं।
माया किसके लिए है? माया उसी के लिए है जो स्वयं मायावी है। संसार किसके लिए है? कौन कहता है, किसको लगता है कि संसार सत्य है? वही जो संसारग्रस्त है, जो मायाग्रस्त है। आत्मा की दृष्टि से देखो, आत्मस्थ होकर के देखो, तो कौनसा संसार, कौन चलाने वाला? सत्य-मात्र है, संसार है ही नहीं। तो चलाने का सवाल क्या होता है, कुछ होगा तब न चलाया जाएगा! हाँ, जब आप अपनी जगह से देखते हैं तो आपको संसार दिखाई पड़ता है, इसी को माया कहते हैं।
प्र: यही मेरा प्रश्न था, कि श्रीकृष्ण आत्मा द्वारा संचालित हैं, लेकिन वो अर्जुन को बता रहे हैं कि आत्मा व्याप्त है हर जगह, तो अर्जुन इस चीज़ को कैसे समझें?
आचार्य: ‘आत्मा व्याप्त है हर जगह’, माने तुम ये मत समझो कि इस संसार में जो कुछ भी है वो वास्तव में मरणशील है; जो सच्चाई है वो मर नहीं सकती। ये किस संदर्भ में बता रहे हैं? इस संदर्भ में ही बता रहे हैं न कि अर्जुन मारने से कतरा रहे हैं? तो अर्जुन को कह रहे हैं, ‘डर क्या रहे हो, जो असली है वो थोड़े ही मर जाएगा! और जो मरेगा, उसको बचा कौन सकता है? वो वास्तव में कभी था ही नहीं, क्योंकि वो क्या है? माया है। जो मरेगा वो माया है, जो असली है वो मर सकता नहीं, तो तुम युद्ध करो बेटा।‘
प्र२: प्रणाम आचार्य जी। पहले तो धन्यवाद करूँगा कि जीवन में काफ़ी कुछ बदला है। मेरा प्रश्न ये है कि हम अपने अंदर के देवता को कोई भी चीज़ अगर अर्पित करते जाएँ, अगर उसमें हमने नब्बे प्रतिशत भी अर्पित कर दिया तो भी हमने दस प्रतिशत बचा लिया। तो क्या वो बिना सौ प्रतिशत अर्पण किए सही रह सकता है?
आचार्य: कृष्ण कह रहे हैं, ‘सौ प्रतिशत अर्पण करना तुम्हारे लिए यदि संभव हो जाए तो कर दो।‘ लेकिन तुम जैसे हो, सौ प्रतिशत अपने वैसे होने के कारण ही अर्पित नहीं कर पाओगे, तो बहुधा ऐसा होगा कि कुछ बच जाएगा। बच जाएगा, ये कोई प्रसन्नता की बात नहीं है, पर ये आपके अस्तित्व के दोषों की अनिवार्यता है, ये हमारा दोष है कि कुछ-न-कुछ बच जाएगा।
ऐसे समझो कि आप कोई पौधा सींचना चाहते हो। अच्छी बात है, नीयत बहुत अच्छी है कि पौधा सींचना है। पर उसके लिए आपने जो पाइप लगाई है – टोंटी में पाइप लगाकर पौधे सींचने हैं – उसमें छेद हैं। आप कितनी भी सद्भावना से सिंचाई करना चाहते हो, कुछ पानी तो इधर-उधर निकल ही जाएगा। वो आपने चाहा नहीं है कि निकल जाए, वो आपकी हस्ती की अनिवार्यता है। आप ही तो वो पाइप हो, आप ही के माध्यम से तो सिंचाई हो रही है! आप हो ही ऐसे कि आप नहीं भी चाहो तो कुछ इधर-उधर निकल जाता है।
वो दिन जब आ जाएगा कि कुछ इधर-उधर निकलना बंद हो जाएगा, तब तो बहुत अच्छा है, मुक्ति है। पर अभी वो दिन आया नहीं है, अभी आप चाहो भी तो भी पूरी तरीके से अर्पित नहीं कर पाओगे। लेकिन फिर भी प्रयास ये करो कि सत्यनिष्ठा के साथ जो अधिकतम तुम आहुति दे सकते हो दे दो। कुछ-न-कुछ तो बचेगा ही; बदनीयती के कारण नहीं, आपके अस्तित्व की संरचना के कारण। वो जो पाइप है, उसमें छेद हैं बहुत सारे, तो कुछ-न-कुछ तो अपनेआप ही बच जाएगा, लेकिन जान-बूझकर मत बचाना! ये इस बात को प्रोत्साहन नहीं है कि बचाना ही शुरू कर दो, कि कहा गया था कुछ-न-कुछ तो बच ही जाएगा; न बचे तो और अच्छा।
अब उदाहरण देता हूँ एक। आप किसी ऊँचे काम में लगे हो, आप जी-तोड़ मेहनत करो, जी-तोड़ मेहनत करो। वो जी-तोड़ मेहनत आप अपने सुख के लिए तो नहीं कर रहे न? उसमें आनंद भले ही होगा, सुख तो नहीं है न? वो जी-तोड़ मेहनत यज्ञ में आहुति की तरह है, आपने जान लगाकर मेहनत करी। चौदह घंटे मेहनत कर ली, जान लगाकर मेहनत करी थी, सुख के लिए नहीं करी थी। चौदह घंटे मेहनत करके क्या होगा? क्या होगा? नींद आ जाएगी, नींद में सुख मिल जाएगा। ये आपने चाहा नहीं था, ये आपने माँगा नहीं था, ये आपको प्रसाद-स्वरूप मिल गया।
भई नींद में सुख होता है या नहीं होता है? वो आपने माँगा नहीं था, पर मिल गया, वो प्रसाद मानिए। ये प्रसाद है, कि ‘जी-तोड़ मेहनत करी, अब नींद का सुख मिल गया।‘ हम चाह नहीं रहे थे कि हमें नींद का सुख मिले, पर ये शरीर की संरचना ऐसी है, ये पाइप ऐसा है कि इसमें छेद हैं, चौदह घंटे काम करेगा तो आठ घंटे सोएगा भी। (शरीर की ओर इशारा करते हुए) ये जो है, ये पाइप ऐसा है कि इसमें छेद हैं, इससे जब बहुत मेहनत करा लोगे तो ये अपनेआप सो जाएगा, जब सो जाएगा तो निद्रा का सुख भी पाएगा; उसको प्रसाद मानना, ये प्रसाद है – अच्छे काम में अच्छी मेहनत करने का प्रसाद ये मिला है कि अच्छी नींद आयी है।