आचार्य प्रशांत: सवाल ये है कि किसी से सम्बन्धित हैं। किसी से जुड़े हुए हैं और जिससे जुड़े हुए हैं उससे अब किसी प्रकार की अड़चन आ रही है। अड़चन का प्रकार कुछ भी हो सकता है, इधर कुछ है, उधर कुछ हो सकता है, उधर कुछ हो सकता है। लेकिन घूम फिर कर के सवाल बस एक है रिश्ता जब उलझा हुआ हो तो करें क्या।
रिश्ता अगर उलझा हुआ पता चल रहा है तो बहुत सुंदर मौका है और साथ-ही-साथ कठिन चुनौती है — जैसे इसको देखना चाहें। साफ़ दिखाई दे जाता है इतना कि दूसरे में बदलाव की ज़रूरत है। और जब भी इस तरह के सवाल मेरे पास आते हैं, वो शुरू इसी से होते हैं कि हम दूसरे को लेकर के दुखी हैं। साफ़-साफ़ कहते हैं कि दूसरे में बदलाव चाहिए।
एक चीज़ जो हम अक्सर नहीं देख पाते हैं वो यह है कि दूसरा एक नहीं है। दूसरे के भी हज़ार चेहरे हैं, दूसरे की भी हज़ार सम्भावनाएँ है। दूसरा भी कई-कई तलों पर जीता है, होता है। आपको वो अपना कौनसा चेहरा दिखाता है वो इस पर निर्भर करता है कि आपका चेहरा कैसा है। दूसरे का अगर आपने बेरुख़ी से भरा चेहरा ही देखा है, तनाव से, उपेक्षा से भरा चेहरा ही देखा है, चिड़चिड़ाहट से भरा चेहरा ही देखा है, तो उसका सम्बन्ध कहीं-न-कहीं हमारे भी अपने पसंदीदा चेहरे से है जो हम दूसरों को दिखाते फिरते हैं।
हमें अक्सर दूसरे के व्यवहार से आपत्ति होती है। जब दूसरे के व्यवहार से आपत्ति हो तो दो बातें कह रहा हूँ, ध्यान से सुन लीजिएगा। पहली बात, दूसरे का व्यवहार बदलने की चेष्टा मत करो, दूसरे का मन ही बदलने का ध्येय रखो — यह पहली बात। दूसरी बात, दूसरे को तुम बदल नहीं सकते जब तक तुम ख़ुद न बदलो।
अक्सर दूसरा कैसी भी वृत्तियाँ पाले हुए हो हम उसके साथ गुज़ारा कर लेंगे, तब तक जब तक उसका हमारे प्रति व्यवहार किसी तरीके से काबिल-ए-बर्दाश्त रहे। हम इस गहराई में जाकर देखेंगे ही नहीं कि उसका व्यवहार उठ कहाँ से रहा है। हमें तकलीफ़ होनी शुरू तब होती है जब दूसरे का व्यवहार हमें चुभने लगता है। जब हमें, हमारी अहंता को आहत करने लगता है। तो ध्येय भी हम फिर छोटा सा ही बनाते हैं कि मेरे साथ सुलूक ठीक किया करो — इतना ही हमारा ध्येय होता है — मेरे साथ ठीक से बोला करो, मेरे साथ ठीक से चला करो, अड़ा मत करो, विरोध न किया करो इत्यादि।
ऐसे बात बनेगी नहीं! दूसरे का मन बिगड़ गया है, मन ही बदलना होगा। जिस केंद्र से वो संचालित हो रहा है वो केंद्र ही बदलना होगा। और दूसरा चूँकि आपसे रिश्ते में है, तो आपको गौर से देखना होगा कि उसके मन के बिगड़ने में आपका कितना योगदान रहा है। हो सकता है आपको दिखाई दे कि योगदान ज़्यादा नहीं रहा है, तो भी अंतर नहीं पड़ता। हो सकता है आपको दिखाई दे कि आपका कोई योगदान नहीं रहा है, तो भी जो मैंने बात कही है वो अपनी जगह क़ायम रहेगी।
आप जैसे हैं आपको तो वही चेहरा देखने को मिलेगा जो दूसरा अभी आपको दिखा रहा है। दूसरे के उस चेहरे के पीछे आप कारण हों चाहे न हों। आपको तो दूसरे ने इसी लायक माना है कि आपके साथ वही व्यवहार करें जो वो अद्यतन कर रहा है। और जब तक आप वो हैं जो आप अभी तक रहे हैं, आपको उसी व्यवहार का सामना करना पड़ेगा जिस व्यवहार का सामना आप अभी कर रहे हैं। आपको बदलना होगा। आप बदल जाएँगे, दूसरे का आपके प्रति व्यवहार बदल जाएगा। तो इसलिए मैंने कहा कि ये एक सुन्दर मौका है और कठिन चुनौती है।
समझ रहे हैं?
सतही इलाज़ मत खोजिए। तुरत-फुरत समाधान मत खोजिए। रिश्ते को एक दूसरे तल पर ले जाना होगा। अभी वो जिस तल पर है उस तल पर तो वही होगा जो हो रहा है। एक शरीर था जो कभी सुंदर दिखता था, उसकी आँखें सुंदर थीं, देहयष्टि सुंदर थी, हाथ सुंदर थे — सब गठीला और आकर्षक था। अब वो गया। अब वो मृत है, लाश है बाक़ी। उसको आप कहीं से भी स्पर्श करेंगे आपको तो मृत माँस ही मिलेगा। पाँव के पास जाएँगे वहाँ भी दुर्गंध है, मुँह के पास जाएँगे वहाँ भी दुर्गंध है।
आप ये सोचें कि रिश्ते की जो वर्तमान काया है उसी में ज़रा तब्दीली, ज़रा फेर-बदल करके बदलाव ले आ लेंगे तो कुछ ऐसा होने का नहीं है। जब मौत हुई है तो पूरी हुई है। जब दुर्गन्ध उठ रही है तो पूरे से ही उठ रही है। रिश्ते को नया जन्म ही देना पड़ेगा; पुराने को तो अब चिता दीजिए। याद रखिए, मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि पुराने व्यक्ति को चिता दे दीजिए। मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि पुराने व्यक्ति को छोड़-छाड़ के आगे बढ़ जाइए।
जब झेला नहीं जाता तो इस तरह के लालच भी उठते हैं — कौन बर्दाश्त करे, कौन ढोये, कौन इतना श्रम करे कि पहले उसको बदलो कि अपने को बदलो; चलो न छोड़ो, हाथ झटक के आगे बढ़ो — मैं वो सब सलाह नहीं दे रहा हूँ। किसी व्यक्ति के साथ आप जुड़े थे कुछ वर्षों तक, सब मधुर था, सुंदर था। अब पाते हैं कि ऊब है, खीज है, सड़ांध है, तार कहीं मिलते नहीं, संगीत कहीं उठता नहीं तो इसका अर्थ है कि अस्तित्व संदेश दे रहा है। संदेश यह नहीं दे रहा है कि हाथ छोड़ दो एक-दूसरे का। संदेश दे रहा है कि रिश्ते को आगे बढ़ाओ, बच्चा बड़ा हो रहा है।
समझ रहे हैं?
तुम ऐसे ही व्यवहार करना चाहते हो एक-दूसरे से जैसे आज से पाँच साल पहले करते थे। भूलते क्यों हो कि पाँच साल पहले तुम कुछ और थे। और ख़ासतौर पर युवा लोगों के संदर्भ में कहूँगा — बीस की उम्र में तुम जो होते हो और पचीस की उम्र में तुम जो होते हो उसमें बड़ा अंतर आ जाता है। वो बात पाँच ही साल की नहीं होती है। पाँच साल में दुनिया बदल जाती है। ठीक वैसे जैसे कि दो साल के बच्चे और सात साल के बच्चे में कोई साम्य बचता ही नहीं।
पचास से पचपन का होने में हो सकता है तुम्हें उतना बदलाव न पता चले। लेकिन बीस से पचीस के हुए हो तुम बहुत बदल गए। तुम बदल गए, तुम्हारा साथी भी बहुत बदल गया। रिश्ता तुम वैसे ही चलाना चाहते हो जैसे बीस की उम्र में चलता था, कैसे चलेगा? फिर बीस की उम्र में नया-नया आकर्षण था। बीस की उम्र में हज़ार तरह की उम्मीदें थीं एक-दूसरे से। अब वो सारी उम्मीदें जाँच ली गई हैं। कुछ उम्मीदें सार्थक सिद्ध हुई हैं और कई उम्मीदें टूट गई हैं। तो ज़ाहिर सी बात है कि उम्मीदों पर अब रिश्ता नहीं चल सकता, सपनों पर नहीं चल सकता, सपनों की पड़ताल अब हो चुकी है। वादों में अब कोई दम बचा नहीं।
अब तो तुम जो हो उसकी पोल खुल चुकी है। पहले तो तुम्हारी छवि आकर्षित कर सकती थी अब पाँच साल बीत चुके हैं, छवि की बात क्या है सामने वाला तुम्हारे तथ्य जानता है। छुपा क्या है अब? तो अब मामला हवा-हवाई नहीं चलेगा। अब इस रिश्ते को एक ठोस धरातल चाहिए। वो ठोस धरातल सिर्फ़ और सिर्फ़ आध्यात्मिक हो सकता है। जब ये बात कहता हूँ तो अधिकांश जोड़े मुझसे कहते हैं, “आसमान से गिरे, खजूर में अटके। अरे! साथी के साथ तो रास किया जाता है। उसको मैंने पकड़ा ही इसलिए, चुना ही इसलिए कि ज़रा मज़ा आए, ज़रा कामनाओं की पूर्ति हो और आप कह रहे हैं कि अब रिश्ता आध्यात्मिक कर लो। भजन करेंगे क्या उसके साथ बैठ कर?”
हाँ, और कोई तरीका नहीं है। तुम्हारे पास कोई विकल्प हो तो बता दो, मेरी बात को ठुकरा दो। विकल्प क्या है? तुम जो कुछ कर सकते थे वो तो तुमने कर लिया। और वो करके जो नतीजा मिलना था वो भी तुम्हें मिल ही रहा है। तुमने दैहिक सम्बन्ध बना के देख लिए, तुमने मनोरंजन करके देख लिया, तुमने कल्पनाओं के खेल खेलकर देख लिए — रिश्ते को जितने आधार तुम अपनी मर्ज़ी से दे सकते थे वो सारे तुम दे चुके हो और सबको तुमने असफल पाया है। तो अब तुम्हारे पास मेरी बात मानने के अलावा कोई रास्ता है भी नहीं।
एक ही चीज़ बची है तुमने आज तक आज़माई नहीं है, वो क्या है? आध्यात्म। उसको अब आज़मालो, बात बन जाएगी। जब कोई तरीक़ा न चले तो यह आख़िरी तरीक़ा है और ये शत-प्रतिशत कामयाब होता है। और जब कह रहा हूँ कि ये शत-प्रतिशत सफल होता है, तो साथ-ही-साथ यह कह रहा हूँ कि बाक़ी सारे तरीक़े शत-प्रतिशत असफल होते हैं। अगर अभी तुम्हें असफल होते दिख नहीं रहे तो बात सिर्फ़ वक्त की है — आज नहीं दिख रहे तो कल दिखेंगे, और अगर कल भी नहीं दिखते तो इसका अर्थ यह है कि तुम अंधे हो।
इसका अर्थ ये नहीं कि रिश्ता सफल है। इसका अर्थ ये है कि दोनों ही इतने मृत हो कि दोनों देख सकते ही नहीं। जैसे बंदरिया मरे हुए बच्चे को छाती से लगाए घूमती रहती है न मोह के मारे, वैसे तुम इतने आसक्त हो की तुम्हें दिख भी नहीं है कि तुम्हारा रिश्ता मर चुका है और तुम उसे छाती से लगाए घूम रहे हो।
कोई भी रिश्ता सिर्फ़ एक तरीके से बच सकता है। उसे सत्य का आधार दे दो। तुम्हारा दिल किसी स्त्री या पुरुष के लिए नहीं तड़प रहा। न तुम्हारे साथी का दिल किसी स्त्री या पुरुष के लिए तड़प रहा है। हम सब का दिल बस एक के लिए तड़पता है, उसको चाहे जो नाम देना चाहो दो। उसे सत्य बोलते हैं, परमात्मा बोलते हैं, मौन बोलते हैं, चैन बोलते हैं। जब तक तुम अपने साथी तक परमात्मा के वाहक नहीं बन जाते, डाकिए नहीं बन जाते, तब तक तुम्हारे साथी की नज़रों में तुम हेय ही रहोगे।
यह मेरी बात सुनकर अक्सर लोगों को अविश्वास होता है। वो कहते हैं, “पर हमारे साथी की तो कोई आध्यात्मिक माँग है ही नहीं। आप कह रहे हैं कि हम अपने साथी तक परमात्मा लेकर जाएँ, पर हमारे साथी को तो दूसरी ही माँगे रहती हैं। वो कभी पैसा माँगता है, कभी सुरक्षा माँगता है, कभी लोभ, कभी काम, कभी कुछ और परमात्मा तो आज तक उसने हमसे माँगा ही नहीं। इतनी समझ उसे अगर होती कि वो समझ ही लेता कि उसे वास्तव में क्या चाहिए, तो रिश्तों में इतना उलझाव क्यों होता?
तुम्हारे साथी को नहीं पता उसे क्या चाहिए। और तुमने ठीक कहा, शुरू में अगर तुम सीधे-सीधे उसके पास जाओगे कि मैं थाल में परमात्मा लाया हूँ और परोस रहा हूँ, तो तुम्हारा थाल उठा के तुम्हारे ही ऊपर फेंक देगा। वो कहेगा, “हमें यह चाहिए ही नहीं।” यहाँ तुम्हें युक्ति लगानी पड़ेगी, थोड़ा सृजनात्मक होना पड़ेगा और रखनी होगी गहरी श्रद्धा। गहरी श्रद्धा इस बात में कि चाहिए तो सबको वही। क्योंकि तुम्हारा साथी और तुम्हारा अपना मन भी तुम्हें बार-बार यह सिद्ध करने की कोशिश करेगा कि न, परमात्मा नहीं चाहिए कुछ और चाहिए।
तुम्हें अटूट श्रद्धा रखनी होगी। तुम्हें बार-बार अपनेआप को यह याद दिलाना होगा कि माँग चाहे जो भी हो, माँगा तो परमात्मा ही जा रहा है — उसके अलावा कुछ नहीं माँगा जाता। उसको माँगने के तरीके दूसरे होते हैं। जैसे छोटे बच्चे को दूध चाहिए हो, पर दूध उसे बोलना आता नहीं, तो वो कुछ और बोल रहा है। कुछ भी बोल सकता है, “गं-गं अक्क-क।” तुम्हें इतनी अक्ल होनी चाहिए कि वह वास्तव में क्या माँग रहा है। वरना दोहरी असफलता हाथ लगेगी।
तुम्हारा साथी कुछ माँग रहा है, अगर तुम वो उसको नहीं मुहैया करा पाए तो वो रूठा रहेगा। और जो तुम्हारा साथी माँग रहा है तुमसे तुमने उसे वो उपलब्ध भी करा दिया, तो भी तुम पाओगे कि तुमसे रूठा ही हुआ है। और अब तुम्हें और ज़्यादा निराशा होगी, बल्कि तुमको ऐसा लगेगा कि तुम्हारे साथ बेईमानी हो गई। तुम कहोगे, ‘जो कुछ तू चाहता था वो हम ले आए तेरे लिए, तू अभी भी क्यों रूठा हुआ है?’ वो इसलिए रूठा हुआ है क्योंकि तुम बेवकूफ़ हो! तुम समझ ही नहीं पा रहे हो कि उसे चाहिए क्या।
जैसे कोई बच्चा माँ का सानिध्य माँगता हो, दूध माँगता हो और तुम उसे खिलौने दो कि टॉफ़ी दो कि झुनझुना दो, टेलिविजन दिखाओ कि कहानी बताओ। इस सब से वो चुप हो जाएगा? और फिर तुम कहो ये तो अब हमारे साथ धोखा हो रहा है। बच्चा जो माँगता था हमने सब दिया उसको, फिर भी ये रूठा ही हुआ है, रोता ही जा रहा है, हमारे समीप नहीं आता। मूर्खों के समीप कौन जाए!
फिर अन्य कई भी संभावनाएँ होती हैं। ये भी हो सकता है कि तुम्हारी समझ जितनी तेज़ी से विकसित हुई है तुम्हारे साथी की समझ उससे ज़्यादा ही तेज़ी से विकसित हो गयी हो। होता है कई बार, दो लोग साथ चलते हैं, एक ज़रा आगे बढ़ जाता है। जब तुम दोनों पहले-पहल मिले थे, तो तुम भी उसे शरीर की भाँति देखते थे और वो भी अपनेआप को शरीर की तरह ही देखता था।
आज वो ज़रा दो कदम आगे निकल गया है। हो सकता है उसमें अब देहभाव उतना गहरा न रहा हो। हो सकता है अब उसने अपनेआप को शरीर के अतिरिक्त भी कुछ देखना शुरू कर दिया हो। लेकिन तुम उसे अभी वैसे ही देख रहे हो जैसे तुम पाँच वर्ष पहले, पंद्रह वर्ष पहले देखते थे। तुम उसे अभी भी शरीर की तरह ही देखे जा रहे हो। अब यह बात बड़ी अजीब हो जानी है। वो अपनेआप को अब शरीर उतना ज़्यादा मानता नहीं और तुम उसे शरीर के अलावा कुछ और मानते नहीं। बात बनेगी कैसे, तार जुड़ेंगे कैसे?
संभावना कोई भी हो समाधान एक ही है। इतने शिविर हो चुके हैं, मैंने नहीं देखा कि जोड़े आएँ हों शिविरों में या मित्र आएँ हो शिविरों में और शिविर के बाद उनकी मित्रता और प्रगाढ़ न हो गयी हो। माँ-बेटे आते हैं तो बेहतर माँ-बेटे बनकर वापस जाते हैं। पति-पत्नी आते हैं बेहतर पति-पत्नी बनकर वापस जाते हैं। क्योंकि रिश्ते को एक मज़बूत आधार मिलता है। सच से ज़्यादा मज़बूत आधार और क्या होगा! सच का मतलब है वो जो झुठलाया जा नहीं सकता, जो कभी ख़त्म नहीं हो सकता। उससे ज़्यादा मज़बूती किसमें है?
मैं तो कहता हूँ लोगों से कि अगर आपको मिला है तो अपने साथी के साथ भी बाँटो। आज अगर अकेले आए हो, तो कल उन सबके साथ आओ जिनसे तुम्हें सरोकार है। क्योंकि जीवन तो तुम्हारा उनसे जुड़ा ही हुआ है न। अकेले तो आगे निकल नहीं पाओगे, अब जन्म भर के लिए नाता तो जोड़ ही लिया है। या तो ये कह दो कि नाता तोड़ने को तैयार हो। वो तो तुम करोगे नहीं; करने की कोई ज़रूरत भी नहीं है। तो जब सब जुड़े ही हुए हो, सबको एक साथ ही डूबना या तरना है, तो एक साथ ही आओ न, सबसे एक साथ बात करेंगे, तब बनेगी बात।
एक चीज़ की सलाह मैं कभी नहीं देता, मैं कभी नहीं कहता हूँ कि स्थिति कितनी भी भयानक लगे, रिश्ता तोड़ दो। आदमी और आदमी का रिश्ता दिल और दिल का रिश्ता होता है — वास्तव में, गहराई में। इंसान तो ऊपर-ऊपर की बात है। रिश्ता तो आत्मा-आत्मा का होता है। सत्य का सत्य से रिश्ता होता है, उसके टूटने की क्या सम्भावना है? वो सलाह में कभी नहीं देता कि छोड़ दो। कई लोग इस बात से ज़रा अप्रसन्न भी हो जाते हैं। वो आ करके अपना दुखड़ा सुनाते है और चाहते हैं कि मैं उन्हें ये सलाह दे दूँ कि छोड़ दो, आगे बढ़ो।
वो ये मन बना के ही आएँ होते हैं कि रिश्ता तोड़ना है, मेरी स्वीकृति की बस मुहर चाहते हैं। मैं वो ठप्पा लगाता नहीं; उन्हें अच्छा नहीं लगता। मैं हर हाल में यही कहता हूँ कि रिश्ता क़ायम रखो, बस रिश्ते का जीवनोद्धार कर दो। एक व्यक्ति को छोड़ के भागोगे तो किसी-न-किसी और से तो रिश्ता बनाओगे न? जब किसी-न-किसी से बनाना है, तो जहाँ हो शुरुआत वहीं से क्यों नहीं करते? क्यों भगोड़े साबित होते हो, क्यों हार मानते हो? रिश्ते को नया रूप दो। रिश्ते को नये रूप देने की कोशिश में तुम नये हो जाओगे।
बस अतीत को याद मत करना! ये मत कहना कि रिश्ता पहले ही जैसा हो जाए। कुछ भी कभी पहले जैसा नहीं हो सकता। अस्तित्व सदा नूतन है। जब परेशान हो जाओ तो तोड़ने की नहीं नवनिर्माण की बात करो कि अब कुछ नया बनाना पड़ेगा। यह मत कहो कि पुराना तोड़ना पड़ेगा इत्यादि। पुराना तो वैसे भी ज़र्ज़र है, खंड़हर है उसको अब तोड़ने की ज़रूरत क्या है। नये को रचो, नया प्रतीक्षा कर रहा है। तुम कल्पना भी नहीं कर सकते कि नया रिश्ता कितना सुंदर हो सकता है। और बहुत-बहुत सुंदर हो सकता है, बस वैसा नहीं होगा जैसा पहले था।
चलो थोड़ी सी छूट ले करके ये भी कह देता हूँ कि पहले से लाख गुना ज़्यादा बेहतर होगा। प्रमाण क्या है उसका? प्रमाण इसका ये है कि पहले जो था वो चला कहाँ। पहले वाले में दम होता तो आज तुम्हारी यह बेबसी की हालत क्यों होती। तो अब जो बनेगा वो पहले वाले से तो बेहतर ही होगा। पहला वाला तो इतना कमज़ोर था कि ख़ाक हो गया। नया बनाओ, नयी तूलिका उठाओ, नया कैनवास, नये रंग भरो, नयी आकृतियाँ खींचो ज़रा ताज़गी रहे, और यह संभव है।
“मुझे तो पुराना वाला चाहिए।” नहीं? पुराना वाला चाहिए? घड़ी का काँटा कभी पीछे को चलता देखा है? किसने-किसने देखा है? किसने-किसने देखा है? तुम चाहते हो तुम वैसे हो जाओ जैसे पाँच साल पहले थे? बोलो, जवाब दो, तो तुम ये उम्मीद क्यों करते हो कि तुम्हारा साथी वैसा ही रहे जैसा पाँच साल पहले था? तुम ख़ुद तो आगे बढ़ने में यक़ीन रखते हो और वो आगे बढ़ रहा है, तो तुम्हें परेशानी है, ये कोई बात है? अरे! उसकी भी अपनी आज़ादी है, उसकी भी अपनी दिशाएँ हैं, उसके पास भी पंख है, उसे उड़ने दो।
तुमसे किसने कहा है कि तुम घोंसले में मुँह उतारे प्रतीक्षा करो, तुम भी उड़ो! आसमान की आसमान से यारी होती है। परवाज़, परवाजु को पसंद करती है। और अगर बात यह है कि तुम उड़ रहे हो और दूसरा घोंसले में दुपका हुआ है तो तुम उदाहरण बनो, आदर्श बनो, सहायक बनो, हाथ बढ़ाओ। तुम कहो, “देख मैं उड़ रहा हूँ, मैं उड़ सकता हूँ तो तू भी उड़ सकता है, आजा साथ।” और कोई तरीक़ा है नहीं! मेरी सलाह अगर मुश्किल लगती है तो और कोई विकल्प हो तो आज़मा लो। या अभी लगता है विकल्प है तो पहले उनको आज़मा लो फिर मेरे पास आना।
क्रिकेट खेलना अच्छा लग रहा था न? खेल के मैदान पर जो यारी बनती है वह बड़ी पक्की होती है। खेलो न अपने साथी के साथ, खेलते क्यों नहीं? क्यों नहीं खेलते? ये बात ही बड़ी अजीब लग रही है। “अरे! खेला जाता है क्या, हमारा तो लपटा-झपटी का रिश्ता है। खेलकूद के नाम पर भी हम बस एक ही बात जानते हैं, धर-पकड़ और धर-पटक।” जब कॉलेज के दिनों में अपने किसी जिगरी के साथ कहीं कोने में छुपकर सिगरेट पीते थे, तो याद है कैसा नाता बनता था — दुनिया छूट जाए उसको नहीं छोड़ सकते थे जिसके साथ छुप-छुप के सिगरेट पिए।
अब क्यों नहीं कर सकते? या अब रिश्ता बस यही है कि ज़रा चाय पिलाना, लॉनड्री से कपड़े आ गए क्या! अरे निकलो रात में दो बजे, अगल-बगल किसी की खिड़कियाँ फोड़ के आओ, जब गॉर्ड (चौकीदार) दौड़ाए तो इकट्ठे साथ-साथ दौड़ो, ऐसी यारी बँधेगी कि किसी के तोड़े न टूटे।
बात का मर्म समझ रहे हो?
हम बासी कर देते हैं रिश्तों को। कौनसी फिल्म बहुत पसंद है, एक नाम बताओ।
प्रश्नकर्ता: द शॉशैंक रिडेम्पशन (एक अमेरिकी फिल्म)।
आचार्य: *शॉशैंक रिडेम्पशन*। सौ बार दिखाऊँगा, क्या हालत होगी? हज़ार बार दिखाऊँगा, क्या हालत होगी? और दिखाता ही जाऊँगा, क्या हालत होगी? और पसंद तुम्हें बहुत है, क्या होगा? उसका नाम सुनकर भागोगे। समझ में आ रहा है रिश्ते क्यों तबाह हो जाते हैं? दिन-रात वही शक्ल, वही शक्ल, वही बातें, वही अंदाज़, सम्बन्धित होने के वही आधार, आदमी पगला नहीं जाएगा? नया क्या है तुम्हारे पास? बात करने के वही तरीक़े। शरीर भी तो तुम्हारा पुराना ही है, बासी। वही पाँच उँगलियाँ हैं, उन्हीं से वो पुराने तराने छेड़ते रहते हो।
जो कुछ तुम कर सकते थे वो सब अब तुम चुका चुके हो। बासी पड़ गया है। तुम्हारा कोई दाँव अब ताज़ा नहीं है। तुम शुरू करते हो और सामने वाले को पता चल जाता है कि अब ये क्या करने जा रहा है। अब वो जम्हाई लेकर सो जाए तो फिर तुम्हारी भावनाएँ आहत हो जाती हैं। सोए न तो क्या करें! तुम्हारी कहानी इतनी पुरानी है कि शुरू होने से पहले ख़त्म हो जाती है। घड़ी न हो और कैलेंडर न हो तो पता भी न चले कि कुछ नया हो रहा है।
वही थोबड़ा लेकर के आ जाते हो और वही चालें आज़माने लगते हो और फिर कहते हो कि ये हमारे मुँह पर जम्हाई मारता है। अरे! वो तुम्हारा अपमान नहीं करना चाहता, उसकी मजबूरी है, रोकते-रोकते जम्हाई निकल जाती है (मुस्कुरा कर कहते हैं)।
जो कभी पुराना न पड़े उसको कहते हैं परमात्मा। उसके साथ जुड़ जाओ, तुम हमेशा नये रहोगे। कभी किसी को उबाओगे नहीं फिर तुम। और जो पुराने पर ही चलता है, जो बासी ही होता है, जिसका ताज़गी से कोई सरोकार नहीं, उसको कहते हैं अहंकार। नये से डरता है, वो ऊब के अलावा कुछ दे नहीं सकता। फिर जहाँ ऊब है वहाँ चिढ़ है, कसैलापन है, रोज़-रोज़ की झक-झक है।
कोई इंसान किसी दूसरे इंसान को लंबे समय तक रिझाए नहीं रख सकता, क्योंकि इंसान को इंसान की दरकार या तलाश होती ही नहीं है। अगर दो इंसान जुड़े हुए हैं लंबे समय से और अलग नहीं हो रहे, तो दो ही बातें हो सकती हैं। पहली ये कि दोनों बड़े सच्चे हैं और दोनों का ताल्लुक़ सच से है। और दूसरी ये कि दोनों महा झूठें हैं और एक-दूसरे को पता भी नहीं लगने दे रहे कि दूसरे से ऊबे हुए हैं। अधिकांश मामलों में दूसरी बात होती है।
रिश्ता चालीस साल पुराना है, ऊपर-ऊपर से लगता है कि वाह! दोनों कितने समायोजित हैं। असली बात ये है कि दोनों एक दूसरे से कब के जुदा हो चुके, रिश्ता तो कब का ख़त्म हो गया, बस साथ-साथ रह रहे हैं क्योंकि कुछ सुविधाओं का सवाल है और ज़ाहिर भी नहीं होने दे रहे कि सुविधाओं के ख़ातिर बिके हुए हैं। चाहते हो कि साथी तुम्हारा हो जाए तो पहले तुम परमात्मा के हो जाओ। नहीं तो किसी दिन झटका लग जाएगा फिर टेसुए मत बहाना! ‘अच्छा सिला दिया तूने मेरे प्यार का’।
कुछ जम रही है बात?
घर में आकर के एक छोटी सी चिड़िया बैठ गई हो और तुम अपने साथी का हाथ खींच कर के दिखा दो छोटी सी चिड़िया, कौन ऐतराज़ करेगा और कौन इंकार कर पाएगा। जाओ कहीं पर, वहाँ बढ़िया एक प्रपात गिरता हो और तुम खींच कर हाथ उसका ले जाओ और कहो चल नहा, दोनों नहाएँगे, ठंडा झरना है, कौन इंकार कर पाएगा! पर उसको तुम झरने कि ताज़गी में ले जा सको इसके लिए पहले तुम्हे ताज़ा होना पड़ेगा, अन्यथा तुम्हे ये विचार ही नहीं आएगा। तुम्हारा मन हज़ार और दूसरी चीज़ों में घिरा रहेगा।
ऊपर-ऊपर से चाहे कुछ भी लगता हो, लेकिन कोई अगर कभी तुम्हारी ओर खिंचा तो मूलतः इस कारण खिंचा क्योंकि तुममें उसे परम सत्ता के परम सौंदर्य की झलक दिखाई दी थी। तुम अपनी जान चाहे जो माने बैठे रहो, तुम हो सकता है ये माने बैठे रहो कि तुम बड़े नामचीन कलाकार हो, इसलिए कोई तुमसे आकर्षित हुआ। तुम यह माने बैठे रहो कि तुम्हारे पास पैसा बहुत है कि ज्ञान बहुत है, इसलिए कोई खिंचा तुमसे। ऊपर-ऊपर से कारण हज़ार दिखेंगे, अंदर की जो बात है वह बताए देता हूँ।
जबतक तुम्हारी आँखों में तुम्हारे साथी को किसी और दुनिया की झलक दिखाई देती रहेगी, तुम्हारा साथी तुम्हारी और आता रहेगा, बँधा रहेगा। बेहतर है कि ये बात तुम समझ जाओ! अन्यथा तुम सोचोगे कि तुम्हारा साथी शायद तुम्हारे शरीर इत्यादि से खिंचा हुआ तुम्हारी ओर आता है, तो फिर तुम हज़ार तरह की मूर्खताएँ करोगे। रिश्ते में खटास बढ़ेगी, तो तुम वायग्रा (कामोत्तेजना बढ़ाने वाली औषधि) लेने भागोगे। यह ऐसी सी बात है कि दूध फट गया हो तो कोई मथनी लेने भागे। और मथनी लेने क्यों भाग रहा है? क्योंकि वो कह रहा है कि अभी तो मेरे पास सुई है। वायग्रा खा के वो मथनी बन जाएगा। अरे! दूध फटा है तो न सुई से सिला जाएगा और न मथनी काम आएगी। ‘रहिमन फटे दूध को मथे न माखन होए’।
बिगरी बात बनै नहीं, लाख करौ किन कोय। रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय।। ~ रहीम दास
पर जो असली है उससे तुम्हारा इंकार अक्सर इतना गहरा रहता है कि अन्य हज़ार चीज़ें आज़माने को तैयार रहते हो। पत्नी की आँखों में प्रेम नहीं दिखता, चलो उसके लिए दो-चार नेकलेस (हार), कंगन, पायल इत्यादि जुगाड़ किया जाए। पतिदेव ध्यान नहीं देते, चलो जाकर ज़रा लॉन्जरी (महिलाओं के अंतर्वस्त्र) शॉपिंग (खरीदारी) की जाए। होगा क्या लॉन्जरी पहनकर? जो पहले से ही भद्दा है, जो छुपाने ही योग्य है, लॉन्जरी पहन के तुम उसे और उघाड़ दोगे। पूरे कपड़े पहनते थे तो बात ज़रा ढकी भी थी, अब और ज़ाहिर कर दोगे कि इमारत खंडहर हो गयी। खंडहर में कौन आएगा पनाह लेने? बारिश होएगी तो चुएगा।
पर फ़ितरत हमारी ऐसी है कि हम लॉन्ज़री को भी परमात्मा से भी ऊपर कि तरज़ीह देते हैं। रिश्ते में सच का आभाव है और तुम उसको भरना चाहते हो अधनंगे कपड़ों से। और ये तुम्हारे कपड़े सच को ढँक लेंगे? ये तो इतने छोटे हैं कि तुम्हारे तन तक को ढँक नहीं पाते। जाकर देखो ज्वेलरी (आभूषण) की दुकानों पर, क्या दमदमाई भीड़ रहती है। यहाँ हम आए हैं रिसॉर्ट में, यहाँ भी तो घूम रहे हैं बहुत सारे जोड़े। वो यहाँ इसीलिए आए हैं कि यहाँ आने से रिश्ता मधुर हो जाएगा। वो साथ-साथ स्विमिंग पूल (तरण-ताल) में कूदते हैं।
तन गीला करने से क्या होगा जब मन गीला हुआ ही नहीं! साथ-साथ तुम ‘सच’ में कूदे होते, ‘सत्य’ में डूबे होते तो कुछ हो भी जाता। साढ़े तीन फीट के इस गड्ढे में कूदने से तुम भवसागर पार कर जाओगे? पर धारणा कुछ ऐसी ही है।
अभी कोई तो मुझे दिखा रहा था, जाने गोली या ये अनुष्का, कि हर कमरे के आगे एक छेद दिया हुआ है। जो इतना छोटा है कि उसे छेद ही कहना मुनासिब होगा, कि साथ-साथ इसमें घुसो, इसमें नहाने से गंगा नहा लोगे। और वो इतने मोटे-मोटे हैं कि साथ-साथ तो घुस भी न पाएँ और फँस गए कहीं अंदर दोनों इक्कठे, तो फिर चढ़ लेगा प्यार, फिर ख़ोद-ख़ोद कर खुर्पी इत्यादि से निकाले जाएँगे। पर हमारी दृष्टि ऐसी है, हमें लगता है इन सब चीज़ों से रिश्तों में प्यार आ जाता है। “आओ, डार्लिंग साथ-साथ नहाएँगे।” क्यों उसको अपना दिन खराब करना है तुम्हारे साथ नहाकर! (मुस्कुरा कर कहते हैं)
कुछ गलत बात कर रहा हूँ तो बता दीजिएगा।
दुनिया भर के जितने अंट-शंट उद्योग हैं जिन्हें नहीं होना चाहिए वो इसलिए चल रहे हैं, क्योंकि लोगों को उनसे प्रेम पा लेने का भरोसा है। कॉस्मेटिक्स (सौंदर्य प्रसाधन), स्त्रियों की सजावट का जो सामान है, वो जितना महँगा आता है उतना और कुछ नहीं। और वो इतना महँगा आता ही इसलिए है क्योंकि लोगों को भरोसा है कि वो प्रेम पाने का माध्यम बन सकता है।
प्रेम के नाम पर कुछ भी बिक जाता है। बस प्रेम पाने के लिए हम ख़ुद को बेचने के लिए राज़ी नहीं होते। सब कुछ बिक रहा है प्रेम के नाम पर; इंसान ही नहीं बिक रहा। तुम बिक जाते तो कब का मिल जाता।
पूरा-का-पूरा जो पर्यटन उद्योग है वो और किस पर आधारित है? फ्रिज में रखा हुआ पुराना माँस सड़कर गँधाने लगा है, आओ इसको पहाड़ों की ताज़ी हवा खिला लाएँ। पहाड़ों की ताज़ी हवा खिला देने से सड़ा माँस पुनर्जीवित हो जाएगा? चाहे तुम उसको दस हज़ार रुपए दैनिक के किराए वाले होटल में ले जाओ — सड़ा माँस तो सड़ा माँस।
बस एक काम मत करना, कभी चाँद तले बैठकर ईमानदारी से एक-दूसरे के सामने दिल मत खोलना, वो मत करना। और उससे बचने के लिए जितने झूठ करने पड़े, सब करो। जितने बहाने करने पड़े, सब करो। और जितना पैसा खर्च करना पड़े, पानी की तरह बहाओ। पर जो काम सीधे-सीधे हो सकता है कि बैठ गए तारों तले और हौले से हाथ का स्पर्श किया और कहा — “कुछ कहना है।” वो मत करना, क्योंकि वो करने के लिए जिगर चाहिए। वो करने के लिए नेकनीयती चाहिए।
जो असली है उससे बचने के लिए हज़ार तरह के पाखंड कर लेना। दुनिया के दस देश घूम आना कि डार्लिंग को विश्व-भ्रमण पर लेकर निकले हैं। दुनिया से परिचय कराएँगे न — ये स्विट्ज़रलैंड है, ये फ्रांस है, ये ब्राज़ील है, ये कनाडा है। बस कबीर से परिचय मत कराना, अष्टावक्र से मत मिलवाना। कृष्ण घर में ही थे, डार्लिंग को कनाडा ले जाने की जगह घर में ही कृष्ण से मिलवा दिया होता, तो लाखों न फूँकने पड़ते। और ले भी गए कनाडा तो क्या मिल गया? पहले देशी गाली खाते थे, अब कैनेडियन गाली खाई। पर कृष्ण से बचना है किसी भी तरीक़े से।
“वी आर प्लानिंग आवर नेक्स्ट वेकेशन” (हम अपनी अगली छुट्टी की योजना बना रहे हैं) वेकेशन शब्द का अर्थ समझते हो? वेकेट माने जानते हो क्या होता है, क्या? खाली हो जाना। ये तुम जाते हो वेकेशन पर तो खाली हो जाते हो? वेकेशन का अर्थ होता है वो माहौल, वो घटना जहाँ तुम शून्य हो गए, खाली हो गए। तुम्हारी जेब ज़रूर खाली हो जाती है, तुम खाली होते हो वेकेशन में?
वेकेशन तो बड़ा आध्यात्मिक काम हुआ। वेकेशन तो हुआ ध्यान, वेकेशन तो हुई नेति-नेति की इंतिहा — खाली ही हो गए, सब हटा दिया, मन को सब सामग्री से मुक्त कर दिया। आख़िरी बात जब दूसरे से निभनी बंद हो जाए, तो दूसरे को मत छोड़ो, अपने को छोड़ दो। जब दूसरे से निभनी बंद हो जाए तो दूसरे को मत छोड़ देना अपने को छोड़ना — यही है वेकेशन , खाली हो जाना स्वयं से।
एक बार मुझसे पूछा किसी ने कि आप इतना ज़ोर क्यों देते हैं कि छोड़ना मत। इतनी बड़ी दुनिया है, इतने लोग हैं, हम एक के साथ ही बँधे क्यों रहें, आप छोड़ने क्यों नहीं देते? मैंने कहा, “मैंने कब कहा कि तुम किसी और से सम्पृक्त न रहो, तुम दूसरों के लिए दरवाज़ें बंद कर दो। मैंने बस इतना कहा है कि कोई नया रिश्ता पुराने की कीमत पर नहीं बन सकता। जो एक जगह बेवफ़ाई कर रहा है वो दूसरी जगह वफ़ादार नहीं हो पाएगा। तुम सौ लोगों से जुड़ो, हाथ-में-हाथ पकड़े हुए जुड़ो न, या ज़रूरी है कि कोई नया सम्बन्ध बन रहा है तो वो ऐसे ही बन सकता है कि पुराना वाला तोड़ा गया।
तुम दो थे, दो से तीन हो जाओ, तीन से चार हो जाओ, पाँच हो जाओ। या पाँच होने के लिए आवश्यक है कि पिछले चार का परित्याग किया जाए? ये तो तुम्हारी बड़ी आंतरिक दरिद्रता हुई अगर तुमने कहा कि एक नया मित्र बनाने के लिए पुराने वाले का त्याग करना पड़ेगा।
नया बनाने की तुम अपनी सामर्थ्य ही तब मानना, पात्रता ही तब मानना जब नया बनाने के लिए पुराने को छोड़ना न पड़े। अगर तुम्हारी ज़िंदगी में नया कोई इस तरह से आ रहा है कि पुराना वाला पहले बेदखल हो, तो जान लेना कि तुम ग़लत कर रहे हो। अभी तुम्हें किसी नये का हाथ थामने की पात्रता ही नहीं है।
लाओ, नये को भी लाओ जीवन में। दो से तीन हो जाओ, छ: हो जाओ, छ: हज़ार हो जाओ। पर जब तीसरा आए, तो ऐसे आए की पहले दोनों का रिश्ता और सुमधुर और मज़बूत हो जाए। तीसरे की वजह से पहले दो में फूट नहीं पड़नी चाहिए। तोड़ने का कोई सवाल नहीं है, मैं बार-बार कह रहा हूँ। अगर तीसरे के आने से पहले दो में तनाव बढ़ता है, दूरी बढ़ती है, तो इसका मतलब है कि तीसरे को आना ही नहीं चाहिए था। और मैं यह भी कह रह हूँ कि तीसरे को आने से अगर वर्जित कर रहे हो तो इसमें दोष तीसरे का नहीं है, इसमें दोष अभी पहले और दूसरे का ही है, उनके रिश्ते में अभी वो गहराई ही नहीं।
रिश्ता नहीं है, घुटन है, बँधन है, अगर रिश्ता इस शर्त पर है कि दोनों एक दूसरे के अलावा किसी और की शक्ल देखेंगे नहीं। और रिश्ता नहीं है धोखा है, भ्रम है, अगर दोनों तीसरे और चौथे और पाँचवें और छठे की शक्ल देखने में इतने मशगूल हैं कि एक-दूसरे की शक्ल ही भूल जाएँ। ये मेरी दोनों बातें आपको विरोधाभाषी लगेंगी, हैं नहीं। दोनों को साथ लेकर चलना होता है। एक दूसरे के प्रति अपने प्रेम को एक-दूसरे का कारागार मत बना दीजिए और मुक्त उड़ने की ख़्वाहिश में रिश्ते की बली भी मत चढ़ा दीजिए। ‘रहिमन धागा प्रेम का , मत तोड़ो चटकाय। तोड़े से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाय’।
सस्ता मत बेच आना। सालों पुराना वृक्ष है एक रात के रोटी के लिए उसको चूल्हे में मत चढ़ा देना। मेरी बात ज़रा अलग है। न तो मैं परंपरा और रूढ़ि का पक्षधर हूँ जो कहती है कि दो लोग अगर आपस में जुड़ गए स्त्री और पुरुष तो उनका अब सात जन्म का रिश्ता हो जाता है, और उनमें से कोई अब कहीं अगर बाहर की ओर देखे तो ये बड़ा कुकृत्य है, बड़ा पाप है। नहीं, मैं उस बात का समर्थक नहीं हूँ।
और न ही मैं उन आज़ादी वालों का समर्थक हूँ जो रिश्तों की गरिमा जानते ही नहीं, जो दिल के तारों को मान्यता ही नहीं देते। मैं कहता हूँ जुड़े हो अगर कभी किसी से तो अब वो तुम्हारा अविभाज्य अंग हो गया। आदमी अपना हाथ काटकर नहीं फेंकता चलता जगह-जगह। इन दोनों बातों को एक साथ लेना मुश्किल है, पर लीजिए!
न तो रिश्ते के ग़ुलाम बन जाइए न तथाकथित आज़ादी के ग़ुलाम बन जाइए। इस बात को मैं कुछ इस तरीके से कहता हूँ कि एक हाथ से थामे रहना अपने साथी को और दूसरे हाथ से थामे रहना सत्य को, और दोनों ही हाथों से जो थाम रखा है उसे छोड़ने से इंकार कर देना। “न सत्य को छोडूँगा न तुझे छोडूँगा, न आज़ादी को छोडूँगा, न तुझे छोडूँगा। तू मुझे बहुत प्यारा है तुझे छोड़ नहीं सकता। एक हाथ से तुझे पकड़े रहूँगा और दूसरे हाथ से आज़ादी को भी पकड़े रहूँगा। जान दे दूँगा, दोनों में से किसी को नहीं छोडूँगा।”
और ये रसाकशी, ये खींचतान बंद उस दिन होगा जिस दिन हम, तुम और आज़ादी तीनों एक हो जाएँ। जब तक वो दिन नहीं आ जाता तब तक मुझे तनाव में जीना मंज़ूर है — इधर से खिंचना, उधर से खिंचना मंज़ूर है। और वो दिन आएगा ज़रूर! इस विश्वास को कहते हैं श्रद्धा।