रक्षाबंधन: भाई-बहन से आगे की बात || आचार्य प्रशांत (2022)

Acharya Prashant

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रक्षाबंधन: भाई-बहन से आगे की बात || आचार्य प्रशांत (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। रक्षाबंधन आने वाला है, तो हमारे सभी के मन में कुछ प्रश्न थे जो हम आपके सामने रखना चाहते हैं।

आचार्य प्रशांत: इसलिए घेरा है मुझे?

प्र१: जी।

तो आज ही अवसर मिला है हम सभी को कि हम अपने प्रश्न आपके सामने रख पाएँ।

आचार्य: ठीक है, बताइए क्या पूछना है।

प्र१: तो मेरा पहला प्रश्न है कि भारतीय संस्कृति में रक्षाबंधन को एक प्रेम के त्योहार के रूप में हमेशा से मनाया गया है, जहाँ पर भाइयों को बहनें राखी बाँधती हैं। और वो जो राखी है, वो रक्षा का प्रतीक है। और शायद इन त्योहारों की जो जडें हैं, वो हमारे महाकाव्यों से आती हैं। उदाहरण के तौर पर श्रीकृष्ण का जो द्रौपदी के साथ संवाद हुआ था शिशुपाल वध के दौरान।

तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हम इन त्योहारों को मनाते आ रहे हैं, लेकिन इनका असल में वास्तविक अर्थ क्या है? या आप हमेशा वेदान्त की ही बात करते हैं, तो अगर हम त्योहारों की बात करें, रक्षाबंधन की बात करें, तो उसका वेदान्तिक अर्थ क्या है?

साथ में एक प्रश्न और था इसमें कि 'रक्षा' – जिसका प्रतीक है राखी – रक्षा कौन कर सकता है और रक्षा किसकी होनी चाहिए?

आचार्य: बहुत सारी बातें पूछ लीं, एक-एक करके शुरू करूँगा। सबसे पहले तो ये कि इस त्योहार का अर्थ क्या है। इसमें जो भी परंपरा है और जो बंधन हाथ पर बाँधा जाता है, प्रतीक किसका है?

वेदान्त की बात कही आपने। देखो, वेदान्त तो एक ही बात कहता है कि तुम एक अतृप्त मन हो। और मन को तृप्ति की ओर ले जाना है, उसी तृप्ति को पूर्णता भी कहते हैं, शांति भी कहते हैं और पूर्ण तृप्ति की उस हालत को आत्मा कहते हैं।

तो वेदान्त तो कुल इतनी-सी बात करता है कि तुम मन हो, तुम चेतना हो, चेतना ही एकमात्र सत्य है। उस सत्य में माया ने मिलावट कर रखी है, तो मन कैसा हो गया है? मिलावटी हो गया, माने गंदा हो गया है। और मन को शांति-शुद्धि की ओर ले जाना है। मन की शांत-शुद्ध अवस्था को आत्मा कहते हैं।

तो धर्म क्या है वेदान्त की दृष्टि में? – मन को आत्मा बनाना, माने मन को साफ़ करना, माने मन को शांति की ओर ले जाना। जो कुछ भी मन को साफ़ करता हो, शुद्ध करता हो वही धर्म है।

अब ये तो होती है सबसे ऊपर की बात, सबसे बड़ी बात। लेकिन ज़मीनी स्तर पर हर व्यक्ति इस बात को समझता नहीं, समझ सकता नहीं क्योंकि यह बात बड़ी सूक्ष्म हो जाती है। मन को जानना, मन का अवलोकन, यह जानना है कि ये जितना सगुण संसार है वही मन का बोझ है। और सगुण के बीच से ही रास्ता निकालना है निर्गुण तक पहुँचने के लिए।

अब ये सब बातें आम आदमी के लिए जटिल हो जाती हैं। समझ रहे हो न? हम ही लोगों के लिए जटिल हो जाती हैं। हम ही उस पर पूरे तरीके से समझकर अमल नहीं कर पाते। तो सोचो इतनी शताब्दियों तक भारत का जो ग्रामीण व्यक्ति था, खासतौर पर खेती जिसका काम था और जो अक्सर बहुत पढ़ा-लिखा नहीं होता था, वो कैसे समझेगा? तो जो वेदान्त की सबसे ऊँची बात है, वो पुराणों के स्तर पर आकर के सरल बनाई जाती है आम-आदमी के लिए।

उद्देश्य यही था पुराणों का। अब वो उद्देश्य कितना सफल हो पाया, नहीं हो पाया, वो एक अलग चर्चा का विषय है। पर उद्देश्य यही था कि जो वेदान्त की बात है, एकदम जटिल, साफ़, उच्चतम उसको आम जनता तक लाया जाए किस्से-कहानियों के माध्यम से। तो इसलिए फिर पुराणों की रचना हुई।

तो पुराण एक तरीके से वेदों का जो मर्म है, उसी का विस्तार थे। इसीलिए पुराणों को कई बार फिर पाँचवा वेद भी कह देते हैं क्योंकि काम वो वही करना चाह रहे थे जो वेद करना चाह रहे थे। वेद करना चाह रहे थे, माने क्या? वेदों का जो ज्ञान खंड है उस ज्ञान को ही कथाओं के माध्यम से पुराण स्थापित करना चाह रहे थे।

तो एक पौराणिक कहानी आती है भविष्य पुराण में। और पौराणिक कहानी कह रही है कि कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि, “देखो, सावन के महीने में अमुक दिन आता है जिस दिन सब ब्राह्मणों को उनके जो सर्वश्रेष्ठ जजमान हैं, राजा इत्यादि, उनके पास जाना चाहिए और उनके हाथ में रक्षा बाँधनी चाहिए। और कहना चाहिए कि, ‘देखो राजा, हम तुमको उसी तरह से धर्म के बंधन में डाल रहे हैं जैसे रानी लक्ष्मी ने राजा महाबली को डाला था। अब तुम धर्म में दृढ़ता से स्थापित रहना’।"

अब धर्म में स्थापित रहना ये बात वेदान्त की है और धर्म की परिभाषा क्या है ये बात भी मात्र वेदान्त से ही आती है। मन को शुद्धता की ओर ले जाना ही धर्म है, बाकी सबकुछ और नहीं धर्म होता। लेकिन उसी बात को और ज़्यादा बोधगम्य बना दिया पुराण की इस कहानी ने।

इस कहानी के पीछे भी क्या है जानना चाहोगे? ये राजा बली की क्या कहानी है? रुचि हो तो बताऊँ, नहीं तो नहीं।

श्रोतागण: जी, आचार्य जी। बिलकुल बताइए।

आचार्य: वो कहानी ये है, वो भी पौराणिक कहानी है कि राजा महाबली थे। राजा महाबली वही जिनके पास विष्णु ब्राह्मण बनकर गए थे और वरदान माँग लिए थे। तो उन्होंने कहा था, ‘क्या वरदान माँगते हो?’ विष्णु बोले, ‘तीन कदम हम जितनी धरती चल सकते हैं, बस उतनी हम को दान कर दीजिए।‘ तो बलि बोले, ‘ले लो।‘ तो उन्होंने दो ही कदम में आकाश-पाताल, पूरा ब्रह्माण्ड नाप लिया। बोले, ‘तीसरा तो बचा ही रह गया। इसको कहाँ रखें?’ तो राजा थे, राजा समझ गए कि ये तो विष्णु ही हैं, वामन बन कर आए हैं। तो बोले, ‘ये हमारा सर है, अब इसको यहाँ रखिए। और कहाँ रखेंगे?’ तो सर झुका दिया उन्होंने, बोले, ‘बाकी तो सब आपने दो कदमों में ही नाप लिया। अभी ये हमारा सर है, इसी पर रख दीजिए।‘

तो कहानी कहती है कि उनके सर पर कदम रख दिया और उनको सीधे पाताल में भेज दिया, क्योंकि राजा महाबली थे असुर और उन्होंने पूरी दुनिया जीत ली थी। तो सब देवता लोग हो गए थे निष्कासित। तो देवताओं ने फिर जा करके विष्णु से प्रार्थना करी थी तो इस तरीके से फिर देवताओं को उनका साम्राज्य वापस दिलाया गया था।

तो ये वाले राजा महाबली इन्हीं को लेकर के एक और दूसरी कहानी है जो कहती है कि ये महाबली विष्णु के वास्तव में बड़े भक्त थे। तो भगवान विष्णु को इनसे इतना प्रेम हो गया कि इनके पास जाकर रहने लग गए। तो रानी लक्ष्मी अकेली पड़ गईं। जब लक्ष्मी देवी अकेली पड़ गईं, तो उन्होंने कहा ‘हम क्या करें?’ तो उन्होंने भी खेल रचा। उन्होंने ब्राह्मण का रूप धरा और राजा के पास गईं। और राजा के पास जाकर के उनको रक्षा बाँधी। और बोलीं, ‘अब हम जो माँगेंगे, तुम्हें देना पड़ेगा।‘

तो राजा ने पूछा, ‘क्या देना होगा?’

‘यही जो हमारे पतिदेव आपके यहाँ बैठे हुए हैं, इनको वापस लौटा दीजिए।‘

तो महाबली बोले, ‘तुम इनको ले जाओ, जब तुमने इतना बड़ा कार्यक्रम कर लिया अपने पति को, विष्णु जी को वापस पाने के लिए, तो तुम उनको ले जाओ।‘

तो जैसे फिर भविष्य पुराण कहता है कि – जैसे राजा महाबली तक को वचन और धर्म के बंधन में डाल दिया गया था एक धागे के द्वारा, इसी तरह हे राजा! हम तुमसे कह रहे हैं कि तुम धर्म के बंधन में दृढ़ता से स्थापित रहना।

ठीक है?

यह रक्षाबंधन का शास्त्रीय आधार है। यह बात साफ़ हो गई? रक्षाबंधन क्या है, रक्षाबंधन का शास्त्रीय आधार क्या है?

देखो, जैसे दिवाली को वैश्यों का त्योहार कहा जाता है, वैसे ही रक्षाबंधन को ब्राह्मणों का त्योहार कहा गया है परंपरागत रूप से। उसकी वजह यही है, क्योंकि शास्त्र ने यही कहा है कि इस दिन सब ब्राह्मण लोग जाकर के लोगों के हाथ में रक्षा बाँध करके उनको धर्म में अटल रहने का स्मरण कराएँ। उनसे वचन लें कि अब वह धर्म के बंधन में बंध गए हैं और अब वह धर्म को कभी नहीं त्यागेंगे। तो ब्राह्मणों को जा करके जनता के हाथ में रक्षा बाँधनी है और उनसे वचन लेना है कि वह धर्म को कभी नहीं त्यागेंगे। यह रक्षाबंधन का शास्त्रीय आधार है।

प्र३: वास्तविक आधार है।

आचार्य: अब वास्तविक तो कह नहीं सकता। वास्तविक कह रही हैं आप, वास्तविक क्या है वो आप निर्णय करिएगा। मैं आपको पहले जो पूरी बात है, जो पूरा तथ्य है उससे अवगत कराए देता हूँ। आगे का फ़ैसला आपका है।

तो शास्त्रों के अनुसार रक्षाबंधन ये चीज़ हुई। लेकिन आम जनता शास्त्र पर तो चलती नहीं है। वेदान्त तो बहुत ऊँची बात है, आम जनता तो पुराणों पर भी नहीं चलती।

तो बिलकुल धरातल पर, लोक-परंपरा जनसंस्कृति के तल पर फिर रक्षाबंधन का क्या अर्थ है? वहाँ अर्थ बिलकुल फिर दूसरा हो जाता है। वहाँ फिर बात ये नहीं आती है कि लोगों के हाथ में रक्षा बाँधकर उनको स्मरण दिलाना है कि धर्म की रक्षा करना सदा। वहाँ फिर बात बिलकुल दूसरी हो जाती है। वहाँ देखो, वो जो बात हो जाती है वो थोड़ी नाज़ुक है, समझनी पड़ेगी।

आम संस्कृति में रक्षाबंधन का बड़ा सम्बन्ध बहिर्विवाह से है – एक्ज़ोगमी एक्ज़ोगमी क्या होती है, बहिर्विवाह क्या होता है? कि भारत में परंपरा रही है कि जो लड़की है उसको गाँव से बाहर ब्याहेंगे, वो अपना फिर घर छोड़कर चली जाएगी। ठीक है न? गाँव से बाहर, गोत्र से बाहर, घर से बाहर।

तो वो चली जाती है, और वो चली जाती है उसके बाद हम कह देते हैं कि उसका जो घर है वो क्या हो गया? अब पति का घर हो गया। लेकिन पति के घर में कलह-क्लेश भी हो सकता है, पति की मृत्यु भी हो सकती है। तो अब फिर स्त्री क्या करेगी? क्योंकि भारतीय परंपरा में ऐसा तो रहा नहीं है कि स्त्रियाँ ख़ुद कमाती रही हों। वो तो आश्रित ही रहीं हैं, जब तक पिता के घर में रहीं हैं तो पिता पर और भाई पर आश्रित रहीं हैं। बचपन में पिता पर, थोड़ी बड़ी हो गईं अगर मान लो पिता अस्वस्थ वगैरह हो गया तो भाई पर, और फिर विवाह के बाद वो पति वगैरह पर आश्रित रहीं हैं। बुढ़ापे में अपने बच्चों पर आश्रित रहीं हैं।

तो व्यावहारिक रूप से देखें तो स्त्री को सहारे की ज़रूरत पड़ती है उस स्थिति में अगर उसके ससुराल में कुछ गडबड, ऊँच-नीच हो जाए। जैसा हमने कहा कि पति से अनबन हो गई या ससुराल वालों ने कुछ अन्याय-अत्याचार कर दिया या मान लो पति की मृत्यु ही हो गई। तो फिर ये उसे पुल चाहिए होता है जो उसको उसके मायके से जोड़े रखे। और उसे एक ऐसा पुल चाहिए जो जीवनभर उसे उसके मायके से जोड़े रखे ताकि उसको आपातकाल में मायके का सहारा मिल सके।

वो पुल कौन हो सकता है? वो पुल भाई ही हो सकता है, क्योंकि पिता तो वृद्ध हो जाएँगे जल्द ही और पिता तो चल बसेंगे। तो भाई वो सहारा होता है।

तो व्यावहारिक तौर पर देखा जाए, ज़मीनी तौर पर देखा जाए तो लड़की को बहिर्विवाह की परंपरा के कारण और उसके आर्थिक रूप से आश्रित होने के कारण परंपरा के माध्यम से एक सहारा दिया गया। वो सहारा यह दिया गया है कि ‘तू भाई से जुड़ी रहेगी। साल में एक बार तुम वापस आओगी। और भाई को राखी बाँधकर के भाई को याद दिलाओगी कि देखो, तुम मदद करोगे, अगर उधर कुछ गड़बड़ हो गई तो। हमारे ऊपर कोई भी आफ़त आई तो तुम मदद करोगे।‘

समझ में आ रही है बात?

तो इसका सम्बन्ध विवाह के बाद वाली स्थिति से ज़्यादा है। क्योंकि देखो, जब बच्ची छोटी है, और मान लो छः साल की लड़की, आठ साल का उसका भाई है, तो भाई क्या रक्षा करेगा? इन दोनों की रक्षा तो पिताजी कर रहे हैं घर के। तो उस स्थिति में यह कहना कि भाई को राखी बाँधी जा रही है कि भाई मेरी रक्षा करे, इस बात का कुछ व्यावहारिक अर्थ तो निकलता नहीं।

भाई रक्षा ज़रूर करता है, पर भाई रक्षा करने की स्थिति में तभी आ पाता है जब भाई स्वयं वयस्क हो जाए, जवान हो जाए। और जब भाई जवान हो रहा है तब तक बहन शादी करके दूसरे घर जा चुकी है।

तो यह जो हमने प्रथा चला रखी है भारत में कि पहली बात, लड़की पराए घर चली जाती है और दूसरी बात, लड़की को परंपरागत रूप से हमने कभी आर्थिक रूप से और अन्य रूपों से भी, शैक्षणिक रूप से भी हमने उसे कभी बहुत बलवान बनने नहीं दिया। तो इसके कारण उसे सदा सहारे की ज़रूरत पड़ती रहती है। तो भाई उस सहारे का काम करता है उस स्थिति में, अगर ससुराल में कुछ गडबड हो जाए तो। ठीक है? तो वहाँ इस पर फिर रक्षाबंधन का जो महत्त्व है वो बढ़ जाता है।

अब ये दो बहुत अलग-अलग धाराएँ हैं रक्षाबंधन की। एक धारा वो है जहाँ पर ब्राह्मण लोगों को राखी बाँध रहे हैं और उन्हें धर्म की रक्षा करने की याद दिला रहे हैं, और एक धारा वो है जहाँ पर बहनें भाइयों को राखी बाँध रहीं हैं और कह रहीं हैं, ‘तुम हमारी रक्षा करना।‘

आप कहेंगे ये दोनों धाराएँ एक कैसे हो गईं। यह दोनों धाराएँ अभी ७०-१०० साल तक भी बहुत एक नहीं थीं। अभी तो आपको एक ही धारा दिखाई देती है न? आपको रक्षाबंधन का भी एक ही रूप दिखाई देता है कि बहन भाई को राखी बाँधे, इसको रक्षाबंधन कहते हैं। आपको हैरत होगी ये जान करके की ८०-१०० साल तक पहले तक भी ऐसा नहीं था।

पहले भी यही था कि पुरुष भी पुरुषों को राखी बाँध रहे थे। ब्राह्मण अपने जजमानों को राखी बाँध रहे थे, हालाँकि उसमें कई बार जो पंडित या पुरोहित होता था, उसका अपना स्वार्थ भी होता था कि राखी बाँधूँगा तो मुझे दक्षिणा मिलेगी, लेकिन फिर भी जो भाई-बहन वाला कोण था वो उतना नहीं प्रबल हुआ था, यद्यपि वो धारा पुरानी है।

भई, चित्तौड़ की रानी कर्णावती और हुमायूँ की एक कथा चली आ रही है, इसी तरह से आपने द्रौपदी और कृष्ण की कथा बताई। वह धारा भी पुरानी है जिसमें वो भाई-बहन वाला कोण है। लेकिन फिर भी वो वाली धारा बहुत प्रबल नहीं हुई थी अभी समझ लीजिए पिछली शताब्दी के भी उत्तरार्ध तक। यह तो अब हैरत होगी कि वही बात कैसे हुई? राखी का एक ही अर्थ कैसे हो गया, भाई-बहन वाला?

उसमें बहुत बड़ा योगदान तो फ़िल्मों का रहा है। बहुत सारी फ़िल्में ऐसी आयीं हैं जिसमें राखी को बड़ी प्रधानता दी गई है। तो उससे जनमानस में राखी का, मतलब जो भाई-बहन वाली राखी है, उसका महत्त्व काफ़ी बढ़ गया।

यह बात सुनकर बहुत लोग चौकेंगे, कहेंगे, ‘नहीं, ऐसी बात नहीं है, ऐसी बात नहीं है!‘ थोड़ा-सा आप इसपर शोध, रिसर्च कर लीजिएगा तो आपको पता चलेगा। इसी तरीके से राजनैतिक सक्रियता का राखी, जो भाई-बहन वाला राखी का खेल है, उसको आगे बढ़ाने में काफ़ी योगदान रहा है। नहीं तो राखी अधिकतर रूप से उत्तर भारत का ही एक त्यौहार हुआ करता था। ठीक है? पर राजनैतिक सक्रियता इसको दक्षिण भारत में भी ले गई है।

तो ये दो चीज़ें हैं कि शास्त्र क्या कहता है कि रक्षाबंधन क्यों हो और परंपरा क्या कहती है कि रक्षाबंधन क्यों हो।

प्र१: जो, आचार्य जी, आपने परंपरा की बात करी है, इसका कोई आधार है?

आचार्य: नहीं, परंपरा का कोई आधार नहीं होता। देखो क्या होता है, परंपरा बस होती है। वो जब शुरू हुई होती है तो उसमें कोई छोटा-मोटा कारण होता है, फिर वो चल निकलती है। कारण किसी को पता नहीं होता। उसके बाद परंपरा स्वयं अपना कारण बन जाती है।

लोग कहते हैं, ‘हमारे पुरखे भी यही कर रहे थे तो हम भी वही करेंगे।‘ क्यों कर रहे हो? क्योंकि परंपरा है। तो परंपरा का कारण क्या है? परंपरा स्वयं अपना कारण है। क्योंकि हम कारण पूछना बंद कर देते हैं न; हम इतने खोजी लोग नहीं होते। हममें सच्चाई की इतनी जिज्ञासा नहीं होती, ना हममें सत्य के प्रति इतनी निष्ठा होती कि ‘हम कहें कि परंपरा का कारण खोजेंगे। कोई अगर हमें सही समुचित कारण मिला तब तो परंपरा का निर्वाह करेंगे, नहीं तो काहे को करें?’

तो परंपरा का कोई कारण नहीं होता, और भारत बड़ा प्राचीन देश है। यहाँ गाँव-गाँव की अपनी अलग-अलग परंपराएँ हैं। हर जगह की अपनी अलग परंपरा, और परंपरा चलती रहती है। फिर जब वो परंपरा आगे बढ़ती है, बढ़ती है, बढ़ती है, समय बदलता है, लोगों तक ज्ञान और सूचना पहुँचते हैं तो फिर वह परंपरा अपना रूप-रंग बदल लेती है। वो हो सकता है फिर किसी शास्त्रीय बात से जा करके मिल जाए।

तो ये जो गाँव-गाँव की बात थी कि भई लड़की को रक्षा चाहिए तो उसके लिए वो भाई का सहारा लेगी। वो बात जा करके शास्त्रीय बात से मिल गई और शास्त्रीय बात यह थी कि जन-जन में प्रत्येक व्यक्ति को धर्म की रक्षा करनी है। तो जो परंपरागत भाई-बहन की रक्षा की बात है, वो जाकर शास्त्रीय रक्षाबंधन से संयुक्त हो गई, एक हो गई। एक हो गई और उसका अब जो हम देख रहे हैं रूप, वो ये है कि उसी परंपरागत बात को अब शास्त्रीय धर्म ही मान लिया गया है।

और शास्त्र वास्तव में क्या कहते हैं रक्षाबंधन के बारे में, उस बात का किसी को पता भी नहीं है, ना कोई इस बात को जानने में रुची रख रहा है। लेकिन मैं इतना इसमें स्पष्ट कर दूँ कि जो भाई-बहन वाला कोण है, शास्त्र उससे ज़्यादा धर्म की रक्षा करने वाले कोण को प्राथमिकता देते हैं।

प्र१: आचार्य जी, बचपन से ही हम इस त्योहार को देखते आ रहे है कि माँ-बाप हमारे वैसे ही मनाते थे और हम तक भी वो बात वैसी ही पहुँची। मैं अभी हाल ही में पढ़ रही थी जैन धर्म के बारे में। तो जैन धर्म में रक्षाबंधन का जो पूरा अर्थ है वो वही अर्थ है जो आप शास्त्रीय अर्थ बता रहे हैं। वहाँ स्त्री-पुरुष के बीच का कोई रिश्ता नहीं है, वहाँ धर्म के बारे में बात होती है।

पर जो जैन भी हैं, जो आज रक्षाबंधन जिस तरीके से मनाते हैं, वो परंपरा से ही मिल गया है, वो एक हो गया है।

आचार्य: वो एक हो गया है और अक्सर यह होता रहा है कि हमारी परंपराएँ, जो कि हमारी आदतें होती हैं, आदत धर्म पर भारी पड़ती है। परंपरा जो है वो शास्त्र पर भारी पड़ती है। हम ये नहीं पूछते कि शास्त्र में क्या लिखा है, हम बस उसी का पालन करने लग जाते हैं जो हमारी परंपरा है और हम सोचते हैं कि परंपरा ही तो धर्म है।

भाई, परंपरा तो गाँव-गाँव की, कस्बे-कस्बे की हर जगह की अलग होती है। राखी कैसे मनाई जाती है? आप जाइए तो गुजरात में भी अलग है, नेपाल में अलग है, दक्षिण भारत में बात ही अलग है। जैनों में बात अलग है, उत्तर भारत में भी आप अलग-अलग जगहों पर जाएँगे तो अलग-अलग परंपराएँ हैं।

परंपरा का क्या है, वो तो स्थानीय रूप से उठती है, वो तो एक जगह की मिट्टी से उठती है। और भारत की मिट्टी बड़ी उर्वर रही है। यहाँ से बहुत कुछ पैदा हो जाता है, तो परंपराएँ भी हो जाती हैं।

तो शास्त्र क्या कह रहा है, बात क्या है वो समझनी चाहिए। हर परंपरा का असली उद्देश्य धर्म की रक्षा होना चाहिए। वैसी ही परंपरा कुछ प्राण रखती है।

जो परंपरा धर्म की रक्षा की तरफ़ भेज सके मनुष्य को, सिर्फ़ वही परंपरा कुछ अर्थ रखती है।

और धर्म की क्या परिभाषा बोली थी हमने? मन को शुद्धि देना, शांति देना – ये धर्म है। तो जो परंपरा मन को शुद्धि और शांति देती हो, मात्र वही परंपरा धार्मिक है।

सब परम्पराएँ धार्मिक नहीं होती हैं, परंपराएँ बस परंपराएँ होती हैं। परम्पराएँ आदत होती हैं, स्थानीय आदतें, *लोकल हैबिट्स*। सिर्फ़ कुछ परंपराएँ धार्मिक होती हैं। और जो परंपराएँ वास्तव में धार्मिक होती भी हैं, हम लोगों ने ग़लती क्या करी है कि हम उनका धार्मिक अर्थ भूल बैठे हैं।

परंपरा जैसे एक लिफ़ाफ़ा हो, उस लिफ़ाफ़े के अंदर धर्म की बातों का पत्र रखा हुआ हो। हम भूल ही गए हैं कि वो लिफ़ाफ़ा खोलना कैसे है, परंपरा के भीतर जो बात लिखी हुई है, उसको पढ़ना कैसे है। कुछ परंपराएँ तो ऐसी हैं जिनके भीतर कोई पत्र रखा ही नहीं हुआ है, वो खोखली हैं, खाली लिफ़ाफ़ा है। वहाँ कुछ नहीं है। कुछ परंपराएँ ऐसी हैं जिनमें अभी भी अर्थ है, पर हमें उन अर्थों का पता नहीं, हमने वो पत्र कभी पढ़ा नहीं।

प्र१: जो भाई-बहन वाला रिश्ता है जिसके बारे में अभी आपने बात कही, तो ये क्या वही खाली लिफ़ाफ़ा ही है?

आचार्य: आज के समय में तो देखो, मैं कहूँगा कि यह जो भाई बहन-वाली चीज़ है, ये बहुत अर्थ अब रख नहीं रही है और आने वाले समय में इसका अर्थ और कम हो जाएगा। हालाँकि जब मैं ये बात कहूँगा तो बहुत लोगों को बहुत बुरा लग जाएगा और जो लोग अपने-आप को धर्म का संरक्षक वगैरह बोलते हैं, उन्हें खासतौर पर मेरी बातें बहुत चुभती हैं।

लेकिन एक बात बताओ, तुम तीन यहाँ बैठे हो, तुम्हें मेरे संरक्षण की ज़रूरत है क्या? तुम तो मिल करके मेरी रक्षा कर दो। आज के समय में कौनसी लड़की को अपने भाई की रक्षा की ज़रूरत है? और अगर लड़की को अभी भी अपने भाई की रक्षा की ज़रूरत है कि भाई उसको रक्षा देगा, तो यह बात कोई उत्सव का विषय नहीं हो सकती। ये बात तो खेद का विषय होनी चाहिए कि लड़की अभी भी भाई से कह रही है कि तुम आकर के मेरी रक्षा करो।

काहे को? लड़की क्यों नहीं भाई की रक्षा करेगी? हर मामले में बराबर ही है। लड़कियाँ हर जगह आगे बढ़ रहीं हैं, तो रक्षा के मामले में भी बराबरी है। और यह बात और विचित्र तब हो जाती है जब बहन भाई से आठ-दस साल बड़ी हो, और फिर भी उससे रखा का वचन ले रही है। आप घरों में जाएँगे, वहाँ एक साल का भाई होगा और दस साल की बहन होगी। वो उसको राखी बाँध रही है कि तुम मेरी रक्षा करना। और वो रो रहा है और वो पालने में सुसु करा बैठा है, वो रक्षा करेगा! तो बात थोड़ी विचित्र हो जाती है न?

तो आज के समय में मुझे नहीं लगता कि बहनों को रक्षा की ज़रूरत है। हमारे महान शास्त्रों ने भी हमें यही समझाया है कि धर्म को रक्षा की ज़रूरत होती है सदा। और यदि आप धर्म की रक्षा कर दो तो बाकी सब की रक्षा अपने-आप हो जाती है। 'धर्मो रक्षति रक्षितः'

आप धर्म की रक्षा कर दो, धर्म बाकी सबको अपने-आप बचा देता है। तो बहन को क्या ज़रूरत है आज रक्षा की? और अगर बहन को ज़रूरत है तो कई बार भाई को भी ज़रूरत है, बात बराबरी की है। आप कहेंगे, ‘नहीं, देखो अभी भी महिलाएँ कमज़ोर हैं’ इत्यादि-इत्यादि-इत्यादि। वो ठीक है, मैं मानता हूँ, लेकिन फिर भी मैं कह रहा हूँ कि यह बात आज कुछ बहुत मायने नहीं रखती है कि बहनों को आकर के भाई रक्षा देंगे।

प्र२: आचार्य जी, जैसे अभी आपने दो पक्ष रखे रक्षाबंधन के विषय में, पहला शास्त्रीय, दूसरा परंपरागत। जैसे अभी आपने धर्म के विषय में बताया कि धर्म का जो पूरा मूल सिद्धांत है वो यही है, मन को शुद्धता की ओर ले जाना, मन को आत्मा की ओर ले जाना।

उस हिसाब से जैसे आपको लंबे समय से सुनते आ रहे हैं तो उसमें ये बात आपने कई बार बोली है कि धर्म आसपास के माहौल को देखकर ही संचालित भी हो रहा होता है, या कह लीजिए कि आसपास का जैसा माहौल है, उसके अनुसार फिर वैसा जीवन जीना पड़ेगा, वही कर्तव्य बनेगा, धर्म बनेगा।

जैसे देखा जाए तो जो इस समय बलहीन है या जिसका शोषण सबसे ज़्यादा हो रहा है, एक तरीके से तो रक्षा उसकी होनी चाहिए, वो धर्म कहलाना चाहिए। तो रक्षाबंधन क्या इस तरह से नहीं मनाया जा सकता है?

आचार्य: नहीं, वैसे ही मनाया जाना चाहिए। पिछले साल हमने इस पर बात करी भी थी कि देखो, आज देखो वास्तव में कि रक्षा की ज़रूरत किसको है। तो बहन जब भाई के राखी बाँधे, तो उसका अर्थ ये होना चाहिए कि – भाई, मैं तुझे राखी इसलिए बाँध रही हूँ ताकि तुझे स्मरण रहे कि हम दोनों को मिलकर धर्म की रक्षा करनी है। आज जब बहन भाई के राखी बाँधे तो मंत्र यह होना चाहिए कि – भाई, हम दोनों मिलकर धर्म की रक्षा करेंगे और यह इस पर्व का मर्म है। रक्षाबंधन के पर्व का अब ये मर्म है।

‘भाई, मुझे रक्षा नहीं चाहिए, मेरी रक्षा की चिंता छोड़ दो भाई। मैं समर्थ हूँ, मैं सबल हूँ। मैं कल की अबला नारी नहीं हूँ। मैं अपनी देखभाल ख़ुद कर लूँगी, बल्कि, भाई, अगर तुम चाहो तो मैं तुम्हारी भी देखभाल कर सकती हूँ। तो मेरी फ़िक्र मत करो, भाई।‘

‘मैं तुम्हें राखी अब इसलिए बाँध रही हूँ’ – इस परंपरा का अर्थ ये होना चाहिए – ‘भाई मैं राखी तुम्हें अब इसलिए बाँध रही हूँ ताकि यह धागा तुम्हें याद दिलाता रहे और मुझे भी याद दिलाता रहे – क्योंकि बाँधा तो मैंने है न – मुझे भी याद दिलाता रहे, तुम्हें भी याद दिलाता रहे कि हम दोनों को मिलकर के धर्म की रक्षा करनी है।‘ आज रक्षाबंधन का यह अर्थ होना चाहिए।

प्र१: आचार्य जी, आपने जैसे इसका भी शास्त्रीय अर्थ बताया पूरा जहाँ पर धर्म केंद्र में था पर खासतौर पर मेरी पीढ़ी के लिए या हम सभी और जो आ रही है जनरेशन , शास्त्रों के पास हम इतना नहीं जाते उस तरीके से क्योंकि हमारा इन्वाइरनमेंट (वातावरण) ही बचपन से उस तरीके से नहीं रहता है, ना एजुकेशन सिस्टम (शिक्षा व्यवस्था) में, ना ही हमारी परवरिश में। तो जो कुछ प्रचलित हमने यूट्यूब पर किसी को सुन लिया, किन्हीं गुरु को सुन लिया या अध्यात्म से उस तरीके से हमारा सम्बन्ध एक डेवलप (विकसित) हो गया।

तो आपको सुनने से पहले मैंने किन्हीं को पहले सुना था तो उन्होंने राखी के सम्बन्ध में भी कुछ इस तरीके की बातें साझा करीं थीं। उन्होंने शास्त्रीय अर्थ नहीं बताया था, उस वीडियो में तो विशेष रूप से नहीं था। साथ में उन्होंने राखी का जो धागा होता है उसको एनर्जाइज़ (सक्रिय) करना, कान्सीक्रैट (पवित्र) करना...

आचार्य: अरे! राम की बात करो, बेकार है ये सब। कुछ नहीं है इसमें। धागे का एनरजाइज़ वगैरह करना ये सब बिलकुल बेकार की बातें हैं। ऐसी बातों से राम बचाए! ये सब कुछ नहीं होता। नहीं तो एनर्जी होती तो क्या करेगी वो एनर्जी हाथ में? कलाई पर आपने एनर्जी बाँध ली तो क्या होगा उससे?

प्र१: उनका कहना यह भी था साथ में विडिओ में जैसे मंगलसूत्र होता है या फिर आपकी कलाई पर राखी होती है, तो हर साल आपको उसको एनर्जाइज़ करना होता है।

आचार्य: एनर्जाइज़ क्या करोगे? वो धागा है, वो कपास है, वो कॉटन है। उसमें एनर्जाइज़ कैसे करोगे? एनर्जी जो है एक फिज़िकल क्वांटिटी (भौतिक इकाई) होती है न, एक भौतिक चीज़ होती है। तुम एनर्जी क्या भर दोगे उसमें? एनर्जी तो आप कपड़े में ऐसे डाल सकते हो, उदाहरण के लिए, आप जब इसको (कपड़ा) प्रेस (इस्त्री) करते हो तो आप इसको एनर्जी देते हो। उसी एनर्जी के कारण फिर इसमें जो सिलवटें होती हैं वो हट जातीं हैं। तो ये एनर्जी दे सकते हो तुम अधिक-से-अधिक।

एक कपड़ा होता है, उसमें सिलवट क्यों पड़ जाती है? क्योंकि उसके भीतर केमिकल रिऐक्शन (रासायनिक प्रतिक्रिया) होता है, उसमें छोटे-छोटे बॉन्ड आ जाते हैं, हाइड्रोजन बॉन्ड आ जाते हैं, स्ट्रॉन्ग (बलवान) बॉन्ड होते हैं जो कि मॉलिक्यूलर स्ट्रक्चर (आणविक संरचना) को ही बदल देते हैं और वीक बॉन्ड होते हैं, उन्हीं वीक (कमज़ोर) बॉन्ड से आप ये जब देखते हो न, कहते हो ‘कपड़े में सिलवट पड़ गई।‘ वो वास्तव में केमिकल रिऐक्शन है, पर हम वैसे सोचते नहीं, पर वो यही है। तो वो केमिकल रिऐक्शन है। फिर जब आप उसको एनर्जी देते हो, प्रेस के माध्यम से तो वो एनर्जी उस केमिकल बॉन्ड को तोड़ देती है। तो फिर वो जो सिल्वट थी वो हट जाती है और वो आपको कपड़ा अच्छा-अच्छा लगने लग जाता है।

तो कपड़े को तो आप एनर्जी यही दे सकते हो कि उसको गर्म कर दो। या यह कर सकते हो कि उसमें कोई केमिकल डाल दो। या यह कर सकते हो कि उसकी डाइंग (रंगाई) कर दो। अब जैसे इसमें डाइंग अगर करी गई है, (अपनी शर्ट की ओर इशारा करते हुए) तो वो भी एक केमिकल रिऐक्शन है। और उसमें भी एनर्जी का आदान-प्रदान होता है।

हर केमिकल रिऐक्शन में एनर्जी ऊपर-नीचे होती है। एक्सोथर्मिक , एन्डोथर्मिक ये सब याद होगा। तो उसके बिना केमिकल रिऐक्शन हो नहीं सकता। तो बाकी और कैसे मतलब धागे में एनर्जी घुसेड़ी जा सकती है, यह बात बड़ी चमत्कारिक है। और उससे बड़ा चमत्कार ये है कि पढ़े-लिखे लोग भी ऐसी बातों को सुन लेते हैं, यकीन भी कर लेते हैं और ऐसे दुनिया चल रही है। तो ये सब बातें एक तरफ़ रखो, व्यर्थ बातें हैं, उनमें कुछ नहीं रखा।

प्र३: आचार्य जी, अभी हम बात कर रहे थे कि हम जो रक्षा सूत्र बाँधते हैं तो आपने धर्म से सम्बन्धित बोला कि पहले किसी ब्राह्मण ने उनको रक्षा सूत्र बाँधा कि धर्म की रक्षा हो, फिर आपने बताया कि बहन भी भाई को जब रक्षा सूत्र बाँधती है तो वो अपनी रक्षा के लिए...

आचार्य: अभी देखो, दो अलग-अलग बातें हो गयीं हैं न? एक तो ये है कि राजा को याद दिलाया जा रहा है कि ‘राजा, तुम धर्म की रक्षा के लिए अडिग रहना’, ये व्यापक बात है। राजा को निस्वार्थ होकर पूरी प्रजा में धर्म का संचार करना होगा। और एक दूसरी बात है कि एक बहन जाकर भाई को कह रही है ‘व्यक्तिगत रूप से बस मेरी रक्षा कर दो।’

इसमें परमार्थ नहीं है। इसमें तो बहन कह रही है, ‘बस मेरी रक्षा कर दो’ – स्वार्थ है। तो परंपरा एक तरह से स्वार्थ के इर्द-गिर्द निर्मित है और जो भाई-बहन के रिश्ते की बात है, बस वो छोटे दो लोगों की बात हो गई न बस, कि भाई अपनी बहन की रक्षा भर कर रहा है। अपनी बहन की रक्षा कर रहा है, किसी और की बहन की रक्षा करना बाद में आएगा। अपनी बहन की रक्षा कर दो।

जो शास्त्र कह रहे हैं, वो कह रहे हैं, ‘नहीं-नहीं-नहीं, बात ये नहीं है कि अपने परिवार मात्र की रक्षा करनी है, बात ये नहीं है कि अपने स्वार्थ मात्र की रक्षा करनी है। धर्म की ही रक्षा करनी है एक व्यापक रूप में। समष्टि की रक्षा करनी है’ – शास्त्र ये कह रहे हैं।

शास्त्र की बात जो है वो बड़ी विस्तृत है और जो हम परंपरा चला रहे हैं वो बड़ी सीमित। वो एक परिवार के एक कुटुम्ब के भीतर की बात हो गई कि भाई को दो-तीन बहनों ने आकर बाँध दिया।

लेकिन शास्त्र कह रहे हैं कि रक्षाबंधन का अर्थ है कि बस तुम्हें दो-तीन व्यक्तियों की ही ज़िम्मेदारी नहीं उठानी है, तुम्हें पूरी धरती पर धर्म की ज़िम्मेदारी उठानी है, शास्त्र यह कह रहे हैं। तो शास्त्र और परंपरा में यह अंतर होता है हमेशा से। शास्त्र बहुत ऊँची बात कहते हैं। और परंपरा तो...

प्र३: जैसे आप बता रहे हैं कि धर्म की रक्षा करना ही हमारा अल्टीमेट मोटिव (अंतिम मकसद) होना चाहिए, पर जब मैं बचपन में थी तो मुझे बोला जाता था कि भाई को राखी बाँधो और भाई आपको प्रेज़ेंट (उपहार) देगा। तो आज मैंने मार्केट में ये चीज़ ऑब्जर्व की। मैं गयी थी, तो कुछ लोग राखी खरीद भी रहे थे और कुछ लोग गॉसिपिंग (गपशप) भी, ये चल रही थी कि, ‘नहीं-नहीं, ये मेरे भाई को पसंद नहीं आएगी। ये कहाँ अच्छी राखी है! थोड़ी और क्वालिटी (गुणवत्ता) इसमें अच्छी होनी चाहिए।‘

जब हम धर्म की बात कर रहे हैं या परंपरा की भी बात कर रहे हैं तो हम ये नहीं कह रहे हैं कि उसकी क्वालिटी क्या होनी चाहिए या वो कैसे प्रेजेंटेबल (आकर्षक) है कि नहीं है। जबकि आज पूरा वो…

आचार्य: (व्यंग करते हुए) तो ये जो हम जितनी भी बातें कर रहे हैं न, ये अपने भाइयों को मत बताना। वो पहले जो कुछ भी तुम को भेंट, गिफ्ट वगैरह दे रहे हैं, वो पहले ले लेना। ठीक है?

(श्रोतागण हँसते हैं)

ये आरती जी हैं (प्रश्नकर्ता को संबोधित करते हुए), यूट्यूब पर सारा काम यही देखती हैं, तो कहीं ये ग़लती ना कर दें कि वीडियो बनाया और सबसे पहले अपने भाई को ही भेज दें, वो भी राखी से पहले। तो भाई को ये सब दिखाना भी तो राखी के बाद। उससे पहले उनसे जितना निकलवाना हो, पहले निकलवा लेना। ठीक है?

प्र२: आचार्य जी, कभी-कभी, कभी क्या काफ़ी दिनों से देखने को मिल रहा है कि त्यौहार का पता ऐडवर्टाइजमेंट (विज्ञापन) के माध्यम से ही चल रहा होता है।

आचार्य: बहुत बढ़िया बात। वही बात ये (प्र३ को संबोधित करते हुए) बोल रहीं थीं, 'मार्केट'।

प्र२: और मुझे अंदाज़ा भी नहीं था रक्षाबंधन आने वाला है।

आचार्य: मार्केट। बाज़ार बाता देगा कि त्यौहार आ रहा है, ‘चलो खरीदो।‘ देखो यही होता है न बच्चे, धर्म बहुत ऊँची चीज़ है जैसे हिमालय का शिखर, हिमाच्छादित चोटी, एकदम सफ़ेद। सफ़ेद माने साफ़। और उस पर पड़ रहीं हैं सूरज की किरणें। और वो बर्फ़, जगमग जैसे सोना। धर्म होता है ऐसा।

फिर वही धर्म जब लोगों के हाथ में आ जाता है, तो ऐसा है कि जैसे वहाँ से बर्फ़ पिघली और नीचे को चली और नीचे को चली और लोगों के पास पहुँच गई। और वो बर्फ़ ऊपर तो थी बिलकुल ऐसी ही जैसे शुभ्र सोना। और जब लोगों के पास पहुँची तो कैसी हो जाती है? वही हिमालय की बर्फ़ जब हमारे पास नीचे मैदान पर पहुँचती है तो कैसी हो जाती है? गंदी हो जाती है न। हम गंदा कर देते हैं।

तो धर्म बहुत ऊँची बात है, पर वो हमारे हाथों में पड़कर बहुत गंदा हो जाता है। और जब वो गंदा हो जाता है हमारे हाथों में पड़कर, तो मालूम है हम क्या बोलते हैं? ‘धर्म गन्दी चीज़ है।‘ हम ये नहीं बोलते, ‘हमारे हाथ इतने गंदे हैं कि हम जिस भी चीज़ को छूते हैं उसे गंदा कर देते हैं।‘ जब धर्म हमारे हाथों में पड़कर गंदा हो जाता है तो हममें से कुछ सूरमा निकलते हैं जो कहते हैं ‘धर्म बड़ी गन्दी चीज़ है। धर्म को त्याग दो।‘ ऐसी तो हमारी बुद्धि है!

प्र१: हम उस चोटी की ऊँचाई तक ख़ुद को ऊँचा नहीं बनाते। हम उसको नीचे लाना चाहते हैं।

आचार्य: बिलकुल। और वो चोटी की मजबूरी है, विवशता है उसकी कि अपनी करुणा के कारण उसे बहकर हम तक नीचे आना पड़ता है क्योंकि हम तो उस तक उठकर जाने का दम रखते ही नहीं। तो वो नीचे आती है हमारे पास। जब वो नीचे आती है हमारे पास तो गंदी हो ही जाती है। जब गंदी हो जाती है तो हम इलज़ाम उसी पर लगा देते हैं कि चीज़ गंदी है।

प्र२: आचार्य जी, क्या ये एक बड़ा कारण नहीं है कि परंपराओं का बहुत तेज़ी से बढ़ना एक आदमी की इन्सेक्युरिटी (असुरक्षा) भी बढ़ा रहा है क्योंकि वो धर्म से बहुत दूर होता जा रहा है?

आचार्य: नहीं, परम्पराएँ बढ़ नहीं रहीं हैं। परंपराएँ तो सदा से रहीं हैं। देखो परम्पराएँ अपने-आप में कोई ख़राब चीज़ नहीं होती हैं। जो मैं बात बोल रहा हूँ वो सूक्ष्म है। मैं परंपराओं के खिलाफ़ नहीं हूँ। परंपराएँ प्रतीक होती हैं और प्रतीक को अगर तुमने खोल दिया तो परंपरा में प्राण आ जाते हैं – परंपरा, प्रतीक, प्राण।

लेकिन परंपरा किस चीज़ की प्रतीक है, अगर तुमको नहीं पता, तो परंपरा निष्प्राण होती है। लिफ़ाफ़ा भर होती है, लिफ़ाफ़ा जिसके अंदर कुछ नहीं है और तुम लिफ़ाफ़े को चूम रहे हो, लिफ़ाफ़े की पूजा कर रहे हो। कुछ भी करो फिर तुम लिफ़ाफ़े को, लिफ़ाफ़े में कोई अर्थ नहीं रह गया न। कुछ भरा नहीं है उस लिफ़ाफ़े में।

तो परंपरा अपने-आप में ना अच्छी होती है, ना बुरी होती है। हम परंपरा को दोष नहीं देना चाहते हैं सीधे। बात हमारी है। हमें उस परंपरा का कुछ अर्थ पता भी है क्या?

तो दो बातें हैं। पहली बात तो देखो कि क्या कुछ अर्थ है। हो सकता है कोई अर्थ ना हो क्योंकि बहुत सारी परंपराएँ बस यूँ ही शुरू हुईं थीं, ग्रामीण स्तर पर किसी जगह पर बस यूँ ही शुरू हो गईं। फिर वो चलती रहीं, चलती रहीं और उनमें कुछ अर्थ होता नहीं है अब।

सती भी तो एक प्रथा ही होती थी न। तो उसमें क्या अर्थ खोज लोगे? तमाम तरीके की अस्पृश्यता, कि हम इसको छुएँगे नहीं और अछूत है, ये सब भी हमारे यहाँ चलता ही था।

तो इनमें अर्थ क्या खोज लोगे? कोई अर्थ नहीं है इसमें। ये तो बस ऐसा ही है कि कहीं से बात चल पड़ी, किसी वजह से और फिर चलती जा रही है, चलती जा रही है, उसमें कोई जान नहीं है, कोई अर्थ नहीं है, उसके भीतर कोई सत्य नहीं है।

तो काफ़ी सारी प्रथाएँ हैं जो निष्प्राण हैं, उनको त्यागो। और काफ़ी सारी परंपराएँ ऐसी हैं जिनमें अर्थ है, पर ग़लती हमारी है कि हमने उन अर्थों को कभी जाना नहीं, उन प्रतीकों को हमने कभी खोला नहीं। हम लिफ़ाफ़े को ही लिए घूम रहे हैं, लिफ़ाफ़ा खोल के अंदर जो उसके पत्र रखा हुआ है उसको हमने कभी पढ़ा नहीं।

उसमें मैं कहा करता हूँ कि परंपरा का अर्थ तुम तभी खोल पाओगे जब पहले तुम्हें वेदान्त पता हो। हाँ, परंपरा अगर ताला है तो वेदान्त कुंजी है और वेदान्त की कुंजी तुम्हारे पास नहीं है, तुम परंपरा भर का पालन करते जाओगे बिलकुल मूढ़ की तरह। जैसे एक अंधा चलता जाता है, चलता तो जाता है, लेकिन देखता कुछ नहीं। कुछ नहीं जानता कहाँ को जा रहा है, क्या कर रहा है। बस यूँ ही चल रहा है।

या किसी ने बोल दिया सीधे चले जाओ या कोई हाथ पकड़ कर उसको चला रहा है, बस चले जा रहा है। या कोई नींद में चल रहा है अपनी, कुछ जानता है क्या वो व्यक्ति? तो वैसे ही अधिकांश लोग परंपराओं का पालन करते हैं, बिना परंपराओं का अर्थ जाने। तो परंपराओं का अर्थ जानिए, दूसरी बात।

और फिर मैं एक तीसरी बात ये बोलता हूँ – सब परम्पराएँ युग सापेक्ष होती हैं। सब परम्पराएँ अपने समय के अनुसार होती हैं। उनके अर्थ उनके समय की पृष्ठभूमि में ही निखर कर सामने आते हैं। जब समय बदल जाता है तो फिर वो अर्थहीन होने लग जाती हैं। तो आज का जो समय है, वो बड़ा विशिष्ट है। आज हम एक बड़े भयानक संक्रमण काल में जी रहे हैं जिसमें विनाश हमारे बहुत निकट है, तो आज तो हमको बल्कि पुरानी परंपराओं में नए अर्थ भरने की ज़रूरत है।

सबसे पहले तो पुरानी परंपराओं में जो पहले से ही अर्थ है उसको खोलने की ज़रूरत है, उद्घाटित करने की। और पुरानी परम्पराओं में नए अर्थ भी भरने की ज़रूरत है और यदि आवश्यकता पड़े तो आज हमें नयी परंपराएँ भी आरंभ करनी होंगी क्योंकि यह युग अलग है और सब परम्पराएँ युग सापेक्ष होती हैं।

सत्य होता है अकेला जो समय सापेक्ष नहीं होता। सत्य के अतिरिक्त सब कुछ समय सापेक्ष होता है, तो परंपरा भी समय सापेक्ष होती है। काल सापेक्ष है, युग सापेक्ष है, ठीक है। निर्भर करती है वो समय की स्थितियों पर।

अब जैसे ये हमने बात की है कि आज अगर बहन भाई को राखी बाँधे तो उनका आपस में निश्चय होना चाहिए, मंत्र ये होना चाहिए कि हम दोनों मिल करके धर्म की रक्षा करेंगे। हम दोनों एक हैं, हम दोनों बराबर हैं। हममें प्रेम का नाता है और हम दोनों मिल करके धर्म की रक्षा करेंगे। रक्षाबंधन का ये अर्थ हुआ।

तो धर्म की रक्षा करने का आज ज़मीनी अर्थ क्या है? धर्म की रक्षा करने का ज़मीनी अर्थ यह है कि आज जो सबसे मुसीबत में है उसको बचाओ। कौन है आज सबसे मुसीबत में? आज सबसे ज़्यादा मुसीबत में यह पृथ्वी ही है – पृथ्वी, प्रकृति, पर्यावरण। इनको बचाने की ज़रूरत है। इनकी रक्षा करो न।

और पूछोगे, ‘कौन आज मुसीबत में है, किसको बचाना धर्म है?’ मैं कहूँगा धर्म को ही बचाना धर्म है। सबसे ज़्यादा तो संकट में आज धर्म स्वयं है, तो धर्म को ही बचाना सबसे बड़ा धर्म है। आज तो भाई और बहन को मिल करके संकल्प ये लेना चाहिए कि हम धर्म की रक्षा करेंगे। ‘भैया, मेरी रक्षा छोड़ो। हम दोनों मिल करके धर्म की रक्षा करेंगे। मेरी रक्षा अपने-आप हो जाएगी।’ बहुत बढ़िया बात है।

अगर धर्म की रक्षा हो गई तो बहन की रक्षा तो अपने-आप हो जाएगी। धर्म की रक्षा हो गई तो भाई की रक्षा भी अपने-आप हो जाएगी। तो जितना विचित्र आज का समय है, इतना कभी का नहीं रहा। यह बात हमें पता नहीं होती है क्योंकि हम टीवी न्यूज़ में खोए हुए हैं। और टीवी न्यूज़ और जो यूट्यूब इंफ्लुएँसर हैं और जो सोशल मीडिया पर तमाम तरह की गॉसिप चल रही है, वह हमें कभी जानने नहीं देती कि आज के असल मुद्दें क्या हैं।

हमें पता नहीं लगने देती है कि यह कितना भीषण काल है और हम महाविनाश के कितने निकट हैं। यह भी नहीं है कि दशकों दूर हैं, हम पाँच साल, दस साल दूर हैं बस पूरे विनाश से। यह बात हमें टीवी पता नहीं लगने देता। यह साज़िश है जो आम आदमी के खिलाफ़ खेली जा रही है।

ना टीवी पता लगाने देता, ना यूट्यूबर पता लगने देता, ना सोशल मीडिया पर जो टनों ट्रैफिक है वो पता लगने देता। हमें नहीं पता लगता।

प्र१: काफ़ी अजीब भी है ये। आज का जो युग है वो इन्फॉर्मेशन (जानकारी) का युग है और उसके बावजूद वो जो सही इन्फॉर्मेशन है, वो कहीं खो गई है।

आचार्य: बिलकुल। देखो क्या होता है कि जब आप दरवाज़े खोल देते हो कि इन्फॉर्मेशन युग है और इन्फॉर्मेशन आए, तो इन्फॉर्मेशन में जो ज़्यादातर कचरा है वही आता है सबसे पहले।

अभी एक बात समझो। हमारी इम्युनिटी (रोग प्रतिरोधक शक्ति) होती है। ठीक है? इम्युनिटी हमारे भीतर जो किटाणु-जीवाणु-विषाणु आते हैं, उनको रोकती है, उनको मार देती है। आप अपनी इम्युनिटी शून्य कर दो, आप बोलो – सबका स्वागत है, जो आना चाहे आए। तो आप को बचाने वाले जीव आपके भीतर प्रवेश करेंगे, कुछ अच्छे बैक्टीरिया भी होते हैं। पर क्या वो पहले प्रवेश करेंगे या दुनिया भर की जो घातक चीज़ें हैं वो आप में प्रवेश कर जाएँगी?

यही हुआ है। इन्फॉर्मेशन के नाम पर हम तक ज़बरदस्त रूप से टनों कचरा पहुँच रहा है। उसको हम इन्फॉर्मेशन समझ रहे हैं। आज के आदमी के पास सूचना बहुत है, ज्ञान बहुत कम है। और ज्ञान इसीलिए नहीं है क्योंकि सूचना के ज़बरदस्त मलबे ने ज्ञान का रास्ता अवरुद्ध कर दिया है। ज्ञान आप तक पहुँच ही नहीं सकता क्योंकि आप तक तो वही सब पहुँच रहा है न, चे-चे-चे-चे, गॉसिपिंग पहुँच रही है। दुनिया भर की इन्टरनेट गॉसिप आप तक पहुँच रही है और वास्तविक ज्ञान आप तक पहुँच ही नहीं सकता।

तो यह दो अजीब बात हुईं हैं कि इन्फॉर्मेशन एज (जानकारिक युग) ने सबसे ज़्यादा हत्या करी है नॉलेज (ज्ञान) की। तो आज एक धर्म ये भी है कि लोगों तक वास्तविक ज्ञान को पहुँचाओ।

इसे ऐसे कह सकते हो कि तुम्हारे घर का दरवाज़ा है, तुम उसको खोल दो और कह दो, ‘अभी खुला ही रहेगा, कोई प्रवेश नहीं करेगा।‘ अब शहर में तुम्हारे कुछ दोस्त भी हैं और तुम्हारे शहर में चोर-लुटेरे भी हैं, पर तुम अपना दरवाज़ा खोल दो हमेशा के लिए तो संभावना क्या है, कौन घुसेगा? चोर-लुटेरे ही घुसेंगे न, वही हुआ है।

तुम्हारे मोबाइल से अच्छी चीज़ें भी प्रवेश कर सकती हैं तुम्हारे मन में और जीवन में, लेकिन ज़्यादातर घुसते चोर-लुटेरे ही हैं तुम्हारे जीवन में और वो सब घुस आए हैं। और उसके कारण जो असली चीज़ है, वो तुम तक पहुँचने नहीं पा रही है।

तो आज का एक धर्म तो यह है कि असली सूचना, असली बात, असली तथ्य, असली आँकड़े आप तक पहुँचें। रक्षाबंधन पर आप अपने भाइयों के पास जाएँगीं, कहिएगा, ‘असली चीज़ को, असली बात को लोगों तक पहुँचाना धर्म है। आओ आज हम दोनों भाई-बहन संकल्प करते हैं कि असली बात लोगों तक पहुँचाएँगे। धर्म की रक्षा की ज़रूरत है। धर्म की रक्षा हो गई, हम दोनों की, हमारे परिवार की, पूरे समाज की, पूरी पृथ्वी की रक्षा फिर अपने-आप हो जाएगी।‘

बात समझ में आ रही है?

और ये हम कैसे जोड़ रहे हैं? हम क्यों कह रहे हैं कि लोगों तक असली बात को पहुँचाना धर्म है? क्योंकि धर्म की हमने मूल परिभाषा क्या दी थी? जो चीज़ मन को शुद्ध करे वो धर्म है। तो लोगों तक जो शुद्ध तथ्य है वह पहुँचाना धर्म हुआ न? तो वो धर्म है। रक्षाबंधन उस धर्म का उत्सव होना चाहिए।

ये तो ऐसे ही तुम सौ बातें और निकाल सकते हो जो सब समय सापेक्ष हैं। उससे तुम्हें पता चलेगा युगधर्म क्या है, आज के समय में क्या धर्म है। उस धर्म का पालन करना ही रक्षाबंधन का औचित्य है। उसी का स्मरण तुम रखो, इसके लिए तुमको रक्षा बाँधी जाती है।

प्र२: इसको एक परंपरा के रूप में भी, अभी जैसा आपने कहा कि जैसा युग, उस तरह की परंपरा का आना...

आचार्य: नहीं, तो ये जो पुरानी भी परंपरा चल रही है, उसमें भी आज के अर्थ भरे जा सकते हैं। बहुत अच्छी बात है। बहनें भाई को राखी बाँधें, लेकिन बहनें जब भाई को राखी बाँधें तो हम कह रहे हैं कि इतनी सी बात ना रहे कि ‘भैया मुझे बचा लेना।’

हम कह रहे हैं बहन को बचाने की विशेष आवश्यकता कुछ बची नहीं। कह रहे हैं आज जो सबसे ज़्यादा पीड़ित हैं, दुखी हैं, शोषित हैं और जो सबसे ज़्यादा खतरे में है, हमें उसको बचाने की ज़रूरत है न। वो कौन है?

उसका नाम है पृथ्वी, उसका नाम है पशु, उसका नाम है पर्यावरण, उसका नाम है वातावरण और उसका नाम है धर्म, उसका नाम है ज्ञान, उसका नाम है करुणा। यह सब है जो आज मर रहे हैं, इनको बचाओं। यह हुई वास्तविक रक्षा।

आज तुमको विवेक कितना दिखाई देता है समाज में? विवेक माने डिसक्रीशन । सही और ग़लत में भेद कर पाने की क्षमता को विवेक कहते हैं। समाज में कितना तुमको दिखाई दे रहा है विवेक? तो विवेक मर रहा है, विवेक को बचाना धर्म है। तो विवेक की रक्षा करो, ये रक्षाबंधन है। सत्य की रक्षा करो, झूठ ही झूठ फैला हुआ है और आम आदमी झूठ को ही सच सोच करके अपनी ज़िंदगी जिए जा रहा है।

सीधी-सरल, मासूम सच्चाई को बचाना ही रक्षाबंधन का संदेश है।

समझ में आ रही है बात?

अगर ये भी कहना है कि बहन को बचाना है, तो बहन को ऐसे मानो की जैसे ‘बहन’, जो स्त्री रूपक है 'प्रकृति', उसका प्रतीक हो। बहन क्या है? ‘स्त्री’, और स्त्री शास्त्र में किसको कहा गया है? प्रकृति को।

प्र१: एक ब्रॉडर डेफिनिशन (व्यापक परिभाषा) दो।

आचार्य: हाँ, एक ब्रॉडर डेफिनिशन दो। एक ज़्यादा व्यापक परिभाषा दो। जितनी भी तुम क्षुद्र परिभाषाएँ देते हो, वो तो स्वार्थ की बन जातीं हैं न। जो चीज़ जितनी संकुचित है, जितनी नैरो है, वो चीज़ उतनी ही ज़्यादा फिर सेल्फ़ सेंटर्ड है न? स्वार्थी हो गई वो बात। वो नहीं रखनी है। हमें चीज़ को फैलाना है। यही जीवन का उद्देश्य है। हम जी किसलिए रहे हैं, सिर्फ़ क्या अपने लिए जी रहे हैं?

प्र१: एक काफ़ी अच्छा एग्जाम्पल (उदाहरण) भी है, जो स्वार्थ के ऊपर है, क्योंकि रक्षा तो इतने सालों से हो ही रही है, बहनों की रक्षा, लेकिन वो रक्षा असल में पहुँची कहाँ तक? उसका हुआ क्या? क्या असल में आज महिलाएँ सुरक्षित हैं? क्या असल में उस रक्षा ने महिलाओं की मदद करी है? तो…

आचार्य: बहुत अच्छी बात है ये। देखो, वास्तविक रक्षा तो वो होती है न कि जिसमें जिसकी रक्षा कर रहे हो, कुछ समय बाद उसको रक्षा की ज़रूरत ही ना पड़े। अगर आप वास्तव में किसी की रक्षा कर रहे हो तो आप उसका सशक्तिकरण करोगे। आप उसको ऐसा बना दोगे कि उसको फिर जीवन में कभी रक्षा किसी से और माँगनी ना पड़े। यह थोड़े ही होना चाहिए कि वो साठ वर्ष की हो गई, लड़की अब महिला हो गई, उसके बाद भी वो कह रही है, ‘राखी बाँध रही हूँ, भैया, मेरी रक्षा करना।’

ये फिर सशक्तिकरण नहीं हुआ न? और स्त्री को तो भारत में शक्ति ही कहा गया है। जब वो शक्ति ही है तो तुमने उसको सशक्तिकरण से वंचित क्यों रखा? शक्ति को ही शक्ति से वंचित रख रहे हो, ये बात तो धर्म नहीं हुई न?

प्र१: इसी में, आचार्य जी, महिलाओं के पक्ष में ये मन में बात आती है – क्योंकि सामने तथ्य भी हैं उस तरीके से – एक ब्रॉडर स्पेक्ट्रम (व्यापक नज़रिया) है महिलाओं का जहाँ पर असल में उन्हें ज़रूरत है एक आउटर सपोर्ट (बाहरी सहायता) की फ़ाइनेन्शिअल सपोर्ट (वित्तीय सहायता) की, सोशल सपोर्ट (सामाजिक समर्थन) की।

आचार्य: देखो, जहाँ पर समाज के किसी भी तबके को ज़रूरत है कि उसकी रक्षा की जाए, उसको सहारा दिया जाए, उसको दिया जाना चाहिए। चाहे वो स्त्री हो, चाहे पुरुष हो। और चाहे वह मनुष्य हो, चाहे कोई और जीव हो, पशु हो। तो निश्चित रूप से महिलाओं का एक बड़ा तबका है जो आज भी आर्थिक तौर पर, सामाजिक तौर पर, शैक्षणिक तौर पर बड़ा वंचित है। तो उसको तो सहारा निश्चित रूप से दिया जाना चाहिए।

तो जब आप कहते हैं कि धर्म की रक्षा करनी है। तो जो पीड़ित महिलाएँ हैं, उनको सहारा देना निश्चित रूप से धर्म है। इसी तरीके से जो पीड़ित पुरुष हैं उनको भी सहारा देना धर्म है। तो रक्षाबंधन पर, आप लोग महिलाएँ हैं, आप यही ना कहें कि सब महिलाओं का भला हो, जो पुरुष वर्ग में कमज़ोर लोग हैं, उनको भी बराबर का सहारा मिलना चाहिए।

प्र१: उसी स्पेक्ट्रम में जैसे अभी इनकी बात हुई कि जिनको असल में सहारे की ज़रूरत है उन्हें सहारा मिलना चाहिए। परंतु बहुत एक वाइडर स्पेक्ट्रम भी एग्जिस्ट (मौजूद) करता है जिन्हें अब सहारे की ज़रूरत नहीं है। जैसे शहरों में रहने वाली जनरली (आमतौर पर) लड़कियाँ होती हैं जिन्हें अब सहारे की कोई ज़रूरत नहीं है...

आचार्य: पर गिफ्ट लेती रहती हैं। है न? सहारे की कोई ज़रूरत नहीं है, बढ़िया कमा रहीं हैं, एकदम सबल हैं, लेकिन भाइयों से जा-जाकर के तोहफ़े लेती रहतीं हैं।

(सभी हँसने लगते हैं)

प्र१: और उनमें ये भी है और साथ में बहुत सारी ऐसी महिलाएँ हैं जिनके पास अवसर उपलब्ध हैं जॉब (काम) की पर उसके बावजूद कहीं-न-कहीं वो ख़ुद को आर्थिक रूप से सबल नहीं बनाती हैं। जो हमारे पास एक स्टैट (आँकड़ा) है फीमेल लेबर पार्टिसिपेशन (महिला श्रम भागीदारी) का, वो रुरल (ग्रामीण) इंडिया में तो फिर भी थोड़ा-बहुत बढ़ रहा है पर अर्बन (शहरी) में मतलब वो तो और ज़्यादा गिरे जा रहा है।

आचार्य: तो ऐसी महिलाएँ जिनके पास पढ़ाई-लिखाई है, शैक्षणिक उनके पास योग्यता है, लेकिन उसके बाद भी वो परम्परावश या आदतवश या आलसवश बैठी हुईं हैं, कुछ सार्थक जीवन में कर नहीं रहीं हैं, ऐसी महिलाओं को उनका पोटेंशिअल , उनकी संभावना, उनके जीवन का अर्थ याद दिलाना धर्म है।

तो रक्षाबंधन पर फिर भाइयों का फ़र्ज़ बनता है कि यदि उनकी बहनें ऐसी हों जो अपनी उच्चतम संभावना से चूके ही जा रहीं हों, एक खोल में ज़िंदगी बिता रहीं हों, जैसे कि एक गाड़ी है जो इस लायक है कि १२० की गति पर चल सके, वो खाली सड़क पर भी चल रही है २० की गति पर। है न?

जैसे कि एक हवाई जहाज जो ३५००० फिट पर उड़ सकता है, वो सिर्फ़ रनवे पर ही एक टैक्सी बनकर चल रहा हो।

ऐसी ज़िंदगी जो जी रही हों महिलाएँ, उनको याद दिलाना कि, ‘बहन, तुम ऐसी ज़िंदगी जीने के लिए पैदा नहीं हुईं थीं। किसी भी अन्य मनुष्य की भाँति, सब पुरुषों की ही भाँति तुम्हारी भी ज़िंदगी इसलिए है ताकि तुम अपनी संभावना को उच्चतम आकार दे पाओ, अपनी आत्मा को साकार कर पाओ, अपनी चेतना को मुक्त कर पाओ। बहन, तुम भी इसीलिए हो।‘ तो भाइयों का फिर ये धर्म है राखी पर अपनी बहनों को याद दिलाना। यही फिर बहन के प्रति गिफ्ट भी हुआ। यही तोहफ़ा हुआ।

गिफ्ट ये नहीं है कि उसको ले जाकर के कपड़े दे दिए या नोट की गड्डी थमा दी। जो भाई अपनी बहनों के वास्तव में हितैषी हों, उन्हें पूरी कोशिश करनी चाहिए कि उनकी बहनें मुक्त आकाश में अपने पंखों को पूरा विस्तार देकर उड़ सकें, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य का जन्म उसी उड़ान के लिए हुआ है। स्त्री हो कि पुरुष हो, हम सब को आखिरकार उसी आसमान में ऊँचे-से-ऊँचे जाना है, तभी हमारा जन्म सार्थक होता है।

तो बहनों को यह बात भाइयों को याद दिलानी है, भाइयों को यह बात बहनों को याद दिलानी है और दोनों को मिल करके यह बात पूरी दुनिया को याद दिलानी है। यह रक्षाबंधन का फिर सार्थक, समझ लीजिए, कि उपयोग होगा।

प्र१: इसी को ही कबीर साहब कहते हैं कि 'सो धन संचिये, जो आगे को होय।'

आचार्य: बिलकुल। भाई से पैसे ले करके उसको नयी ड्रेस खरीद कर उड़ा देंगी तो उसमें वो धन कहाँ संचय किया जो आगे काम आएगा? और आगे माने ये नहीं कि भविष्य में, आगे माने जो आपको ऊपर ले जाएगा, आगे ले जाएगा, चेतना के तल पर आपको ऊँचाई दे देगा। 'कबीरा सो धन संचिये, जो आगे को होय।'

तो वह धन माँगिए अपने भाइयों से। और अपने भाइयों को भी वही धन दीजिए, और वही धन...

प्र१: सब तक पहुँचाएँ।

आचार्य: हाँ, पूरी दुनिया तक पहुँचाइए, यही रक्षाबंधन है।

प्र२: एक व्यक्तिगत प्रश्न है, थोड़ा मुददे से अलग हो रहा है। आज सुबह जब मैं बात कर रही थी एक महिला से, तो उन्होंने मुझसे बहुत अटपटा प्रश्न किया। अभी आपने जो अर्थ बताया और जैसा इससे पहले भी आपने पिछले साल जो अर्थ बताया था, उन्होंने मुझसे प्रश्न किया कि, ‘आप तो इस्लामिक धर्म से बिलौंग (सम्बन्धित हैं) करती हैं। आप क्या रक्षाबंधन में अपने भाई को राखी बाँधती हैं या आप रक्षाबंधन मनाती हैं?’

तो मैं उनको वो ही अर्थ समझने लगी जो मैंने आपसे समझा है और उनको वो बात हज़म नहीं हो रही थी, बहुत दिक्क़त आ रही थी। तो ऐसे में इस तरह के जो प्रश्न हैं...

आचार्य: नहीं, उसकी वजह यह है कि ज़्यादातर लोग धर्म को पंथ या समुदाय से या संप्रदाय से जोड़कर देख लेते हैं। जबकि धर्म का सम्बन्ध मानव मात्र से है, मनुष्यमात्र से।

सबके मन में खलबली मची रहती है, भारत का हो, अमेरिका का हो, रूस का हो, अफ्रीका का हो, ईरान का हो। सबका मन मौत से डरा रहता है चाहे बूढ़ा आदमी हो, जवान आदमी हो। सब भीतर-ही-भीतर कुछ पाना चाहते हैं जो उन्हें मिल नहीं रहा, लेकिन जानते भी नहीं कि पाना क्या है, चाहे पुरुष हो चाहे स्त्री हो। बच्चा भी भटक रहा है किसी की तलाश में, जवान, बूढ़ा सभी।

झूठ किसी को पसंद नहीं है, धोखा कोई नहीं खाना चाहता, ख़त्म कोई नहीं होना चाहता, बंधन में कोई नहीं रहना चाहता। यह मानव मन की चिरंतन अवस्था है। नहीं फ़र्क पड़ता कि तुम किस देश के हो, किस दुनिया के हो, किस संप्रदाय, किस पंथ, किस धारा के, मन तो मन है न? तो धर्म का उद्देश्य है मन को शांति तक ले जाना।

धर्म का मतलब यह नहीं होता कि यह धर्म, वो धर्म और धर्म के साथ आप पचास तरह के नाम जोड़ दो। जिनको धर्म का वास्तविक अर्थ नहीं पता, उनको तो हैरत हो ही जाएगी कि एक मुसलमान लड़की बैठ करके क्यों सनातन शास्त्रों की चर्चा में सम्मिलित हो रही है? तो वो कहेंगे, ‘अरे! ये अजीब बात है, अजीब बात है।‘ उनको अजीब इसीलिए लग रहा है क्योंकि वो धर्म का मतलब नहीं जानते।

बाकी अगर उनको इतनी ही हैरत हो रही हो तो एक पुरानी कहानी है राखी से सम्बन्धित, वो सुना देना। मेरे ख़याल से बहादुरशाह ने आक्रमण करा था चित्तौड़ पर तो रानी थी वहाँ कर्णावती। तो कहानी है बस, जनश्रुति है, लेजेंड (दंतकथा) है कि उन्होंने हुमायूँ को राखी बाँधी थी।

बहादुरशाह ने आक्रमण करा था, हुमायूँ को रक्षा के लिए एक धागा भेजा था। और हुमायूँ का मन ऐसा हो गया कि फिर हुमायूँ ने फ़ौज भेज दी, हालाँकि वो फ़ौज किसी काम नहीं आ पायी। तब तक जो अनिष्ट होना था वो हो चुका था।

तो मतलब अगर उत्तर ही देना है, जवाब ही देना है, ज़रूरत लग रही है कि ऐसे लोगों को जवाब देना है तो जवाब में ये कहानी सुना सकते हो। जवाब देने की कोई विशेष ज़रूरत भी नहीं है। ऐसी कोई ज़रूरत नहीं है।

देखो, दुनिया की सारी तकलीफ़ें इसीलिए हैं क्योंकि हम धर्म को समझते ही नहीं। जो जिस हिसाब से चल रहा है वो सोचने लगता है कि यही तो धर्म है। लोग कपड़े को सोचते हैं कि जो ऐसा कपड़ा पहन ले वो धार्मिक हो गया, जो ऐसे बाल उड़ा दे वो धार्मिक है, या जिसने बाल रख लिए बहुत वो धार्मिक है, या जिसने शिखा धारण कर ली, चोटी लंबी सी वो धार्मिक है। ये सब बहुत बाहरी प्रतीक हैं किसी बात के। इनका धर्म के मर्म से बहुत कम सम्बन्ध है।

या कि त्योहार आ गया तो उस पर जानवर की जो क़ुर्बानी दे, वही तो मुसलमान है। इस बात का धर्म से क्या सम्बन्ध हो सकता है कि आप जानवर काट रहे हो? इस बात का धर्म से क्या सम्बन्ध हो सकता है? यदि धर्म का अर्थ है मन को शांति तक ले जाना, तो एक बेज़ुबान पशु को आपने काट दिया, इसका धर्म से क्या सम्बन्ध है?

या और बातें, बहुत सारे लोग तो जाति प्रथा को आज भी सही साबित करने में तुले हुए हैं यह कहकर कि यह तो धर्म का हिस्सा है। जाति प्रथा का धर्म से क्या सम्बन्ध है भाई? मन को शांति और शुद्धता की ओर ले जाना धर्म है। उसमें जात-पात कहाँ से आ गयी? समझाओ मुझे। मैं बहुत उस मामले में अनाड़ी आदमी हूँ। मुझे यह सब बातें समझ में नहीं आतीं।

मैं भौचक्का रह जाता हूँ जब कोई बोलता है कि धर्म का सम्बन्ध जात-पात से है। कैसे, कैसे?

प्र १: उपनिषदों ने इस बात को काटा है...

आचार्य: उपनिषदों ने सौ बार काटा है, कोई भी आदमी जिसकी बुद्धि थोड़ी भी शुद्ध है, वो स्वयं ही समझ जाएगा कि धर्म क्या चीज़ है और धर्म के नाम पर तुम जो कर रहे हो वो क्या चीज़ है। बहुत अलग है।

जब हम ऋषिकेश जाते थे और मिथ डेमोलिशन (मिथक विध्वंस) टूर होता था, तो वहाँ पर मैंने एक बात कही थी। फिर संस्था के लोगों ने उसको टीशर्ट पर ही छपवा दिया। और वो टीशर्ट तमाम विदेशियों में बाँटी, तब विदेशी लोग ही ज़्यादा आते थे। हम ऋषिकेश में रहते थे तो वहाँ पर बातचीत होती थी तो उसमें सब विदेशी लोग ही आते थे। तो उसमें टीशर्ट में लिखा था 'रिलिजन इज़ दा हाइएस्ट फ्रीडम, द आइडिया ऑफ रिलिजन इज़ द बिग्गेस्ट बॉन्डेज'

तो वास्तविक धर्म ऊँची-से-ऊँची बात है, लेकिन धर्म का जो हमने विचार, जो सिद्धांत, जो धर्म की हमने कल्पना बना ली है, वो नीचे-से-नीचे बात है। 'चोटी' और 'कीचड़' वाली चीज़।

प्र२: इस हिसाब से रक्षाबंधन तो फिर कोई पर्टिकुलर (निश्चित) दिन तो हो ही नहीं सकता।

आचार्य: क्या बात है, बहुत बढ़िया बात है!

हाँ, लेकिन क्या होता है न कि जो बात रोज़ होनी चाहिए, पर रोज़ होती नहीं उसको याद दिलाने के लिए एक रोज़ निश्चित किया जाता है, तय, मुकर्रर किया जाता। वो चीज़ काश कि रोज़ अपने-आप हो रही होती, पर वो रोज़ होती नहीं है। तो फिर एक रोज़ पकड़ा जाता है कि इस रोज़ उस बात को याद करेंगे जो हर रोज़ होनी चाहिए पर दुर्भाग्यवश हर रोज़ होती नहीं।

तो सब त्यौहार आपको उसकी याद दिलाने के लिए हैं। एक खास दिन पर उसकी याद दिलाने के लिए हैं जिसकी याद हर दिन आनी चाहिए, पर हर दिन हमें आती नहीं।

* मो सम कौन कुटिल खल कामी। ~ कबीर साहब

मैं कुटिल, मैं खल, मैं कामी। मुझे रोज़-रोज़ सत्य की याद आती ही नहीं है, तो फिर एक दिन तय किया जाता है – होली, दिवाली, रक्षाबंधन और कोई त्यौहार कि इस दिन उसको याद कर लो जिसको कायदे से आपको याद तो प्रतिदिन करना चाहिए था। ये है बस।

प्रतीक इसीलिए होते हैं न, 'प्रतीक'? अगर सत्य ही सामने हो तो प्रतीक की ज़रूरत नहीं है। प्रतीकों की ज़रूरत ही उनको पड़ती है जिनकी नज़रों से सत्य आव्रत रहता है।

जो मर्मज्ञ हैं, जो सत्य दृष्टा हैं, जो ब्राह्मी स्थिति में स्थापित हैं, शास्त्रीय स्थिति होती है, वो क्या करेंगे प्रतीकों का? उनके सामने तो वही खुला हुआ है लगातार प्रतीक जिसकी ओर इशारा करते हैं।

समझ में आ रही है बात?

कोई देख ही रहा हो चाँद की ओर, तुम उसको चाँदनी के गाने सुनाकर क्या करोगे? चाँदनी के गाने सुनाने की ज़रूरत तो उसकी पड़ती है न जो दीवारों में क़ैद होकर चाँद को भुला बैठा हो? तो फिर उसको चाँदनी के गीत सुनाए जाते हैं कि क्या पता इन्हीं गीतों से इसको कुछ सुमिरन, कुछ सुरति आ जाए और यह अपनी दीवारों से बाहर निकल करके चाँद का दर्शन करे। जो सीधे-सीधे चाँद का ही दर्शन कर रहा है, जो सत्य का ही दीदार कर रहा है, तुम उसे प्रतीक देकर क्या कर लोगे? लेकिन बाकियों को प्रतीक की ज़रूरत होती है।

हम ऐसी नकली ज़िंदगियाँ जीते हैं, हम ऐसी माया में लगातार फँसे रहते हैं कि हमें ज़रूरत होती है कि बीच-बीच में कोई आ करके हमको ज़रा झंझोर दे, कोई जगा दे। राम को तो हम भूले रहते हैं तो दिवाली आती है कि राम याद आ जाएँ। अब ये अलग बात है कि हमने दिवाली को भी बाज़ारवाद की भेंट चढ़ा दिया।

ठीक है?

सत्य से बड़ा, विष्णु से बड़ा बाप भी नहीं होता, यह बात याद दिलाने के लिए होली है, कि बाप हो कि बुआ हो, सच्चाई सबसे बड़ी होती है। यह बात याद दिलाने के लिए होली है। पर हमने होली को भी अपने क्षुद्र सम्बन्धों के ही भेंट चढ़ा दिया।

वैसे ही राखी जो याद दिलाने के लिए है, उसकी याद हम कभी करते नहीं। राखी बस यही बन गई है कि आओ धागा बाँधो, मिठाई खिलाओ और बोलो, ‘भैया, हमें क्या गिफ्ट दोगे?’ और हो गया, निपट गया। ये धर्म के साथ मज़ाक है।

तो बाँधें राखी, ज़रूर बाँधें, लेकिन सही समझ, पूरे बोध और ऊँची भावना के साथ बाँधें। ठीक है? तब जाकर के ये उत्सव सार्थक होगा।

प्र१: आचार्य जी, आपने एक बात कही थी कि जो वेद हैं, उनके जो सूक्ष्म अर्थ होते हैं, क्योंकि वो जनमानस को समझ में नहीं आते, इसी वजह से पुराणों की रचना की गई, कि पुराणों में कहानियाँ हैं तो आप कहानियों के माध्यम से उन चीज़ों को समझो। पर उनके भी अर्थ जो हैं, वो बिगड़ चुके हैं।

आचार्य: देखो, सब पौराणिक कहानियाँ अर्थवान नहीं हैं। मैं यह बिलकुल डंके की चोट पर कह रहा हूँ कि पुराणों में बहुत सारी सामग्री ऐसी है जो बिलकुल अर्थहीन है। लेकिन साथ-ही-साथ पुराणों में बहुत सारी कहानियाँ, बहुत सारे प्रतीक ऐसे भी हैं जो आज भी बहुमूल्य अर्थ रखते हैं, यदि हम उनका अर्थ समझ पाएँ तो।

और उनका अर्थ समझने का तरीका बस एक है – वेदान्त। जिसने उपनिषदों को नहीं समझा, वो पुराणों की कहानियों का भी वास्तविक अर्थ नहीं समझ पाएगा।

प्र१: तो फिर इसमें बात जैसे वही आ जाती है कि आपको समझनी तो वो सूक्ष्म चीज़ ही पड़ेगी, उसके बाद ही कुछ भी चीज़ का सही अर्थ आप कर पाओगे। पर जो जनमानस है जहाँ पर वो ऑपरेट (संचालित) करते हैं, या हम ऑपरेट करते हैं, वो सूक्ष्म बात नहीं... आप या तो उतनी साधना करो, उतना आप अपना जीवन उसमें लगाओ और वो जनरली लोग नहीं लगाते हैं। तो फिर वो बात उन तक कैसे पहुँचे?

आचार्य: ये जो कह रही हैं वो बड़ी रोचक बात है। ये कह रही हैं कि ‘पौराणिक कहानियाँ इसलिए हैं ताकि आप सूक्ष्म बात समझ पाओ। लेकिन आचार्य जी, आप कह रहे हो कि पहले सूक्ष्म बात समझो, फिर पुराण समझ में आएँगे। अगर सूक्ष्म बात पहले ही समझ ली तो फिर पुराणों की ज़रूरत क्या है? और अगर पुराणों की ज़रूरत है तो इसका मतलब सूक्ष्म बात जानते नहीं तो फिर पुराणों का सही अर्थ कैसे करोगे?’

उसके लिए फिर आपको चाहिए होते हैं समाज सुधारक और संत। जो सरल भाषा में गाँव-गाँव आपको सही राह पर रखें, उन कहानियों का वास्तविक अर्थ वो ग्रामीण जीवन में संचारित करते रहें।

भारत में साधु हुआ करते थे। गाँव-गाँव साधु होते थे। वो इधर-उधर भटकते रहते थे, गाते रहते थे। वो अब कहीं दिखाई नहीं देते। उनकी जगह ले ली है बड़े-बड़े मल्टीनेशनल (बहुराष्ट्रीय) बाबाओं ने। जो आम साधु होता था, वो कहीं दिखता है आपके मोहल्लों में, कहीं पर नज़र आता है? आकर कभी कहता है दरवाज़ा खटखटा कर के, कोई भिक्षु आया, कभी आया है - भिक्षाम् देहि?

अब तो नहीं न, अब तो आपकी गेटेड कम्युनिटीज़ (बंद समुदाय) होती हैं, वहाँ तो बेचारा घुसने भी नहीं पाएगा, गार्ड वहीं बाहर से उसको भगा देगा। शहरों में तो आपने देखा भी नहीं होगा कोई भगवा पहने साधु चल रहा हो।

तो अब आपको कौन बताएगा कि आप फिसल रहे हो? कौन बताएगा?

तो साधु चाहिए होता था। और फिर साधु से भी आगे चल करके कोई संत चाहिए होता था जो साधुओं को भी बुला करके कहे ‘सुनो भाई साधो’। अब साधु ही नहीं है, संत का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

तो पहले समझ लो, यह एक तीन-तलीय व्यवस्था होती थी कि सबसे नीचे आम जनता है, उसके ऊपर कौन है? ये सब साधु लोग हैं या कि जो ग्रामीण बुज़ुर्ग वगैरह हैं। इस तरह के लोग हैं और फिर उनके ऊपर होता था संत, जो साधुओं को भी धर्म में दृढ़ता से स्थापित करे रहता था।

वो सब मिट गया, तो अब हुआ क्या है? हुआ ये है कि अब धर्म सीधे-सीधे आम आदमी के हाथ में आ गया है। और आम आदमी क्या है? लालच, कामना, डर, वासना, भ्रम, वृत्तियों का पूरा पुतला। उसी के हाथ में धर्म आ गया है और आम आदमी ने धर्म को बिलकुल भ्रष्ट, एकदम विकृत करके छोड़ दिया है। और आम आदमी को सुधारने वाला आज कोई है नहीं। आम आदमी को सुधारने की ज़िम्मेदारी जिनके कंधों पर रही हमेशा से, आज वह स्वयं सबसे ज़्यादा भ्रष्ट हैं। आज तो आप अगर किसी को बोल दो कि फ़लाना आदमी है धार्मिक, तो आप कहोगे कि इससे बचकर रहना, गुंडा होगा, लफंगा होगा।

प्र१: आपके एक वीडियो में अपने साझा किया था कि लोग आपको पहले कहते थे कि नाम के आगे आचार्य लगाते हैं तो इस कारण लोग सुनते नहीं हैं।

आचार्य: मुझे भी बड़ी समस्या आती है कि, ‘इनके नाम के आगे आचार्य लगाया तो ज़रूर ये बड़े गड़बड़ आदमी होंगे।‘ ये हालत हो गई है आज धर्म की। तो कौन सुधारेगा आम आदमी को? फिर वो अपने ही हिसाब से परम्पराएँ चला रहा है, जिस चीज़ को चाहता है, मोड़ रहा है, तोड़ रहा है, बिगाड़ रहा है। कोई उसको रोकने-टोकने वाला नहीं, कोई समझाने वाला नहीं।

अब राखी है, राखी का सही अर्थ लोगों के सामने आ सके उसके लिए आप यहाँ आयीं, ये बातचीत करी। ये पहल कर रहे हैं हम और प्रार्थना करते हैं कि इस पहल का कुछ असर हो।

प्र१: इन्फॉर्मेशन की एज में सही इन्फॉर्मेशन , सही ज्ञान लोगों तक पहुँचाना ये कितना ज़्यादा ज़रूरी है।

आचार्य: बहुत ज़्यादा मुश्किल हो गया है, ज़रूरी तो है, पर बहुत मुश्किल है। क्योंकि पहले तो समस्या बस ये थी कि – एक आदमी के पास ज्ञान नहीं है, उस तक ज्ञान कैसे पहुँचाया जाए? पहले ये होता था प्रॉब्लम स्टेटमेंट (समस्या का विवरण)। उसके पास ज्ञान नहीं है, उसे ज्ञान कैसे पहुँचाया जाए।

तो ज्ञान पहुँचाने के बहुत ज़रिए होते थे। अभी हमने कहा कि साधु लोग गाँव-गाँव घूमते रहते थे, जोगी होते थे, बैरागी होते थे, वो इधर-उधर अपना भटक रहे हैं, कोई गा रहा है, कोई बजा रहा है, कोई मौन है, कोई कहानियाँ सुना रहा है, कोई कुछ कर रहा है। तो उनके माध्यम से किसी तरीके से... संचार के साधन नहीं थे, कम्यूनिकेशन वगैरह बड़ा जटिल था, मुश्किल था, लेकिन फिर भी ज्ञान लोगों तक किसी तरह पहुँचाया जाता था।

आज उससे भी ज़्यादा मुश्किल है ज्ञान लोगों तक पहुँचाना, क्योंकि लोगों के पास ग़लत तरह की सूचना के इतने साधन हैं कि उनका दिमाग पूरी तरह भर चुका है। उसमें ज्ञान के लिए कोई जगह नहीं बच रही है।

पहले तो बस ये था कि दिमाग खाली है, उसमें किसी तरह से ज्ञान पहुँचा दो। पहले पहुँचाने की समस्या थी कि 'पहुँचाएँ कैसे?' अब समस्या यह है कि पहुँच तो रहा है अगर, पर वहाँ पाओ कि पहले ही जगह भरी हुई है।

अभी हमने बात करी थी न कि तीन चीज़ें हैं जो आदमी के दिमाग को भरकर रखती हैं। घर में अगर टीवी है, तो उसमें चल रहा होता है ऐंकरों का आर्तनाद। टीवी ऐंकर्स का या कि ये जो सीरियल्स आते हैं, ये देख रहे होते हैं लोग। या विज्ञापन देख रहे होते हैं। या फिर यूट्यूब-इंस्टाग्राम खोल रखा होता है, तो उस पर ये सब जो घटिया किस्म की नालायकी चल रही होती है, इन्फ्लूएन्सर्स वगैरह, ये सब लगे पड़े होते हैं। या क्या चल रहा होता है, इनके अलावा कहाँ-कहाँ से आदमी अपने दिमाग में भर रहा है मसाला आज के समय में? टीवी हो गया, सोशल मीडिया हो गया। हाँ, जनरल सोशल मीडिया।

प्र१: शॉर्ट्स, रील्स।

आचार्य: हाँ, शॉर्ट्स, रील्स, या कि अपने वॉट्सऐप पर ही अपना ग्रुप बना रखा है, फैमिली ग्रुप, और आप उस पर तमाम तरह की बेहुदी बातें कर रहे हो, निरर्थक बातें जिनसे कुछ होना नहीं है और वो बातें अपनी चल रही हैं, चल रही हैं। उधर के कोई चाचा जी हैं, वो कहीं से कुछ डाल रहे हैं, कोई लिख रहा है गुड मॉर्निंग एवरीबडी (सबको सुप्रभात), यही सब चल रहा है।

तो इन सब चीज़ों से आम आदमी का मन बिलकुल अभी भरा हुआ है, सैचुरेटीड है। तो उस तक ज्ञान कैसे पहुँचाएँ? आज ज़्यादा मुश्किल है पाँच-सौ साल पहले की अपेक्षा। पाँच-सौ साल पहले तो फिर भी आसान था, आज और ज़्यादा मुश्किल है एक आम आदमी के मन तक ज्ञान पहुँचाना।

ये जो इन्फॉर्मेशन रेवोल्यूशन (सूचना की क्रांति) है, एक तरीके से इसने हमारा बड़ा अहित किया है। इसने इन्फॉर्मेशन की सारी गंदगी पहुँचा दी है हम तक। गंदगी ही ज़्यादा पहुँची है, क्योंकि गंदगी ही ज़्यादा तेज़ी से फैलती है।

प्र१: तो जो पूरा संस्था का प्रयास है जो बार-बार ये बात कही जाती है कि ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों तक ये बात पहुँचानी है, तो उसका आधार बेसिकली ये आज का युग है? इसी वजह से वो आज का धर्म है?

आचार्य: हाँ, और क्या? हम किसी और युग में यह काम कर रहे होते तो हमें इतनी तकलीफ़, इतनी मुश्किल ना होती। शायद हमें ज़रूरत भी नहीं होती कि हम इतना लग करके और इतना खून-खच्चर करके ये मिशन चलाएँ। लेकिन आज का समय ऐसा है कि हमारा काम दुनिया का सबसे कठिन काम है। इसलिए मैं बार-बार कहा करता हूँ कि जो काम हम कर रहे हैं वह इस समय दुनिया का सबसे ज़रूरी काम है। सबसे ज़रूरी क्योंकि सबसे कठिन।

खैर, अभी कठिनाई वगैरह की बातें बाद में। रक्षाबंधन का समय है, आप लोग तैयारियाँ करिए और आप लोगों ने यह पहल की है, आए, और आप ही लोगों का यह आइडिया था कि इस तरह की बात होनी चाहिए, उसके लिए धन्यवाद। और यह बातचीत अब पहुँचेगी लाखों लोगों तक और मैं आशा करता हूँ कि आप का प्रयास रंग लाए।

अब रुका जाए?

कुछ कहना है आपको? कहिए, कहिए।

प्र३: आचार्य जी, जो बात भी करते हैं और जितना प्रयास संस्था रोज़ ही कर रही है, रोज़ ही लाखों लोगों तक कंटेंट पहुँचाने की कोशिश की जा रही है। तो हमारे लिए अभी के लिए धर्म तो यही है कि ये वाला वीडियो सब तक रक्षाबंधन से पहले पहुँच जाए ताकि लोग इसी तरीके से रक्षाबंधन को मनाएँ।

आचार्य: वो बड़ा मुश्किल है। इस तरह की बात लोग अपने फैमिली ग्रुप वगैरह पर शेयर ही नहीं करते। मेरे विडिओ लोग अपने वॉट्सऐप ग्रुप में डाल देते हैं तो उनको उनके फैमिली ग्रुप से निकाल दिया जाता है। कई बार होता है, पत्नी ऐडमिन थी, उसने पति को ग्रुप से निकाल दिया, फैमिली ग्रुप से निकाल दिया क्योंकि उसने आचार्य प्रशांत का वीडियो डाल दिया था ग्रुप पर।

लेकिन जो कह रही हो, वो बात अपने-आप में पूर्णतया सत्य है। यह बात राखी तक लाखों-करोड़ों लोगों तक पहुँच जाए, बहुत ज़रूरी है और जो लोग इस बात को सुन रहे हों, इस वीडियो को देख रहे हों, उनका धर्म यही है – हम कह रहे थे न, धर्म को ही बचाना रक्षाबंधन, उनका धर्म यही है – इस बात को पहुँचाओ सब तक, आगे बढ़ाओ। तुम्हारे ही भर जानने के लिए नहीं है ये बात। तुम्हारे अकेले भर के जानने से बात बनेगी भी नहीं जब तक यह बात सब तक नहीं पहुँचती।

प्र३: वही हमारा भी धर्म है और जब हम ब्रॉडकास्ट कर रहे हैं इस चीज़ को या यूट्यूब पर...

आचार्य: बिलकुल। जिन तक पहुँच रहा है उन तक इसलिए नहीं पहुँच रहा है कि तुम तक बात आ गई, देख लिया। तुम तक इसलिए आ रही है, तुम उसे आगे ब्रॉडकास्ट करो।

प्र२: रक्षाबंधन का एडवांस (अग्रिम) गिफ्ट

आचार्य: एडवांस गिफ्ट ? मैं गिफ्ट वगैरह... मेरा गिफ्ट तो एक ही है, मैं जो गिफ्ट दे सकता हूँ वह ज्ञान है। मेरे पास और कोई गिफ्ट नहीं होता। वो गिफ्ट मैंने तुम्हें दे दिया, अब तुम लोगों का धर्म है कि उसे और आगे बाँटो अब गिफ्ट को। जो मुझसे मिल रहा है, उसको आगे-आगे-आगे और पहुँचाओ, और मुझे बस यही उपहार दे सकते हो और मैं भी तुम्हें एक ही उपहार दे सकता हूँ जो दे रहा हूँ। ठीक है?

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=esWJfMQL4g4

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